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चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift)

चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) कुहन के विचार से सामान्य विज्ञान के विकास में असंगतियों के अवसादन तथा संचयन (Accumulation) में संकट की स्थिति उत्पन्न होती है, जो अन्ततः क्रान्ति के रूप में प्रकट होती है। यह क्रान्ति नए चिन्तनफलक को जन्म देती है। जब नवीन चिन्तनफलक अस्तित्व में आता है वह पुराने चिन्तनफलक को हटाकर उसका स्थान ले लेता है। चिन्तनफलक के परिवर्तन की इस प्रक्रिया को 'चिन्तनफलक प्रघात' (Paradigm Shock) या 'चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) के नाम से जाना जाता है। ध्यातव्य है कि इस प्रक्रिया में पुराने चिन्तनफलक को पूर्णरूप से अस्वीकार या परिव्यक्त नहीं किया जा सकता, जिसके कारण कोई चिन्तनफलक पूर्णरूप से विनष्ट नहीं होता है। इस गत्यात्मक संकल्पना के अनुसार चिन्तनफलक जीवन्त होता है चाहे इसकी प्रकृति विकासात्मक रूप से अथवा चक्रीय रूप से हो। जब प्रचलित चिन्तनफलक विचार परिवर्तन या नवीन सिद्धान्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता है, तब सर्वसम्मति से नए चिन्तनफलक का प्रादुर्भाव होता है। अध्ययन क्षेत्र के उपागम में होने वाले इस परिवर्तन को चिन्तनफलक स्थानान्त

प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण

                                  प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण 
                       (Prismatic Compass Surveying)

परिचय 
(Introduction)
धरातल पर किन्हीं दो बिन्दुओं को मिलाने वाली सरल रेखा के चुम्बकीय दिशा कोण या दिकमान (magnetic bearing) तथा लम्बाई को मापनी के अनुसार अंकित करके प्लान में उन बिन्दुओं की एक-दूसरे के सन्दर्भ में स्थितियाँ निश्चित करना प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण का मूल आधार है। इस सर्वेक्षण में दो बिन्दुओं के मध्य की दूरी को ज़रीब अथवा फीते से मापते हैं तथा उन बिन्दुओं को मिलाने वाली सरल रेखा के चुम्बकीय दिक्मान को प्रिज्मीय कम्पास की सहायता से ज्ञात करते हैं। किसी सरल रेखा के चुम्बकीय दिक्मान से हमारा तात्पर्य चुम्बकीय उत्तर (magnetic north) से उस रेखा तक घड़ी की सुई की दिशा में मापे गये कोण से है। प्रिज्मीय कम्पास के द्वारा किसी क्षेत्र का सर्वेक्षण करने के लिये प्रायः चंक्रमण या माला रेखा विधि (traverse method) का प्रयोग करते हैं तथा माला रेखा के इधर-उधर स्थित क्षेत्र के अन्य विवरणों को विकिरण या प्रतिच्छेदन विधि के अनुसार प्लान में अंकित करते हैं। इस प्रकार प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण में ज़रीब एवं फीता सर्वेक्षण की तरह क्षेत्र में मापी गई प्रत्येक रेखा की लम्बाई व दिकमान को यथास्थान सही-सही क्षेत्र-पुस्तिका (field-book) में लिखना अनिवार्य होता है। 
किसी क्षेत्र का कच्चा रेखाचित्र बनाने अथवा किसी प्लान में क्षेत्र के अन्य विवरणों को अंकित करने के लिये अथवा सडक नहर या रेलमार्ग आदि बनाने के लिये किये जाने वाले प्रारम्भिक सर्वेक्षणों के लिये प्रिज्मीय कम्पास एक महत्वपूर्ण उपकरण है। इसके अतिरिक्त सघन बस्तियों एवं वन क्षेत्रों में, जहाँ दृष्टि रेखा के मार्ग में बाधाओं की संख्या अधिक होती है, प्रिज्मीय कम्पास के द्वारा सर्वेक्षण करना सरल रहता है। परन्तु प्रिज्मीय कम्पास के द्वारा चुम्बकीय अथवा लौह-अयस्क (iron ore) से युक्त शैल वाले क्षेत्रों के विश्वसनीय एवं शुद्ध प्लान नहीं बनाये जा सकते हैं क्योंकि इस प्रकार के क्षेत्रों में चुंबकीय आकर्षण के फलस्वरूप शुद्ध दिक्मान ज्ञात करना कठिन होता है।

प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण के उपकरण 
(Instruments Required for Prismatic Compass Surveying)
प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण में निम्नलिखित उपकरणों की आवश्यकता होती है :
(1) प्रिज्मीय कम्पास तथा त्रिपाद-स्टैण्ड, 
(2) ज़रीब अथवा फीता, 
(3) ज़रीब के तीर, 
(4) साहुल एवं कोटा, 
(5) स्पिरिट लेविल, 
(6) सर्वेक्षण दण्ड, 
(7) कागज़ तथा ड्राइंग उपकरण । 
प्रिज्मीय कम्पास को छोड़कर उपरोक्त सभी उपकरणों को पिछले दो अध्यायों में विस्तारपूर्वक समझाया जा चुका है अतः उन्हें यहाँ पुनः लिखने की आवश्यकता नहीं है।
[।]प्रिज्मीय कम्पास
(Prismatic compass)
प्रिज्मीय कम्पास, जिसे उसके त्रिपाद-स्टैण्ड पर लगाकर प्रयोग करते हैं, इस सर्वेक्षण का सबसे अधिक महत्वपूर्ण उपकरण है। चूँकि दिकमान पढ़ने के लिये इस कम्पास में एक प्रिज़्म लगा होता है अत: इसे प्रिज्मीय कम्पास की संज्ञा दी गई है। बनावट के विचार से प्रिज्मीय कम्पास के तीन मुख्य भाग होते हैं (i) कम्पास बक्स (compass box); (ii) प्रिज़्म (prism) तथा (im) दृश्य वेधिका (object vane)। चित्र 19.1 में प्रिज्मीय कम्पास के विभिन्न अंग दिखलाये गये हैं जो निम्न हैं : 
(1) कम्पास बक्स (compass box), 
(2) काँच का ढक्कन (glass cover),
(3) धुराग्र पिन (pivot pin), 
(4) चुम्बकीय सुई (magnetic needle), 
(5) अंशांकित वलय (graduated ring), 
(6) उत्थापक पिन (lifting pin), 
(7) उत्थापक उत्तोलक (lifting lever), 
(8) ब्रेक पिन या नॉब (brake pin or knob), 
(9) स्प्रिंग ब्रेक (spring brake), 
(10) प्रिज्म (prism), 
(11) दर्श फलक (sight vane), 
(12) अवलोकन-छिद्र (eye-hole), 
(13) रंगीन धूप-कांच का युगल (pair of coloured sun-glasses),
(14) प्रिज्म फोकसन पेंच (prism focussing stud), 
(15) कब्जा (hinge), 
(16) प्रिज्म का ढक्कन (prism cap), 
(17) दृश्य वेधिका (object vane), 
(18) केश रेखा (hair line or horse hair), 
(19) सरकवाँ या समंजनीय दर्पण (sliding or adjustable mirror)|

कम्पास बक्स ऐलुमिनियम या पीतल की गोल डिविया के समान होता है तथा इस पर पारदर्शी सादे काँच का एक स्थायी ढक्कन लगा रहता है। इस डिबिया का व्यास प्रायः 6 से 15 सेमी तक होता है । कम्पास बक्स के केन्द्र में कठोर इस्पात से निर्मित धुम्र पिन की नोंक पर चुम्बकीय सुई तथा उससे जुड़ा अंशांकित वलय संतुलन अवस्था में टिका होता है। इस वलय के व्यास की लम्बाई के आधार पर किसी कम्पास के आकार को पुकारते हैं जैसे, 10 सेमी कम्पास', '15 सेमी कम्पास', आदि कम्पास को सुई तथा वलय को ऐलुमिनियम की पतली चादर में काटकर बनाया जाता है । सुई के एक सिरे पर अंग्रेज़ी भाषा का N अक्षर अंकित होता है। इस सिरे से चुम्बकीय उत्तर दिशा का बोध होता है सुई का दूसरा सिरा दक्षिण दिशा को इंगित करता है। अंशांकित वलय पर सुई के दक्षिणी सिरे (शून्य अंश) से घड़ी की सुई की दिशा में अंशों तथा आधे अंशों के चिह्न अंकित होते है । इस प्रकार वलय पर अंकित 0°, 90°, 180° तथा 270° के चिह्न क्रमशः दक्षिण, पश्चिम, उत्तर तथा पूर्व दिशाओं को प्रकट करते हैं। जैसा कि इस चित्र से प्रकट है वलय पर अंकित किसी चिह्न के अंशों में मान को उल्टे अंकों में लिखा जाता है जिससे प्रिज्म में उसे सीधा पढा जा सके। किसी स्टेशन पर दिक्मान पढ़ने से पूर्व ब्रेक पिन या नॉब को दबाकर वलय के दोलन (oscillation) की गति को कम कर देते हैं जिसके फलस्वरूप वलय अपेक्षाकृत शीघ्र स्थिर हो जाता है नॉब को दबाने से कम्पास बक्स के भीतर लगा स्प्रिंग ब्रेक वलय से सटकर उसे स्थिर कर देता है वलय के दोलन को कम करने के लिये नॉब को पूरा दबाने के पश्चात् धीरे से ढीला छोड़ना चाहिए। प्रिज्मीय कम्पास को बन्द करने के लिये अथवा उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय दृश्य वेधिका को मोड़कर काँच के ढक्कन पर क्षैतिज बिछा देते हैं। ऐसा करने पर उत्थापक पिन दब जाता है। उत्थापक पिन का सम्बन्ध उत्थापक उत्तोलक के द्वारा धुराग्र पिन से होता है। अतः उत्थापक पिन के दबने पर चुम्बकीय सुई धुराग्र पिन की नोंक से ऊपर उठकर काँच के ढक्कन की आन्तरिक सतह से सट जाती है और इस प्रकार धुराग्र पिन की नोक अनावश्यक रूप से खराब नहीं हो पाती।
कम्पास बक्स के बाहर एक ओर प्रिज्म होता है तथा प्रिज़्म से कम्पास बक्स के व्यस्त विपरीत ओर दृश्य वेधिका लगी होती है। क्षेत्र के किसी विवरण को दृश्य वेधिका की केश रेखा की सीध में लक्ष्य करने के लिये प्रिज्म के ऊपरी भाग में एक झिरी (slit) कटी होती है, जिसे दर्श फलक कहते हैं। दर्श फलक के निचले सिरे पर अवलोकन-छिद्र होता है जिस पर आँख रखकर केश रेखा की सीध में किसी विवरण का अंशांकित वलय पर दिक्मान पढ़ा जाता है। प्रिज्म की निचली सतह पर एक छिद्र होता है जिसमें लगा लेंस वलय पर अंकित चिह्नों व अंकों को बड़े आकार में प्रिज्म की कर्णी (hypotenusal) सतह के दर्पण पर परावर्तन कर देता है अत: उन्हें सफलतापूर्वक पढ़ा जा सकता है। प्रयोग न करते समय इस छिद्र पर प्रिज़्म का ढक्कन लगा देते हैं जिससे लेन्स पर धूल आदि न जमा हो सके। (प्रिज्म को सर्वेक्षक की आँख की रोशनी के अनरूप फोकस करने के लिये उसमें एक प्रिज्म-फोकस पेंच लगा होता है। इस पेंच के द्वारा प्रिज़्म को आवश्यकतानुसार ऊँचा या नीचा स्थापित किया जा सकता है । दर्श फलक के सामने दो रंगीन धूप काँच होते हैं। सूर्य अथवा किसी चमकदार विवरण को लक्ष्य करते समय दर्श फलक के आगे आवश्यकतानुसार रंग का धूप कांच लगा दिया जाता है। कम्पास के समीप कभी-कभी कोई विवरण इतनी ऊँचाई या नीचाई पर स्थित होता है कि उसे सीधा लक्ष्य नहीं किया जा सकता। ऐसी दशा में विवरणों के प्रतिबिम्बों को सरकवाँ या समंजनीय दर्पण में देखते हुए सीध मिलाते हैं। ऊँचे विवरणों को देखने के लिये दर्पण को दृश्य वेधिका पर सीधा तथा नीचे विवरणों के लिये उल्टा लगाया जाता है।

[।।] प्रिज्मीय कम्पास का त्रिपाद-स्टैण्ड 
(Tripod stand of prismatic compass) 
जैसा कि ऊपर बतलाया गया है प्रिज्मीय कम्पास को उसके त्रिपाद-स्टैण्ड पर कसकर प्रयोग करते हैं। त्रिपाद-स्टैण्ड की टॉगें सागौन की लकड़ी की बनी होती हैं तथा इनके ऊपरी सिरे पेंचों के द्वारा त्रिपाद-शीर्ष से जुड़े होते हैं। प्रिज्मीय कम्पास को त्रिपाद-स्टैण्ड पर लगाने के लिये त्रिपाद-शीर्ष के ऊपर की ओर स्थित घूमने वाले घिरारी दार खोल की छड़ को कम्पास बक्स के नीचे बने चूड़ीदार छिद्र में कस देते हैं। छड़ को कसते समय कम्पास को बायें हाथ से पकड़कर स्थिर रखते दायें से खोल के घिरारीदार पेंच को घुमाना चाहिए। समूची कम्पास को घुमाकर कसने में कम्पास के हाथ से छूटकर गिर जाने का भय रहता है। त्रिपाद-शीर्ष में कन्दुक-खल्लिका संधि (ball and socket joint) होने के फलस्वरूप त्रिपाद-स्टैण्ड की टाँगों को बिना हिलाये कम्पास को समतल स्थापित किया जा सकता है।


दिकमान या दिशाकोण 
(Bearing)
प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण में दिक्मानों का विशेष स्थान है क्योंकि इन्हीं के आधार पर किसी क्षेत्र के विवरणों को प्लान में अंकित किया जाता है। अत: सर्वेक्षण की प्रक्रिया पढ़ने से पूर्व दिकमान का अर्थ एवं उसके भेदों को भली-भाँति समझ लेना आवश्यक है।

[I] दिकमान का अर्थ
(Meaning of bearing) 
किसी दी गई निर्देश दिशा (reference direction) अथवा याम्योत्तर (meridian) से किसी रेखा तक का क्षैतिज कोण उस रेखा का दिकुमान या दिशा कोण कहलाता है। इस प्रकार किसी रेखा, स्थान अथवा बिन्दु के दिक्मान से उस रेखा, स्थान या बिन्दु की दी गई याम्योत्तर से दिशा का बोध होता है। सरल शब्दों में, निर्देश दिशा के सन्दर्भ में किसी रेखा की दिशा को उस रेखा का दिक्मान या दिशा कोण कहते हैं।

[II] दिक्मान के भेद 
(Kinds of bearing) 
दिक्मानों को निम्नलिखित चार आधारों के अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है :
1. निर्देश दिशा के अनुसार दिक्मान के भेद (Kinds of bearing according to reference direction)-सर्वेक्षण में प्रयोग की जाने वाली निर्देश दिशाएँ तीन प्रकार की होती है- (i) यथार्थ याम्योत्तर (true meridian) अर्थात् भौगोलिक उत्तर-दक्षिण रेखा, (ii) चुम्बकीय याम्योत्तर (magnetic meridian) अर्थात चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण रेखा तथा (i) स्वेच्छ या कल्पित याम्योत्तर (arbitrary or assumed meridian) | इस दृष्टि से दिकमानों के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं :
(a) यथार्थ दिक्मान या दिगंश (True bearing or azimuth)-भौगोलिक उत्तर-दक्षिण रेखा अर्थात् यथार्थ याम्योत्तर से किसी दी गई रेखा तक मापा गया क्षैतिज कोण उस रेखा का यथार्थ दिकमान कहलायेगा। स्मरण रहे, भू-पृष्ठ तथा भू-अक्ष (earth's axis) के प्रतिच्छेदन बिन्दुओं को उत्तरी भौगोलिक ध्रुव तथा दक्षिणी भौगोलिक ध्रुव कहते हैं तथा धरातल के किसी बिन्दु से गुजरने वाली यथार्थ याम्योत्तर वह रेखा होती है जिसमें दिये हुए बिन्दु एवं दोनों भौगोलिक ध्रुवों से होकर जाने वाला तल (plane) भू-पृष्ठ का प्रतिच्छेदन करता है। किसी स्टेशन पर यथार्थ याम्योत्तर की दिशा सदैव अचर या अपरिवर्ती (constant) होती है। यद्यपि ग्लोब पर समस्त याम्योत्तर ध्रुवों पर मिल जाती हैं तथापि छोटे-छोटे सामान्य सर्वेक्षणों में इन रेखाओं को एक-दूसरे के समान्तर मान लिया जाता है। यथार्थ दिक्मान को दिगंश भी कहते हैं।
(b) चुम्बकीय दिकमान (Magnetic bearing) स्थानीय आकर्षण से मुक्त एवं भली प्रकार सन्तुलित व स्वतंत्र रूप में लटकी हुई चुम्बकीय सुई की दिशा को चुम्बकीय याम्योत्तर या चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण रेखा कहते हैं। अतः सर्वेक्षण एवं क्षेत्र के किसी बिन्दु को मिलाने वाली सरल रेखा का चुम्बकीय याम्योत्तर से घड़ी की सुई की दिशा में मापा गया क्षैतिज कोण उस बिन्दु का चुम्बकीय दिक्मान कहलाता है। चुम्बकीय ध्रुवों की स्थिति भौगोलिक ध्रुवों से कुछ दूर होती है। इसके फलस्वरूप प्रायः यथार्थ तथा चुम्बकीय याम्योत्तर की दिशा अचर नहीं होती अपितु उसमें परिवर्तन होते रहते हैं।
(c) स्वेच्छ या कल्पित दिक्मान (Arbitrary or assumed bearing)-क्षेत्र में स्वेच्छानुसार छाँटी गई निर्देश दिशा या याम्योत्तर से किसी रेखा तक मापे गये क्षैतिज कोण को उस रेखा का स्वेच्छ या कल्पित दिकमान कहते हैं। छोटे-छोटे सर्वेक्षणों के लिये कभी-कभी सर्वेक्षक एवं क्षेत्र के किसी स्थायी बिन्दु को मिलाने वाली रेखा अथवा सर्वेक्षण की प्रारम्भिक रेखा की दिशा को निर्देश रेखा मानकर शेष विवरणों के कल्पित दिकमान ज्ञात कर लेते हैं।
2. अंकन पद्धति के अनुसार दिक्मान के भेद (Kinds of bearing according to notation system)-ftt रेखा के दिक्मान को व्यक्त करने की दो पद्धतियाँ होती हैं- (i) पूर्ण-वृत्त पद्धति (whole circle system) तथा (ii) वृत्तपादीय या चतुर्थांश पद्धति (quadrantal system)। प्रथम पद्धति के अनुसार व्यक्त दिक्मान को पूर्ण-वृत्त दिक्मान कहते हैं तथा द्वितीय पद्धति के अनुसार व्यक्त किया गया दिक्मान वृत्तपादीय दिक्मान कहलाता है।
(a) पूर्ण-वृत्त दिक्मान (Whole circle bearing or W.C. B.)-दी गई यथार्थ, चुम्बकीय अथवा कल्पित निर्देश याम्योत्तर के उत्तरी बिन्दु से किसी रेखा तक घड़ी की सुई की दिशा में मापे गये कोण को पूर्ण-वृत्त दिक्मान (W.C.B.) कहते हैं । पूर्ण-वृत्त दिक्मान का मान 0° तथा 360° के मध्य कोई भी मूल्य हो सकता है। चूंकि यह दिक्मान पूर्णतया कोण के द्वारा व्यक्त किया जाता है अतः इसमें उ० , द० , पू० तथा प० आदि प्रधान दिग्बन्दु (cardinal points) या दिशा सूचक अक्षर लिखने की आवश्यकता नहीं होती। उदाहरणार्थ, मान लीजिये NS कोई निर्देश याम्योत्तर है जिसमें N उत्तर दिशा को प्रकट करता है । अब चूँकि A, B, C तथा D बिन्दु NS याम्योत्तर के उत्तरी सिरे से घड़ी की सुई की दिशा में क्रमशः 60°, 130°, 240° व 290° के कोण बनाते हैं अत: ये मान इन बिन्दुओं के पूर्ण-वृत्त दिक्मान कहलायेंगे। स्मरण रहे, प्रिज्मीय कम्पास के द्वारा क्षेत्र के किसी स्टेशन या विवरण का पूर्ण-वृत्त दिक्मान पढ़ा जाता है।
(b) वृत्तपादीय दिक्मान (Quadrantal bearing) किसी रेखा के वृत्तपादीय दिक्मान को दी गई निर्देश याम्योत्तर के निकटस्थ उत्तरी अथवा दक्षिणी सिरे से परिस्थितिनुसार घड़ी की सुई की दिशा में (clockwise) अथवा घड़ी की सुई की विपरीत दिशा में (counter clockwise) पूर्व अथवा पश्चिम की ओर को अंशों में मापते हैं। चूँकि किसी रेखा का वृत्तपादीय दिक्मान अधिक से अधिक 90° हो सकता है अत: प्रत्येक वृत्तपादीय दिक्मान पर यह संकेत करना परम आवश्यक है कि उस दिक्मान को निर्देश याम्योत्तर के कौन से सिरे (उत्तर अथवा दक्षिण) से किस दिशा (पूर्व अथवा पश्चिम) की ओर को मापा गया है।
वृत्तपादीय पद्धति में एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई दो सरल रेखाएं खींचकर किसी वृत्त को चार समान वृत्त पदों (quadrants) में विभाजित कर देते हैं। इन रेखाओं में एक के द्वारा उत्तर-दक्षिण रेखा तथा दूसरी के द्वारा पूर्व-पश्चिम रेखा को प्रकट करते हैं (चित्र 19.4) । इस प्रकार उत्तर-दक्षिण रेखा के उत्तरी सिरे से घड़ी की सुई की दिशा में स्थित प्रथम वृत्तपाद को उत्तर-पूर्व, द्वितीय वृत्तपाद को दक्षिण-पूर्व, तृतीय वृत्तपाद को दक्षिण-पश्चिम तथा चतुर्थ वृत्तपाद को उत्तर-पश्चिम शब्दों से সकट किया जायेगा। नियमानुसार प्रथम व अन्तिम वृत्तपादों में स्थित बिन्दुओं के वृत्तपादीय दिकमानों को उत्तर से तथा द्वितीय व तृतीय वृत्तपादों में स्थित बिन्दुओं के वृत्तपादीय दिक्मानों को दक्षिण से मापते हैं। अतः स्पष्ट है कि प्रथम व द्वितीय वृत्तपादों में किसी बिन्दु के वृत्तपादीय दिक्मान का अंशमान पूर्व की ओर को तथा तृतीय व चतुर्थ वृत्तपादों के बिन्दुओं के वृत्तपादीय दिक्मानों के अंशमान पश्चिम की ओर को पढ़े जायेंगे। किसी बिन्दु के वृत्तपादीय दिक्मान के संख्यात्मक मान के पहले निर्देश याम्योत्तर की प्रयोग की गई दिशा (उत्तर अथवा दक्षिण) तथा बाद में सम्बन्धित बिन्दु की निर्देश याम्योत्तर से पूर्व अथवा पश्चिम दिशा इंगित करना परम आवश्यक है। उदाहरणार्थ, उपरोक्त रेखाचित्र में प्रदर्शित A, B, C तथा D बिन्दुओं के वृत्तपादीय दिक्मानों को क्रमशः उत्तर 60° पूर्व, दक्षिण 30° पूर्व, दक्षिण 45° पश्चिम व उत्तर 45° पश्चिम के रूप में लिखा जायेगा।
यहाँ यह संकेत करना आवश्यक है कि त्रिकोणमितीय सारणियों में लिखे सभी कोण 90° से कम मान वाले होते हैं। अतः 90° से अधिक मान वाले किसी पूर्ण वृत्त दिक्मान के त्रिकोणमितीय फलन (trigonometric function) का मान ज्ञात करने के लिये सारणी में उस दिकमान के 90° से कम किन्तु त्रिकोणमितीय फलन के समान संख्यात्मक मान वाले तदनुरूप कोण, जिसे समानीत दिक्मान (reduced bearing) कहते हैं, को पढ़ा जाता  है। किसी रेखा के पूर्णवृत्त दिकमान को वृत्तपादीय या समानीत दिकमान में परिवर्तित करने के निम्नलिखित चार नियम हैं :
(1) यदि पूर्णवृत्त दिक्मान का संख्यात्मक मान 0° तथा 90° के मध्य की कोई संख्या है तो बिना कोई परिवर्तन किये उस संख्या से पहले 'उत्तर तथा बाद में 'पूर्व' शब्द लिख देते हैं।
(2) यदि पूर्ण वृत्त दिक्मान का संख्यात्मक मान 90° व 180° के मध्य है तो उस दिक्मान को 180° में से घटाने से प्राप्त संख्या (अर्थात् 180°- पूर्ण वृत्त दिक्मान) के पहले 'दक्षिण' तथा बाद में 'पूर्व' शब्द लिखते हैं। 
(3) यदि पूर्ण वृत्त दिक्मान 180° व 270° के मध्य है तो उसमें से 180° घटाने पर प्राप्त संख्या (अर्थात् पूर्ण वृत्त दिक्मान-180°) के पहले 'दक्षिण' तथा बाद में पश्चिम' शब्द लिखें जायेंगे। 
(4) यदि पूर्ण वृत्त दिक्मान का मान 270° व 360° के मध्य है तो उसे 360° में से घटाने पर प्राप्त संख्या (अर्थात् 360° -पूर्णवृत्त दिक्मान) के पहले 'उत्तर' तथा बाद में पश्चिम शब्द लिख दिये जाते हैं। उपरोक्त नियमों को निम्न उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:
उदाहरण (1) निम्नलिखित पूर्णवृत्त वृत्त दिकमान का वृत्तपादीय या समानीत दिक्मानों में परिवर्तित कीजिये:
(i) 75° 30' (ii) 140° 30' (iii) 220° 30' (iv) 310° 30
हल-
(i) पूर्ण वृत्त दिक्मान = 75° 30' 
चूँकि यह मान 90° से कम है अत: प्रथम नियम के अनुसार, वृत्तपादीय दिक्मान, 
= उत्तर 75° 30' पूर्व

(ii) पूर्ण वृत्त दिक्मान =140° 30' 
चूँकि यह संख्या 90° से अधिक तथा 180° से कम है अतः द्वितीय नियम के अनुसार, 
वृत्तपादीय दिक्मान, 
= 180°-140° 30' 
= दक्षिण 39° 30' पूर्व

(iii) पूर्ण वृत्त दिक्मान = 220° 30' 
चूँकि यह संख्या 180° से अधिक है तथा 270° से कम है, अतः तृतीय नियम के अनुसार, 
वृत्तपादीय दिकमान,
= 220° 30'-180° 
= दक्षिण 40° 30' पश्चिम

(iv) पूर्ण वृत्त दिकमान =310° 30'
चूंकि यह संख्या 270° व 360° के मध्य है, अत: चतुर्थ नियम के अनुसार, वृत्तपादीय दिकमान,
= 360° -310° 30
=उत्तर 49° 30' पश्चिम

3. रेखा पर सर्वेक्षक की स्थिति के अनुसार दिक्मान के da (Kinds of bearing according to surveyor's position on line)-प्रत्येक रेखा में दो सिरे होते हैं। सर्वेक्षक के मार्ग में पड़ने वाले किसी रेखा के प्रथम सिरे को प्रारम्भिक सिरा तथा दूसरे सिरे को अन्तिम सिरा कहते हैं। अतः सर्वेक्षक ने किसी रेखा के कौन से सिरे पर खड़े होकर उस रेखा का दिक्मान पढ़ा है, इस दृष्टि से दिक्मानों के निम्नलिखित दो भेद होते हैं।
(a) अग्रदिक्मान Forward or fore bearing) सर्वेक्षक के चलने की दिशा में किसी रेखा के प्रथम या प्रारम्भिक सिरे पर खड़े होकर पढ़े गये दूसरे सिरे के दिकमान को उस रेखा का अपदिकमान (EB.) कहते हैं। उदाहरणार्थ, मान लीजिये किसी सरल रेखा AB में A प्रारम्भिक तथा B अन्तिम सिरा है तो A बिन्दु पर खड़े होकर पढ़े गये B बिन्दु के दिकमान को AB रेखा का अग्रदिक्मान कहा जायेगा। इसी प्रकार B बिन्दु से पढ़ा गया C बिन्दु का दिलमान BC रेखा का अग्रदिक्मान होगा ।
(b) पश्चदिक्मान (Reverse or back bearing) किसी सरल रेखा के अन्तिम सिरे से उस रेखा के प्रारम्भिक सिरे को लक्ष्य करके पढ़ा गया दिकमान सम्बन्धित रेखा का पश्चदिक्मान (B. B.) कहलाता है। इस प्रकार चित्र 19.5 में B बिन्दु (अर्थात् AB रेखा के अन्तिम सिरे) से पढ़े गये A बिन्दु के दिक्मान को AB रेखा का पश्चदिक्मान' अथवा BA रेखा का दिक्मान' कहा जायेगा। इसी प्रकार C बिन्दु पर वापिस B बिन्दु के दिक्मान को 'BC रेखा का पश्चदिक्मान' अथवा 'CB रेखा का दिक्मान' कहा जायेगा।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्रत्येक रेखा के दो दिक्मान होते हैं। यहाँ यह संकेत करना आवश्यक है कि किसी रेखा के दोनों सिरों से विपरीत सिरों को लिये गये दिक्मानों अर्थात् अग्र व पश्चदिक्मानों का अन्तर ठीक 180° के बराबर होता है। इस प्रकार यदि किसी रेखा का पूर्ण वृत्त पद्धति में अग्रदिक्मान दिया हो तो निम्नलिखित सूत्र के द्वारा उस रेखा का पश्च दिकमान ज्ञात किया जा सकता है: 
पश्चदिकमान = अग्र दिकमान + 180°
यदि अग्र दिकमान का सख्यात्मक मान 180° से कम है तो उपरोक्त सूत्र में + का चिह्न प्रयोग करते हैं अर्थात् अग्र दिकमान का संख्यात्मक मान 180° से अधिक है तो सूत्र में - का चिह्न प्रयोग होगा अर्थात् पश्चदिक्मान ज्ञात करने के लिये अग्र दिकमान में से 180° घटा दिये जायेंगे। उपरोक्त सूत्र को एक उदाहरण देकर नीचे स्पष्ट किया गया है। 
उदाहरण (2) यदि AB तथा BC रेखाओं के अग्र दिकमान क्रमश: 60° 30' तथा 210° 30' हैं तो इन रेखाओं के पश्चदिक्मान ज्ञात कीजिये।
हल-
 AB रेखा के अग्र दिकमान का संख्यात्मक मान 180° से कम है, इसलिये AB रेखा का पश्चदिक्मान,

= अग्र दिकमान+ 180°
=60° 30' + 180°
=240° 30' 
BC रेखा का अग्रदिक्मान 210° 30' है जो 180° से अधिक है, अत: BC रेखा का पश्चदिक्मान, :
=अग्र दिकमान-180° 
=210° 30' -180° 
=30° 30'
वृत्तपादीय पद्धति में किसी रेखा के अग्रदिक्मान व पश्चदिक्मान दोनों समान संख्यात्मक मान वाले होते हैं अत: किसी रेखा का पश्चदिक्मान ज्ञात करने के लिये उस रेखा के अग्रदिक्मान के संख्यात्मक मान में बिना कोई परिवर्तन किये उत्तर के स्थान पर दक्षिण, दक्षिण के स्थान पर उत्तर, पूर्व के स्थान पर पश्चिम तथा पश्चिम के स्थान पर पूर्व लिखना पर्याप्त होता है । निम्न उदाहरण के द्वारा इस बात को स्पष्ट समझा जा सकता है :
उदाहरण (3) यदि AB, BC, CD तथा DE रेखाओं के वृत्तपादीय अग्रदिक्मान क्रमशः उत्तर 60° पूर्व, दक्षिण 40° पूर्व, दक्षिण 75° पश्चिम तथा उत्तर 50° पश्चिम है तो वृत्तपादीय पद्धति में इन रेखाओं के पश्चदिक्मान ज्ञात कीजिये।
हल-
(i) AB का अग्रदिक्मान, 
= उत्तर 60° पूर्व 
. AB का पश्चदिक्मान, 
= दक्षिण 60° पश्चिम 
(ii) BC का अग्रदिक्मान,  
=दक्षिण 40° पूर्व 
BC का अग्रदिक्मान
= उत्तर 40° पश्चिम 
(iii) CD का अग्रदिक्मान, 
= दक्षिण 75° पश्चिम 
. CD का पश्चदिक्मान, 
= उत्तर 75° पूर्व 
(iv) DE का अग्रदिक्मान, 
= उत्तर 50° पश्चिम 
. DE का पश्चदिक्मान,
= दक्षिण 50° पूर्व

4. प्रयुक्त विधि के अनुसार दिक्मान के भेद (Kinds of bearing according to the method used)- दिक्मान ज्ञात करने की विधि के आधार पर दिक्मानों के दो भेद होते हैं-(1) प्रेक्षित दिक्मान (observed bearing) तथा (ii) परिकलित दिक्मान (calculated bearing)। क्षेत्र में कम्पास की सहायता से ज्ञात किये गये दिक्मानों को प्रेक्षित दिक्मान कहते हैं तथा गणना के द्वारा प्राप्त दिक्मानों को परिकलित दिक्मान कहा जाता है । यदि किसी एक रेखा का प्रेक्षित दिक्मान तथा उत्तरोत्तर रेखाओं के मध्य के अन्तर्गत कोण (included angles) ज्ञात हैं तो दिये हुए दिकमान में अन्तर्गत कोण का मान जोड़कर अगली रेखा का परिकलित दिक्मान ज्ञात किया जा सकता है, अर्थात् 
किसी रेखा का परिकलित दिक्मान,
= दिया गया दिक्मान + अन्तर्गत कोण
उदाहरणार्थ यदि किसी रेखा AB का दिन मान 30° है तथा अन्तर्गत कोण BAC का मान 100° है तो AC रेखा का दिक्मान 30% +100 = 130° होगा। स्मरण रहे, इस उदाहरण में दोनों रेखाओं के दिकमान एक ही बिन्दु A से मापे गये हैं । इस प्रकार 30° BA रेखा का पश्च दिक्मान है तथा 130° AC रेखा का अग्र दिक्मान है। अत: यदि किसी रेखा का अपदिकमान दिया हो तो पहले उस रेखा का पश्चदिक्मान ज्ञात करते हैं तथा उसके पश्चात् पश्चदिक्मान में अन्तर्गत कोण का मान जोड़कर अगली रेखा के अग्रदिक्मान की गणना करते हैं।
उदाहरण (4) यदि AB रेखा का अग्र दिक्मान 150° 30' तथा अन्तर्गत कोण ABC का मान 130° हो तो BC रेखा का अग्रदिक्मान ज्ञात कीजिये। हल - चित्र B के अनुसार, 
        AB रेखा का अग्रदिक्मान, 
               = 150° 30'
AB रेखा का पश्च (अर्थात् BA का दिक्मान), 
= 150° 30' + 180° =330° 30'

अब BC का अग्रदिक्मान, 
=BA का दिक्मान+ अन्तर्गत कोण ABC 
=330° 30'+ 130° 
=460° 30' अर्थात् 460° 30' -360° 
=100° 30

प्रिज्मीय कम्पास की प्रयोग विधि 
(Methods of Using the Prismatic Compass)

जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, प्रिज्मीय कम्पास को उसके त्रिपाद-स्टैण्ड पर लगाकर प्रयोग में लाते हैं। इस उपकरण की सहायता से किसी रेखा (मान लीजिये AB रेखा) का दिक्मान ज्ञात करने की विधि निम्नलिखित है :
(1) AB रेखा के A स्टेशन पर त्रिपाद-स्टैण्ड रखिये तथा कम्पास बक्स को उस पर सावधानीपूर्वक कसिये। अब कंकड़ गिराकर अथवा साहुल की सहायता से कम्पास का A स्टेशन पर सही-सही केन्द्रण कीजिये। 
(2) कम्पास बक्स का ढक्कन खोलिये तथा चित्र 1 के अनुरूप प्रिज्म को सीधा कीजिये तथा दृश्य वेधिका को लंबवत खड़ा कीजिए । 
(3) इसके पश्चात् काँच के ढक्कन पर स्पिरिट लेविल रखकर कम्पास को समतल कीजिये जिससे चुम्बकीय सुई धुम्र पिन पर बिना किसी रुकावट के थोड़ी देर तक इधर-उधर घूमने के बाद सही चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण दिशा में स्थिर हो जाये। 
(4) अब दर्श फलक की झिरी पर आँख रखकर कम्पास बक्स को धीरे-धीरे इस प्रकार घुमाइये कि B स्टेशन पर गाड़ा गया सर्वेक्षण दण्ड दृश्य वेधिका की केश रेखा की सीध में आ जाये। 
(5) इसके बाद अवलोकन-छिद्र पर आँख रखकर केश रेखा के लम्बवत नीचे की ओर अंशांकित वलय पर अंकित मान पढ़िए। यह मान AB रेखा का अग्रदिक्मान होगा।
B स्टेशन पर उपरोक्त प्रक्रिया की पुनरावृत्ति करके A स्टेशन की सध में पढ़ा गया मान AB रेखा का पश्चदिक्मान अथवा BA रेखा का दिकमान कहलायेगा। प्रायः किसी रेखा के दिकमान को दो बार पढ़ते हैं। यदि दोनों बार पढ़े गये दिक्मानों में कोई अन्तर आता है तो समस्त प्रक्रिया को दोहरा कर तीसरी बार दिक्मान पढ़ना चाहिए।

प्रिज्मीय कम्पास के प्रयोग में आवश्यक सावधानियाँ 
(Necessary Precautions in the Use of Prismatic Compass)

प्रिज्मीय कम्पास का प्रयोग करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए :
(1) प्रिज्मीय कम्पास की सुई में चुम्बक होता है अत: कम्पास प्रयोग करते समय सर्वेक्षक के पास लोहे की कोई वस्तु, जैसे चाबियों का गुच्छा, लोहे के बटन या चेन आदि, नहीं होनी चाहिए। इसी कारणवश यथासम्भव ऐसे स्थानों को कम्पास स्टेशन चुनते हैं, जिनके समीप लोहे के तार या बिजली के खम्बे आदि स्थित नहीं होते। 
(2) प्रिज्मीय कम्पास की सुई को स्थिर करने के लिये ब्रेक पिन को प्रयोग में लाना चाहिए। ब्रेक पिन को पूरा दबाकर धीरे से ढीला छोड़ने पर सुई के दोलन की गति कम हो जाती है तथा वह अपेक्षाकृत शीघ्र स्थिर हो जाती है। (3) किसी स्थान का दिक्मान लेते समय कम्पास पूर्णतया समतल होनी चाहिए तथा दृश्य वेधिका पूरी तरह लम्बवत रहनी चाहिए। 
(4) यदि वृक्ष या भवन आदि के फलस्वरूप चेन रेखा के सिरे पर कम्पास स्थापित करने में कोई कठिनाई होती है तो चेन रेखा के समानांतर दूसरी रेखा निश्चित करके नवीन रेखा का दिक्मान पढ़ लेना चाहिए। 
(5) अवलोकन-छिद्र में सदैव कम मान वाले चिह्नों से अधिक मान वाले चिह्नों की ओर को किसी रेखा का दिकमान पढ़ा जाता है। उदाहरणार्थ, यदि केश रेखा की सीध में अंकित चिह्न के एक ओर 40° का चिह्न तथा दूसरी ओर 50° का चिह्न है तो केश रेखा के द्वारा इंगित चिह्न का मान 40° से 50° की ओर को पढ़ा जायेगा।
(6) प्रत्येक जरीब रेखा के अग्र एवं पश्च दोनों कमानों को पढ़ना चाहिए जिससे उनका अन्तर ज्ञात करके चुम्बकीय सुई पर स्थानीय आकर्षण का प्रभाव ज्ञात किया जा सके। इसके अतिरिक्त किसी स्टेशन पर कम्पास के चारों ओर घूमकर भी स्थानीय आकर्षण का पता लगाया जा सकता है। यदि सर्वेक्षक के घूमने से कम्पास की स्थिर सुई में कुछ दोलन होता है तो यह समझ लेना चाहिए कि उस स्टेशन पर कम्पास पर लोहे का प्रभाव विद्यमान है। 
(7) कम्पास बंद करते समय अथवा उसे एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन पर ले जाने से पूर्व दृश्य वेधिका को कांच के ढक्कन पर क्षैतिज लिटा देना चाहिए। ऐसा करने से कम्पास की सुई धुराग्र पिन से ऊपर उठ जाती है तथा धुराग्र पिन की नोंक खराब होने से बच जाती है। दृश्य वेधिका को क्षतिज लिटाते समय सुई का N अक्षर वाला सिरा ठीक उत्तर दिशा की ओर आमुख होना चाहिए अन्यथा सुई के चुम्बक के खराब हो जाने की सम्भावना रहती है ।

सर्वेक्षण-संक्रिया 
(Survey Operation)
ज़रीब तथा फीता सर्वेक्षण की भाँति प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण की समस्त कार्य-विधि या संक्रिया को दो भागों में बॉटा जा सकता है-(i) क्षेत्र अध्ययन (Field-work), जिसमें दिये गये क्षेत्र का किसी उपयुक्त विधि के द्वारा सर्वेक्षण करके क्षेत्र-पुस्तिका तैयार की जाती है तथा (ii) प्रयोगशाला-कार्य (laboratory-work), जिसमें दिक्मानों का संशोधन (correction) करके सर्वेक्षित क्षेत्र का मापनी के अनुसार प्लान तैयार किया जाता है। इन सर्वेक्षण-संक्रियाओं को आगे अलग-अलग विधियों के अन्तर्गत समझाया गया है।

प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण की विधियाँ 
(Methods of Prismatic Compass Surveying)
प्रिज्मीय कम्पास की सहायता से किसी क्षेत्र का सर्वेक्षण करने की चार विधियां होती हैं- (i) चंक्रमण या माला रेखा विधि, (ii) प्रतिच्छेदन विधि, (iii) विकिरण या अरीय रेखा विधि तथा (iv) स्थिति-निर्धारण विधि । 
प्रायः किसी क्षेत्र की ज़रीब रेखाओं व सर्वेक्षण स्टेशनों के दिक्मान ज्ञात करने के लिये माला रेखा विधि प्रयोग की जाती है तथा ज़रीब रेखाओं के इधर-उधर स्थित क्षेत्र के विवरणों की स्थितियों को प्रतिच्छेदन अथवा विकिरण विधि से निश्चित करते हैं। इस प्रकार किसी बड़े क्षेत्र में ये तीनों विधियाँ साथ-साथ प्रयोग में लाई जाती हैं। स्थिति-निर्धारण विधि के द्वारा किसी क्षेत्र के प्लान में नवीन सर्वेक्षण स्टेशनों को अंकित किया जाता है। इन विधियों को लिखने से पूर्व यह संकेत करना आवश्यक है कि प्रत्येक विधि में आरक्षण रेखाचित्र की रचना, ज़रीब रेखाओं एवं सर्वेक्षण स्टेशनों का चयन तथा अन्तलम्बों व ज़रीब रेखाओं की माप आदि, ठीक उसी तरह पूर्ण करते हैं जैसा कि ज़रीब एवं फीता सर्वेक्षण के अध्याय में बताया गया है।

[।] चंक्रमण या माला रेखा विधि
(Traverse method) 
यह प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण की एक मुख्य विधि है, जिसमें प्रत्येक ज़रीब रेखा की लम्बाई एवं दिक् मानों को ज्ञात करके क्षेत्र-पुस्तिका में लिखते हैं। इस विधि में माला रेखा के प्रत्येक सर्वेक्षण स्टेशन पर बारी-बारी से प्रिज्मीय कम्पास स्थापित करके अगली ज़रीब रेखा का अग्रदिक्मान एवं पूर्ववर्ती जरीब रेखा का पश्चदिक्मान ज्ञात करना आवश्यक होता है । माला रेखा दो प्रकार की होती है- (i) बन्द माला रेखा (closed traverse line) तथा (ii) खुली माला रेखा (open traverse line)। इस आधार पर माला रेखा सर्वेक्षण के दो भेद-बन्द माला रेखा सर्वेक्षण तथा खुली माला रेखा सर्वेक्षण, होते हैं परन्तु दोनों प्रकारों में सर्वेक्षण की विधि लगभग एक समान होती है।

1. बन्द माला रेखा सर्वेक्षण (Closed traversesurvey)-बन्द माला रेखा सर्वेक्षण को संवृत चंक्रम भी कहा जाता । इस सर्वेक्षण में कार्य प्रारम्भ करने का स्टेशन एवं कार्य समाप्त करने का अन्तिम स्टेशन दोनों एक होते हैं। दूसरे शब्दों में, कोई सर्वेक्षक जिस स्टेशन से कार्य प्रारम्भ करता है उसी स्टेशन पर वह माला रेखा पर आगे बढ़ते हुए सर्वेक्षण के अन्त में पुनः पहुँच जाता है। किसी खेत या खेल के मैदान की सीमा रेखा बन्द माला रेखा का उदाहरण है। 
कार्य-विधि (Procedure)- मान लीजिये ABCD कोई खेल का मैदान है (चित्र A)। बन्द माला रेखा विधि के द्वारा इस मैदान का निम्न प्रकार से सर्वेक्षण किया जायेगा :
(1) क्षेत्र का भेली-भाँति निरीक्षण करके सर्वेक्षण स्टेशनों अर्थात मैदान की सीमा रेखा के A, B,CC D मोड़ों पर सर्वेक्षण दण्ड गाड़िये, जिससे वे दूर से स्पष्ट देखे जा सके इन स्टेशनों को तथा क्षेत्र के अन्य विवरणों को आरक्षण रेखाचित्र में प्रदर्शित कीजिये।
(2) A स्टेशन के सर्वेक्षण दण्ड को हटाकर वहाँ प्रिज्मीय कम्पास को रखिये तथा कम्पास का सही-सही समतल एवं केन्द्रक करने के पश्चात् पहले बताई गई विधि के अनुसार B स्टेशन को लक्ष्य करके AB रेखा का अग्रदिक्मान ज्ञात कीजिये। इस दिक्मान को तथा AB रेखा की दूरी को क्षेत्र-पुस्तिका में लिखिये।
(3) अब प्रिज्मीय कम्पास को उठाकर B स्टेशन पर ले जाइये तथा A स्टेशन पर पुनः सर्वेक्षण दण्ड गाड़िये ।
(4) B स्टेशन पर कम्पास का समाकलन व केन्द्रण कीजिये तथा C को लक्ष्य करके BC का अग्र दिक्मान तथा A को लक्ष्य करके AB का पश्चदिक्मान ज्ञात कीजिये । इन दिकमानों को तथा BC की दूरी को भी क्षेत्र-पुस्तिका में लिखिये।
(5) जो क्रिया B स्टेशन पर की गई है उसी क्रिया की C तथा D स्टेशनों पर पुनरावृत्ति करने के पश्चात् कम्पास को पुनः A स्टेशन पर स्थापित कीजिये और वहाँ से DA रेखा का पश्चदिक्मान लेकर क्षेत्र-अध्ययन पूर्ण कीजिये।
2. खुली माला रेखा सर्वेक्षण (Open traverse survey)-खुली माला रेखा या विवरण क्रम में किसी नदी, नहर, सड़क अथवा रेलमार्ग के सहारे-सहारे स्थित लम्बे एवं संकीर्ण क्षेत्रों का सर्वेक्षण किया जाता है। स्पष्ट है कि इस प्रकार की मालारेखा में प्रारम्भिक व अन्तिम सर्वेक्षण स्टेशन अलग-अलग होंगे परन्तु सर्वेक्षण की प्रक्रिया बन्द माला रेखा के समान होगी। उदाहरणार्थ, मान लीजिये ABCD कोई मार्ग है, जिसका खुली माला रेखा सर्वेक्षण करना है (चित्र B)। इस कार्य के लिये मार्ग के A, B, C, तथा D मोड़ों को सर्वेक्षण स्टेशन मानकर पहले बतलाई गई विधि के अनुसार AB, BC व CD रेखाओं के अग्र व पश्च दिक्मानों एवं दूरियों को ज्ञात करके क्षेत्र-पुस्तिका में लिख लिया जायेगा।
[।।] प्रतिच्छेदन विधि 
(Intersection method) 
यह विधि प्लेनटेबुलन की प्रतिच्छेदन विधि के सिद्धान्त पर आधारित है। जिस प्रकार प्लेनटेबुलन में आधार रेखा के दोनों सिरों से किरणें खींच कर प्लान में किसी विवरण को अंकित करते हैं ठीक उसी प्रकार प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण में आधार रेखा के दोनों सिरों से लिये गये किसी विवरण के दिकमानों को अंकित करके, उन दिनों की कोण रेखाओं के प्रतिच्छेदन से उस विवरण की प्लान में स्थिति ज्ञात की जा सकती है। अत: प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण की प्रतिच्छेदन विधि में सर्वप्रथम किसी ऐसी आधार रेखा का चयन करते हैं जिसके प्रत्येक सिरे से दिये हुए क्षेत्र के सभी आवश्यक विवरण स्पष्ट दिखलाई देते हों। आधार रेखा की लम्बाई तथा उसके अग्र व पश्च दिकमान को क्षेत्र-पुस्तिको में लिखने के साथ-साथ आधार रेखा के दोनों सिरों से पढ़े गये क्षेत्र के अन्य विवरणों एवं सीमा रेखा के मोड़ों के दिक्मानों को भी क्षेत्र-पुस्तिका में लिख दिया जाता है। प्लान बनाते समय सबसे पहले आधार रेखा को उसके चुम्बकीय दिक्मान व लम्बाई के अनुसार अंकित करते हैं। इसके पश्चात् आधार रेखा के दोनों सिरों पर कोण बनाकर प्रतिच्छेदन के द्वारा विवरणों की स्थितियाँ अंकित कर ली जाती हैं।
इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण की प्रतिच्छेदन विधि के द्वारा किसी क्षेत्र का सही-सही प्लान केवल उसी दशा में बनाया जा सकता है जब आधार रेखा के अग्र व पश्च दिक्मानों का अन्तर ठीक 180° हो, जो स्थानीय आकर्षण के फलस्वरूप सदैव सम्भव नहीं होता है। यदि यह अन्तर 180° नहीं है तो सर्वेक्षण स्टेशनों की संख्या केवल दो होने के कारण यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि आधार रेखा के किस सिरे से लिये गये दिकमान कितने अशुद्ध हैं। इस कठिनाई के कारण प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण में इस विधि को केवल माला रेखा के इधर-उधर स्थित विवरणों की स्थिति को ज्ञात करने के लिये प्रयोग में लाते हैं। यद्यपि किसी विवरण को मालारेखा के दो स्टेशनों से दिकमान लेकर प्लान में अंकित किया जा सकता है परन्तु जाँच हेतु माला रेखा के किसी अन्य स्टेशन से उस विवरण का दिक्मान ज्ञात करना आवश्यक होता है। 
उदाहरणार्थ चित्र में P बिन्दु का A, B व C तीन स्टेशनों से दिक्मान ज्ञात किया गया है जिससे बाद में किन्हीं दो दिक्मानों के प्रतिच्छेदन से प्राप्त P बिन्दु की स्थिति की शुद्धता को तीसरे दिन की सहायता से जाँचा जा सके ।

[।।।] विकिरण या अरीय रेखा विधि 
(Radiation or radial line method)
प्रतिच्छेदन की भाँति यह भी एक गौण विधि है, जिसके द्वारा माला रेखा के इधर-उधर स्थित विवरणों की स्थिति में ज्ञात की जाती हैं। परन्तु खुले एवं छोटे-छोटे आकार वाले क्षेत्रों के प्लान बनाने के लिये भी इस विधि को प्रयोग में लाया जा सकता है। चूँकि विकिरण विधि में केवल किसी एक सर्वेक्षण स्टेशन से क्षेत्र के समस्त स्थानों की दूरियों एवं दिक्मानों को ज्ञात किया जाता है इसलिये यदि उस सर्वेक्षण स्टेशन पर कोई स्थानीय आकर्षण है तो इस आकर्षण का सभी दिक्मानों पर एक समान प्रभाव होगा। अत: प्लान में सभी विवरणों की एक-दूसरे के सन्दर्भ में स्थितियाँ शुद्ध होंगी। विकिरण विधि के द्वारा निम्नलिखित प्रकार से सर्वेक्षण करते हैं:
(1) दिये हुए क्षेत्र ABCD में कोई ऐसा स्टेशन P चुनिये, जहाँ से A, B, C व D बिन्दुओं की जरीब अथवा फीते से  सफलतापूर्वक दूरियां मापी जा सकें तथा दिक्मान ज्ञात किये जा सकें ।
(2) P स्टेशन पर प्रिज्मीय कम्पास का समाकलन एवं केन्द्रक कीजिये तथा A, B, C व D बिन्दुओं के दिक्मानों को पढ़कर क्षेत्र-पुस्तिका में लिखिये। (3) PA, PB, PC तथा PD दूरियों को मापकर क्षेत्र-पुस्तिका में संबंधित रेखाओं के आगे लिखिये। 
इन ददिक्मानों को अंकित करके, कोण रेखाओं में तद्नुरूपी रेखाओं की दूरियों को मापनी के अनुसार काटकर क्षेत्र का प्लान बना लेते हैं!
[IV] स्थिति-निर्धारण विधि 
(Resection method) 
इस विधि के द्वारा किसी क्षेत्र के पूर्व निर्मित प्लान में किसी नवीन सर्वेक्षण स्टेशन की स्थिति ज्ञात की जाती है। कार्य-विधि (Procedure) किसी क्षेत्र के प्लान में नवीन सर्वेक्षण स्टेशन (मान लीजिये P) की स्थिति ज्ञात करने की निम्न विधि है :
(1) दिये गये क्षेत्र में A, B तथा C तीन ऐसे स्थान छाटिये, जो P स्टेशन से दिखलाई देते हों तथा जिनकी प्लान में स्थिति ज्ञात हो। 
(2) P स्टेशन पर कम्पास का समाकलन करके PA, PB तथा PC रेखाओं के अपर दिक्मान ज्ञात कीजिये।
(3) इन दिक्मानों में आवश्यकतानुसार 180° जोड़कर अथवा 180° घटाकर PA, PB व PC रेखाओं के पश्चदिक्मान ज्ञात कीजिए ।
(4) अब प्लान में A, B तथा C बिन्दुओं पर चुम्बकीय उत्तर से घड़ी की सुई की दिशा में क्रमशः PA, PB तथा PC रेखाओं के पश्चदिक्मानों के बराबर कोण बनाते हुए रेखाएँ खींचिये। इन रेखाओं का प्रतिच्छेदन बिन्दु प्लान में P स्टेशन की स्थिति को प्रकट करेगा।

क्षेत्र-पुस्तिका 
(Field-Book)
प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण करते समय क्षेत्र में मापी गई दूरियों एवं जरीब रेखाओं व अन्य विवरणों के प्रेक्षित किये गये दिकमानों को साथ-साथ क्षेत्र-पुस्तिका में लिख दिया जाता है। प्रत्येक ज़रीब रेखा के अग्र व पश्च दिक्मानों को क्षेत्र-पुस्तिका की तद्नुरूपी रेखाओं के सिरों पर जहाँ मुख्य सर्वेक्षण केन्द्र का नाम लिखा होता है, लिखते हैं। गौण स्टेशन से लिये गये किसी विवरण के दिकमान को क्षेत्र-पुस्तिका में तदनुरूपी गौण स्टेशन के समीप लिखा जायेगा। इस प्रकार क्षेत्र के जिस स्टेशन से कोई दिक्मान पढ़ा जाता है, क्षेत्र-पुस्तिका में उसी स्टेशन के समीप उस दिक्मान को लिखते हैं। क्षेत्र-पुस्तिका में रैखिक मापन व टिप्पणियों को लिखने एवं रेखाचित्रों को बनाने में उन सभी नियमों का पालन किया जाता है, जिनके अनुसार ज़रीब एवं फीता सर्वेक्षण की क्षेत्र-पुस्तिका में विवरण भरते हैं। संक्षेप में, दिकमान लिखे जाने के अतिरिक्त, कम्पास सर्वेक्षण की क्षेत्र-पुस्तिका ज़रीब एवं फीता सर्वेक्षण की क्षेत्र-पुस्तिका के समान होती है। 
सरल एवं कम विवरणों वाले छोटे-छोटे क्षेत्रों के सर्वेक्षण में, जहाँ विवरणों के रेखाचित्र बनाना अथवा उनके सम्बन्ध में विस्तृत टिप्पणियाँ लिखना आवश्यक नहीं होता, वहाँ सारणी-1 के समान बनायी गयी क्षेत्र-पुस्तिका प्रयोग में लाई जा सकती है।
इस क्षेत्र-पुस्तिका को भरने की विधि को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। मान लीजिये, ABCDE कोई क्षेत्र है, जिसमें किये गये कम्पास सर्वेक्षण कार्य को क्षेत्र-पुस्तिका में अंकित करना है । यदि इस क्षेत्र में A स्टेशन से B स्टेशन की ओर को कार्य प्रारम्भ किया गया है तो AB रेखा के अग्रदिक्मान (60°) को क्षेत्र-पुस्तिका में A स्टेशन के सामने तीसरे कॉलम में,AB के पश्चदिक्मान (240°) को चौथे कॉलम में, तथा B की लम्बाई (80 मीटर) को पाँचवे कॉलम में लिख दिया जायेगा। चूँकि वृक्ष a का ऑफसेट A स्टेशन से लिया गया है अतः इस ऑफसेट का नाम, दिक्मान (90°) तथा Aa की दूरी (45 मीटर) को A स्टेशन के सामने क्रमश: छठे, सातवे तथा आठवे कॉलमों में लिखा जायेगा। उपरोक्त विधि की पुनरावृत्ति करके क्षेत्र के अन्य स्टेशनों पर मापी गई दूरियों व दिकमानों को क्षेत्र-पुस्तिका में लिख देते हैं । क्षेत्र-पुस्तिका एवं दिये गये रेखाचित्र की तुलना करने पर क्षेत्र-पुस्तिका लेखन की यह विधि स्पष्ट हो जाती है।

दिक्मानों का संशोधन 
(Correction of Bearings)

जिन क्षेत्रों में लोहयुक्त चट्टानें होती हैं अथवा जहाँ धरातल पर लोहे के तार व खम्बे गड़े होते हैं वहाँ कम्पास की सुई स्थानीय आकर्षण से प्रभावित होकर सही-सही चुम्बकीय उत्तर दिशा इंगित करने में असमर्थ रहती है। फलतः ऐसे क्षेत्रों में कुछ ज़रीब रेखाओं के अग्र व पश्च दिक्मानों का अन्तर 180° नहीं आता। अत: प्लान बनाने से पूर्व इस प्रकार की जरीब रेखाओं के अशुद्ध दिक्मानों को गणना के द्वारा शुद्ध करना आवश्यक है अन्यथा प्लान सही नहीं बन सकेगा। 
दिक्मान-संशोधन की विधि बतलाने से पूर्व दो बातों की ओर संकेत करना आवश्यक है-(i) किसी जरीब रेखा के अग्र एवं पश्च दिक्मानों का अन्तर यदि 180° है तो ये दोनों दिकमान शद्ध माने जायेंगे तथा (ii) यदि किसी स्टेशन पर स्थानीय आकर्षण है तो उस स्टेशन से पढ़े गये समस्त दिकमानों में आकर्षण त्रुटि की मात्रा एक समान होगी। इसके अतिरिक्त विद्यार्थियों को यह ज्ञान होना चाहिए कि दिये हुए दिक्मानों में कौन सा दिक्मान क्षेत्र के किस स्टेशन से पढ़ा गया है अन्यथा उनमें सम्बन्धित स्टेशन की आकर्षण त्रुटि को जोड़ने अथवा घटाने में भूल हो सकती है। इस कठिनाई से बचने के लिये दिये हुए दिक्मानों की सहायता से एक कच्चा रेखाचित्र बनाकर उसमें दिक्मानों को यथासम्भव लिख लेना चाहिए।
दिक्मानों को शुद्ध करने की प्रक्रिया में सर्वप्रथम दिये हुए दिक्मानों में किसी ऐसी ज़रीब रेखा को ढूँढते हैं, जिसके प्रेक्षित अग्र व पश्च दिक्मानों का अन्तर ठीक 180° हो। स्पष्ट है कि इस जरीब रेखा के दोनों सिरों पर कम्पास स्थानीय आकर्षण से मक्त होगी। अत: इस जरीब रेखा के पहले सिरे से प्रेक्षित पर्ववर्ती जरीब रेखा का पश्चदिक्मान तथा दूसरे सिरे से पढ़ा गया अगली जरीब रेखा का अग्रदिक्मान दोनों शुद्ध माने जायेंगे। अब यदि अगली ज़रीब रेखा के दोनों दिलमानों का अन्तर 180° नहीं है तो इसका यह अर्थ होगा कि इस रेखा का पश्चदिक्मान अशुद्ध है। अत: इस रेखा के अग्र दिक्मान में 1800 जोडकर अथवा घटाकर शुद्ध पश्चदिक्मान को ज्ञात कर लिया जाएगा यह संशोधित पश्चदिक्मान प्रेक्षित पश्चदिक्मान से जितना कम या अधिक होगा उतनी ही पश्चदिक्मान वाले स्टेशन पर आकर्षण त्रुटि मानी जायेगी। आकर्षण त्रुटि ज्ञात हो जाने पर इस स्टेशन से पढ़े गये तीसरी जरीब रेखा के अग्रदिकमान को संशोधित किया जायेगा। इस संशोधित अग्रदिक्मान में पहले की भाँति 3180° करके तीसरी रेखा के प्रेक्षित पश्चदिक्मान को शुद्ध किया जा सकता है। इस प्रक्रिया को दोहराते हुए सभी अशुद्ध दिक्मानों को शुद्ध कर लेते हैं। दिक्मान-संशोधन की विधि को एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है।
उदाहरण (5) किसी बन्द माला रेखा सर्वेक्षण में प्रेक्षित निम्नांकित दिक्मानों को शुद्ध कीजिये तथा यह बतलाइये कि किन-किन स्टेशनों के दिक्मान कितने अशुद्ध हैं।
हल-सारणी-3 में उपरोक्त दिकमानों को प्रेक्षण-स्टेशनों के अनुसार व्यवस्थित किया गया है। इस सारणी को देखने से ज्ञात होता है कि AB रेखा के प्रेक्षित दिकमानों का अन्तर 314° 30'-134° 30' = 180° है। चूंकि AB व BA रेखाओं के शुद्ध दिक्मानों को क्रमशः A तथा B स्टेशनों से लिया गया था अतः इन दोनों स्टेशनों पर कम्पास स्थानीय आकर्षण से मुक्त थी। BC रेखा का दिक्मान (अर्थात् 120° 0') B स्टेशन से लिया गया है अतः यह भी शुद्ध है। चूँकि BC का अग्र दिक्मान शुद्ध है, अतः इसका शुद्ध पश्चदिक्मान अर्थात् CB का दिक्मान 120°0' + 180° 0' = 300° 0' होगा। परन्तु इस रेखा का प्रेक्षित दिक्मान 299° 30' है अत: स्पष्ट है कि C स्टेशन पर स्थानीय आकर्षण के कारण कम्पास ने 300°0'-299°30'30° 30' कम पढ़ा है। चूँकि C स्टेशन पर कम्पास 0° 30' कम पढ़ती है इसलिये CD का सही दिक्मान 174° 30' + 0°30' = 175° 0' होना चाहिए। अब चूँकि CD का संशोधित दिक्मान 175°0' है इसलिए इस रेखा का सही पश्चदिक्मान अर्थात् DC का दिक्मान 175°0' +180° 0' =355°0' होगा। परन्तु इसका प्रेरित दिक्मान 356°30' है जिससे प्रकट होता है कि D स्टेशन पर भी स्थानीय आकर्षण है जिसके फलस्वरूप वहाँ कम्पास 356°30-355°0' =1°30' अधिक पढ़ती है। अतः इस अन्तर को D स्टेशन से पढ़े गये DA के दिक्मान में से भी घटाया जायेगा जिससे इस रेखा का सही दिक्मान अर्थात् 276° 30' - 1° 30' = 275° 0' प्राप्त किया जा सके। AD रेखा का दिक्मान A स्टेशन के लिये जाने के फलस्वरूप पहले ही शुद्ध है।

दिक्मानों का आलेखन 
(Plotting of Bearings)
प्रेक्षित दिक्मानों को शुद्ध करने के पश्चात् शुद्ध दिक्मानों को आलेखित किया जाता है जिससे सर्वेक्षित क्षेत्र का मापनी के अनुसार प्लान बनाया जा सके। दिक्मानों के आलेखन की कई विधियाँ होती हैं। इन विधियों में समान्तर याम्योत्तरों की विधि सबसे सरल है। 
समान्तर याम्योत्तरों की विधि 
(The method of parallel meridians) 
प्लान बनाने की इस विधि में दिक्मानों को अंकित करते समय निम्न बातों को ध्यान में रखते हैं :
(1) इस विधि में ज़रीब रेखाओं के केवल अग्रदिक्मानों एवं दूरियों को अंकित किया जाता है।
(2) प्रत्येक स्टेशन पर अगली जरीब रेखा के अग्रदिक्मान के कोण को सदैव चुम्बकीय उत्तर से घड़ी की सुई की दिशा में बनाते हैं।
(3) प्लान के सभी स्टेशनों पर उत्तर-दक्षिण रेखा की दिशा एक समान होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, भिन्न-भिन्न स्टेशनों पर खींची जाने वाली उत्तर-दक्षिण रेखाओं का एक-दूसरे के समान्तर होना परम आवश्यक है।
(4) यदि दिक्मान का मान 180° से कम है तो कोण बनाने के लिये चाँदे को उत्तर-दक्षिण रेखा के दायीं ओर रखते हैं । इसके विपरीत यदि दिक्मान 180° से अधिक है तो चाँदे को उत्तर-दक्षिण रेखा के बायीं ओर रखा जायेगा (चित्र12 देखिये)। 
(5) प्रारम्भिक स्टेशन को ड्राइंग कागज़ में ऐसे स्थान पर अंकित करना चाहिए कि चुनी गई मापनी के अनुसार सम्पूर्ण क्षेत्र का प्लान कागज़ की सीमा के अन्दर बन जाये। मापनी का चयन करते समय भी उपरोक्त बात को ध्यान में रखते हैं।

उदाहरण (6) निम्नलिखित दिकमानों एवं दूरियों को समान्तर याम्योत्तरों की विधि से आलेखित कीजिये।
हल-ड्राइंग कागज़ पर प्रारम्भिक स्टेशन A अंकित करके उस पर NS रेखा (अर्थात् चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण रेखा) खींचिये। अब चित्र 19.12 के अनुसार, A बिन्दु पर चुम्बकीय उत्तर से घड़ी की सुई की दिशा में 57° (अर्थात् AB का दिक्मान) का कोण बनाते हुए AB रेखा खींचिए। इस रेखा में मापनी के अनुसार 93 मोटर की दूरी (अर्थात् AB की लम्बाई) काटकर B स्टेशन को अंकित कीजिये। B बिन्दु पर A बिन्दु की NS रेखा के समान्तर दूसरी रेखा NS खींचिये। जिस प्रकार A स्टेशन पर AB का अपदिकमान अंकित किया गया था उसी प्रकार B स्टेशन पर 127 (अर्थात् BC का अगदिक्मान) का कोण बनाते हुए BC रेखा खींचिये तथा इस रेखा में 113 मीटर की दूरी को मापनी के अनुसार काटकर C स्टेशन अंकित कीजिये। C बिन्दु पर ऊपर लिखी गई विधि के अनुसार CD का अपदिकमान व दूरी अंकित करके D स्टेशन को अंकित किया जा सकता है। D बिन्दु पर DA रेखा का अग्रदिकमान व दूरी अंकित करने का उद्देश्य सर्वेक्षण व आलेखन की शुद्धता की जाँच करना होता है। यदि सम्पूर्ण कार्य सही-सही किया गया है तो DA रेखा A बिन्दु से होकर जायेगी। DA रेखा के A बिन्दु से न गुजरने की दशा में A बिन्दु पर प्लान की आकृति खुली रह जायेगी। इस त्रुटि को समापक त्रुटि (closing error) कहते हैं । समापक त्रुटि दूर करने की विधि आगे लिखी गई है।

संवृतीय या समापक त्रुटि 
(Closing Error)
जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है कभी-कभी बन्द मालारेखा सर्वेक्षण से प्राप्त दूरियों एवं दिकमानों का आलेखन करने पर प्लान में मालारेखा बन्द नहीं हो पाती। इस समापक त्रुटि के दो कारण हो सकते हैं-(i) यांत्रिक त्रुटि (instrumental error) अर्थात् प्रिज्मीय कम्पास अथवा किसी अन्य सहायक उपकरण का खराब होना तथा (ii) सर्वेक्षक के द्वारा क्षेत्र-अध्ययन या आलेखन में की गई भूलें (mistakes)। यदि समापक त्रुटि बहुत बड़ी है तो निश्चित ही सर्वेक्षक ने किसी कोण को बनाने में अथवा किसी रेखा की मापनी के अनुसार सही लम्बाई काटने में भूल की है। ऐसी दशा में प्रायः प्रारम्भिक स्टेशन से उल्टी या प्रतीप दिशा (reverse direction) में मालारेखा को अंकित करके समापक त्रुटि दूर करते हैं। उदाहरणार्थ, मान लीजिये किसी बन्द मालारेखा ABCDEA के दिकमानों एवं दूरियों को अंकित करने पर ABCD EA' खुली आकृति बनती है, जिसमें AA' अपेक्षाकृत बड़ी समापक त्रुटि है । इस त्रुटि को दूर करने के लिये प्रारम्भिक स्टेशन A पर EA का पश्चदिक्मान व दूरी अंकित करके E बिन्दु ज्ञात कीजिये। इसी प्रकार E बिन्दु पर DE का पश्चदिक्मान व दूरी अंकित करके प्लान में D बिन्द ज्ञात कीजिये। इस उदाहरण में D बिन्दु पर CD का पश्चदिकमान व दूरी अंकित करने पर नवीन मालारेखा पहले अंकित की गई मालारेखा के C बिन्दु पर मिल जाती है । अत: ABCDEA संशोधित मालारेखा होगी।
[I] बाऊडिच का नियम 
(Bowditch's rule) 
यदि समापक त्रुटि बहुत बड़ी नहीं है तो सामान्यतः यह मान लिया जाता है कि सर्वेक्षक के द्वारा क्षेत्र में अथवा आलेखन करते समय विभिन्न स्टेशनों या बिन्दुओं पर थोड़ी-थोड़ी मात्रा में की गई भूलें प्लान में अन्तिम स्टेशन पर समापक त्रुटि के रूप में इकट्ठी हो गई हैं। इस प्रकार की समापक त्रुटि को बाऊडिच के द्वारा बतलाई गई विधि के अनुसार दूर करते हैं। इस विधि में प्लान के प्रत्येक स्टेशन को उसकी प्रारम्भिक स्टेशन से दूरी के अनुपात में समापक त्रुटि प्रदर्शित करने वाली रेखा के समान्तर अंकित करके मालारेखा को बन्द करते हैं। सरल शब्दों में, इस विधि में समापक त्रुटि को मालारेखा के विभिन्न स्टेशनों पर उनकी प्रारम्भिक स्टेशन से दूरी के अनुपात में बाँट दिया जाता है। बाऊडिच के इस नियम को प्रयोग करने की आलेखी व गणितीय विधियाँ नीचे समझायी गई हैं।
[II] समापक त्रुटि के निराकरण की आलेखी विधि 
(Graphical method of eliminating the closing error) 
चित्र A के अनुसार मान लीजिये किसी सर्वेक्षित बन्द माला रेखा को अंकित करने पर ABCDEF आकृति बनती है, जिसकी FA समापक त्रुटि को आलेखी विधि के द्वारा दूर करना | AB, BC, CD, DE तथा EF रेखाओं की सम्मिलित लम्बाई के बराबर कोई सरल रेखा खींचकर उसमें इन रेखाओं की दूरियों को इसी क्रम में अंकित कीजिये (चित्र 19.14B)। यदि यह कागज़ पर न आये तो सभी दूरियों को समान अनुपात में छोटा कर लेना चाहिए। उदाहरण के लिये, उपरोक्त रेखाचित्र में प्रत्येक रेखा को उसकी आधी लम्बाई के बराबर बनाया गया है । अब इस रेखा के F बिन्दु पर A समापक त्रुटि के बराबर Fa लम्ब बनाइये तथा A व बिन्दुओं को मिलाते हुए Aa कर्ण खींचिए। इसके पश्चात् B, C, D, तथा E बिन्दुओं पर क्रमशः Bb, Cc, Dd तथा Ee लम्ब उठाइये। अब प्लान में B,C,D तथा E बिन्दुओं पर FA के समान्तर रेखाएँ खींचिये तथा इन समान्तर रेखाओं में क्रमश: Bb, Cc, Dd व Ee लम्बों की दूरियाँ काटकर b, c, d व e बिन्दुओं को ज्ञात कीजिए । A, b, c,d व e बिन्दुओं को मिलाने पर बनी आकृति सर्वेक्षित माला रेखा की सही आकृति को प्रकट करेगी।
[।।।] समापक त्रुटि के निराकरण की गणितीय विधि 
(Mathematical method of eliminating the closing error) 
आलेखी विधि में तो प्लान के विभिन्न बिन्दुओं पर त्रुटि प्रदर्शित करने वाली रेखा के समान्तर खींची जाने वाली Bb, Cc, Dd व Ee रेखाओं की लम्बाइयों को ज्यामितीय रचना के द्वारा ज्ञात करते हैं, परन्तु गणितीय विधि में इन समान्तर रेखाओं की लम्बाइयों को निम्न सूत्र की सहायता से निश्चित करते हैं :
किसी बिन्दु की के सहारे प्रारम्भिक स्टेशन से दूरी / मालारेखा की सम्पूर्ण लम्बाई×समापक त्रुटि की लम्बाई

Bb= AB/ FA(AB+BC+CD+DE+EF)

Cc = AB + BC/FA (AB + BC + CD + DE + EF)

Dd= AB + BC + CD/FA (AB + BC + CD + DE + EF)

Ee = AB + BC CD + DE/FA (AB + BC CD + DE + EF)
समापक त्रुटि दूर करके नवीन प्लान बनाने की शेष विधि आलेखी विधि के समान होती है।

अन्तर्गत कोणों का परिकलन 
(Calculation of Included Angles)
दो सरल रेखाओं के एक बिन्दु पर मिलने से दो कोण बनते हैं, जिन्हें अन्तर्गत कोण कहते हैं। बन्द माला रेखा में दो संलग्न भुजाओं के मध्य भीतर की ओर के अन्तर्गत कोण को अन्त: कोण (interior angle) तथा बाहर की ओर बनने वाले अन्तर्गत कोण को बाह्य कोण (exterior angle) की संज्ञा दी जाती है। चूँकि किसी एक बिन्दु पर बने अन्त: कोण व बाह्य कोण का योग 360° होता है अतः इन कोणों में यदि किसी एक कोण का मान ज्ञात है तो इस मान को 360° में से घटाकर दूसरे कोण का मान ज्ञात किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त किसी बन्द माला रेखा में जितने स्टेशन या ज़रीब रेखाएँ होती हैं उतनी ही संख्या में उसमें अन्तः तथा बाह्य कोण होते हैं। बन्द माला रेखा के समस्त अन्तः कोणों अथवा समस्त बाह्य कोणों के योग को निम्न सूत्रों की सहायता से ज्ञात करते हैं :
(1) बन्द माला रेखा के समस्त अंतः कोणों का योग, 
      = 2n-4 समकोण
(2) बन्द माला रेखा के समस्त बाह्य कोणों का योग, 
      = 2 n + 4 समकोण
(उपरोक्त सूत्रों में न= माला रेखा की भुजाओं की संख्या) 
उदाहरणार्थ, यदि किसी बन्द माला रेखा में पाँच ज़रीब रेखाएँ है तो माला रेखा के समस्त अन्तः कोणों का योग 2x5-4=6 समीकरण तथा समस्त बाह्य कोणों का योग 2x5+4= 14 समकोण होगा। 
प्रिज्मीय कम्पास सर्वेक्षण में प्लान बनाते समय कभी-कभी अन्तर्गत कोणों का परिकलन करना आवश्यक हो जाता है। हम जानते हैं कि माला रेखा सर्वेक्षण में प्रत्येक स्टेशन पर अगली ज़रीब रेखा के अग्र दिक्मान एवं पिछली जरीब रेखा के पश्चदिक्मान को पढ़ा जाता है। इन दोनों दिक्मानों का अन्तर सम्बन्धित स्टेशन पर अन्तः एवं बाह्य दोनों कोणों में से किसी एक कोण को प्रकट करेगा। उदाहरणार्थ, चित्र 19.15 में A स्टेशन पर दोनों दिकुमानों का अन्तर अन्तः कोण को प्रकट करता है जबकि D व E स्टेशनों पर इस अन्तर से बाह्य कोण प्रकट होते हैं। यदि यह अन्तर बाह्य कोण को प्रकट करता है तो इस अन्तर को 360° में से घटाकर अन्तः कोण का मान ज्ञात कर लेते हैं। अन्तर्गत कोणों का परिकलन करने से पूर्व दिये गये दिकुमानों को अंकित करके क्षेत्र का कच्चा रेखाचित्र बना लेना चाहिए जिससे किसी स्टेशन पर दोनों दिक्मानों के अन्तर से प्रकट अन्त: या बाह्य कोण को पहचानने में कोई भूल न हो। इसके अतिरिक्त कार्य समाप्त होने पर ऊपर लिखे गये सूत्रों की सहायता से परिकलन की शुद्धता को जाँच लेना चाहिए। अन्तर्गत कोण ज्ञात करने की इस विधि को आगे उदाहरण देकर समझाया गया है। 
उदाहरण (7) निम्नलिखित दिक्मानों की सहायता से बन्द मालारेखा के अन्त: व बाह्य कोणों का परिकलन कीजिये: 
हल-चित्र  के अनुसार कच्चा प्लान बनाने के बाद भिन्न-भिन्न स्टेशनों पर अन्तः एवं बाह्य कोणों का सारणी 6 के अनुसार परिकलन कीजिए । 
जैसा कि रेखाचित्र से प्रकट है A, B व C स्टेशनों में प्रत्येक पर पढ़े गये दो रेखाओं के दिकमानों का अन्तर सम्बन्धित स्टेशन पर अन्तः कोण का मान प्रदर्शित करता है
अत: इन स्टेशनों पर बाह्य कोणों का मान ज्ञात करने के लिये सम्बन्धित अन्त:कोण को 360° में से घटाया गया है। इसके विपरीत D तथा E बिन्दुओं पर यह अन्तर बाह्य कोणों का मान प्रदर्शित करता है अतः इन स्टेशनों पर सम्बन्धित बाह्य कोणों को 360° में से घटाकर अन्तः कोण ज्ञात किये गये हैं।

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