मौसमी संकट और आपदाएँ (मौसम संबंधी खतरे और आपदाएँ) प्रकृत्तिजन्य अप्रत्याशित ऐसी सभी घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों को इतना तीव्र कर देती हैं कि विनाश की स्थिति उत्पन्न होती है, चरम प्राकृतिक घटनाएँ या आपदा कहलाती है। इन चरम घटनाओं या प्रकोपों से मानव समाज, जन्तु एवं पादप समुदाय को अपार क्षति होती है। चरम घटनाओं में ज्वालामुखी विस्फोट, दीर्घकालिक सूखा, भीषण बाढ़, वायुमण्डलीय चरम घटनाएँ; जैसे- चक्रवात, तड़ित झंझा, टॉरनेडो, टाइफून, वृष्टि प्रस्फोट, ताप व शीत लहर, हिम झील प्रस्फोटन आदि शामिल होते हैं। प्राकृतिक और मानव जनित कारणों से घटित होने वाली सम्पूर्ण वायुमण्डलीय एवं पार्थिव चरम घटनाओं को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है। इन आपदाओं से उत्पन्न विनाश की स्थिति में धन-जन की अपार हानि होती है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन निम्न प्रकार है:- चक्रवात (Cyclone) 30° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्णकटिबन्धीय चक्रवात कहते हैं। ये आयनवर्ती क्षेत्रों में पाए जाने वाला एक निम्न वायुदाब अभिसरणीय परिसंचरण तन्त्र होता है। इस चक्रवात का औसत व्यास लगभग 640 किमी...
भू आकृति विज्ञान की प्रकृति, विषय क्षेत्र एवं संकल्पना
(Nature, Scope and Concepts of Geomorphology)
भू आकृति विज्ञान का भौतिक भूगोल में स्थान
(The Place of Geomorphology in Physical Geography)
भूगोल के प्रारंभिक स्वरुप में भौतिक भूगोल का विकास हुआ जिसमें पृथ्वी के विभिन्न परिमण्डलो स्थलमण्डल, जलमण्डल तथा वायुमण्डल का क्रमबद्ध अध्ययन सम्मिलित किया गया तथा कालानर में इन तीनों परिमण्डलों के जैविक समुदाय के विकास के लिए अनुकूल दशाओं वाले भौगोलिक क्षेत्र को पृथक रूप में पहचाना गया जिसे जीवमण्डल कहा गया । (भूआकृति विज्ञान भौतिक भूगोल की प्रमुख शाखा के रूप में विकसित हुई जिसे भूदश्य का भूगोल भी कहा जाता है। इसमें स्थलमण्डल की संरचना, संगठन तथा स्वरुप का अध्ययन किया जाता है 'भू आकृति विज्ञान' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अमेरीकी विद्वान पावेल (Powell J,W) तथा मेकगी (MiGce WJ) ने 1880 में किया इन्होने इसे भूविज्ञान से विकसित शाखा बताया।
भू आकृति विज्ञान स्थलरूपों का विज्ञान है जिसमें मुख्यतः भूपटल की संरचना पर प्रकाश डाला जाता है। भूआकृति विज्ञान अंग्रेजी भाषा, के 'जियाँमाफोलोजी शब्द का पर्याय है जिसकी उत्पत्ति पीक भाषा के तीन शब्दों, जीओ (Geo), मॉ्फी (Morphe) तथा लोगोस (Logos) से मिली हुई है जिनका अर्थ क्रमश: Geo = Earth (पृथ्वी), Morphe = Shape or Form (रूप) तथा Logos = Discourse (वर्णन) होता है। अर्थात पृथ्वी के आकार या स्वरूप का वर्णन ही भूआकृति विज्ञान है । यद्यपि प्रारंभिक समय में भूआकृति विज्ञान पृथ्वी की भूआकृतियों का विज्ञान माना जाता था लेकिन वर्तमान में यह विस्तृत हुआ है तथा इसमें पृथ्वी तल के विवरण के साथ ही स्थल रूपों के परिवर्तनशील स्वरुप इनके परस्पर अन्तक्रियात्मक संबंधों, तथा इन संबंधों को बनाये रखने वाले प्राकृतिक मक्रमों का विभिन्न भौगोलिक कारकों को नियंत्रणकारी भूमिका के संदर्भ में अध्ययन किया जाता है। भूआकृति विज्ञान को विभिन्न विद्वानों मे निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है।
वोरसेस्टर महोदय के अनुसार, "भू आकृति विज्ञान वन विज्ञान है जो पृथ्वी तल के उच्चावच लक्षणों का व्याख्यात्मक वर्णन करता है। यहाँ पर भूआकृति विज्ञान को केवल पृथ्वी के उच्चावय संबंधी लक्षणों के अध्ययन तक ही सीमित रखा गया है जबकि प्रो. बारबरी ने भूआकृति विज्ञान में स्थलाकृतियों के अतिरिक्त महासागरीय नितल की बनावट एवं दीयों को भी समाहित किया है उनके अनुसार, भू आकृति विज्ञान मूलतः भूविज्ञान ही है," (Geomorphology is Primarily geology) जिसमें अन्तः सागरीय आकृतियों (Submarine Forms) का भी अध्ययन किया जाता।
मोंकहाउस के अनुसार, "भू आकृति विज्ञान भू-आकृतियों की उत्पत्ति और विकास को वैज्ञानिक विवेचना है। अमेरिकी भूवैज्ञानिक आर्थर स्ट्रेहलर के अनुसार, "भूआकृति विज्ञान सभी प्रकार की भूआकृतियों की उत्पति तथा उनके क्रमबद्ध विकास की व्याख्या करता है तथा यह भौतिक भूगोल का मुख्य भाग है।
जर्मन विद्वान माओत्सचेक (Mnchutschek, E) के अनुसार, "पृथ्वी के ठोस तल की आकृति का निर्माण करने वाली भौतिक प्रक्रियाओं का तथा उनके द्वारा निर्मित भू आकृतियों की जानकारी ही भू आकृति विज्ञान है।"
(इस प्रकार भू आकृति विज्ञान वह विज्ञान है जिसमें भूसतह की सामान्य बनावट, स्थलरुपों की उत्पत्ति, विकास, विवरण तथा वर्गीकरण का अध्ययन किया जाता है साथ ही इनके अन्तः संबंद्ध संरचना तथा भूवैज्ञानिक इतिहास के साथ आये परिवर्तन पर भी प्रकाश डाला जाता है) अनेक विद्वान भूआकृति विज्ञान (Geomorphology) एवं भूआकारिकी विज्ञान (Physiography) समानार्थी मान लेते हैं जबकि दोनों में पर्याप्त अंतर है। (बॉक्स 1.1) जहाँ भू आकृति विज्ञान में प्रक्रियाओं तथा शक्तियों (Forces) पर बल दिया जाता है वहीं भूआकारिकी विज्ञान में प्रादेशिक परिणामों को महत्वपूर्ण माना जाता है जिसका क्षेत्र विस्तृत है।
भूआकृतिक विचारों के विकास का इतिहास
(History of Development of Geomorphic Ideas)
प्राचीन काल में सिचाई विकास के दौरान जल के उपयोग करने के साथ ही मानव भूआकृति विज्ञान का महत्व समझने लगा था। आज से 5000 वर्ष पूर्व नील नदी में बाढ़ आयी तभी जल प्रबन्धन को सोच विकसित हुई तथा विशाल नदियों के व्यवहार को समाझा जाने लगा। इसी प्रकार चीन एवं भारतीय सभ्यताओं में भी देखने को मिला है। यूनान एवं रोमन काल में अनेक भूगोल वेत्ताओं ने भूपटल की भू आकृतियों का अध्ययन किया है यहाँ से वैज्ञानिक विचारों का विकास हुआ है।
हेरोडोटस (Herodotus, 485-425 B.C.): आपने एशिया माइनर यूनान, पर्शिया, काला सागर आदि की यात्राएं कर कुछ भूवैज्ञानिक अवलोकन प्रस्तुत किये थे। उन्होंने नील नदी में प्रतिवर्ष जमा होने वाली गाद (Silt) एवं मृत्तिका की दर एवं मात्रा के महत्व को पहचाना तथा यह कथन प्रस्तुत किया कि "मिश्र नील नदी का वरदान है। यूनानी लोगों के इस अन्धविश्वास को सष्ट किया कि पर्वत किसी देेेतवव के क्रोध से नहीं टूटते बरन इनके पीछे भूकम्प मुख्य शक्ति है। मित्र में पहाड़ी क्षेत्रों में सीपियों के जीवों का अध्ययन कर बताया कि यहां पूर्व में सागरीय विस्तार था।
स्ट्रेबो (Strabo, 54 B.C.-25 A.D.): इन्होंने विभिन्न क्षेत्रों का प्रमण कर अवलोकन प्रस्तुत किये। स्ट्रेबो ने स्थानीय भूमि के उत्थान तथा अवकलन के उदाहरण प्रस्तुत किये। आपने नदियों को अपरदन निक्षेपण तथा डेल्टा निर्माण क्रिया का व्यवस्थित अध्ययन किया। उन्होंने आगे स्पष्ट किया कि डेल्टा निर्माण नदियों के मार्ग एवं स्थलीय प्रकृति पर निर्भर करता है यदि नदी का मार्ग छोटा एवं स्थल चट्टानी है तो वहां ज्वारनदमुख (Estury) बनेगा। स्ट्रेबो एक प्रादेशिक भूगोलवेत्ता थे जिन्होंने ম आकृतियों के निर्माण की सम्पूर्ण प्रक्रिया को प्रस्तुत किया है। विसुवियस पर्वत को ज्वालामुखी से निर्मित बताया। उसने यह भी अवलोकन किया कि ज्वार भाटा डेल्टा निर्माण को प्रभावित करता है।
सेनेका (Seneca, Lucius Annaeus, 4 B.C.-65 A.D.): इनका विशिष्टीकरण भौतिक भूगोल में था इन्होंने भूकम्प द्वारा होने वाले चट्टानी क्षरण तथा डेल्टा निर्माण का विस्तृत विवरण दिया है। नदियों के अपरदन कार्य को स्पष्ट कर बताया कि नदियों कटाव द्वारा पाटी को गहरा करती हैं। इन्हें वर्षा से पर्याप्त जल नहीं मित पाता है। इस प्रकार प्राचीन विद्वानों ने अपने समय के परिप्रेक्ष्य में स्तरीय कार्य कर भू-आकृति विज्ञान को विकसित किया।
रोमन एवं यूनानी साम्राज्य में भू आकृति विज्ञान के क्षेत्र में निरन्तर विकास होता रहा लेकिन जैसे ही इनका पतन हुआ इसाई धर्मावलंबियों का बोलबाला बढ़ गया फलस्वरुप ज्ञान पर धर्म का प्रभाव पड़ने लगा। सम्पूर्ण भौगोलिक अध्ययन बाइबिल के अनुसार होने लगा। इस काल को अन्धयुग कहा गया। यह यूरोप में तीसरी शताब्दी से 12 वीं शताब्दी तक चला। यूरोप में धार्मिक नियमों से प्रभावित भौगोलिक अध्ययन हो रहा था तभी अरबवासी भारत, मध्य एशिया तथा पूर्वी अफ्रीका के समुद्र तटीय क्षेत्रों से अपनी यात्राओं एवं व्यापार से जुड़ने लगे थे। इसी दौरान कुछ ऐसे पन्ध भी लिखे गये जिनमें भूआकृतिक प्रक्रमों का विवरण मिलता है। 10 वीं से 12 वीं शताब्दी के मध्य लिखित परन्थ शुद्धता के भाइयों की वार्ता का मन्य" (The Discourses of the Brothers of purity) में नदी तथा पवन के द्वारा अपरदन एवं निक्षेपण क्रियाओं को स्पष्ट किया गया है अरब भूगोलवेत्ताओं में अविसेेेना ( 9801137 AD.) या इब्न-सिना (Ibn-Sina) को भूआकृति विज्ञान का लेखक माना गया है इन्होंने पर्वत निर्माण, नदी व पवन द्वारा अपरदन तथा पाटियों के विकास क्रम को स्पष्ट किया है।
आकस्मिकतावाद या प्रलयवादिता (Catastrophism)
भूआकृति विज्ञान के क्षेत्र में प्रथम शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक के लम्बे अन्तराल के उपरान्त 15वीं से 17वीं शताब्दी के दौरान नवीन विषयवस्तु का समावेश हुआ। भूआकृति विज्ञान के विद्वान यह मानने लगे कि भूआकृतियों का निर्माण आकरिमक घटनाओं के परिणामस्वरुप हुआ है। पृथ्वी की आयु का आकलन कुछ हजार वर्षों में किया गया जिस कारण मनुष्य ने अपने जीवन काल में पर्यवेक्षक एवं अवलोकित भूगर्भिक घटनाओं को ही महत्वपूर्ण माना तथा इन घटनाओं को आकस्मिक रूप में निर्मित होना माना । ज्वालामुखी एवं भूकंप नामक आकस्मिक क्रियाएँ अल्प समय में अपने प्रलयवादी प्रभाव से हदय विदारक दृश्य उत्पन्न कर देती है। इन आकस्मिक घटनाओं से मानव के सामने देखते ही देखते विभिन्न प्रकार की भूआकृतियों निर्मित हो जाती है। इस प्रभाव के कारण घूम गति से निर्मित होने वाली भूआकृतियों पर मानव का ध्यान नहीं गया तथा आकस्मिकतावाद को महत्व मिला। यह प्रभाव भूआकारों के निर्माण तक ही सीमित नहीं रहा चरन् इसका प्रभाव जीव विज्ञान पर भी पड़ा तथा यह माना गया कि कुछ जीव पृथ्वी पर आकस्मिक रूप से उत्पन्न हुए तथा इसी प्रकार विलुप्त हो गये तथा इनका स्थान नवीन जीवों ने ले लिया।
15वीं से 17वीं शताब्दी के मध्य आकस्मिकवाद का प्रभाव रता लेकन इस दौरान भी कुछ विद्वानों ने विकासशील प्रवृत्ति के अनुसार कार्य किये। उनमें लिओनार्दो द विसी, बफन, टा गायोनी होजेरी गुएटहाड, देस्मारेत तथा ही सांसर प्रमुख हैं।
लिओनार्डो द विसी (Leonardo-da-Vinci, 14521519 : ये इटली के प्रसिद्ध वास्तुकार, इंजिनियर तथा वैज्ञानिक थे। इन्होंने भूसतह पर धीमी गति से बनने वाली भू-आकृतियों का निरीक्षण किया तथा प्रथम बार स्पष्ट किया कि नदियाँ स्वयं ही बिना किसी बाहरी प्रक्रम की सहायता से अपरदन क्रिया द्वारा घाटियों का निर्माण करती है। प्रवाहित जल अपरदन द्वारा प्राप्त तलछल को अन्यत्र ले जाकर जमा करता है।
अठारहवीं शताब्दी में आधुनिक विज्ञान का विकास आरम्भ हुआ जिसमें मूलतः इंजिनियरों का योगदान रहा जो भूआकारों के गतिक पक्ष से अवगत थे। ये विद्वान् भूआकारों के गतिक पक्ष का अध्ययन नहरों तथा सड़कों के निर्माण के लिए करते थे। इसी दौरान लेम्बलाही (Lamblardic) ने पेज डी काक्स (Fays de Caux) के तटवती क्षेत्र से कंकड़ों (Pebbles) के प्रवाह को मापने का प्रयास किया। इलायज (Du Boys) ने नदी द्वारा प्रचाहित कणों तथा प्रवाह वेग (Velocity) में सम्बन्ध स्पष्ट किया। ये सड़क एवं पुल अभियान्त्रिक थे। इन लोगों ने प्रायोगिक दृष्टिकोणों से पूकृतिक विचारों को विकसित करने का आधार प्रदान किया। लुइस फिलिप के शासन के अन्त होने के बाद सुरेल (Sarrell) ने इन विचारों का अनुसरण करते हुऐ प्रचण्ड धारा सिद्धान्त (Theory of Torrent) दिया तथा 1.25,000 तथा 1:50,000 मापनी पर मानचित्र भी प्रस्तुत किये।
बफन (BufTon, 17071788 ): प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान बफन ने अपरदन के सभी प्रमों में नदियों को सर्वाधिक शक्तिशाली माना है। नदियाँ किसी भी सत्य भाग को घीरे-घरे अपरदित करके सागर तल तक ले जाती हैं। इसके काल में भौगोलिक ज्ञान पर बादल के विचारों का प्रभाव था।
टार्गायोनी-टोजेटी (Targionl-tozetty, 17121784 : प्रसिद्ध इटेलियन विद्वान टोजेटी ने भी नदी अपरदन की शक्ति को स्पष्ट किया उनके अनुसार नदियाँ सर्वत्र समानरुप में अपरदन नहीं करती है जिसका प्रमुख कारण चट्टानी सरंचना में भिन्नता है। कठोर चट्टान देर से तथा मुलायम चट्टानें शीघ्रता से कट जाती हैं। चट्टानी संरचना मार्ग मोड़दार बन जाते हैं। इस प्रकार टार्गायोनी टोजेटी ने सम्पूर्ण अपरदन क्रिया का नियंत्रक कारक चट्टानों की संरचना को माना है।
गुएटहाई (Guctihard, 17151786 : ये प्रमुख फ्रांसीसी भूवैज्ञानिक पे। इनोंने नदियों द्वारा पर्वतों के अवक्रमण (Degradation) द्वारा काटकर नौचा करने की क्रिया को स्पष्ट किया। निक्षेपण के बारे में उन्होंने बताया कि नदियाँ अपरदन से प्राप्त तलछट को समुद्र में न ले जाकर उसके अधिकांश भाग को नदी के मार्ग में ही जमा करती हैं। स्थलीय भागों के अवक्रमण अथवा निम्नीकरण में उन्होंने नदी की तुलना में सागरीय अपरदन को मभावो माना है। उन्होंने उचरी फ्रांस के तटीय भागों पर अपरदन से निर्मित अनेक भाओं का अध्ययन किया। गुएटाई ने मध्य फ्रांस के अनेक पहाड़ियों (जिन्हें Puys कहा गया है) को ज्वालामुखी से निर्मित माना है।
देस्मारेस्त (Destarest, 17251815 A.D.): ये प्रसिद्ध फ्रांसीसी भूवैज्ञानिक मे उन्होंने बताया कि मध्यवर्ती फ्रांस को नदी घाटियों का निर्माण स्वयं इन नदी घाटियों ने ही किया है जिनसे होकर ये प्रवाहित हो रही है देस्मारेस्त महोदय ने भूआकारों, के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का भी आध्ययन किया था।
डी-सौसर (De-Saussure, 17401799 A.D.): सौसर महोदय स्वीटजरलैण्ड के प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक थे जिन्होंने ही सर्वप्रथम तत्कालीन समय में भूविज्ञान शब्द का प्रयोग किया। आल्पस पर अनेक शोध किये तथा स्पष्ट किया कि यहाँ पायो जाने वाली गहरी नदी घाटियों का निर्माण स्वयं इन नदियों द्वारा को किया गया है। इन्होंने हिमनदियों के अपरदन कार्यों का भी अध्ययन किया। डी-सॉसर महोदय ने हिमानी अपरदन से निर्मित स्थलाकृति 'मेष शिला' (Roche Moutonne) का नामकरण किया था। यद्यपि उन्होंने सर्वत्र देखे गये तथ्यों को उसी रूप में निरुपित नहीं किया फिर भी उनके द्वारा संग्रहित सूचनाओं के आधार पर जेम्स हट्टन ने एकरूपता वाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया था।
भू-आकृति विज्ञान में नूतन प्रवृत्तियाँ (Recent Trends in Geomorphology)
19वीं शताब्दी में जैसे ही भू-आकृति विज्ञान का स्वरूप एक स्वतन्त्र विषय के रूप में स्थापित हुआ इसमें नूतन प्रवृत्तियों का समावेश प्रारंभ हो गया, जिनका आधार अठारहवीं शताब्दी का भू-आकृतिक विकास रहा। जेम्स हसन द्वारा चनीय व्यवस्था के विकास के उपरांत इस विषय में क्रान्तिकारी परिवर्तन आये। स्वीस विद्वान जॉन जैकोब सचर ने हिमनद की गतियों का अध्ययन किया था, बर्नाडों ने हिमनद के कटाव पर प्रकाश डाला था। डी कारपेन्टीयर ने "हिपानी सिद्धान्त" का प्रतिपादन किया। यूरोपीय भू-आकृति वालों ने काफी योगदान दिया। इनमें चार्ल्स लियेल, लुई आगासीज (हिमयुग की संकल्पना), प्लेफेयर, बर्नहार्डी कारपेण्टि अर, रेमजे, रिचथोफेन, पेशेल, पेंक आदि प्रमुख हैं। पॉवेल निम्नतम अपरदन तल या आधार तल (Bane Level) का अध्ययन किया। गिल्बर्ट ने 'असमान ढाल का नियम प्रस्तुत किया। प्रसिद्ध अमेरिकी भू-वैज्ञानिक इष्टन (Dutton CE) ने सर्वप्रथम 'भूसंतुलन' (Isostasy) शब्द का नामकरण किया था। डेविस महोदय ने स्थलरूपों की उत्पत्ति से सम्बन्धित 'अपरदन चक्र के सिद्धान्त' (Cycle of Erosion) का प्रतिपादन करके भू-आकृति विज्ञान को नवीन स्वरूप दिया। भू-आकृति विज्ञान के व्यवस्थित अध्ययन के लिए सर्वेषाम अल्बेट पेंक ने भू-आकृति विज्ञान पर पुस्तक लिखी। इनके पुत्र वाल्थर पैंक ने अमेरिका विद्वान डेविस द्वारा प्रतिपादित अपरदन चक्र को संकल्पना की आलोचना करते हुए लिखा कि अपरदन चक्र एवं भू-उत्थान दोनों साथ-साथ चलते हैं, जबकि डेविस ने स्थल रूपों के विकास में संरचना, प्रक्रम तथा अवस्या को अधिक महत्वपूर्ण माना है।
भू-आकृति विज्ञान में विगत दशकों में निम्नलिखित नूतन प्रवृत्तियाँ उभर कर सामने आयी हैं
1. एकरूपतावाद के सिद्धान्त को हटन महोदय ने प्रतिपादित किया था, जिसे सावधानीपूर्वक प्रयोग किया जाता है। यह सिद्धान्त सर्वत्र लागू नहीं होता है। जैसे कई मरुस्थलीय प्रदेशों में एकरूपता न तोकर कुछ नदी-धाटियों की शाखाएं विद्यमान रहती हैं। एमपी अहाँ वर्तमान काल में वर्षा नहीं होती है। महादीप विस्थापन के सिद्धान्त तथा प्लेट वितरिको के आधार पर स्थलखण्ड एवं जलवायु पेटियां गतिशील रहती है, जिससे भी एकरूपता के सिद्धान्त का सावधानीपूर्वक विचार किया जाता है।
2. भौगोलिक पक्ष की अपेक्षा भू-वैज्ञानिक पक्ष पर अधिक बल दिया जाता है। जैसे-अघी भौमिक जल के अपक्षय की व्याख्या करने में खनिज विज्ञान तथा शैल स्वर क्रमों (Stratigraphic) आदि के सिद्धान्तों को मद्देनजर रखा जाता है।
3. डेविस के अपरदन चक्र को विचारधारा का महत्व कम होता जा रहा है। इसके स्थान पर वाल्टर पैंक के विचार को महत्व दिया जा रहा है। भू-आकृतियों के डाल से सम्बन्धित नवीन सिद्धान्तों बैसे-पैंक-किंग-मॉडल, हैक का गतिक सन्तुलन सिद्धान्त (Dynamic Equilibrium theory) तथा प्लेट टेक्टोनिक सिद्धांत को महत्व मिल रहा है। आर्थर होम्स के संवहन पारा सिद्धान्त को भी मान्यता मिल चुकी है।
4. भू-आकृति विज्ञान में भू-आकृति के प्रादेशीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
5. भू-आकृति विज्ञान के सिद्धान्तों को व्यावहारिक जवन में उपयोग करने की प्रवृत्ति बढती जा रही है। भू-आकृति विज्ञान के सिद्धांतों का उपयोग इंजीनियरिंग, भू-विज्ञान में सिंचाई के लिए, गाँध बनाने, सड़को, रेलमार्गों पुलों तथा नहरों आदि में किया जाता है।
6. भू-आकृति विज्ञान में मात्राकरण (Unification) का प्रयोग बढ़ रहा है। भू-आकृति विज्ञान में मात्रात्मक विवेचन को आकारमिति (Morphometry) कहते हैं। इसमें सांख्यिकीय तथा गणितीय विधियों का उपयोग बढ़ता जा रहा है।
7. भू-आकृति विज्ञान में मॉडल निर्माण तथा परीक्षण विधियों का उपयोग बढ़ता जा रहा है। इसमें प्राकृतिक अनुरूप विधि (Natural Analogue System), भौतिक विधि (Physical System) तथा सामान्य विधि (General System) आदि मॉडलों का प्रयोग हो रहा है।
8. भू-आकृति विज्ञान का अधिकाधिक आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग हो रहा है। इसमें कृषि सिंचाई साधन, विद्युत निर्माण प्रमुख क्षेत्र हैं।
9. भू-आकृतियों की व्याख्या के कारण केवल साल खण्डों की ही नहीं वरन जलखण्डों के भू-पटल की भू-आकृतियों का अध्ययन निरीक्षण किया जा रहा है।
10. तंत्र संकल्पना का प्रयोग हो रहा है. इसमें एक वस्तु का दूसरी वस्तु से सम्बन्ध तथा उनका वस्तुओं से सम्बन्ध एवं उनके व्यक्तिगत गुणों का अध्ययन किया।
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