मौसमी संकट और आपदाएँ (मौसम संबंधी खतरे और आपदाएँ) प्रकृत्तिजन्य अप्रत्याशित ऐसी सभी घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों को इतना तीव्र कर देती हैं कि विनाश की स्थिति उत्पन्न होती है, चरम प्राकृतिक घटनाएँ या आपदा कहलाती है। इन चरम घटनाओं या प्रकोपों से मानव समाज, जन्तु एवं पादप समुदाय को अपार क्षति होती है। चरम घटनाओं में ज्वालामुखी विस्फोट, दीर्घकालिक सूखा, भीषण बाढ़, वायुमण्डलीय चरम घटनाएँ; जैसे- चक्रवात, तड़ित झंझा, टॉरनेडो, टाइफून, वृष्टि प्रस्फोट, ताप व शीत लहर, हिम झील प्रस्फोटन आदि शामिल होते हैं। प्राकृतिक और मानव जनित कारणों से घटित होने वाली सम्पूर्ण वायुमण्डलीय एवं पार्थिव चरम घटनाओं को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है। इन आपदाओं से उत्पन्न विनाश की स्थिति में धन-जन की अपार हानि होती है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन निम्न प्रकार है:- चक्रवात (Cyclone) 30° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्णकटिबन्धीय चक्रवात कहते हैं। ये आयनवर्ती क्षेत्रों में पाए जाने वाला एक निम्न वायुदाब अभिसरणीय परिसंचरण तन्त्र होता है। इस चक्रवात का औसत व्यास लगभग 640 किमी...
उत्तराखंड की प्रवाह प्रणाली
Drainage system of uttarakhand
1) प्रवाह प्रणाली (Drainage Systems)
अपवाह तन्त्र मुख्य सरिता तथा उसकी सहायक सरिताओं का एक विकसित करती है । भूगर्भिक संरचना, जलवायविक दशा, वानस्पतिक आवरण आदि का इस पर प्रभाव पड़ता है। किसी क्षेत्र में जो अपवाह तन्त्र (drainage pattern) विकसित होता है वह क्षणिक न होकर क्रमित विकसित होता है। भूगर्भिक सहमति अथवा असहमति के कारण इसके स्वरूप में भिन्नता होती है। कालान्तरण में एक विकसित प्रवाह प्रणाली (drainage system) अथवा अपवाह तंत्र का विकास होता है।
जलधारा ढाल के सापेक्ष प्रवाहित होकर धीरे-धीरे एक सरिता का रूप धारण कर लेता है इसी में द्वारा एक विकसित प्रवाह प्रणाली का जन्म होता है।' थार्नवरी (Thernbury, W.D) के अनुसार प्रवाह प्रणाली एक अवस्था है जो एक नदी की समस्त धाराओं के सम्मिलित रूप से निति होती है। जिस स्थान पर प्रवाह-तंत्र का विकास होता है वह प्रवाह-व्यवस्था कहलाती है। कुछ विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि किसी स्थान का प्रवाह क्रम प्रवाह प्रणाली है। इस प्रकार कुल विज्ञान प्रवास प्रणाली के अन्तर्गत मुख्य नदी और उसकी सहायक नदियों के अतिरिक्त अन्य नदियों को भी सम्मिलित किया जाता है।
वास्तव में किसी क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली मुख्य नदी एवं उसकी सहायक नदियाँ मिलकर प्रवाह प्रणाली का निर्माण एवं विकास करती हैं। एक क्षेत्र में कई प्रकार की प्रवाह प्रणाली हो सकती है। सभी प्रवाह प्रणाली की प्रकृति समान नहीं हो होती है। फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के स्थलरूपों का विकास होता है यह माना जाता है कि एक प्रवाह प्रणाली में एक ही प्रकार का स्थलरूप विकसित होता है। यदि किसी क्षेत्र में कई प्रवाह प्रणाली न मान कर केवल एक प्रवाह प्रणाली को माना जाए तो स्थलरूपों की उत्पत्ति, विकास एवं विनाश की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के रूप में गंगा नदी प्रवाह प्रणाली, यमुना की प्रवाह प्रणाली, सिन्धु की प्रवाह प्रणाली आदि के द्वारा एक सम्पूर्ण प्रवाह प्रणाली (इकाई) का बोध होता है। इसमें स्थलरूपों की उत्पत्ति, विकास का विनाश का विश्लेषण किया जा सकता है।
जलवायु की भिन्नता, स्थलखण्ड का ढाल, चट्टानों की प्रकृति, संरचनात्मक नियंत्रण, वानस्पतिक वातावरण आदि कारकों के प्रभाव से प्रवाह प्रणाली में भिन्नता होती है। दो सरिताओं के बीच कभी दूरी अधिक तथा कभी दूरी कम होती है। नदियाँ कभी ढाल के सापेक्ष तो कभी ढाल के निरपेक्ष प्रवाहित होता है। इस प्रकार की विशेषतायें प्रभावी कारकों (जलवायु की भिन्नता, स्थलखण्ड का ढाल, चट्टानों की प्रकृति, संरचनात्मक नियंत्रण, वानस्पतिक वातावरण) द्वारा उत्पन्न होती हैं।
2) प्रवाह प्रणाली के प्रकार (Types of Drainage System)
प्रवाह प्रणाली को अनेक कारक प्रभावित करते हैं। कारकों की भिन्नता प्रवाह प्रणाली में भिन्नता उत्पन्न करती है। इनके स्वरूप(Nature) के आधार पर इनकी दशाओं का विश्लेषण किया जा सकता है। इसी प्रकार दशाओं के आधार पर किसी स्थान की प्रवाह प्रणाली किस प्रकार की होगी, का अनुमान लगाया जा सकता है। प्रत्येक प्रवाह प्रणाली की पृथक-पृथक विशेषतायें होती हैं। इन्हीं के आधार पर उनको एक पृथक प्रवाह प्रणाली में रखा जाता है। उत्तराखंड में निम्नलिखित प्रमुख प्रणालियाँ पाई जाती हैं -
(i) जालीनुमा प्रवाह प्रणाली (Trellis Drainage Systems)
(ii) पादपाकार प्रवाह प्रणाली (Dendritic Drainage Systems)
(iii) आयताकार प्रवाह प्रणाली (Rectangular Drainage Systems)
(iv) पूर्ववर्ती प्रवाह प्रणाली (Antecedent Drainage Systems)
(v) अपकेन्द्रीय प्रवाह प्रणाली (Radial Drainage Systems)
(vi) अभिकेन्द्रीय प्रवाह प्रणाली (Centripetal or Inland Drainage Systems)
(vii) वलयाकार प्रवाह प्रणाली (Annular Drainage Systems)
(viii) अनिश्चित प्रवाह प्रणाली (Indeterminate Drainage Systems)
(ix) अध्यारोपित प्रवाह प्रणाली ( Superimposed Drainage Systems)
(x) कंटकीय प्रवाह प्रणाली (Barloed Drainage Systems)
(xi) परनुमा प्रवाह प्रणाली (Pinnate Drainage Systems)
(xii) समानांतर प्रवाह प्रणाली (Parallel Drainage Systems)
(xiii) हेरिंग-अस्थि प्रवाह प्रणाली (Herringbone Drainage Systems)
प्रछन्न प्रवाह प्रणाली (intermittent drainage system)
भूमिगत प्रवाह प्रणाली ( underground drainage system)
उत्तराखण्ड के तराई भागों में प्रछन्न प्रवाह प्रणाली (intermittent drainage system) का विकास हुआ है। अन्य प्रकारों में अधिकांश प्रवाह प्रणालियाँ उत्तराखण्ड हिमालय में दृष्टव्य हैं।
3) उत्तराखण्ड हिमालय की प्रवाह प्रणाली का उद्भव
(Origin of Drainage Systems of Uttarakhand Himalaya)
प्रवाह प्रणाली का सृजन त्वरित नहीं होता है बल्कि मुख्य सरिता के उद्भव के पश्चात् क्रमिक रूप से उसकी सरिताओं का विकास होता है। बाद में एक विस्तृत प्रवाह प्रणाली का निर्माण होता है। प्रवाह प्रणाली के विकास पर भूगर्भिक संरचना, स्थलाकृति, ढाल की प्रकृति, वानस्पतिक आवरण आदि का प्रभाव पड़ता है। इन कारकों के परिवर्तन से प्रवाह प्रणाली में भी परविर्तन होता है। गढ़वाल हिमालय में प्राचीनकाल से ही समय-समय पर इन कारकों में परिवर्तन हुआ जिस कारण यहाँ की प्रमुख नदियों में महान परिवर्तन आया है । यह सत्य है कि प्लेट के संचलन से टेथीज भूसन्नति के मलवा में अनेक बार निमज्जन एवं उन्मज्जन हुआ। कालान्तर में विशाल पर्वत श्रृंखला का निर्माण हुआ।
उत्तराखण्ड की प्रमुख नदियाँ पूर्वगामी अपवाह से संबंधित है। वर्तमान समय में ये नदियाँ हिमालय के दक्षिणी ढाल पर प्रवाहित हैं परन्तु अनेक भगर्भिक संकेत ऐसे प्राप्त हुए हैं जो स्पष्ट करते हैं कि हिमालय के निर्माण के पूर्व ये तिब्बत क्षेत्र में प्रवाहित थी महाहिमालय को 2000 से 4000 मी० की गहराई तक काटकर गार्ज का निर्माण करती हैं। साथ ही इनके पार्श्ववर्ती ढाल पर विभिन्न कालों में निक्षिप्त शैलें भी इस दिशा में संकेत करती हैं।
नदी घाटियों की संरचना एवं बनावट से उत्तराखण्ड हिमालय की प्रवाह प्रणाली के उद्विकास का इतिहास स्पष्ट किया जा सकता है। उत्तराखंड के निर्माण की प्रक्रिया ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी टेथीज भूसन्नति सिकुड़ती गयी। कालान्तर में उत्तर में स्थित ऊँचे भाग तथा दक्षिणी प्रायद्वीप भारत के मध्य टेथिस भूसन्नति सिकुड़कर शिवालिक अथवा इण्डोब्रह्मा के रूप में परिवर्तित हो गयी सम्भवत: गंगा, यमुना एवं काली नदियाँ महा हिमालयी एवं लघु हिमालय के डाल से प्रवाहित होकर शिवालिक नदी में। मलवा का निक्षेप कालान्तर तक करती रहीं। जब शिवालिक श्रेणी का उत्थान हुआ तब उनके मार्ग में जटिल अवरोध उत्पन्न हो गया। ये निम्नवर्ती अपरदन द्वारा अपना मार्ग बना लिया तथा इनके पार्श्व ढाल से अनेक नदियाँ इनमें मिलकर सहयोग करने लगीं। गंगा नदी दक्षिण पश्चिम में प्रवाहित होकर अरब , सागर में प्रवेश करती थी। कालान्तर में पोटवार पठार के उत्थान तथा बंगाल की खाड़ी के धँसाव के कारण गंगा का प्रवाह तंत्र अव्यवस्थित हो गया। फलस्वरूप शिवालिक के निचले भाग से इसकी दिशा पूर्व अथवा लगभग पूर्व हो गयी।
पोटवार पठार के उत्थान एवं गंगा नदी के दिशा- परिवर्तन से शिवालिक पर्वत श्रेणी में प्रवाहित नदियों में नवोन्मेष उत्पन्न हो गया। फलस्वरूप यहाँ की नदियाँ पहाड़ियों को काटकर प्रवाहित होने लगी। कहीं-कहीं पर सॅकरे एवं अत्यन्त गहरे गार्ज का निर्माण कर नदियाँ पर्वतीय अवरोध को छिन्न-भिन्न करने लगी। अलकनंदा एवं भागीरथी मध्य- हिमालय क्षेत्र में अत्यन्त सॅकरे गार्ज का निर्माण किया है। 1800 से 2600 मी० गहरे गार्ज से गुजर कर अपना मार्ग तय करती हुई नदियाँ पार्श्विक ढालों के सहारे प्रवाहित जलघाराओं को सम्मिलित कर ली। फलस्वरूप प्रमुख नदियों का प्रवाह-क्षेत्र निरन्तर विकसित होता गया। उत्तराखण्ड हिमालय की मुख्य नदियाँ ऊँचे-ऊँचे जलविभाजकों से पृथक होकर पृथक प्रवाह-तंत्र का विकास करती हुई वर्तमान स्वरूप को प्राप्त किया।
वास्तव में हिमालय श्रेणी के निर्माण के पूर्व प्रवाहित नदियों का मार्ग इन श्रेणियों के निर्माण के पश्चात् अवरुद्ध हो गया था। मार्ग में अनेक झीलें बन गयी थीं। झीलों से जल ढाल के सापेक्ष प्रवाहित होकर सरिता का रूप धारण किया, इस प्रकार का मत भी अनेक विद्वान प्रस्तुत किए जिसे सत्य स्वीकार नहीं किया जा सकता है। वास्तव में महान हिमालय के निर्माण के पश्चात् दक्षिणी ढाल के सहारे अनेक नदियाँ प्रवाहित होने लगीं। लघु तथा शिवालिक पर्वत श्रेणियों के निर्माण काल में ये ही नदियाँ सक्रिय रहकर अपने मार्ग का विकास करती गयीं। कालान्तर में उत्तराखण्ड हिमालय की एक विस्तृत प्रवाह प्रणाली विकसित हुई। उत्तराखण्ड हिमालय का वर्तमान समय में भी उत्थान हो रहा है। नदियाँ अपनी विकास की तरुणावस्था में है जिस कारण प्रवाह प्रणाली के विकास का सम्भावना बनी हुई है।
4) उत्तराखंड की प्रमुख प्रवाह प्रणालियाँ
(Drainage System of uttarakhand)
उत्तराखंड की समस्त नदियाँ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से गंगा की सहायक नदियाँ है परंतु उत्तराखंड के प्रवाह तंत्र को प्रमुख निम्नांकित वर्गों में विभाजित किया जाता है।
इसे गंगा के नाम से जाना जाता है। भागीरथी एक पौराणिक नदी है जिस कारण इसे गंगा का मूल स्वीकार किया जाता है।
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Drainage System of uttarakhand |
अलकनंदा भागीरथी की मुख्य सहायक नदी है। इसका उद्गम-स्थल अलकापुरी हिमानी है। अपने उद्गम-स्थल (चमोली) से दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती है। कुछ किलोमीटर के पश्चात् माणा। गाँव (भारत का अन्तिम गाँव) के निकट इसमें सरस्वती नदी आकर मिलती है। सरस्वती नदी का उद्गम-स्थल देवता है। अलकनंदा की एक अन्य महत्वपूर्ण सहायक नदी धौलीगंगा है। धौलीगंगा। का उद्गम स्थल कुलिंग है। टेढ़े-मेढ़े मार्गों से प्रवाहित होती हुई यह नदी विष्णुप्रयाग में अलकनन्दा से । मिलती है। घंटी पर्वत से निकल कर बिरही नदी तीव्र गति से प्रवाहित होती हुई बिरही नामक स्थान क अलकनन्दा को जल प्रदान करती है। नंदाकिनी नदी त्रिशूल पर्वत से निकल कर एक पतली धारा के रूप में पूर्व-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती हुई नन्द प्रयाग में अलकनन्दा से मिलती है। नन्द प्रयाग तक अलकनन्दा का प्रवाह क्षेत्र काफी विशाल हो जाता है। परन्तु जटिल भ्वाकृतिक तन्त्र में इसका प्रवाह क्षेत्र है जिस कारण अनेक स्थलाकृतियों का सृजन हुआ है।
पिण्डारी हिमानी (3644 मी०) से निकल कर गढ़वाल हिमालय की पूरवी सीमा के सहारे प्रवाहित होती पिण्डर नदी मार्ग में अनेक स्थलाकृतियों का निर्माण करती हुई बायीं ओर से कर्णप्रयाग में अलकनन्दा से मिलती है यह बड़ी सहायक नदी है जिसमें सिमली के निकट आटागाड नदी दूघातोलो पर्वत के पूर्वी ढाल से आकर मिलाती है। अलकनन्दा की एक अन्य बड़ी सहायक नदी मन्दाकिनी है जो केदार हिमालय से निकल कर गहरी-संकीर्ण घाटी में दक्षिण-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती हुई रुद्र प्रयाग में अलकनन्दा को अपना जल प्रदान करती है। मन्दाकिनी में मधुगंगा मिल कर इसके प्रवाह क्षे्र को काफी बड़ा कर देती है। वास्तव में मधुगंगा मद्महेश्वर से निकल कर तीव्र ढाल प्रवणता के साथ प्रवाहित होती हुई कालीकट के निकट मन्दाकिनी से मिलती है।
भागीरथी का उद्गम-स्थल गोमुख (उत्तरकाशी) है। यहाँ से दक्षिण-पश्चिम दिशा में तीन ढाल प्रवणता के सहारे प्रवाहित होती है। 10 किलोमीटर प्रवाहित होने के पश्चात् इसकी दिशा दक्षिण पुन: दक्षिण-पश्चिम हो जाती है। इसकी सबसे विशाल नदी भिलंगना सहायक नदी है। भिलंगना खतलिंग. हिमानी से निकल कर बाल गंगा जैसी सहायक नदियों के साथ होती हुई आगे बढ़ती है मार्ग में जाडगंगा (जाहवी), काल्दीगाड, जैपुर आदि का जल आत्मसत कर अनेक अपरदनात्मक स्थलाकृतियों का निर्माण किया है। यह नदी जल की विशाल राशि लेकर टिहरी (पुरानी) में जिसे पुराणों में गणेश प्रयाग के नाम से जाना जाता है, मिलती है। वर्तमान समय में गणेश प्रयाग जलसमाधि ले चुका है।
अलकनन्दा एवं भागीरथी दोनों देव प्रयाग में मिलती हैं| इनके संगम के नीचे से सम्मिलित प्रवाह को गंगा के नाम से जाना जाता है। देहरादून एवं उत्तरकाशी के पश्चिमी भाग को छोड़कर सम्पूर्ण गढ़वाल को ये नदियाँ अभिसिंचित करती हैं। स्थलाकृतिक विन्यास एवं प्रवाह क्षेत्र की दृष्टि से उत्तराखण्ड की प्रमुख नदियाँ हैं।
गंगा नदी की एक महत्वपूर्ण सहायक नदी नयार नदी है जिसका प्रवाह क्षेत्र पौड़ी गढ़वाल जनपद है। इस नदी का उद्गम स्रोत दूधातोली पर्वत है। प्रारम्भ में यह नदी दो प्रमुख शाखाओं - (1) पूरबी नयार एवं (1) पश्चिमी नयार में विभाजित है। टेढ़े-मेढ़े मार्गों एवं गहरी, संकीर्ण घाटी में प्रवाहित होती हुई नयार नदी व्यासघाट (420 मी०) के निकट गंगा नदी से मिलती है। पूरवी नयार नदी दूधातीला पर्वत के दक्षिणी ढाल (2835 मी०) से निकल कर दक्षिण दिशा में चन्दोली तक प्रवाहित होती है। संगलाकोटी के निकट इसमें मछली नदी अपनी सहायक नदियों के साथ जल प्रदान करती है। पश्चिमी नयार नदी दूधातोली पर्वत के उत्तर-पश्चिमी ढाल से निकलती है। यहाँ से यह दक्षिण-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती है। प्रारम्भ में इसकी दो शाखायें (i) स्योली गाड तथा (ii) थैज्युलीगाड हैं। ये दोनों सरितायें पैठाणी में परस्पर मिलती हैं। दोनों मिल कर पश्चिमी नयार के रूप में प्रवाहित होती हैं। यहाँ से इसका प्रवाह दक्षिण-पश्चिम दिशा में होता है। ज्वाला धाम से 5 किमी0 उत्तर से इसकी दिशा लगभग पश्चिम में हो जाती है। सतपुली से 1 किमी० पश्चिम में यह नदी पूरवी नयार नदी से मिल जाती है। दोनों का सम्मिलित प्रवाह नयार नदी के नाम से जाना जाता है।
भागीरथी प्रवाह प्रणाली
(Bhagirathi Drainage System)
यह प्रवाह प्रणाली उत्तराखंड हिमालय की सबसे विशाल प्रवाह प्रणाली है । भागीरथी एवं अलकनन्दा नदीयां गंगा की दो प्रधान शीर्ष नदियों में हैं। इन दोनों नदियों का संगम देवप्रयाग में है। देवप्रयाग के पश्चात दूधातोली पर्वत के उत्तर-पश्चिमी ढाल से निकलती है। यहाँ से यह दक्षिण-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती है। प्रारम्भ में इसकी दो शाखायें (i) स्योली गाड तथा (ii) थैज्युलीगाड हैं। ये दोनों सरितायें पैठाणी में परस्पर मिलती हैं। दोनों मिल कर पश्चिमी नयार के रूप में प्रवाहित होती हैं। यहाँ से इसका प्रवाह दक्षिण-पश्चिम दिशा में होता है। ज्वाला धाम से 5 किमी0 उत्तर से इसकी दिशा लगभग पश्चिम में हो जाती है। सतपुली से 1 किमी० पश्चिम में यह नदी पूरवी नयार नदी से मिल जाती है। दोनों का सम्मिलित प्रवाह नयार नदी के नाम से जाना जाता है।
गंगा नदी की एक अन्य सहायक नदी सॉन्ग नदी है। इसका उद्गम-स्थल सिरकण्डा पर्वत (टिहरी जनपद) है। यहाँ से निकल कर दक्षिण-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होते हुए देहरादून जनपद के दक्षिणी पूरवी भाग को अभिसिंचित कर वीरभद्र के निकट गंगा नदी से मिलती है। सोंग नदी की एक अन्य सहायक नदी बन्दाल नदी है। इसने मालदेवता के निकट एक अनुप्रस्थ गार्ज का निर्माण किया है। यहीं पर इसमें बल्दी नदी अपनी सहायक सरिताओं के साथ मिलती है। बन्दाल नदी मालदेवता के निकट अपना सम्पूर्ण जल सोंग नदी को प्रदान करती है। सोंग नदी की एक अन्य सहायक नदी सुस्वा नदी है जो ओगलावाला के निकट कॉप निक्षेप का अपरदन करती हुई दक्षिण-पूरव दिशा में प्रवाहित होती हुई सोंग नदी से मिलती है। इस प्रकार इसका सम्पूर्ण प्रवाह क्षेत्र पूरवी देहरादून जनपद है।
यमुना प्रवाह प्रणाली
(Yamuna Drainage System)
यमुना नदी का उद्गम स्रोत यमनोत्री हिमानी (बंदरपूंछ) है परन्तु धार्मिक दृष्टि से इसका उटा स्रोत यमुनोत्री मन्दिर के निकट स्थित गर्म जल स्रोतों को माना जाता है। अपने उद्गम स्थल से 150 किमी दूर स्थित बनोग तक यमुना नदी दक्षिण-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती है। इसके पश्चात यह नदी दून घाटी में प्रवेश करती है।
शीर्ष सहायक नदियों में टोंस नदी प्रमुख है। टोंस नदी बंदरपूंछ पर्वत (3896 मी०) के उत्तरी ढाल उद्भुद् होकर दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती है 160 किमी० प्रवाहित होने के पश्चात् कालसी नामक से स्थान में यमुना नदी को अपना सम्पूर्ण जल प्रदान करती है। टोंस में जल की विशाल राशि रहती है जिस कारण कालसी के पश्चात यमुना में जल की मात्रा अधिक हो जाती है। टोंस में पबार नदी द्वारा हिमाचल प्रदेश से जल लाकर प्रदान किया जाता है।
गिरि तथा बाटा नदी हिमाचल प्रदेश से उत्पन्न होकर टेढ़े-मेढ़े मार्गों से प्रवाहित होती हुई पोंटा के निकट यमुना नदी में मिलती है। पबार, गिरि तथा बाटा नदियों का 2320 वर्ग किमी० क्षेत्र हिमाचल प्रदेश में है। स्पष्ट है यह प्रवाह क्षेत्र यमुना प्रवाह क्षेत्र में सम्मिलित है।
दून घाटी में अनेक छोटी-बड़ी नदियाँ बायीं ओर से आकर यमुना में मिलती हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण आसन नदी है जो असारोरी-देहरा मार्ग के पश्चिम (610 मी०) से निकल कर उत्तर-पश्चिम दिशा में लगभग 42 किमी० तक प्रवाहित होती है। रामपुर मण्डी के निकट यह नदी यमुना नदी से मिलती है। आसन नदी की प्रमुख सहायक सरिता टोंसगाड है जो मसूरी की पहाड़ियों से उत्पन्न होती है।
शिवालिक श्रेणी को भ्रंश के सापेक्ष काटती हुई यमुना नदी बादशाही महल (हरिद्वार) के निकट मैदान में प्रवेश करती है। पर्वतीय क्षेत्र में यह नदी अपनी सहायक नदियों के साथ अपरदनात्मक
स्थलाकृतियों का सृजन किया है। फलस्वरूप पश्चिमी गढ़वाल में अदूभुत स्थलाकृतिक विन्यास का निर्माण हुआ है।
रामगंगा प्रवाह प्रणाली
(Ramganga Drainage System)
रामगंगा प्रवाह प्रणाली का प्रवाह क्षेत्र कुमाऊं एवं गढ़वाल दोनों में है। रामगंगा एवं इसकी सहायक नदियाँ - कोसी, गोला, बिनो, गगास आदि पूर्वो गढ़वाल तथा कुमाऊँ के नैनीताल अल्मोड़ा जनपदों में प्रवाहित हैं। इस प्रवाह प्रणाली से कुमायूँ हिमालय का जल गढ़वाल हिमालय में प्रवेश कर मैदानी क्षेतरों में प्रवाहित होता है।
रामगंगा का उद्गम स्थल दूघातोली पर्वत का पूर्वी ढाल है। उद्गम स्थल से यह नदी दक्षिण-पूरव दिशा में प्रवाहित होती है। कुछ किलोमीटर इसी दिशा में प्रवाहित होने के पश्चात दक्षिण-पश्चिम दिशा में मुड़ जाती है। इसकी सहायक नदी बिना दाहिनी ओर से आकर देघाट के निकट मिलती है। इसके पश्चात 15 किमी तक दक्षिण-पूरव दिशा में प्रवाहित होती है। भिकियासेन में गगास नदी इसमें मिलती है। गनाई-चौखुटिया के मध्य रामगंगा दक्षिण-पश्चिम दिशा में चौड़ी एवं खुली घाटी में प्रवाहित होती है। अन्त में शिवालिक पर्वतमाला को पार कर कालागढ़ के पास मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती है।
रामगंगा नदी टेढ़ेमेढे मार्गों में प्रवाहित होकर अनेक सहायक नदियों को अपने में सम्मिलित कर जटिल स्थलाकृतिक विन्यास का निर्माण करती है। गढ़वाल की ओर से मिलने वाली बिनों नदी तथा कुमायूँ की ओर से मिलने वाली गगास प्रमुख नदियाँ हैं जिनसे इसे जल को विशाल राशि प्राप्त होती है।
रामगंगा नदी टेढ़ेमेढे मार्गों में प्रवाहित होकर अनेक सहायक नदियों को अपने में सम्मिलित कर जटिल स्थलाकृतिक विन्यास का निर्माण करती है। गढ़वाल की ओर से मिलने वाली बिनों नदी तथा कुमायूँ की ओर से मिलने वाली गगास प्रमुख नदियाँ हैं जिनसे इसे जल को विशाल राशि प्राप्त होती है।
रामगंगा की एक अन्य महत्वपूर्ण सहायक नदी कोसी है। कोसी का उद्भव धारपानी धार (2500 मी०) के पूर्वी दाल से हुआ है। यहाँ से यह नदी रनामन गाँव तक दक्षिण-पूरव दिशा में प्रवाहित होती है। इसके पश्चात् हवलबाग दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती है। रनामन गाँव से हवलबाग तक यह नदी चौड़ी घाटी का निर्माण किया है जिसमें कृषि-कार्य वृहद - स्तर पर किया जाता है। हवलबाग के पर इसकी दिशा पश्चिम में हो जाती है। इस स्थान से सॅकरी एवं गहरी घाटी में प्रवाहित होती है। देवी मिनी सुमाडीगाड आदि छोटी-छोटी सरितायें इसकी सहायक नदियाँ हैं। इन नदियों के साथ प्रवाहित होती हुई स्याहीदेवी पर्वत को पूरव एवं दक्षिण की ओर घेरती हुई नैनीताल जनपद की उत्तरी सीमा का निर्धारण करती है।
गोला नदी नैनीताल जनपद की दक्षिणी-पूर्वी पर्वत श्रृंखला से निकल कर दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती है। कुछ दूर प्रवाहित होने के पश्चात् पश्चिम पुनः उत्तर-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती है। शिवालिक पर्वतीय संस्तरों को तोड़ती हुई दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व की ओर प्रवाहित होती हुई रानीबाग के निकट मैदानी भाग में प्रवेश करती है। मैदानी भागों को अभिसिंचित करती हुई कोसी नदी से मिल जाती है। इसकी दो प्रमुख सहायक नदियाँ - (i) काल्सा और (ii) कराली गाड है जिनका प्रवाह क्षेत्र पर्वतीय भाग है।
गोला नदी नैनीताल जनपद की दक्षिणी-पूर्वी पर्वत श्रृंखला से निकल कर दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती है। कुछ दूर प्रवाहित होने के पश्चात् पश्चिम पुनः उत्तर-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती है। शिवालिक पर्वतीय संस्तरों को तोड़ती हुई दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व की ओर प्रवाहित होती हुई रानीबाग के निकट मैदानी भाग में प्रवेश करती है। मैदानी भागों को अभिसिंचित करती हुई कोसी नदी से मिल जाती है। इसकी दो प्रमुख सहायक नदियाँ - (i) काल्सा और (ii) कराली गाड है जिनका प्रवाह क्षेत्र पर्वतीय भाग है।
फिका, ढेला, दाबका, बौर, भाकरा, नन्धोरे, कामिनी, आदि कोसी को अन्य सहायक नदियाँ हैं जिनका प्रवाह-क्षेत्र तराई भाग है। दाबका, बौर एवं नन्धोरे अपेक्षाकृत बड़ी नदियाँ हैं जिनके जल से भाबर क्षेत्र में सिंचाई की जाती है।
काली नदी प्रवाह प्रणाली
(Kali River Drainage System)
काली नदी अपने उद्भव-काल में दो शीर्ष सरिताओं (head streams) में विभाजित है। कालापानी एवं कुथी यांक्टी शीर्ष नदियों के संगम के नीचे से काली नदी के नाम से जाना जाता है। उत्तराखण्ड में इसका अधिकांश प्रवाह क्षेत्र पिथौरागढ़ जनपद में है। कालापानी नदी में अनेक सोते हैं जिनसे इसको जल मिलता है। कुथी यांकी नदी वृहद हिमालय के बर्फीले मैदान से निकलती है मार्ग में अनेक नदियों के जल को आत्मसात करती हुई टनकपुर के पास मैदानी भाग में प्रवेश करती है जहाँ से इसे शारदा के नाम से जाना जाता है। बाद में इसे घाघरा नदी के रूप में अभिहित किया जाता है।
काली नदी की प्रमुख सहायक नदी धौली गंगा है। अपने उद्भव काल में यह दो शाखाओं दारमा और लिस्सर में विभाजित है। ये दोनों सरितायें परस्पर तिजांग (3250 मी०) नामक स्थान पर संगम बनाती हैं। धौली गंगा का जलप्रवाह मार्ग अत्यन्त तीव्र है। मार्ग में अनेक निप्वाइन्ट हैं जिस कारण जल प्रपातों एवं छिप्रिकाओं (rapids) का निर्माण हुआ है। दक्षिण-पूर्व दिशा में प्रवाहित होती हुई मार्ग में अनेक लघु सरिताओं का जल ग्रहण कर खेला के समीप काली नदी से मिलती है। नानदारमा, कुंचुतिच, सेलायांक्टी, नागलिनग्यांवटी आदि धौली गंगा की सहायक सरितायें हैं।
काली नदी की एक अन्य सहायक नदी गोरी गंगा है जो बमलास हिमानी से निकलती है गोरी गंगा तथा शुन्कल्पा (रतलाम नदी) दो शाखाओं में विभाजित है। लिलम के निकट दोनों का संगम है। गोरी गंगा दक्षिण-पूर्व दिशा में तीव्र ढाल प्रवणता के सहारे प्रवाहित हती है। इसमें जल की मात्रा एवं वेग अपेक्षाकृत अधिक है। गोरी गंगा निम्नवती एवं पार्श्ववर्ती दोनों अपरदन कर रही है। यह प्रवाह मार्ग में कहीं-कहीं पर विशाल हिमखण्डों के नीचे तिरोहित हो जाती है। कुछ दूर पर पुनः प्रकट होती है। कहीं पर सॅकरे तथा कहीं पर चौड़े मार्गों के मध्य प्रवाहित यह नदी मार्ग में अनेक सरिताओं का जल ग्रहण करती है। गोरी गंगा मार्ग में विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण करती हुई जौलजीवी के निकट काली नदी से मिलती है। गोन्खागाड, जिम्बागधेरा, मदकानीगाड, रलमगाड आदि इसकी प्रमुख सरितायें हैं।
सरयू नदी काली नदी की सहायक नदी है जो पिण्डारी हिमानी के सरमूल नामक स्थान से निकल कर दक्षिण-पूर्व दिशा में प्रवाहित होती हुई पंचेश्वर नामक स्थान पर काली नदी से मिलती है। बागेश्वर में गोमती नदी आकर मिलती है। संगम के पूर्व यह नदी चौड़ी विशाल घाटी का निर्माण किया है जिसमें वृहत-स्तर पर कृषि-कार्य किया जाता है। गोमती नदी देबरा (2480 मी०) नामक स्थान से निकल कर बैजनाथ से होती हुई बागेश्वर में अपना सम्पूर्ण जल सरयू नदी को प्रदान करती है। यह नदी चौड़ी एवं उर्वर घाटी का निर्माण किया है जिसमें कृषि-कार्य किया जाता है। इसी के द्वारा कत्यूर घाटी का निर्माण किया गया है जिसमें प्राचीन काल में कत्यूर शासन की राजधानी स्थापित थी। पनार नदी सरयू नदी की दूसरी महत्वपूर्ण सहायक नदी है जो नैनीताल एवं अल्मोड़ा जनपदों की सीमा से निकल कर दक्षिण-पूर्व दिशा में प्रवाहित होती हुई रामेश्वर के निकट सरयू नदी से मिलती है। यह नदी अपनी सहायक सरिताओं - भुजपत्रीगाड, गरगतिया, कालापानीगाड, वेरलगाड आदि के जल को ग्रहण कर सम्पूर्ण जल को सरयू नदी को प्रदान करती है।
लाधिया काली नदी की सहायक नदी है जो गजार से निकल कर दक्षिण-पूर्व दिशा में प्रवाहित होती हुई कुमायूँ के दक्षिणी-पूर्वी भाग का जल ग्रहण कर चूका के निकट सरयू नदी से मिलती है। लधिया बेसिन सघन वनस्पतियों से आच्छादित है। काली नदी का प्रवाह क्षेत्र नेपाल में भी है जिसमें ताप्ती, गंडक, कोसी, घाघरा आदि प्रमुख प्रमुख नदियाँ हैं ।
निष्कर्ष
उत्तराखंड की नदियों (प्रवाह प्रणाली) की अपनी पृथक विशेषताएं है जो हिमालय की नदियों से साम्य रखती हैं । अधिकांश नदियों का उद्गम स्त्रोत हिमानियाँ है। इन नदियों में सतत जल प्रवाह होता है। जल शक्ति का उपयोग विद्धुत, सिंचाई तथा अन्य उपयोगों में किया जाता है। जल संसाधन का उपयोग वृहत स्तर जैसे टिहरी बाँध के रूप में किया जाता है। यहाँ की अधिकांश नदियाँ विकास की तरुणावस्था से गुजरती है जिसके कारण निम्न वर्ती अपरदन द्वारा अपनी घाटी का विकास करती हैं। जिससे अनेक स्थलाकृतियों का निर्माण जैसे गर्ज़, कैन्यन लटकती घाटी सर्क हिमोड स्थलाकृतियों का निर्माण करती हैं । इन नदियों का ढाल(प्रवाह मार्ग) अत्यंत तीर्व पाया जाता है ।
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