मौसमी संकट और आपदाएँ (मौसम संबंधी खतरे और आपदाएँ) प्रकृत्तिजन्य अप्रत्याशित ऐसी सभी घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों को इतना तीव्र कर देती हैं कि विनाश की स्थिति उत्पन्न होती है, चरम प्राकृतिक घटनाएँ या आपदा कहलाती है। इन चरम घटनाओं या प्रकोपों से मानव समाज, जन्तु एवं पादप समुदाय को अपार क्षति होती है। चरम घटनाओं में ज्वालामुखी विस्फोट, दीर्घकालिक सूखा, भीषण बाढ़, वायुमण्डलीय चरम घटनाएँ; जैसे- चक्रवात, तड़ित झंझा, टॉरनेडो, टाइफून, वृष्टि प्रस्फोट, ताप व शीत लहर, हिम झील प्रस्फोटन आदि शामिल होते हैं। प्राकृतिक और मानव जनित कारणों से घटित होने वाली सम्पूर्ण वायुमण्डलीय एवं पार्थिव चरम घटनाओं को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है। इन आपदाओं से उत्पन्न विनाश की स्थिति में धन-जन की अपार हानि होती है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन निम्न प्रकार है:- चक्रवात (Cyclone) 30° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्णकटिबन्धीय चक्रवात कहते हैं। ये आयनवर्ती क्षेत्रों में पाए जाने वाला एक निम्न वायुदाब अभिसरणीय परिसंचरण तन्त्र होता है। इस चक्रवात का औसत व्यास लगभग 640 किमी...
दूरसंवेद के प्लेटफार्म
(Remote Sensing Platforms)
दूरसंवेद में 'प्लेटफार्म' शब्द का प्रयोग किसी ऐसे स्थिर (stationary) अथवा गतिमान (moving) आधार, उपकरण या वाहन के लिये होता है, जिस पर कैमरा आदि किसी संवेदक को रखकर या कसकर प्रयोग में लाते हैं। इस दृष्टि से लकड़ी अथवा लोहे से निर्मित सामान्य कैमरा-स्टैण्ड से लेकर दूरसंवेद में प्रयोग किये जाने वाले सभी गुब्बारों, हेलीकॉप्टर, वायुयानों, राकेटों तथा अंतरिक्ष यानों को दूरसंवेद के प्लेटफार्म कहा जा सकता है। इनमें किसी प्लेटफार्म का चयन करते समय दूरसंवेद प्रोग्राम का उद्देश्य, संवेदक के प्रकार, पेलोड (pay load), प्रचालन ऊँचाई (operating height), प्रचालन परास (operating range), समय तथा लागत आदि, को ध्यान में रखा जाता है। उपर्युक्त प्लेटफार्मों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-(i) भू-आधारित प्लेटफार्म (ground-based platforms), (ii) वायुमण्डल-आधारित प्लेटफार्म atmos phere-based platforms) तथा (iii) अन्तरिक्ष-आधारित प्लेटफार्म (space-based platforms) | प्रथम वर्ग में कैमरे के त्रिपाद-स्टैण्ड (tripod stand) व रेडार स्टैण्ड को, द्वितीय वर्ग में गुब्बारों, हेलीकॉप्टर तथा वायुयानों को तथा तृतीय वर्ग में राकेटों, अन्तरिक्षयानों व कृत्रिम उपग्रहों को सम्मिलित किया जाता है। यहाँ हम अन्तिम दो वर्गों के प्लेटफार्मों का संक्षिप्त विवरण दे रहे हैं।
[I]गुब्बारे
(Balloons)
दूरसंवेद प्लेटफार्म के रूप में सबसे पहले गुब्बारे का ही प्रयोग किया गया था। यह दूरसंवेद का एक सस्ता और उपयोगी प्लेटफार्म है जिसमें रखकर ऊपर उड़ाये गये कैमरे से पर्याप्त बड़े क्षेत्र का वायु फ़ोटोचित्र प्राप्त किया जा सकता है। आजकल मौसम-सम्बंधी वायुमण्डलीय दशाओं की जानकारी प्राप्त करने के लिये इन प्लेटफार्मों का काफी प्रयोग होता है । भिन्न-भिन्न आकार व आकृति में उपलब्ध इन दूरसंवेद प्लेटफार्मों को निम्नांकित तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
1. स्वतंत्र गुब्बारे (Free balloons)-बिना डोरी बँधे गुब्बारे को स्वतंत्र गुब्बारा कहते हैं। मौसम की दशाओं पर निर्भर यह गुब्बारा वायुमण्डल में किसी भी ऊँचाई तक जा सकता है। यदि वायुमण्डल की दशाएँ, विशेषकर वायु की दिशा, उपयुक्त है तो यह गुब्बारा किसी वायुयान की प्रचालन ऊँचाई से और अधिक ऊँचा दूरसंवेद प्लेटफार्म प्रदान कर सकता है। दूरसंवेद कार्यों में स्वतंत्र गुब्बारों के सीमित प्रयोग का मुख्य कारण उनके उड़ान-पथ को नियंत्रित न कर पाना है। चूँकि स्वतंत्र गुब्बारों की ऊँचाई तथा उड़ने की दिशा पूर्णत: वायु के वेग व दिशा पर निर्भर करती है अतः ऐसे किसी गुब्बारे को वायुमण्डल में छोड़ते समय यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह इच्छित ऊँचाई पर दिये हुए क्षेत्र के ऊपर उड़ पायेगा या नहीं उड़ पायेगा।
2. डोरी से बँधे गुब्बारे (Tethered balloons)–यद्यपि ये गुब्बारे किसी स्वतंत्र गुब्बारे की भाँति बहुत ऊँचे नहीं उड़ाये जाते तथापि डोरी से बंधे होने के कारण ये किसी कैमरे को वायुमण्डल में एक ही स्थान पर स्थिर रख सकते हैं। इस गुण के फलस्वरूप वायुमण्डल के किसी निश्चित स्थान से समय की किसी भी अवधि तक दिये हुए क्षेत्र का लगातार दूरसंवेद करना सम्भव हो जाता है। किसी अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र की परिघटनाओं के अल्पकालीन परिवर्तनों, जैसे परिवहन व बाढ़ आदि, की चौकसी व मानीटरन करने के उद्देश्य से किये जाने वाले दूरसंवेद कार्यों में ये स्थिर प्लेटफार्म बहुत उपयोगी होते हैं।
3. शक्तियुक्त गुब्बारे (Powered balloons)—ये एक प्रकार के यांत्रिक गुब्बारे होते हैं जिन्हें किसी निर्दिष्ट भौगोलिक अवस्थिति (geographic location) पर पहुँचने अथवा बने रहने के लिये किसी नाटक (propeller) की आवश्यकता होती है। । इन गुब्बारों की उड़ान के मार्गों अथवा किसी क्षेत्र के ऊपर इनके विचरण को दूर बैठकर नियंत्रित किया जा सकता है। इस गुण के कारण शक्तियुक्त गुब्बारों को, स्वतंत्र अथवा डोरी-बंधे गुब्बारे की तुलना में अधिक उपयोगी माना जाता है।
[।।]वायुयान व हेलीकॉप्टर
(Aircraft and helicopter)
कृत्रिम उपग्रहों के आविष्कार से पूर्व, वायुयान दूरसंवेद का सबसे महत्वपूर्ण प्लेटफार्म था परन्तु वायव फ़ोटोग्राफी में आज भी इनका काफी उपयोग होता है। इसके कई कारण हैं, जैसे (i) स्थानिक विभेदन (spatial resolution) की दृष्टि से उच्चस्तरीय फोटो चित्रों की प्राप्ति, (i) वायुमंडल में भारी पेलोड ले जाने की क्षमता, (iii) अपेक्षाकृत कम लागत व समय में बड़े-बड़े क्षेत्रों के फोटोग्राफ सर्वेक्षण कर पाना, (iii) दूर-दराज के दुर्गम पर्वतीय, वन व मरुस्थलीय क्षेत्रों के सर्वेक्षण की सरलता (iv) पुनरावृत्त उड़ानों (repetitive flights) के द्वारा दृश्य-क्षेत्र के अल्पकालीन परिवर्तनों को समझने की सुविधा तथा (v) वायुयान की ऊँचाई, वेग तथा उड़ान-मार्ग पर नियंत्रण होना, यदि। वायुयान इस दृष्टि से भी आवश्यक है कि किसी उपग्रह को छोड़ने से पूर्व उसके पेलोड की जाँच पड़ताल में वायुयान का ही प्रयोग होता है।
बड़े बड़े चित्रों के हवाई सर्वेक्षण में सामान्यतः: ऐसे वायुयानों का प्रयोग होता है जिनमें ऊँची व लम्बी उड़ान भरने की क्षमता होती है। भारत में पहले उकोटा (Ducotn) वायुयान के द्वारा हवाई सर्वेक्षण किया जाता था परन्तु आजकल इस कार्य में मिग-25 (Mig.25) तथा जैगुआर (Jaguar) जैसे आधुनिक वायुयानों का प्रयोग होता है। मिग-25 व जैगुआर वायुयान की মचालन ऊँचाई (operating height) क्रमशः 30,000 तथा 50,000 मीटर से अधिक होती है। इसी प्रकार कोई जैगुआर विमान एक बार ईधन भरकर लगभग 3000 किमी की यात्रा कर सकता है। किसी छोटे क्षेत्र के सर्वेक्षण में हेलीकॉप्टर का प्रयोग किया जा सकता है। वायुयान के विपरीत हेलीकॉप्टर एक ऐसा प्लेटफार्म है जिसे उड़ान-मार्ग पर कहीं भी स्थिर करके धरातल का फोटो चित्र खींचा जा सकता है।
[I।।] राकेट
(Rocket)
दूरसंवेद में रॉकेटों का नियमित प्रयोग नहीं होता जिसके दो मुख्य कारण हैं-प्रथम, एक राकेट को केवल एक बार प्रयोग कर सकते हैं तथा द्वितीय, किसी राकेट से प्राप्त वायु फ़ोटो चित्र, मापनी, दिशा व क्षेत्रफल सम्बन्धी अन्तरों के कारण परस्पर तुलना के योग्य नहीं होते।
[IV] कृत्रिम उपग्रह
(Artificial satellites)
कृत्रिम उपग्रह दूरसंवेद के ऐसे प्लेटफार्म है जहाँ से वायुमंडल की दशाओं एवं भू-संसाधनों का ग्लोब स्तर पर लगातार प्रेक्षण एवं मानीटरन किया जा सकता है। इन उपग्रहों को पृथ्वी के गुरुत्व बल से बचने एवं अन्तरिक्ष में पहुँचने के लिये 11 किमी प्रति सेकण्ड या इससे अधिक का अंतःक्षेपी वेग (injection velocity) चाहिए। किसी उपग्रह की ऊँचाई, वेग तथा परिक्रमण-काल में परस्पर गहरा संबंध होता है तथा इन्हें उपग्रह को छोड़ने से पूर्व निर्धारित किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, अंतरिक्ष में स्थापित किया गया प्रत्येक उपग्रह अपनी पूर्व निर्धारित कक्षा (orbit) में गति करता है। ये कक्षाएं दो प्रकार की होती हैं-(i) भू-तुल्यकालिक कक्षा (geosynchronous orbit) तथा (ii) सूर्य-तुल्यकालिक कक्षा (sun synchronous orbit)। प्रथम प्रकार की कक्षा वाले उपग्रह को भू-तुल्यकालिक उपग्रह तथा द्वितीय प्रकार की कक्षा के उपग्रह को सूर्य-तुल्यकालिक उपग्रह कहते हैं। भारत के इन्सेट (INSAT) व आइ. आर. एस. (IRS) उपग्रह उपर्युक्त प्रकारों के क्रमश: उदाहरण हैं।
1. भू-तुल्यकाली उपग्रह (Geosynchronous Satellite)- पृथ्वी के घूर्णन काल (rotation period) से मेल खाने वाले वेग से गतिमान उपग्रह को भू-तुल्यकालिक अथवा भू-स्थिर (geostationary) उपग्रह कहते हैं। इस तरह का कोई उपग्रह, भूमध्यरेखा के तल में पृथ्वी से लगभग 40,000 किमी दूर स्थित अपनी वृत्ताकार कक्षा (circular orbit) में पश्चिम से पूर्व की ओर को गति करता हुआ, 24 घंटे की अवधि में एक चक्र पूर्ण करता है। समय की इतनी ही अवधि में पृथ्वी अपने ध्रुवीय अक्ष (polar axis) पर, पश्चिम से पूर्व की ओर को घूमती हुई एक चक्र पूर्ण करती है। पृथ्वी के घूर्णन (rotation) व उपग्रह के परिक्रमण (revolution) की दिशाओं एवं समय-अवधियों की इन समानताओं के फलस्वरूप, धरातल के संदर्भ में किसी भू-तुल्यकाली उपग्रह की अंतरिक्ष में स्थिति सदैव एक ही स्थान पर यथावत बनी रहती है। इस लक्षण के कारण कोई भू-स्थिर उपग्रह अपने सामने स्थित पृथ्वी के एक ही आधे भाग का लगातार संवेदन करता रहता है। दूसरे शब्दों में, समस्त पृथ्वी को कवर करने के लिये कम से कम दो या तीन भू-स्थिर उपग्रहों की आवश्यकता होती है। वर्तमान समय में भूमध्यरेखा के ऊपर 36,000 से 40,000 किमी की ऊँचाइयों के मध्य इस तरह के 6 भू-तुल्यकाली उपग्रह–(i) संयुक्त राज्य का GOES-E, (ii) संयुक्त राज्य का ही GOES-W, (iii) यूरोपीय अन्तरिक्ष एजेन्सी का METEOSAT, (iv) रूस का GEMS, (v) भारत का INSAT तथा (vi) जापान का GMS अन्तरिक्ष में स्थापित हैं। इनमें प्रथम व द्वितीय उपग्रह दोनों अमेरिकाओं व पूर्वी प्रशान्त महासागर को, तीसरा उपग्रह अफ्रीका व यूरोप को, चौथे व पाँचवें उपग्रह हिन्द महासागर को तथा छटा उपग्रह पश्चिमी प्रशान्त महासागर को कवर करता है। पृथ्वी से बहुत दूर स्थित होने के कारण यद्यपि किसी भू-स्थिर उपग्रह में लगाए गए कैमरे की विभेदन क्षमता (resolving capacity) बहुत घट जाती है परन्तु इनसे लगातार प्राप्त होने वाले फोटो चित्रों की सहायता से वायुमंडल व महासागरीय दशाओं का सरलतापूर्वक मानीटरन किया जा सकता है। किसी संवेदक की स्थानिक विभेदन क्षमता का तात्पर्य धरातल की उस छोटी से छोटी दूरी से है जिसे सम्बंधित आवेदक के द्वारा खींचे गये फोटोग्राफी में सरलतापूर्वक पहचाना जा सके। दूरसंचार के क्षेत्र में भी ये प्लेटफार्म परम उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
2. सूर्य-तुल्यकालिक उपग्रह (Son Synchronous satellite)- भूस्थिर उपग्रह के विपरीत, किसी सूर्य-तुल्यकालिक उपग्रह की सहायता से पूर्व निश्चित समय-अन्तराल के अनुसार पृथ्वी के प्रत्येक भाग का लगातार संवेदन करना सम्भव है। इन उपग्रहों के लिये पृथ्वी से करीब 700 से 900 किमी ऊँचाइयों के मध्य कोई करीब-करीब ध्रुवीय कक्षा (polar orbit) का चयन किया जाता है। इस कक्षा में कोई सूर्य-तुल्यकालिक उपग्रह ऐसे पूर्व निर्धारित वेग से गति करता है कि वह प्रत्येक बार भूमध्यरेखा को एक ही स्थानीय समय पर पार कर सके। चूँकि पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर को घूर्णन करती है अत: उपग्रह की कक्षा का धरातलीय मार्ग (ground track) सूर्य की दिशा में अर्थात पूर्व से पश्चिम की ओर को निरन्तर आगे बढ़ता जाता है। इस तरह एक निश्चित अवधि के भीतर यह धरातलीय मार्ग सारी पृथ्वी को कवर कर लेता है। उत्तरोत्तर अवधियों में पृथ्वी कवर करने की इसी प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती रहती है।
सूर्य-तुल्यकालिक उपग्रह के कार्य करने के ढंग को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। 815 किग्रा भार वाले लैंडसैट-3 (Landsat-3) सूर्य-तुल्यकालिक उपग्रह को पृथ्वी से लगभग 900 किमी की ऊंचाई पर एक ऐसी वृत्ताकार ध्रुवीय कक्षा में स्थापित किया गया था, जो ध्रुवों के समीप से गुजरती हुई भूमध्यरेखा से लगभग 98.2° का कोण बनाती थी। यह उपग्रह लगभग 103 मिनट प्रति परिक्रमण की दर से 24 घन्टे की अवधि में पृथ्वी की लगभग 14 बार परिक्रमा करते हुए भूमध्यरेखा को प्रत्येक बार एक ही स्थानीय समय अर्थात् प्रात: 9.42 बजे पार करता था। धरातलीय मार्ग पर इस उपग्रह का वेग लगभग 6.46 किमी प्रति सेकन्ड था ।
एक परिक्रमण की अवधि अर्थात् 103 मिनट में पृथ्वी के द्वारा अपने धुवीय अक्ष (polar axis) पर पश्चिम से पूर्व की ओर को किये गये घूर्णन (rotation) के फलस्वरूप किसी एक दिन में उपग्रह के किन्हीं दो उत्तरोत्तर परिक्रमणों के धरातलीय मागों के बीच की दूरी का मान भूमध्यरेखा पर लगभग 2760 किमी तथा 40° उत्तरी अक्षांश पर लगभग 2100 किमी होता है। दूसरे शब्दों में, एक दिन में लगाये गये उपग्रह के 14 परिक्रमण भूमध्यरेखा को 2760 किमी के अन्तराल पर तथा 40° उत्तरी अक्षांश को 2100 किमी के अन्तराल पर 14 समान भागों में विभाजित कर देते हैं। अब चूँकि उपग्रह में लगे आवेदन एक परिक्रमण में धरातल की केवल 185 किमी चौड़ी पट्टी ही कवर कर पाते हैं इसलिये एक दिन में इस चौड़ाई की केवल 14 पट्टियों का ही आवेदन हो पाता है तथा इन उत्तरोत्तर पट्टियों के बीच का काफी बड़ा भाग बिना कवर हुए छूट जाता है। जैसा कि चित्र से स्पष्ट है प्रति दिन 14 पत्तियों का यह प्रतिरूप थोड़ा सा पश्चिम की ओर को सरक जाता है। इस चित्र में भरे हुए तीर पहले दिन की किन्हीं दो उत्तरोत्तर पत्तियों को तथा खाली तीर अगले दिन की उन्हीं दो उत्तरोत्तर पट्टियों की अवस्थितियों को दर्शाते हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि 40° उत्तरी अक्षांश के दोनों स्थानों पर पहले व अगले दिन की पट्टियों के 120 किमी चौडे भाग का अतिव्यापन (overlap) हो गया है।
भूमध्यरेखा पर इस अतिव्यापन की मात्रा सबसे कम (लगभग 14%) तथा 81° उत्तरी व दक्षिणी अक्षांशों पर सबसे अधिक (लगभग 85%) होती है। इस प्रकार आवेदन पत्तियों के लगातार पश्चिम की ओर खिसकते रहने के फलस्वरूप यह उपग्रह 82° से 90° अक्षांश के मध्य स्थित ध्रुवीय भागों को छोड़कर, पृथ्वी के शेष सभी भागों को 18 दिन में कवर कर लेता था।
दूरसंवेदन के भेद
(Kinds of Remote Sensors)
दूर स्थित वस्तुओं या दृश्य-क्षेत्रों के सम्बन्ध में संचित करने योग्य सूचना एकत्रित करने वाली कोई भी तांत्रिक विधि (mechanical device) या उपकरण दूरसंवेदन कहलाती है। हमारी आँखें दूरसंवेदन का अच्छा उदाहरण हैं। यद्यपि सभी संवेदक मूलतः धरातल के विभिन्न लक्षणों से परावर्तित या उत्सर्जित विद्युत-चुम्बकीय ऊर्जा की विभिन्नताओं को स्पष्ट करते है परन्तु उन्हें स्पेक्ट्रमी प्रदेशों व बैन्डों तथा सूचना प्राप्त करने के ढंग के अनुसार भिन्न-भिन्न वर्गों में रखा जा सकता है जैसे (i) पराबैंगनी (ultraviolet), दृश्य (visible), अवरक्त (infrared) व लघु तरंग (microwave) प्रदेशों के संवेदक, (ii) एकल (single) व बहुस्पेक्ट्रमी (multispectral) संवेदक, (iii) सक्रिय (active) व निष्क्रिय (passive) संवेदक (iv) चित्रीय (pictorial) व अंकीय (digital) संवेदक तथा (v) उच्च, मध्यम व निम्न विभेदन (resolution) वाले संवेदक, आदि । यहाँ हम उपर्युक्त सभी वर्गों से सम्बंधित कुछ प्रमुख प्रकार के संवेदकों का संक्षिप्त विवरण दे रहे हैं।
[।] वायव कैमरे
(Aerial cameras)
यद्यपि किसी भी प्रकार के कैमरे से वायु फ़ोटो चित्र खींचा जा सकता है परन्तु फोटोग्राममिति (photogrammetry) की दृष्टि से उपयोगी, उच्च विभेदन (high resolution) के लक्षण वाले वायु फ़ोटो चित्र प्राप्त करने के लिये ऐसे स्वचालित कैमरे प्रयोग में लाये जाते हैं जो किसी गतिमान प्लेटफार्म से तेजी के साथ एक के बाद एक करके अनेक फ़ोटोचित्र ले सकें । आजकल हवाई फोटोग्राफी में नीचे लिखे गए चार प्रकार के कैमरों का प्रयोग होता है।
1. एकल-लेन्स फ्रेम कैमरा (Single-lens frame _camera)-कोई भी कैमरा जिससे दृश्य क्षेत्र के अलग-अलग फोटो चित्र या फ्रेम (पूर्ण चित्र) खींचे जा सके फ्रेम कैमरा कहलाता है। सामान्य कैमरा इसी वर्ग में आता है। दूरसंवेद में एकल-लेन्स फ्रेम कैमरे का प्रयोग एक सामान्य बात है। फोटोग्राममिति (photogrammetric) मानचित्रण के उद्देश्य से की जाने वाली हवाई फोटोग्राफी में इस प्रकार के कैमरे परम उपयोगी होते हैं । इसी कारणवश इस कैमरे को मानचित्रण कैमरा (mapping camera), कार्टोग्राफिक कैमरा (cartographic camera), मीट्रिक कैमरा (metric camera) व फोटोग्राममिति कैमरा (photogrammetric camera) आदि, भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है।
एकल-लेन्स फ्रेम कैमरा की चरखी या मैगज़ीन (magazine) पर सामान्यतः 240 मिमी चौड़ी फिल्म चढाई जाती है जिसकी लम्बाई 120 मी तक हो सकती है। इस प्रकार इस फिल्म पर 230x230 मिमी आकार के 521 अलग-अलग फोटोग्राफी या फ्रेम प्राप्त हो सकते हैं। हवाई फोटोग्राफी में इस तरह की लम्बी फिल्में विशेष उपयोगी होती हैं। चूँकि किसी फ्रेम कैमरे में हर बार शटर (shutter) दबाना पड़ता है इसलिये हवाई फ़ोटोग्राफी करते समय इस कैमरे को अन्तरालमापी (intervalometer) नामक एक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से जोड़ देते हैं जो पूर्व निर्धारित समय के अन्तराल पर अपने आप कैमरे के शटर को खोलता रहता है। इन कैमरों में आवश्यकतानुसार भिन्न-भिन्न फोकस दूरी (focal length) के लेन्स प्रयोग किये जा सकते हैं। सामान्य मानचित्रण के लिये की गई हवाई फोटोग्राफी में प्राय: 152 मिमी फोकस दूरी का लेन्स उपयोगी रहता परन्तु अधिक ऊँचाई से वायु फ़ोटो चित्र खींचने के लिये 300 मिमी फोकस दूरी तक के लेन्स प्रयोग किये जा सकते हैं। यहाँ यह संकेत करना आवश्यक है कि कैमरे में लेन्स के केन्द्र से फिल्म के तल (plane) तक की दूरी, लेन्स की फोकस दूरी के बराबर होती है। फ्रेम कैमरे के शटर के खुले रहने की अवधि में वायुयान की गति फोटो चित्र को धुंधला कर सकती है। इस प्रभाव से बचने के लिये फ्रेम कैमरे के भीतर एक ऐसी युक्ति लगी होती है जो फोकस समतल (focal plane) के सहारे फिल्म को ठीक उसी वेग से आगे बढ़ा देती है, जिस वेग से वायुयान उड़ रहा होता है। अन्तरिक्ष-आधारित प्लेटफार्मों पर प्रयोग किये जाने वाला दीर्घ-आकार कैमरा (Large Format Camera या LFC) वस्तुतः सामान्य एकल-लेन्स फ्रेम कैमरे का ही एक परिष्कृत रूप है। ये कैमरे विद्युत-चुम्बकीय स्पेक्ट्रम के दृश्य क्षेत्र (0.4 से 0.7 um) में उपयोग-योग्य होते हैं।
जैसा कि चित्र से स्पष्ट है, एकल-लेन्स फ्रेम कैमरा की आन्तरिक बनावट को तीन मुख्य भागों में बांटा जा सकता है-(i) लेन्स शंकु समुच्चय (lens cone assembly), (ii) बॉडी (body) तथा (ii) चरखी (magazine) । प्रथम भाग में कैमरे का लेन्स, फिल्टर (filter), शटर व डायाफ्राम (diaphragm) स्थित होते हैं। कैमरे का लेन्स सामान्यतः कई लेन्स-तत्वों (lens elements) से निर्मित होता है जो दृश्य क्षेत्र से परावर्तित प्रकाश की किरणों को फिल्म पर फोकस कर देते हैं। इस लेन्स पर आवश्यकतानुसार किसी भी रंग का फिल्टर लगाया जा सकता है। लेन्स-तत्वों के मध्य स्थित शटर व डायाफ्राम क्रमश: फिल्म के अनावरण (exposure) की अवधि (1/100 से 1/1000 सेकण्ड) तथा किरणों के प्रवेश-मार्ग (aperture) के आकार को नियंत्रित करते हैं। कैमरे की बॉडी में अनावरित फिल्म के फ्रेम को आगे सरकाने की युक्ति लगी होती है। कैमरे के तृतीय व अन्तिम भाग में दो चरखियाँ होती हैं। एक चरखी पर लगी फिल्म का अनावरित (exposed) भाग दूसरी चरखी पर स्वतः लिपटता रहता है।
2. बहु-लेन्स फ्रेम कैमरा (Multi Lens frame camera)-एकल-लेंस फ्रेम कैमरे से प्रभावोत्पादक फोटो चित्र केवल उसी दशा में प्राप्त हो सकते हैं जब 0.4 से 0.7um तरंग दैर्ध्य प्रदेश में धरातलीय लक्षणों के स्पेक्ट्रमी परावर्तन (spectral reflectance) के प्रतिरूप में एकदम स्पष्ट अन्तर विद्यमान हों। यदि ऐसा नहीं है तो विवरणों को अलग-अलग स्पष्ट पहचान हेतु बहु बैंड फोटोग्राफी (multiband photography) करना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार की फोटोग्राफी में किसी बहु-लेन्स फ्रेम कैमरा, जैसे जिस का चार-लेन्स कैमरा (Zeiss four-lens camera) या रीडिंग का नौ-लेंस कैमरा (Reading nine-lens camera), का प्रयोग करते हैं।
भिन्न-भिन्न प्रकार के वर्ण-फिल्टरों (colour filters) व फिल्मों का प्रयोग करते हुए अलग-अलग स्पेक्ट्रमी बैंड में एक ही स्थान से दिये हुए दृश्य-क्षेत्र के एक साथ खींचे गये फ़ोटो चित्रों को बहुत बैंड फ़ोटो चित्रों (multiband photographs) की संज्ञा देते हैं। चित्र 15.13 में एक वह-लेंस फ्रेम कैमरा दिखलाया गया है। इस कैमरे के द्वारा चार स्पेक्ट्रमी बैन्डों-(i) नीला बैन्ड (0.4 से 0.5um), (ii) हरा बैन्ड (0.5 से 0.6 um), (ii) लाल बैन्ड (0.6 से 0.7 Am) तथा (iv) निकट अवरक्त बैन्ड (0.7 से 1.0 m), में एक ही दृश्य क्षेत्र के एक साथ चार अलग-अलग फ्रेम या फोटो चित्र प्राप्त हो जाते हैं। अब चूंकि धरातलीय लक्षणों को पहचानने के लिये इन चारों फ़ोटो का एक साथ विश्लेषण करना पड़ता है इसलिये एकल-लेन्स फ्रेम फोटोग्राफी की तुलना में बहु बैंड फोटोग्राफी के दत्त उत्पाद (data product) का विश्लेषण कार्य अपेक्षाकृत कठिन होता है।
बहु बैंड फोटो चित्रों का विश्लेषण करने के लिये एक विशेष प्रकार के प्रक्षेपित्र (projector), जिसे संकली वर्ण दर्शी (additive colour viewer) कहते हैं, की सहायता ली जाती है (चित्र 15.14)। इस उपकरण में टेलीविजन स्क्रीन की भाँति एक दर्शन-परदा (viewing screen) होता है, जिस पर उपकरण के भीतर लगे चार अलग-अलग प्रक्षेपित्र अपनी-अपनी पारदर्शी फिल्मों को प्रक्षेपित (projected) कर सकते हैं। प्रत्येक प्रक्षेपित्र में इच्छानुसार रंग के फिल्टर लगाने वधुति नियंत्रण (brightness control) की सुविधा होती है। प्रत्येक प्रक्षेपित्र में किसी एक बैन्ड के फोटो चित्र को रखा जाता है। यह फोटो चित्र कृष्ण-श्वेत फिल्म (black and white) पर बनाये गये चित्र की पॉजिटिव कॉपी (positive transparency) के रूप में होना चाहिए जिससे प्रकाश की सहायता से इस चित्र को उपकरण के दर्शन-परदे पर प्रक्षेपित किया जा सके। इस प्रकार संकली वर्ण दर्शी का प्रयोग करते समय प्रत्येक गांव के एक-एक अर्थात् कुल चार पारदर्शी फोटो चित्रों की आवश्यकता होती है। प्रत्येक पारदर्शी चित्र के सामने नीले, हरे या लाल रंग का कोई एक फिल्टर लगाया जाता है, जिसका चयन विश्लेषणकर्ता की इच्छा पर निर्भर होता है। बहु बैंड फोटो चित्रों के इस प्रकार किये गये प्रकाशीय अध्यारोपण (optical superimposition) से दर्शन परदे पर, संकली रंग सिद्धान्त (additive colour principle) के अनुसार, जो चित्र बनता है उसे वर्ण संयुक्त प्रतिबिम्ब (colour composite image) कहते हैं।
बहु बैंड फोटो चित्रों का विश्लेषण करते समय प्राय: किसी संकली वर्ण दर्शी के तीन प्रक्षेपित्रों को एक साथ चलाते हैं। नीले, हरे व लाल बैन्डों के स्पेक्ट्रमी पॉजिटिवों का प्रकाशीय मिश्रण करने पर, दर्शन परदे पर सम्बंधित दृश्य क्षेत्र अपने 'यथार्थ' रंग (true colors) में दिखलायी देता है। इसके विपरीत हरे, लाल व निकट अवरक्त बैन्डों का प्रकाशीय अध्यारोपण करने पर वही दृश्य क्षेत्र 'मिथ्या' (lalse) रंग धारण कर लेता है। दर्शन परदे पर दिखलायी देने वाला यह 'मिथ्या रंग' वाला प्रतिबिम्ब रंगीन अवरक्त फ़ोटोग्राफी के फोटो चित्रों जैसा होता है। यथार्थ रंग के प्रतिबिम्ब को यथार्थ वर्ण संयुक्त प्रतिबिम्ब (true colors composite image) कहते हैं तथा मिथ्या रंग वाले प्रतिबिम्ब को मिथ्या वर्ण संयुक्त प्रतिबिम्ब (false colour composite or FCC image) की संज्ञा देते हैं। ये मिथ्या वर्ण संयुक्त प्रतिबिम्ब विवरणों की पहचान में बहुत सहायक होते हैं।
3. स्ट्रिप कैमरा (Strip camera)-अपेक्षाकृत कम ऊँची हवाई उड़ानों से तेजी के साथ किसी क्षेत्र का सैन्य आवीक्षण (military reconnaissance) करने के उद्देश्य से स्ट्रिप कैमरे का आविष्कार किया गया था। बाद में ये कैमरे नहर खोदने,सड़कें बनाने तथा रेल व टेलीफोन, लाइन बिछाने आदि, ऐसे सिविल कार्यों में प्रयोग किये जाने लगे जिन्हें प्रारम्भ करने से पूर्व प्रस्तावित मार्ग के सहारे-सहारे धरातल का आरक्षण एवं वास्तविक सर्वेक्षण करना आवश्यक होता है। परन्तु वर्तमान समय में उच्च कोटि के अन्य कैमरों की प्राप्ति ने स्ट्रिप कैमरे के प्रयोग को बहुत सीमित कर दिया है।
फ्रेम कैमरे के दृश्यदर्शी (view finder) पर आँख रखने पर हमें दृश्य क्षेत्र का एक फ्रेम या चौखटा दिखलायी देता है।इसके विपरीत स्ट्रिप कैमरे के दृश्यदर्शी में धरातल की एक पट्टी या स्ट्रिप दिखलायी देती है। इसी लक्षण के आधार पर हम किसी कैमरे को फ्रेम कैमरा या स्ट्रिप कैमरा कहते हैं। इन दोनों तरह के कैमरों की आन्तरिक बनावट व कार्य प्रणाली में थोड़ा अन्तर होता है। स्ट्रिप कैमरे के लेन्स का शटर सदैव खुला रहता है तथा कैमरे के फोकस समतल (focal plane) में एक मशीन झिरी (slit) कटी होती है (चित्र 15.15)। इस झिरी के ऊपर सीकर चलने वाली फिल्म ठीक उसी गति से आगे बढ़ती है जिस गति से वायुयान उड़ रहा होता है। इस तरह कैमरे का लेन्स दृश्य क्षेत्र के परावर्तित प्रकाश को इस झिरी के मार्ग से कैमरे की फिल्म के नग्न भाग पर फोकस करता रहता है। यहाँ तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक प्रथम, स्ट्रिप कैमरा परस्पर जुड़ी हुई उत्तरोत्तर पत्तियों के रूप में दृश्यक्षेत्र की फोटोग्राफी करता है तथा ये पट्टियाँ उड़ान मार्ग की दिशा से समकोण बनाती हैं। द्वितीय, स्ट्रिप फोटोग्राफी में धरातल के अलग-अलग फ्रेम प्राप्त होने के बजाय पूरी फिल्म पर केवल एक फ्रेम बनता है, जिसमें उड़ान मार्ग के द्वारा कवर किये गये सम्पूर्ण दृश्य क्षेत्र का केवल एक फोटोचित्र होता है। तृतीय, स्ट्रिप कैमरे से खींचे गये वायु फोटोचित्र में धरातल के किसी भाग का अतिव्यापन (overlapping) नहीं होता।
4. विशालदर्शी कैमरा (Panoramic camera)- जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, विशाल दर्शी कैमरे से खींचा गया प्रत्येक वायु फ़ोटो चित्र एक क्षितिज से दूसरी क्षितिज के मध्य स्थित सम्पूर्ण दृश्य क्षेत्र को कवर कर सकता है। यद्यपि विशाल दर्शी कैमरे का द्वारक (aperture) भी एक मशीन झिरी (slit) के रूप में होता है। परन्तु इसके कार्य करने की विधि स्ट्रिप कैमरे के द्वारक से थोड़ी भिन्न होती है। स्ट्रिप कैमरे में स्थिर झिरी के ऊपर फिल्म गति करती है जबकि विशालदर्शी कैमरे में कुछ क्षण के लिये स्थिर फिल्म की सतह पर झिरी गतिमान होती है। विशाल दर्शी कैमरे दो मॉडलों में मिलते हैं। एक क्षितिज से दूसरी क्षितिज तक के क्षेत्र को कवर करने के लिये एक तरह के मॉडल में कैमरे का लेन्स घूर्णन (rotate) करता है तथा दूसरी तरह के मॉडल में लेन्स स्थिर रहता है तथा उसके आगे लगा प्रिज़्म (prism) घूर्णन करता है। चित्र 15.16 में पहले प्रकार के मॉडल के विशाल दर्शी कैमरे की बनावट व कार्य करने के ढंग को दिखलाया गया है। जैसा कि इस चित्र से स्पष्ट है, विशाल दर्शी कैमरे के इस मॉडल में कैमरे का लेन्स उड़ान-मार्ग की अनुप्रस्थ (transverse) दिशा में, एक ओर से दूसरी ओर को गति करता हुआ, घूर्णी लेन्स समुच्चय (rotating lens assembly) से फोकस दूरी (focal distance) पर स्थित एक वक्राकार सतह (curved surface) के सहारे कैमरे में लगी फिल्म को अनावरित (expose) करता है। इस तरह प्रत्येक फोटो चित्र को लेते समय कैमरे की फिल्मे स्थिर हो जाती है तथा घूर्णन करते हुए लेन्स समुच्चय की अनावरण झिरी (exposure sit) इस स्थिर फिल्म की सतह को स्पर्श करती हुई गति करती है। लेंस के द्वारा एक घूर्णन पूर्ण हो जाने पर अनावरित फिल्म आगे बढ़ जाती है तथा दूसरे फोटो चित्र के लिये फिल्म का अअनावरित भाग लेन्स के सामने आकर स्थिर हो जाता है | इस प्रकार उड़ान मार्ग की दिशा में एक के बाद एक करके वायु फोटोचित्र खींचते रहते हैं।
यद्यपि विशालदर्शी कैमरे के द्वारा प्राप्त कोई वायु फोटोचित्र घरातल के काफी बड़े भाग को कवर कर लेता है परन्तु किनारों की तरफ मापनी की अत्यधिक विकृति (distortion) हो जाने के कारण यह वायु फ़ोटो चित्र फोटोग्राममिति की दृष्टि से अधिक उपयोगी नहीं होता।
[।।]इलेक्ट्रॉनिक कैमरे
(Electronic cameras)
इलेक्ट्रॉनिक कैमरे में ऊपर लिखे गये किसी वायव कैमरे की भौति. फोटोग्राफिक फिल्म का प्रयोग नहीं होता इसलिये इलेक्ट्रॉनिक कैमरों से प्रतिबिम्ब प्राप्त करने की विधि को प्रायः अंकीय फोटोग्राफी (digital photography) की संज्ञा दी जाती है। इस विधि में कैमरे के भीतर चार्ज-युग्मित संसूचकों (charge-coupled detector or CCDs) in ae आकृति वाला (two dimensional shape) एक ऐसा व्यूह (array) या युक्ति (device) लगी होती है, जिसका प्रत्येक संसूचक प्रतिबिम्ब-दृश्य (image scene) के किसी एक पिक्सल (patel) का आवेदन करता है। सूक्ष्म इलेक्ट्रॉनिक सिलिकॉन चिप (microelectronic silicon chip) से निर्मित कोई CCD विद्युत-चुम्बकीय ऊर्जा के प्रति सुग्राही (sensitive) होता है। जैसे ही इस घन-अवस्था (solid-state) वाले संसूचक या CCD की सिलिकॉन सतह पर ऊर्जा टकराती है तो तुरंत इलेक्ट्रॉनिक आवेश (electronic charges) उत्पन्न हो जाते हैं। इन आवेशों के परिमाण (magnitude) दृश्य क्षेत्र की युति (brightness) के समानुपाती (proportional) होते हैं। वीडियो रिकॉर्डिंग में परिमाण सम्बंधी इस इलेक्ट्रॉनिक सूचना को अनुरूप संकेतों (analog signals) के रूप में चुंबकीय टेप पर तथा अंकीय कैमरे में अंकीय दत्त (digital data) के रूप में कम्प्यूटर डिस्क (computer disc) पर अभिलिखित किया जाता है, जिससे बाद में इन सूचनाओं को प्रतिबिम्बों के रूप में क्रमश: टी.वी. स्क्रीन तथा कम्प्यूटर मॉनीटर पर देखा जा सके।
अंकीय कैमरों में प्रयोग किये जाने वाले पिक्सल CCD द्विविम व्यूह का आकार 512x512 से 2048x2048 पिक्सल या इससे बड़ा हो सकता है । एक पिक्सल CCD का आकार 9x9um होता है। इन CCD's के द्वारा रंगीन व कृष्ण-स्वेत दोनों प्रकार के प्रतिबिम्बों से सम्बंधित अनुरूप संकेत प्राप्त किये जा सकते हैं। इस तरह ये कैमरे दत्त अभिलेखन (data recording) हेतु 15 लाख से भी अधिक पिक्सलों का प्रयोग कर सकते हैं। यहाँ यह संकेत करना आवश्यक है कि CCD व्यूह के सभी पिक्सलों के आकार व आकृतियाँ एक जैसी होती हैं तथा वे एक क्रमबद्ध ज्यामितीय प्रतिरूप (systematic geometric pattern), अर्थात् द्विविम व्यूह में व्यवस्थित होते हैं। इसी कारणवश फिल्म प्रयोग करने वाले कैमरे की तुलना में किसी अंकीय कैमरे की विभेदन क्षमता अधिक होती है।
[I।।] बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक
(Multispectral scanner or MSS)
यद्यपि ये क्रमवीक्षक बहुबैन्ड फोटोग्राफी के नियमानुसार धरातलीय लक्षणों का संवेदन करते हैं परन्तु बहुबैन्ड फोटोग्राफी में प्रयोग किये जाने वाले वायव कैमरों (aerial cameras) की तुलना में बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षकों (MSS's) को अधिक उपयोगी एवं श्रेष्ठ माना जाता है। इसके पाँच मुख्य कारण हैं-प्रथम, वायव कैमरे केवल 0.3 से 0.9um के मध्य अपेक्षाकृत चौड़े तरंग दैर्ध्य बैंकों में फोटोग्राफी कर सकते हैं। इसके विपरीत किसी बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक के आवेदन का स्पेक्ट्रमी परास (spectral range) 0.3 से 14.0um तक विस्तीर्ण होता है। दूसरे शब्दों में, वायव कैमरा विद्युत-चुम्बकीय स्पेक्ट्रम के पराबैंगनी, दृश्य एवं निकट अवरक्त बैन्डों में फोटोग्राफी करता है जबकि बहु स्पेक्ट्रम क्रमवीक्षक इन बैन्डों के साथ-साथ मध्य-अवरक्त व तापीय अवरक्त प्रदेशों में भी संवेदन कर सकता है। द्वितीय, बहुबैन्ड फोटोग्राफी में प्रयोग किये जाने वाले बहुलेन्स वायव कैमरे में अलग-अलग तरंग दैर्ध्य बैन्डों के लिये अलग-अलग प्रकाशीय तंत्र (optical systems) लगे होते हैं अतः विकिरणमिति (radiometry) व फोटोग्राममिति (photogrammetry) के विचार से सभी बैन्डों के परस्पर तुलनायोग्य वायु फ़ोटो चित्र प्राप्त करने में कुछ कठिनाई होती है। इसके विपरीत बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक में एक ही प्रकाशीय तंत्र समस्त स्पेक्ट्रमी बैन्डों को एक साथ आवेदन कर लेता है। तृतीय, चूँकि बहुबैन्ड वायु फोटोचित्र, फोटोग्राफी के प्रकाश रासायनिक प्रक्रमों (photochemical processes) पर आधारित होते हैं अत: विकिरणमिति के अनुसार उनका अंशांकन (calibration) करना कुछ कठिन होता है। इसके विपरीत बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षकों के दत्त के अंशांकन में सरलता रहती है क्योंकि ये इलेक्ट्रॉनिक विधि से प्राप्त होते हैं । चतुर्थ, बहुबैन्ड वायु फ़ोटोचित्र मिशन समाप्ति के बाद प्राप्त होते है जबकि बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक के दत्त को इलेक्ट्रॉनिक ढंग से धरातल के दत्त प्राप्ति केन्द्रों (data receiving station) पर साथ-साथ भेज दिया जाता है। किसी अंतरिक्ष आधारित प्लेटफार्म से संवेदन करते समय क्रमवीक्षकों का यह गुण बहुत लाभदायी होता है । पंचम, वायु फोटोग्राफी की प्रक्रिया में फिल्म की लगातार है। आपूर्ति करनी पड़ती है परन्तु क्रमवीक्षक को किसी फिल्म की आवश्यकता नहीं होती।
क्रमवीक्षण (scanning) करने के ढंग तथा आन्तरिक बनावट के अनुसार बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक दो प्रकार के होते हैं (i) क्रॉस-ट्रैक (cross-track) क्रमवीक्षक तथा (ii) एलोंग-ट्रैक (along-track) क्रमवीक्षक । फर्श साफ करने के लिये सींकों की झाडू (whiskbroom) तथा खुटपावड़ी (pushbroom) या वाइपर (wiper) चलाने के ढंगों से प्रेरित होकर उपर्युक्त प्रकार के क्रमवीक्षकों को क्रमशः व्हिस्कब्रूम क्रमवीक्षक व पुशबूम क्रमवीक्षक कहा जाता है । इन नामों से स्पष्ट है कि कोई व्हिस्कबूम क्रमवीक्षक उड़ान मार्ग के दायें-बायें स्थित धरातलीय पट्टियों को देखता हुआ आगे बढ़ता है जबकि कोई पुशबूम क्रमवीक्षक इन पत्तियों के ऊपर अपनी उड़ान दिशा में सीधा आगे बढ़ जाता है।
1. व्हिस्कबूम बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक (Whiskbroom MSS)-यह क्रमवीक्षक अपने धरातलीय उड़ान-मार्ग के आर-पार लम्बवत् दिशा में स्थित अत्यन्त महीन, परस्पर समान्तर एवं एक दूसरे को करीब करीब स्पर्श करने वाली असंख्य क्रमवीक्षण रेखाओं (scan lines) का अलग अलग क्रमवीक्षण करता हुआ सम्बंधित धरातलीय भाग को कवर करता है। व्हिस्कबूम बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक में विद्युत मोटर से अपने क्षैतिज अक्ष (horizonal axis) पर ऊर्ध्वाधर दिशा में घूर्णन करने वाला अथवा ऊर्ध्वाधर अक्ष (vertical axis) पर क्षैतिज दिशा में दोलन (oscillation) करने वाला एक दर्पण लगा होता है। प्रथम प्रकार के दर्पण की सतह फलकित (faceted) तथा दूसरे प्रकार के दर्पण की सतह सपाट (flat) बनायी जाती है। यह घूर्णी (rotating) अथवा दोलायमान (oscillating) दर्पण किसी क्रमवीक्षण रेखा के उत्तरोत्तर विभेदन प्रकोष्ठों (resolution cells) से प्राप्त विद्युत-चुम्बकीय ऊर्जा को क्रमवीक्षक के प्रकाशीय तंत्र (optics) पर प्रक्षेपित करता रहता है । प्रकाशीय तंत्र से यह ऊर्जा एक किरण (beam) के रूप में द्विवर्णी ग्रेटिंग (dichroic grating) नामक यंत्र पर केन्द्रित होती है। यह ग्रेटिंग आने वाली ऊर्जा किरण के तापीय (thermal) तथा गैर तापीय (non-thermal) घटकों को एक दूसरे से पृथक् कर देता है। इसके साथ-साथ यह प्रेटिंग ग़ैर तापीय ऊर्जा को तो एक प्रिज्म (prism) पर केन्द्रित कर देता है तथा तापीय ऊर्जा को स्वयं उसके विभिन्न घटक तरंग-दैयों में विभाजित कर देता है। प्रिज्म या विवर्तन ग्रेटिंग (diffraction grating) से गुजरने वाली गैर तापीय ऊर्जा पराबैंगनी (ultraviolet), दृश्य (visible) तथा निकट अवरक्त (near-IR) तरंग-दैर्ध्य के लगातार क्रम में बँट जाती है। द्विवर्णी ग्रेटिंग तथा विवर्तन ग्रेटिंग के पीछे उचित ज्यामितीय दूरी पर अलग-अलग तरंग-दैयों के लिये अलग-अलग संसूचक (detectors) लगे होते हैं जो सम्बंधित तरंग-दैर्ध्य को एक विद्युत संकेत में परिवर्तित कर देते हैं। बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक के भीतर लगे इलेक्ट्रॉनिक एम्पलीफायर (electronic amplifiers) भिन्न-भिन्न संसूचकों के द्वारा उत्पन्न किये गये विद्युत संकेतों को प्रवर्धित (amplify) करके एक बहुचैनल टेपरिकार्डर में भेज देते हैं जहाँ एक टेप पर उनका अंकीय प्रारूप (digital format) में अभिलेखन होता रहता है। यहाँ यह संकेत करना आवश्यक है कि चित्र में एक पाँच-चैनल वाला बहू स्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक दिखलाया गया है परन्तु आजकल सैकड़ों चैनल वाले बहुत स्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक उपलब्ध है।
क्रॉस-ट्रैक क्रमवीक्षकों के द्वारा प्राप्त प्रतिबिम्बों, तथा अन्य क्रमवीक्षण तंत्रों की विशेषता का वर्णन दो लक्षणों के अनुसार करते हैं-(i) स्पेक्ट्रमी विभेदन तथा (ii) स्थानिक विभेद । इन लक्षणों के अन्तर को नीचे समझाया गया है।
(a) स्पेक्ट्रमी विभेदन (Spectral resolution)-किसी संसूचक के पीक प्रत्युत्तर (peak response) के 50% पर रिकार्ड किये गये तरंग-दैर्ध्य अन्तराल (wavelength interval) को उस संसूचक का स्पेक्ट्रमी विभेदन या बैन्डचौड़ाई (bandwidth) कहते हैं । सरल शब्दों में, स्पेक्ट्रमी विभेदन किसी संसूचक के द्वारा रिकार्ड किये जाने वाले तरंग दैर्ध्य अन्तराल को बतलाता है। जैसा कि चित्र में प्रदर्शित वक्र से स्पष्ट है, तरंग-दैर्ध्य के मान में वृद्धि होने के साथ-साथ पहले किसी संसूचक का प्रत्युत्तर बढ़ता है। जब यह प्रत्युत्तर अपने पीक (अर्थात् 100%) पर पहुँच जाता है तो आगे की ओर को इसके मान में उसी अनुपात से हास होने लगता है। इस उदाहरण में पीक प्रत्युत्तर का 50% भाग 0.5 व 0.6 um के मध्य अंकित हुआ है। अतः 0.5 व 0.6 um तरंग दैर्ध्य के अन्तराल अर्थात् 0.6-0.5=0.1 um की बैन्ड चौड़ाई को सम्बंधित संसूचक का स्पेक्ट्रमी विभेदन कहा जायेगा किसी संसूचक के स्पेक्ट्रमी विभेदन को उस संसूचक की विभेदन क्षमता (resolving power) भी कहते हैं।
(b) स्थानिक विभेदन (Spatial resolution)-किसी फोटो अथवा प्रतिबिम्ब के स्थानिक विभेदन का अर्थ धरातल पर पास-पास स्थित किन्हीं दो वस्तुओं के बीच की वह न्यूनतम दूरी है, जिस पर उन वस्तुओं के प्रतिबिम्बों को स्पष्ट एवं एक दूसरे से पृथक् देखा जा सके। यदि स्थानिक विभेदन की तुलना में वे वस्तुएँ अधिक पास-पास स्थित हैं तो हमें प्रतिबिम्ब में वे दोनों वस्तुएँ केवल एक ही वस्तु के रूप में दिखलायी देंगी। किसी संसूचक का स्थानिक विभेदन उस संसूचक के भौतिक आकार पर निर्भर करता है तथा इस स्थानिक वेद को सम्बंधित संसूचक की मिलिरेडियन (mrad) में मापी गयी कोणीय विभेदन क्षमता (angular resolving power) के रूप में व्यक्त करते हैं। यह कोणीय विभेदन क्षमता किसी संसूचक के तात्क्षणिक दृष्टि E (instantaneous field of view or IFOV) को निर्धारित करती है तथा IFOV के द्वारा धरातल पर कवर किये गये क्षेत्र को धरातलीय विभेदन प्रकोष्ठ (ground resolution cell) कहते हैं । इस प्रकार किसी धरातलीय विभेदन प्रकोष्ठ की लम्बाई-चौड़ाई सम्बंधित संसूचक की धरातल से ऊँचाई तथा उसके तात्क्षणिक दृष्टि क्षेत्र के कोण पर निर्भर करती हैं। अतः संसूचक की ऊँचाई (H) तथा मिली रेडियन में मापे गये उसके तात्क्षणिक दृष्टि क्षेत्र के मान (8) की आपस में गुणा करके सम्बंधित धरातलीय प्रकोष्ठ की एक भुजा की लम्बाई (D) ज्ञात की जा सकती है अर्थात् D= HB | उदाहरणार्थ, 10 किमी की ऊँचाई पर स्थित 1 मिली रेडियन तात्क्षणिक दृष्टि क्षेत्र वाला कोई संसूचक धरातल पर 10x10 मी आकार का विभेदन प्रकोष्ठ बनायेगा चूंकि, D=HxB= (10,000x1)/1000 = 10 मी
यहाँ किसी संसूचक के तात्क्षणिक दृष्टि क्षेत्र (IFOV) तथा कोणीय दृष्टि क्षेत्र (angular field of view) के अन्तर को भली-भाँति समझ लेना चाहिए। जैसा कि चित्र से स्पष्ट है, व्हिस्कबूम प्रणाली से क्रमवीक्षण करते समय घूर्णी अथवा दोलायमान दर्पण के द्वारा किसी एक क्षण विशेष में देखे गये क्षेत्र के कोणीय मान को तात्क्षणिक दृष्टि क्षेत्र कहते हैं तथा दर्पण के एक पूर्ण विसर्प (sweep) का अंशों में मापा गया कोण, जो धरातल पर क्रमवीक्षण रेखाओं की लम्बाई के रूप में अंकित होता है,कोणीय दृष्टि क्षेत्र कहलाता है। दूसरे शब्दों में, तात्क्षणिक दृष्टि क्षेत्रों के योग को कोणीय दृष्टि क्षेत्र की संज्ञा देते हैं। किसी क्रमवीक्षक के द्वारा कवर किये गये धरातलीय क्षेत्र की चौड़ाई को धरातलीय स्वस्थ (ground swath) कहते हैं तथा इस स्वस्थ का मान क्रमवीक्षक की ऊँचाई तथा उसके कोणीय दृष्टि क्षेत्र के मानों पर निर्भर होता है अर्थात्, धरातलीय स्वास्थ्य = टेन (कोणीय दृष्टिक्षेत्र/2)x ऊँचाई x2] । क्रॉस-ट्रैक प्रणाली में किसी क्रमवीक्षण रेखा के मध्यवर्ती बिन्दु से दोनों ओर को जिस अनुपात में विसर्प करते हुए दर्पण की धरातल से दूरी बढ़ती है, उसी अनुपात में उड़ान-मार्ग के दोनों ओर को उस क्रमवीक्षण रेखा के धरातलीय विभेदन प्रकोष्ठों की लम्बाई बढ़ती जाती है। लम्बाइयों के ये अन्तर प्रतिबिम्बों में कुछ विकृति उत्पन्न कर देते हैं जो इस प्रणाली का एक मुख्य लक्षण है तथा जिसे बाद में इलेक्ट्रॉनिक विधि से दूर करना पड़ता है। आवीक्षण कार्यों में क्रॉस-ट्रैक प्रणाली अधिक प्रयोग की जाती है।
2. पुशबूम बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक (Pushbroom MSS) इस क्रमवीक्षक को बहुस्पेक्ट्रमी रैखिक व्यूह (multispectral linear array) भी कहते हैं । स्पेक्ट्रमी विभेदन तथा स्थानिक विभेदन के विचार से उच्च कोटि के प्रतिबिम्ब प्राप्त करने के लिये प्राय: इसी प्रकार के क्रमवीक्षक का प्रयोग करते हैं। पुशबूम बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक में प्रयुक्त प्रकाशीय तथा यांत्रिक तंत्र अपेक्षाकृत जटिल होते हैं। व्हिस्की ब्रूम बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक की भाँति इस क्रमवीक्षक में कोई घूर्णी अथवा दोलायमान दर्पण नहीं होता वरन् उसके स्थान पर एक लेन्स लगा होता है, जो उड़ान मार्ग के समान्तर स्थित समस्त क्रमवीक्षण रेखाओं से प्राप्त ऊर्जा को क्रमवीक्षक के रैखिक व्यूह (linear array) पर फोकस करता रहता है। पुशबूम बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक के रैखिक व्यूह में संवेदन किये जाने वाले प्रत्येक तरंग-दैर्ध्य के लिये एक पृथक् पंक्ति (line) होती है तथा प्रत्येक पंक्ति में 10,000 या इससे भी अधिक संसूचक लगे होते हैं तथा प्रत्येक संसूचक किसी दी हुई क्रमवीक्षण रेखा के सहारे एक समय में केवल एक धरातलीय विभेदन प्रकोष्ठ की ऊर्जा का संवेदन करता है। असंख्य संसूचकों या CCD's से निर्मित इस रैखिक व्यूह की स्थिति उड़ान-मार्ग से 90° का कोण बनाती है जिसके फलस्वरूप रैखिक व्यूह में संसूचकों की सभी पंक्तियाँ धरातल की सभी क्रमवीक्षण रेखाओं का एक साथ प्रेक्षण (observation) करने में समर्थ होती हैं। क्रमवीक्षक के भीतर स्थित एक इलेक्ट्रॉनिक तंत्र रैखिक व्यूह के प्रत्येक संसूचक से प्राप्त सूचना का संकलन व विश्लेषण करके उसे अंकीय दत्त में परिवर्तित कर देता है। यह अंकीय दत्त एक कम्प्यूटर योग्य टेप (computer compatible tape or CCT) पर साथ-साथ रिकार्ड होता रहता है जिससे बाद में इस अंकीय दत्त को कम्प्यूटर के मानीटर पर प्रतिबिम्ब के रूप में देखा जा सके।
व्हिस्कबूम क्रमवीक्षक की दर्पण प्रणाली की तुलना में पुशवा क्रमवीक्षक की रैखिक व्यूह प्रणाली को अधिक उपयोगी माना जाता है जिसके कई कारण हैं-प्रथम, पुशबूम प्रणाली में रैखिक व्यूह के प्रत्येक संसूचक का वास-समय (dwell time) अर्थात् किसी धरातलीय विभेदन प्रकोष्ठ के सामने रहने या निवास करने की अवधि, अपेक्षाकृत लम्बी होती है। एफ. एफ. साबुन से रिमोट सैन्सिंग नामक अपनी पुस्तक में एक उदाहरण के द्वारा उपर्युक्त तथ्य को स्पष्ट किया है । मान लीजिये, 10x10 मी आकार के 2000 धरातलीय विभेदन प्रकोष्ठों से निर्मित किसी 20 किमी लम्बी क्रमवीक्षण रेखा का क्रमवीक्षण करने के लिये 720 किमी प्रति घन्टा या 200 मीटर प्रति सेकंड के वेग से उड़ने वाले एक जेट वायुयान में व्हिस्कबूम क्रमवीक्षक तथा इसी वेग वाले दूसरे जेट वायुयान में पुशबूम क्रमवीक्षक रखा गया है, तो कमवीक्षण रेखा के किसी एक धरातलीय विभेदन प्रकोष्ठ पर इन दोनों क्रमवीक्षकों के वास समय अलग-अलग होंगे तथा उनके मान निम्न प्रकार ज्ञात किये जायेंगे:
(1) यदि घूर्णी दर्पण दी गयी क्रमवीक्षण रेखा को 1/50 सेकन्ड में कवर करता है तो व्हिस्की बूम क्रमवीक्षण के संसूचक का वास समय,
=प्रति रेखा क्रमवीक्षण दर/प्रति रेखा धरातलीय विभेदन प्रकोष्ठों की संख्या
1:50/2000 = 1/100,000 सेकन्ड प्रति प्रकोष्ठ
(2) पुशबूम क्रमवीक्षक के संसूचक का वास समय,
=धरातलीय विभेदन प्रकोष्ठ की लम्बाई/जेट वायुयान का वेग
=10 मीटर/200 मीटर प्रति सेकंड
=1/20 सेकंड प्रति प्रकोष्ठ
उपर्युक्त उदाहरण के अनुसार, व्हिस्कबूम क्रमवीक्षक के संसूचक की तुलना में रैखिक व्यूह के किसी संसूचक के वास समय की अवधि लगभग 5000 गुनी अधिक होती है। वास समय की अपेक्षाकृत लम्बी अवधि के कारणवश रैखिक व्यूह का संसूचक सम्बंधित धरातलीय विभेदन प्रकोष्ठ की ऊर्जा के लगभग सभी तरंग-दैॉ के क्षीण एवं प्रखर संकेतों का सरलतापूर्वक संवेदना कर लेता है। इसी कारण रैखिक व्यूह प्रणाली से प्राप्त किये गये प्रतिबिम्बों में स्पेक्ट्रमी व स्थानिक दोनों तरह के विभेदनों का अपेक्षाकृत ऊँचा स्तर मिलता है। द्वितीय, चूँकि रैखिक व्यूह के सभी संसूचक अपने स्थान पर स्थिर अवस्था में रहते हैं अतः इस प्रणाली के प्रतिबिम्ब फोटोग्राममिति की दृष्टि से भी अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी हैं। तृतीय, रैखिक व्यूह के संसूचक या CCD's सूक्ष्म आकार के होते हैं अत: उनके प्रचालन में अधिक शक्ति की आवश्यकता नहीं होती। चतुर्थ, चूँकि रैखिक व्यूह का कोई अंग गतिमान नहीं होता अत: कम टूट-फूट के कारण रैखिक व्यूह का जीवन-काल अपेक्षाकृत लम्बा होता है। उपर्युक्त गुणों के फलस्वरूप आजकल अंतरिक्ष आधारित दूरसंवेद में इस तरह के क्रमवीक्षकों का काफी प्रयोग हो रहा है।
[IV] तापीय क्रमवीक्षक
(Thermal scanner)
यह क्रमवीक्षक वस्तुतः एक्रॉस प्रणाली में प्रयोग किये जाने वाले व्हिस्कबूम बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षकों का ही एक ऐसा विशिष्ट रूप है जिसके संसूचक विद्युत-चुम्बकीय स्पेक्ट्रम के केवल तापीय प्रदेश (thermal region) की ऊर्जा का संवेदन कर सकते हैं। इसी कारणवश इस क्रमवीक्षक को तापीय क्रमवीक्षक नाम दिया गया है। तापीय प्रदेश की वायुमण्डलीय खिड़कियों (atmospheric windows) की अवस्थितियों के अनुसार इस क्रमवीक्षक का प्रयोग केवल 3 से 5 um और/अथवा 8 से 14 um के तरंग दैर्ध्य परासों (wavelength ranges) में सीमित रहता है। यह क्रमवीक्षक संसूचकों पर आपतित विकिरण (incident radiation) के फोटॉनों (photons) तथा संसूचक के पदार्थ में विद्यमान विद्युत आवेश (electric charge) के ऊर्जा-स्तर के मध्य होने वाली प्रत्यक्ष अन्योन्यक्रिया (direct interaction) के सिद्धांत पर कार्य करता है। इस अन्योन्यक्रिया में किसी संसूचक के अपने तापीय उत्सर्जन (thermal emission) का कोई विशेष प्रभाव न हो, इसके लिये तापीय क्रमवीक्षक के संसूचकों को परम शून्य (absolute zero) के आस-पास तापमान पर लगातार ठण्डा रखना परम आवश्यक है क्योंकि इस तापमान पर संसूचकों के अपने तापीय उत्सर्जन की मात्रा न्यूनतम हो जाती है। इसी कारणवश तापीय क्रमवीक्षक के संसूचक को सामान्यतः एक डयूअर (dewar) से घेर दिया जाता है। थरमस बोतल (thermos bottle) के समान बनावट वाले इस डयूअर में 77 केल्विन पर द्रव नाइट्रोजन (liquid nitrogen) भरी रहती है जो संसूचक को लगातार ठण्डा रखती है।
तापीय क्रमवीक्षक के पुराने मॉडल प्रतिबिम्बों की प्राप्ति हेतु सीधी फिल्म रिकॉर्डिंग करते थे परन्तु आधुनिक मॉडलों में वायुयान के भीतर फिल्म रिकॉर्डिंग तथा पृथ्वी पर साथ-साथ अंकीय दत्त भेजने के लिये टेप रिकॉर्डिंग, दोनों सुविधाएँ होती है। मानव-युक्त उड़ानों में किसी क्रमवीक्षण रेखा से प्राप्त संकेतों का मानीटरन करने के लिये इस प्रकार के आधुनिक तापीय क्रमवीक्षक में एक दोलनदर्शी (oscilloscope) लगा रहता है। इस उपकरण के दर्शन परदे पर ये संकेत एक ग्राफ के रूप में दिखलायी देते हैं। इस तरह के क्रमवीक्षकों की तापमान विभेदन (temperature resolution) क्षमता 0.1° सेये तक हो सकती है।
चित्र में दोलनदर्शी, फिल्म रिकॉर्डिंग तथा टेप रिकॉर्डिंग, तीनों तरह की सुविधाओं से युक्त एक आधुनिक प्रकार के तापीय क्रमवीक्षक के प्रचालन तंत्र (operating system) को प्रदर्शित किया गया है। इस प्रचालन तंत्र को क्रमवार चरणों में निम्न प्रकार समझा जा सकता है:
(1) धरातल से अवरक्त ऊर्जा (IR energy) का विकिरण होता है।
(2) क्रमवीक्षक में एक फलित दर्पण (faceted mirror) लगा होता है जो एक मोटर की सहायता से अपने क्षैतिज अक्ष पर ऊर्ध्वाधर दिशा में घूर्णन (rotate) करता है। यह क्रमवीक्षक दर्पण (scanner mirror) धरातल से विकिरित अवरक्त ऊर्जा को प्राप्त करता है।
(3) घूणी दर्पण धरातल से प्राप्त अवरक्त ऊर्जा को क्रमवीक्षक के प्रकाशीय तंत्र (scanner optics) पर परावर्तित कर देता है।
(4) यह प्रकाशीय तंत्र इस ऊर्जा को क्रमवीक्षक के अवरक्त संसूचक (IR detector) पर फोकस करता है।
(5) द्रव नाइट्रोजन से भरे डयूअर के सम्पर्क में स्थित यह संसूचक अवरक्त ऊर्जा को विद्युत संकेतों (electric signals) में परिवर्तित कर देता है।
(6) क्रमवीक्षक की इलेक्ट्रॉनिकी (electronics) इन विद्युत संकेतों का प्रवर्धन (amplification) करती है। इन प्रवर्धित ऊर्जा संकेतों को दोलनदर्शी (oscilloscope) के दर्शन परदे पर देखा जा सकता है तथा अलग-अलग क्रमवीक्षण रेखाओं के अनुसार टेप रिकार्डर (tape recorder) की सहायता से चुम्बकीय टेप पर रिकार्ड किया जा सकता है।
(7) किसी वायुयान अथवा अंतरिक्ष यान से प्रत्यक्षत: प्रतिबिम्ब प्राप्त करने के लिये तापीय क्रमवीक्षक में एक फिल्म रिकार्डर (film recorder) की व्यवस्था होती है। इस रिकार्डर की दीप्त नलिका (glow tube) की परिवर्तन तीव्रता को संसूचक के प्रवर्धित संकेतों के द्वारा मॉडुलन (modulated) किया जाता है।
(৪) इस नलिका से निकला प्रकाश एक घूर्णी दर्पण के माध्यम से फिल्म की सतह पर पड़ता है। इस रिकॉर्डर दर्पण (recording mirror) तथा क्रमवीक्षक दर्पण (scanner mirror) के घूर्णन तुल्य कालिक (synchronized) होते हैं। इस फिल्म रिकॉर्ड में एक वक्राकार फोकस समतल (curved focal plane) के सहारे फिल्म का अनावरण होता है तथा इस समतल को वक्राकार फिल्म पलटन (curved film platen) कहते हैं। जब एक क्रमवीक्षण रेखा का रिकॉर्डिंग पूरा हो जाता है तो अगली क्रमवीक्षण रेखा के रिकॉर्डिंग हेतु फिल्म थोड़ा सा आगे बढ़ जाती है ।
[V] लघुतरंग संवेदक
(Microwave sensors)
वातावरण एवं संसाधनों के दूरविंद में आजकल लबुव रंग प्रदेश (microwave region) के संवेदकों का प्रयोग निरंतर बढ़ता जा रहा है। विद्युत-चुम्बकीय स्पेक्ट्रम के इस प्रदेश के तरंग-दैर्ध्यों का मान 1 मिमी से 1 मी तक होता है दूरसवेद की दृष्टि से लघुतरंग प्रदेश की ऊर्जा में दो विशेष लक्षण मिलते हैं - प्रथम, लघु तरंगों में कुहरा, वर्षा, हिमपात, मेघावरण (daud cover) तथा धुआँ आदि सभी प्रकार की दशा में वायुमण्डल को पार करने की क्षमता होती है। द्वितीय, पृथ्वी के पदार्थों से लघु तरंगों के परावर्तनों (reflections) तथा ठसर्जनी (emissions) का, दृश्य या तापीय प्रदेश के तरंग-देख्यो के परावर्तन या उत्सर्जन से कोई प्रत्यक्ष सम्बंध नहीं होता। उदाहरणार्थ, यदि दृश्य प्रदेश में कोई सतह कक्ष (rough) प्रतीत होती है तो लघु तरंगों को वह सतह निष्कोण (smooth) दिखलायी दे सकती है। संक्षेप में यही समझना चाहिए कि लघु तरंगों के प्रदेश में आवेदन करने पर एक दम भिन्न प्रकार के प्रतिबिम्ब प्राप्त होते हैं।
लघुतरंग प्रदेश में कार्यालय आवेदकों को सामान्यतः दो आधारों के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है-6 सक्रिय (active) तथा निष्क्रिय (passive) संवेदक तथा (ii) प्रतिबिम्ब काफी (image forming) तथा प्रतिबिम्ब काफी (non-image forming) संवेदक। इन वर्गों के कुछ प्रतिनिधि संवेदकों को संक्षेप में नीचे लिखा गया है।
1. रेडार तंत्र (RADAR system)-रेडार एक सक्रिय प्रकार का लघुतरंग संवेदक है। अंग्रेजी भाषा में अपने पूर्ण नाम अर्थात् 'रेडियो डिटेक्शन एण्ड रेंजिंग' (Radio Detection and Ranging) के अनुरूप, रेडियो तरंगों (radio waves) के द्वारा वस्तुओं को पहचानने तथा उनकी अवस्थिति ज्ञात करने के उद्देश्य से इस संवेदक का आविष्कार किया गया था। इस कार्य को पूरा करने के लिये यह संवेदक पहले किसी दिशा में लघुतरंग ऊर्जा के अल्पकालीन प्रस्फोट (short bursts) या स्मद (pulses) भेजता है तथा इसके पश्चात उस दिशा में अपने दृष्टि क्षेत्र (field of view) के भीतर स्थित वस्तुओं से इन प्रस्फोटा या स्पंदों की 'प्रतिध्वनियों' (echoes ) या 'परावर्तनों (reflections) को प्राप्त करके उनकी शक्ति (strength) तथा उत्पत्ति (origin) को रिकार्ड करता है।
रेडार को धरातल सहित किसी भी दूरसंवेद प्लेटफार्म पर रखकर प्रयोग में लाया जा सकता है। यद्यपि प्रतिबिम्ब काफी (image forming) तथा प्रतिबिम्ब काफी (non-image forming) दोनों तरह के रडार होते हैं परन्तु दूरसंवेद की दृष्टि से प्रतिबिम्ब रेडार अधिक उपयोगी होता है । डॉपलर रेडार (Doppler radar), जिसके द्वारा किसी गतिमान वाहन के वेग को मापा जाता है, अप्रतिबिम्बकारी रेडार का प्रतिनिधि उदाहरण है। मौसम के पूर्वानुमान (weather forecasting) तथा परिवहन-नियंत्रण के कार्य में एक अन्य प्रकार के रेडार, जिसे PPI रेडार (Plan Position Indicator) कहते हैं, का काफी प्रयोग होता है। इस रेडार के वृत्ताकार दर्शन परदे पर एक अरीय विसर्प (radial sweep) रडार 'प्रतिध्वनियों' की अवस्थितियों को इंगित करता है। परन्तु स्थानिक विभेदन के निम्न स्तर के कारण PPI रेडार को सभी प्रकार के दूरसंवेद कार्यों में प्रयोग नहीं किया जा सकता।
वायुमण्डल-आधारित प्लेटफार्म से दूरसंवेद करने वाले रेडार में वायुयान के नीचे एक ऐन्टेना (antenna) लगा होता है। इस तरह के रेडार को SLR (Side-Looking Radar) अथवा SLAR (Side-Looking Airborne Radar) कहते हैं। इस रेडार की सहायता से उड़ान मार्ग के समीप स्थित पर्याप्त बड़े-बडे क्षेत्रों के प्रतिबिम्बों को लगातार पत्तियों के रूप में प्राप्त किया जा सकता है।
2. लघुतरंग ऊर्जामापी (Microwave radiometer)- रेडार के विपरीत यह एक निष्क्रिय (passive) प्रकार का अप्रतिबिम्बकारी संवेदक है जो लघुतरंग प्रदेश में धरातल से प्राप्त ऊर्जा का संवेदन एवं अभिलेखन करता है । इस संवेदक का ऐन्टेना अपने दृष्टि क्षेत्र की ऊर्जा को एकत्रित करके, संवेदक के लघुतरंग स्विच (microwave switch) में भेजता है जहाँ इस ऊर्जा के तापमान संकेत की आन्तरिक तापमान संकेत से तुलना होती है। ऊर्जामापी का संसूचक इन दोनों तरह के संकेतों के अन्तर का संवेदन करता है। इलेक्ट्रॉनिक विधि से संवेद की गई इस सूचना को ऊर्जामापी का रिकार्डर एक चुम्बकीय टेप पर अनुरूप संकेत (analog signal) अथवा अंकीय पद्धति में रिकार्ड करता रहता है। इस ऊर्जामापी को परिच्छेदिका ऊर्जामापी (profile radiometer) भी कहते हैं।
3. लघुतरंग क्रमवीक्षी ऊर्जामापी (Microwave radiometer)-यद्यपि यह ऊर्जामापी भी एक निष्क्रिय प्रकार का संवेदक है परन्तु इसके दत्त उत्पाद से धरातल के प्रतिबिम्ब प्राप्त किये जा सकते हैं। इस क्रमवीक्षक में ऐन्टेना के दृष्टि क्षेत्र का, प्रकाश की दिशा के अनुप्रस्थ (transverse) क्रमवीक्षण होता है। इस प्रकार के क्रमवीक्षण को किसी तांत्रिक या इलेक्ट्रॉनिक विधि से अथवा बहुऐन्टेना व्यूह (multiple antenna array) की सहायता से पूर्ण करते हैं। ऊर्जा के संवेदन की शेष क्रिया सामान्य ऊर्जामापी जैसी ही होती है। इस प्रकार इस क्रमवीक्षक में एक तुल्यकालिक टेपरिकार्डर की सहायता से धरातल के निष्क्रिय लघुतरंग प्रतिबिम्ब प्राप्त कर लिये जाते हैं।
4. लीडार (LIDAR)-इस संवेदक का पूरा नाम 'लाइट डिटेक्शन एण्ड रेन्जिंग' (Light Detection and Ranging) है जिसे संक्षेप में लीडार कहते है। रेडार की भाँति यह भी एक सक्रिय संवेदक है परन्तु यह संवेदक लघुतरंग ऊर्जा के प्रस्फोटों के बजाय लेसर प्रकाश (laser light) के प्रस्फोटों का प्रयोग करता है। इस संवेदक के द्वारा परिच्छेदिका ऊर्जा-मापन तथा क्रमवीक्षी ऊर्जा-मापन, दोनों प्रणालियों में दूरसंवेद किया जा सकता है।
दूरसंवेद के उपग्रह प्रोग्राम
(Satellite Programmes of Remote Sensing)
दूरसंवेद के क्षेत्र में अन्तरिक्ष-आधारित प्लेटफार्मों की बढ़ती हुई लोकप्रियता को इस तथ्य से भली-भाँति समझा जा सकता है कि भिन्न-भिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु विगत 40 वर्ष की अवधि में लगभग 8000 कृत्रिम उपग्रह अंतरिक्ष में छोड़े जा चुके हैं। इनमें लगभग 7500 उपग्रह निष्क्रिय हो चुके हैं तथा शेष 500 उपग्रह आज भी दूरसंवेद का कार्य कर रहे हैं । यद्यपि संयुक्त राज्य, रूस, फ्रांस, भारत, जापान, जर्मनी व कनाडा सहित अनेक देशों के अपने-अपने उपग्रह प्रोग्राम हैं परन्तु स्थानाभाव के कारण हम यहाँ केवल तीन देशों के उपग्रह प्रोग्रामों का संक्षिप्त उल्लेख कर रहे हैं।
[I] संयुक्त राज्य का लैण्डसेट प्रोग्राम
(Landsat programme of the U.S.)
मानवयुक्त अंतरिक्ष उड़ानों एवं प्रारम्भिक मौसम उपग्रहों (meteorological satellites) के सफल परीक्षण के पश्चात् संयुक्त राज्य के 'नेशनल एरोनॉटिक्स एण्ड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (National Aeronautics and Space Administration or NASA) ने 1967 में एक महत्वाकांक्षी अन्तरिक्ष प्रोग्राम पर कार्य प्रारम्भ कर दिया। इस प्रोग्राम में 6 सूर्य-तुल्यकालिक 'अर्थ रिसोर्सेज टेक्नोलॉजी उपग्रहों (Earth Resources Technology Satellites or ERTS) को अंतरिक्ष में स्थापित करने की योजना बनाई गयी थी। इस योजना के अनुसार इन उपग्रहों को छोड़ने से पूर्व ERTS-A, B, C, D, E व F नाम तथा अन्तरिक्ष में सफलतापूर्वक स्थापित किये जाने के पश्चात् क्रमश: ERTS-1, -2, -3, -4,-5 व 6 नाम देने का निश्चय किया गया था। 5 वर्ष के अथक परिश्रम के पश्चात् उपर्युक्त शृंखल। के प्रथम उपग्रह (ERTS-1) को एक थोर डेल्टा राकेट (Thor Delta rocket) के द्वारा 23 जुलाई 1972 में अंतरिक्ष में स्थापित कर दिया गया। यह संसार का प्रथम ऐसा मानव-रहित उपग्रह था जिसके द्वारा पहली बार क्रमबद्ध, पुनरावर्तन (repetitive), मध्यम विभेदन (medium resolution) एवं बहुस्पेक्ट्रमी आधार पर भू-संसाधनों का अन्तरिक्ष से दूरसंवेद करना सम्भव हुआ था। इस उपग्रह को छोड़ने के कुछ समय पश्चात् NASA ने ERTS प्रोग्राम का नया नाम Landsat प्रोग्राम' रख दिया अत: ERTS श्रृंखला के सभी उपग्रहों को अब Landsat नाम से पुकारा जाता है। 1993 तक Landsat श्रृंखला के अन्तर्गत कुल 6 उपग्रह छोड़े गये थे जिनमें अन्तिम उपग्रह (Landsat-6) अपनी कक्षा में पहुँचने से पूर्व ही नष्ट हो गया। सारणी 15.4 में इन उपग्रहों के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित किया गया है। जैसा कि उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट है, लैंडसैट-1 व लैण्डसेट-2 मिशनों में दो एक जैसे दूरसंवेद तंत्र- (i) तीन चैनल का एक RBV तंत्र तथा (ii) चार चैनल का एक MSS तंत्र, प्रयोग किये गये थे। RBV तंत्र में टेलीविजन जैसे तीन कैमरे थे जो एक समय में धरातल के किसी एक ही 185x185 किमी क्षेत्र को एक-साथ देखते थे। इन कैमरों के स्थानिक विभेदन की क्षमता 80 मीटर थी। इनमें एक कैमरा 0.475 से 0.575/um (हरा बैन्ड), दूसरा कैमरा 0.580 से 0.680 um (लाल बैन्ड) तथा तीसरा कैमरा 0.690 से 0.830 um (निकट अवरक्त बैन्ड) तरंग-दैयों के प्रति सुग्राही था। इन स्पेक्ट्रमी बैन्डों को क्रमश: बैन्ड-1, -2 व 3 नाम दिये गये थे (सारणी देखिये)। लैण्डसेट-1 प्रोग्राम में RBV तंत्र से 1690 प्रतिबिम्ब प्राप्त हुए थे। 5 अगस्त 1972 के बाद अर्थात् छोड़ने की तिथि से केवल 14 दिन पश्चात् टेपरिकार्डर की खराबी के कारण इस तंत्र ने कार्य करना बंद कर दिया था। लैडसेट-2 के RBV तंत्र को इंजीनियरिंग उद्देश्य से लगाया गया था अत: इससे कभी-कभी ही प्रतिबिम्ब प्राप्त किये जाते थे। लैण्डसेट-3 के RBV तंत्र में दो मुख्य सुधार किये गये तथा-प्रथम, इस तंत्र के तीनों कैमरों की स्पेक्ट्रमी विभेदन क्षमता 0.505 से 0.750 um कर दी गयी जिससे वे अलग-अलग बैन्डों के बजाय दृश्य क्षेत्र के हरे बैन्ड से निकट IR बैन्ड तक विस्तीण एकल चौड़ी पट्टी में आवेदन कर सकें । द्वितीय, RBV की फोकस दूरी को दो गुना बढ़ाकर कैमरों की स्थानिक विभेदन क्षमता को 80 मी से बढ़ाकर 30 मी कर दिया गया। फोकस दूरी को दो गुना बढ़ाने से RBV के दृष्टि क्षेत्र में धरातल पर जो कमी उत्पन्न हुई, उस कमी की क्षतिपूर्ति हेतु RBV तंत्र में दो कैमरों को इस प्रकार व्यवस्थित किया गया था कि ये कैमरे 98x98 किमी आकार वाले दो अलग-अलग क्षेत्रों के ऐसे प्रतिबिम्ब प्राप्त करें जिनमें इन क्षेत्रों के किनारे की 13 किमी चौड़ी पट्टी का अतिव्यापन हो। इस प्रकार दो प्रतिबिम्बों का एक जोड़ा धरातल पर 183x98 किमी क्षेत्र को तथा दो उत्तरोत्तर जोड़े (अर्थात् 4 प्रतिबिम्ब) मिलकर किसी MSS के एक प्रतिबिम्ब में प्रदर्शित धरातलीय क्षेत्र को कवर करते थे। इन चार प्रतिबिम्बों के क्षेत्रों को A, B, C व D नाम दिये गये थे।
लैण्डसेट-1. -2 व 3 मिशनों का MSS तंत्र चार स्पेक्ट्रमा बैन्डों-(i) 0.5 से 0.6 um, (ii) 0.6 से 0.7 Am (ii) 0.7 से 0.8 um तथा (iv) 0.8 से 1.1 um, में 185x185 किमी क्षेत्र को एक समय में कवर करता था। इनमें प्रथम दो बैन्ड दृश्य प्रदेश में तथा शेष दो बैन्ड निकट IR प्रदेश में स्थित हैं | इन चारों तरंग-दैर्ध्य बैन्डों को क्रमश: बैन्ड -4, -5, -6 व 7 नाम दिये गये थे। लैण्डसेट-3 के MSS तंत्र में तापीय प्रदेश के 10.4 से 12.6 um तक के तरंग-दैर्ध्य परास (बैन्ड-8) को और सम्मिलित कर लिया गया। लैण्डसेट-4 व -5 में RBV तंत्र के बजाय TM तंत्र का प्रयोग किया गया जो MSS का एक परिष्कृत रूप है तथा उपर्युक्त सभी बैन्डों के एक-साथ अलग-अलग प्रतिबिम्ब प्राप्त कर सकता है।
[II] स्पोट उपग्रह प्रोग्राम
(SPOT satellite programme)
1978 के प्रारम्भ में फ्रांस की सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्य की दृष्टि से स्पोट (Systeme Pour observation de la Terre, or SPOT) उपग्रह प्रोग्राम चलाने का निश्चिय किया था। कुछ समय पश्चात् बेल्जियम व स्वीडन की सरकार ने इस योजना में भागीदार होने की स्वीकृति दे दी। फ्रांस के CNES (Centn National d'Etudes Spatiales) केन्द्र द्वारा कल्पित एवं डिज़ाइन किये गये SPOT उपग्रहों के अन्तर्राष्ट्रीय महत्व को इस तथ्य से भली-भांति समझा जा सकता है कि आज 30 से भी अधिक देशों में इन उपग्रहों के धरातलीय दत्त-प्राप्ति केन्द्र स्थित है।
21 फरवरी 1986 में स्पोट श्रृंखला के प्रथम उपग्रह (SPOT-1) को फ्रेन्च गायना (French Guiana) की कोरू प्रमोचन रेन्ज (Kourou Launch Range) से एरिआने लॉच व्हीकल (Ariane launch Vehicle) के द्वारा सूर्य-तुल्यकालिक कक्षा (sun-synchronous orbit) में स्थापित किया गया था। इस उपग्रह से भू-संसाधनों की दूरसंवेद टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में एक नये युग का श्री गणेश हुआ, जिसके दो कारण थे-प्रथम, इस उपग्रह में सबसे पहली बार रैखिक व्यूह संवेदक के द्वारा क्रमवीक्षण की पुशबूम प्रणाली का प्रावधान किया गया था। द्वितीय, इस उपग्रह के प्रकाशीय तंत्र को इस प्रकार व्यवस्थित किया गया था कि नादिर (nadir, अर्थात् वायुयान के लम्बवत् नीचे स्थित धरातलीय बिन्दु) के दोनों ओर एक-साथ क्रमवीक्षण किया जा सके । इस सुविधा के फलस्वरूप उपग्रह के दो अलग-अलग मा्गा से एक ही धरातलीय क्षेत्र को कवर करते हुए, सम्पूर्ण दृश्य के अतिव्यापित प्रतिबिम्ब प्राप्त करना सरल हो गया था। 31 दिसम्बर 1990 को इस उपग्रह का सेवाकाल पूर्ण होने पर 21 जनवरी 1991 व 25 सितम्बर, 1993 को इस श्रृंखला के क्रमश: SPOT-2 व SPOT-3 उपग्रहों को अन्तरिक्ष में छोड़ा गया था।
SPOT श्रृंखला के उपर्युक्त तीनों उपग्रहों की कक्षाएँ तथा संवेदन तंत्र एक जैसे थे। इन उपग्रहों को एक वर्गाकार एवं करीब-करीब ध्रुवीय सूर्य-तुल्यकालिक कक्षा में स्थापित किया गया था। इस कक्षा का कोण 98.7° तथा पृथ्वी से दूरी 832 किमी है। ये उपग्रह प्रतिदिन प्रातः 10.30 बजे (स्थानीय सौर्य समय) भूमध्यरेखा को पार करते हैं तथा 26 दिन में सम्पूर्ण पृथ्वी को कवर करने के उपरान्त इनके कक्षीय प्रतिरूप (orbit pattern) की पुनरावृत्ति होने लगती है। इस श्रृंखला के प्रत्येक उपग्रह के संवेदक पेलोड में 2 एक जैसे HRV (High Resolution Visible) क्रमवीक्षण तंत्र तथा कुछ चुम्बकीय टेप रिकार्डर रखे गये थे। इनमें एक क्रमवीक्षक कृष्ण-श्वेत या पैंक्रोमेटिक रूप में 0.5 से 0.73 um में तथा दूसरा = क्रमवीक्षक बहुस्पेक्ट्रमी (रंगीन अवरक्त) रूप में 0.5 से 0.59, 0.61 से 0.68 तथा 0.79 से 0.89 um तरंग-दैर्ध्य बैन्डों में संवेदन करता है। पेन्क्रोमेटिक तथा बहुस्पेक्ट्रमी ढंगों में इन क्रमवीक्षकों की स्थानिक विभेदन क्षमता क्रमश: 10 व 20 मी थी।
भारत का दूरसंवेद प्रोग्राम
(Remote Sensing Programme of India)
भारत अपने वर्तमान दूरसंवेद टेक्नोलॉजी के लिये होमी भाभा (Homi Bhabha), विक्रम साराभाई (Vikram Sarabhai), पी. रामा पिशारोटी (P. Rama Pisharoty), सतीश धवन (Satish Dhawan), यू. आर. राव (U. R. Rao), व कृष्णास्वामी कस्तुरीरंगन (K. Kasturirangan) आदि पुरोगामी वैज्ञानिकों का सदैव ऋणी रहेगा। 1960 के आसपास जब संयुक्त राज्य व रूस के सफल अंतरिक्ष प्रोग्राम सारी दुनियाँ को आश्चर्यचकित कर रहे थे, उस समय कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि भारत जैसा गरीब देश दूरसंवेद के क्षेत्र में शीघ्र ही इन देशों के समकक्ष हो जायेगा। देश में दूरसंवेद टेक्नोलॉजी को सबसे पहली बार पी. रामा पिशारोटी ने प्रयोग किया था। उन्होंने नारियल की कृषि में लगने वाली विल्ट-रूट (wilt-root) बीमारी को दूरसंवेद के द्वारा शीघ्र पहचानने के लिये थुम्बा के निकट स्थित कायमकुलम नारियल शोध केन्द्र (Kayamkulam Coconut Research Station) के नारियल प्लान्टेशन क्षेत्र का चयन किया। चूँकि उस समय देश में दूरसंवेद की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं थी अत: इस परियोजना के लिये आवश्यक कैमरों व मिथ्या-रंग फोटोग्राफी फिल्मों को संयुक्त राज्य के NASA से प्राप्त किया गया था। इस दूरसंवेद सर्वेक्षण में वायुयान से खींचे गये फ़ोटोचित्रों का निरीक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि सभी किरीटों (crowns) का रंग एक जैसा लाल नहीं है। दूसरे शब्दों में,बीमारी से प्रभावित किरीटों का रंग अपेक्षाकृत कम लाल था। कम लाल वृक्षों की पत्तियों के रस (juice) को इलेक्ट्रॉन-माइक्रोस्कोप से देखने पर मालूम हुआ कि उस रस में बीमारी के विषाणु विद्यमान हैं। इस प्रयोग ने यह सिद्ध कर दिया कि पेड़-पौधों पर किसी रोग के स्पष्ट लक्षण प्रकट होने से पूर्व दूरसंवेद के द्वारा उस रोग का पता लगाया जा सकता है। इस सफलता से तत्कालीन केन्द्रीय सरकार ने देश के भावी आर्थिक विकास में दूरसंवेद की अनिवार्यता को पूर्णरूपेण स्वीकार कर लिया था।
भारत के अन्तरिक्ष-आधारित दूरसंवेद प्रोग्राम को तीन भागों में बांटकर अध्ययन किया जा सकता है-(i) प्रयोगात्मक अन्तरिक्षीय दूरसंवेद, (ii) संक्रियात्मक अन्तरिक्षीय दूरसंवेद तथा (ii) भावी अंतरिक्ष प्रोग्राम ।
[I]प्रयोगात्मक अंतरिक्ष दूरसंवेद
(Experimental space remote sensing)
यद्यपि 1960 के दशक में ISRO (Indian Space Research Organisation) ने वायुयानों का प्रयोग करते हए विभिन्न प्रकार के संवेदकों, जैसे वायव कैमरा, बहुस्पेक्ट्रमी क्रमवीक्षक, तापीय क्रमवीक्षक व ऊर्जामापी, से देश के कुछ भागों में कृषि, भूमि-उपयोग, वनों की प्रकार, मिट्टियों की प्रकार, आन्तरिक जलाशयों एवं प्रदूषण से सम्बंधित हवाई सर्वेक्षण किये थे, परन्तु अन्तरिक्षीय दूरसंवेद का प्रारम्भ 1975 में हुआ जब ISRO ने आर्यभट्ट (Aryabhata) नामक अपने प्रथम उपग्रह को रूस की भूमि से अंतरिक्ष में छोड़ा था।
आर्यभट्ट के सफल प्रमोचन (launching) से प्रोत्साहन पाकर ISRO ने रूस के रॉकेट वाहकों के द्वारा जुलाई 1979 में भास्कर-1 (Bhaskara-1) तथा अप्रैल 1983 में भास्कर-2 (Bhaskara-2) को अंतरिक्ष में छोडा था। प्रयोगात्मक आधार पर अंतरिक्ष से दूरसंवेद करने के उद्देश्य से छोड़े गये इन उपग्रहों में दृश्य तथा निकट IR बैन्डों के लिये एक द्वि-बैन्ड टी. वी. कैमरा तथा एक लघु तरंग ऊर्जा मापी लगाये गये थे। इन उपग्रहों से प्राप्त लघुतरंग दत्त से महासागर एवं वायुमंडल से सम्बंधित दशाओं के अध्ययन में मदद मिली थी। यद्यपि इन उपग्रहों के टी. वी. कैमरों से मिले प्रतिबिम्बों का स्थानिक विभेदन 1 किमी के लगभग था तथापि बड़े-बड़े स्थल क्षेत्रों, जलाशयों एवं वन प्रदेशों के संसाधनों के सम्बंध में इन टी. वी. प्रतिबिम्बों से महत्वपूर्ण जानकारी मिली थी। इसी कारणवश हिमालय में हिम के पिघलने से प्राप्त जल, वन संसाधनों, कैम्बे की खाड़ी तथा सुन्दरवन में अवसादन तथा दकन ट्रैप के भूवैज्ञानिक लक्षणों के अध्ययन में ये प्रतिबिम्ब काफी उपयोगी सिद्ध हुए थे। इन उपग्रहों ने 525 किमी की ऊँचाई से दूरसंवेद किया तथा इनके स्वाथ (swath) की धरातल पर चौड़ाई 340 किमी थी। सारणी में भास्कर प्रोग्राम प्रमुख लक्षण दिखलाये गये हैं।
मई 1981 तथा उसके कुछ समय पश्चात् ISRO ने रोहिणी (Rohini) श्रृंखला के RS-D1 तथा RS-D2 को धरातल से 4000 किमी ऊँची कक्षा में स्थापित कर दिया। इन प्रयोगात्मक उपग्रहों को श्री हरिकोटा रेन्ज से SLV-3 राकेट के द्वारा अन्तरिक्ष में भेजा गया था। वस्तु: रोहिणी श्रृंखला के उपग्रह प्रत्येक दृष्टि से स्वेदशी थे क्योंकि उनकी कल्पना, डिज़ाइन व प्रमोचन का कार्य भारतीय वैज्ञानिकों ने देश की सीमाओं के भीतर किया था। इन उपग्रहों को छोड़ने का मूल उद्देश्य भावी उपग्रहों के आवेदन पेलोडों तथा उपग्रह प्रमोचन वाहन (satellite launch vehicle) की जाँच करना था।
19 जुलाई 1981 में भारत के APPLE (Ariane Passenger Payload Experiment) नामक प्रथम भू-तुल्यकालिक (geostationary) उपग्रह को एरीआने लाँच व्हीकल के द्वारा फ्रेन्च गायमा की कोरू प्रमोचन रेन्ज से अन्तरिक्ष में स्थापित किया गया था। इस प्रयोगात्मक उपग्रह के द्वारा कई क्षेत्रों में टेलीविजन प्रोग्रामों का सीधा प्रसारण करके दूरसंचार (telecommunication) के क्षेत्र में कृत्रिम उपग्रहों की सम्भावित उपादेयता की जाँच की गई थी।
[I।] संक्रियात्मक अन्तरिक्षीय दूरसंवेद
(Operational space remote sensing)
उपर्युक्त प्रयोगात्मक उपग्रहों से किये गये परीक्षणों ने देश में भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से छोड़े जाने वाले भावी संक्रियात्मक उपग्रहों के लिए एक मजबूत तकनीकी आधार प्रदान कर दिया था। अतः ISRO ने भू-तुल्यकालिक एवं सूर्य-तुल्यकालिक दोनों प्रकार की कक्षाओं में अपने संक्रियात्मक दूरसंवेद उपग्रह स्थापित करने की योजना बनाई। भू-तुल्यकालिक संक्रियात्मक उपग्रह श्रृंखला का प्रथम उपग्रह इनसेट-1 A (INSAT-1A) था जिसका डिजाइन व रचना संयुक्त राज्य के 'फोर्ड एयरोस्पेस एंड कम्युनिकेशन कार्पोरेशन' (Ford Aerospace and Communication Corporation) संस्थान ने की थी। इस उपग्रह को NASA के डेल्टा (Delta) रॉकेट के द्वारा संयुक्त राज्य के केप केनेवरल (Cape Canaveral) स्थान से 10 अप्रैल, 1982 में उसकी पूर्व-निर्धारित भू-तुल्यकालिक कक्षा में स्थापित किया गया था। प्रमोचन के समय इसके कार्य-काल की अवधि 7 वर्ष आँकी गई थी परन्तु प्रमोचन के 147 दिन बाद इस उपग्रह ने कार्य करना बंद कर दिया था। इस शृखला के अगले उपग्रह (इन्सेट-1 B) का डिज़ाइन, निर्माण व प्रमोचन भी संयुक्त राज्य के इसी संस्थान ने किया था। 82° पूर्व देशान्तर पर स्थित इस भू-तुल्यकाली उपग्रह को छोड़ने का मूल उद्देश्य दूरसंचार के क्षेत्र में प्रगति तथा मौसम-सम्बंधी दशाओं की नियमित रूप से जानकारी प्राप्त करना था। आज इस उपग्रह से देश के लगभग 220 टेलीविजन रिले केन्द्र, मौसम विभाग के 75 से अधिक दर प्राप्ति केन्द्र तथा दूरसंचार विभाग के लम्बी दूरी वाले 8000 में अधिक टेलीफोन सर्किट जुड़े हुए हैं। इन्सेट-1 C को यूरोपियन स्पेस एजेंसी ने फ्रेंच गायना की कोरू प्रमोचन रेन्ज से 1988 में छोड़ा था तथा उसके कुछ समय पश्चात् इस के अन्तिम उपग्रह-इन्सेट-1 D, को छोड़ा गया था।
INSAT-2 श्रृंखला के अन्तिम उपग्रह अर्थात् INSAT-2E को शनिवार, 3 अप्रैल 1999 को फ्रेन्च गयाना की कोरू प्रमोचन रेन्ज से एरीआने लाँच व्हीकिल के द्वारा अन्तरिक्ष में छोड़ा गया था। 220 करोड़ रुपये की लागत से निर्मित 2,550 क्रिगा भार वाले इस अति आधुनिक बहु-उद्देश्यीय भू-तुल्यकाली उपग्रह की मिशन-अवधि 12 वर्ष आंकी गयी है । 83° पूर्वी देशान्तर पर स्थित यह उपग्रह आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैण्ड से पश्चिमी यूरोप तक विस्तीर्ण विशाल भू-भाग को कवर करता है। अत: इस उपग्रह से दूरदर्शन व दूरसंचार के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई है।
1988 से 26 मई, 1999 तक की अवधि में ISRO ने अपने 7 उपग्रह करीब-करीब ध्रुवीय एवं वृत्ताकार सूर्य-तुल्यकालिक कक्षाओं में स्थापित किये हैं। इनमें 4 उपग्रह IRS-1 शृंखला के तथा शेष 3 उपग्रह IRS-P श्रृंखला के हैं। सारणी 15.6 व 15/ में IRS-1 शृंखला के IRS-1 A, -1B, -1C व -1D उपप्रहा के क्रमश: सामान्य लक्षणों तथा उनके संवेदकों की विशेषताओं को दिखलाया गया है।
पृथ्वी के पर्यावरण के सम्बंध में नियमित रूप से सूचना प्राप्त करने के उद्देश्य से ISRO ने 1994 में सूर्य-तुल्यकालिक उपग्रहों की एक नवीन शृंखला-IRS-P प्रारम्भ की थी। 26 मई 1999 तक इस श्रृंखला के तीन उपग्रह अर्थात् IRS-P2, IRS-P3 व IRS-P4 अंतरिक्ष में छोड़े जा चुके हैं। इस तरह आज भारत के पाँच सूर्य-तुल्यकालिक उपग्रह- (i) IRS-1B, (ii) IRS-P3, (iii) IRS-1C, (iv) IRS-ID, तथा (v) IRS-P4, एक-साथ सारी पृथ्वी का दूरसंवेद कर रहे हैं। अब तक छोड़े गये शेष दो सूर्य-तुल्यकालिक उपग्रह अर्थात् IRS-1A तथा IRS-P2, अपने सेवाकाल की अवधि को सफलतापूर्वक पूर्ण कर चुके हैं।
26 मई 1999 में ISRO ने अपने द्वारा निर्मित PSLV-2C (Polar Satellite Launch Vehicle-C2) के द्वारा श्री हरिकोटा के शार प्रमोचन मंच (Shar Launch Pad) से एक-साथ तीन दूरसंवेद उपग्रहों- (i) भारत का IRS-P4, (ii) कोरिया का KITSAT तथा (ii) जर्मनी का TUBSAT, को उनकी अपनी-अपनी सूर्य-तुल्यकालिक कक्षाओं में सफलतापूर्वक स्थापित करके, भारत को उन गिने चुने देशों के समकक्ष कर दिया जो विदेशी उपग्रहों को छोड़ने के अन्तर्राष्ट्रीय बाजार को नियंत्रित करते हैं । चार प्रावस्था वाले तथा 45 मी लम्बे इस PSLV-2C को उस दिन प्रात: 11.52 बजे छोड़ा गया था। छूटने के समय से लगभग 18 मिनट पश्चात् इसने भारत के 1050 किग्रा भार वाले IRS-P4 को 730 किमी ऊँची सूर्य-तुल्यकालिक कक्षा में स्थापित कर दिया। इसके पश्चात् 50-50 सेकंड के अन्तराल पर कोरिया का 107 किग्रा भार वाला KITSAT तथा उसके बाद जर्मनी का 45 किग्रा भार वाला TUBSAT उपग्रह PSLV-2C से पृथक होकर अपनी-अपनी कक्षाओं में स्थापित हो गये। IRS-P4 से महासागरों के क्षेत्र में जैसे जल का तापमान, लवणता, ज्वार-भाटा व धारायें तट रेखा, मत्स्य क्षेत्र व अन्य संसाधनों, के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होगी। इसी कारण वश ISRO ने IRS-P4 को OCEANSAT-1 नाम दिया है।
[III] भावी अंतरिक्ष प्रोग्राम
(Future space programme)
ISRO की योजना के अनुसार तृतीय पीढ़ी की INSAT-3 श्रृंखला के प्रथम उपग्रह को अगस्त 1999 में फ्रेन्च गायना की कोरू प्रमोचन रेन्ज से छोड़ा जायेगा। सामान्यत: किसी उपग्रह के सेवाकाल की अवधि लगभग 3 वर्ष होती है। अतः भविष्य में दूरसंवेद की सेवाओं को लगातार जारी रखने एवं अध्ययन के कतिपय नवीन क्षेत्रों में दूरसंवेद टेक्नोलॉजी का अनुप्रयोग करने के उद्देश्य से भारतीय अंतरिक्ष शोध संगठन (ISRO) ने सन् 2002 तक प्रतिवर्ष 1 दूरसंवेद उपग्रह छोड़ने की एक महत्वाकांक्षी योजना बनाई है। इस योजना के अन्तर्गत आने वाले सभी उपग्रहों को देश के अपने प्रमोचन मंचों (launch pads) से अन्तरिक्ष में छोड़ा जायेगा तथा इन उपग्रहों का पेलोड पूर्णतः स्वदेशी होगा।
1999 में छोड़े जाने वाले IRS-P5 उपग्रह को CARTOSAT-1 नाम दिया गया है। यद्यपि इस उपग्रह के दत्त से नगर नियोजन से सम्बंधित परियोजनाओं को पूर्ण करने में महत्वपूर्ण सहायता प्राप्त होगी तथापि IRS-P5 के प्रमोचन का मूल प्रयोजन मानचित्रकला (cartography) है और इसलिए इस उपग्रह को उपयुक्त नाम दिया गया है। CARTOSAT-1 से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर पृथ्वी के विभिन्न भौतिक एवं आर्थिक लक्षणों का अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी एवं प्रभावशाली मानचित्रण करना सम्भव होगा।
वर्तमान शताब्दी के अन्तिम वर्ष में IRS-P6 छोड़ा जायेगा जो मूलत: एक संसाधन उपग्रह (resource satellite) होगा। इस उपग्रह से कृषि, जल संसाधनों की खोज, भूमि उपयोग मानचित्रण (land use mapping), वन संसाधन एवं भूविज्ञान से सम्बंधित शोध-अध्ययनों एवं परियोजनाओं में मदद मिलेगी।
2001 में OCEANSAT-2 छोड़ा जायेगा जो IRS-P4 का पूरक होगा। यह उपग्रह वायु के वेग एवं दिशा, महासागरीय जल की लवणता (salinity) एवं तापमान तथा महासागरों में जल की तरंगों की ऊँचाइयों का मापन करेगा। इसी प्रकार 2002 के लिये प्रस्तावित CARTOSAT-2 उपग्रह IRS-P5 का पूरक होगा। यहां यह पुनः संकेत करना आवश्यक है कि IRS-P शृंखला के शेष सभी उपग्रहों के प्रमोचन में PSLV-C2 रॉकेट का प्रयोग किया जायेगा। भारत में निर्मित इस रॉकेट से 1200 किग्रा भार तक के उपग्रह पेलोड का ध्रुवीय कक्षा में प्रमोचन किया जा सकता है।
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