चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) कुहन के विचार से सामान्य विज्ञान के विकास में असंगतियों के अवसादन तथा संचयन (Accumulation) में संकट की स्थिति उत्पन्न होती है, जो अन्ततः क्रान्ति के रूप में प्रकट होती है। यह क्रान्ति नए चिन्तनफलक को जन्म देती है। जब नवीन चिन्तनफलक अस्तित्व में आता है वह पुराने चिन्तनफलक को हटाकर उसका स्थान ले लेता है। चिन्तनफलक के परिवर्तन की इस प्रक्रिया को 'चिन्तनफलक प्रघात' (Paradigm Shock) या 'चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) के नाम से जाना जाता है। ध्यातव्य है कि इस प्रक्रिया में पुराने चिन्तनफलक को पूर्णरूप से अस्वीकार या परिव्यक्त नहीं किया जा सकता, जिसके कारण कोई चिन्तनफलक पूर्णरूप से विनष्ट नहीं होता है। इस गत्यात्मक संकल्पना के अनुसार चिन्तनफलक जीवन्त होता है चाहे इसकी प्रकृति विकासात्मक रूप से अथवा चक्रीय रूप से हो। जब प्रचलित चिन्तनफलक विचार परिवर्तन या नवीन सिद्धान्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता है, तब सर्वसम्मति से नए चिन्तनफलक का प्रादुर्भाव होता है। अध्ययन क्षेत्र के उपागम में होने वाले इस परिवर्तन को चिन्तनफलक स्थानान्त...
तल-मापन
(Levelling)
सर्वेक्षण की वह शाखा, जिसमें धरातल पर दिये हुए बिन्दुओं की आपेक्षिक ऊँचाइयाँ (relative heights) निश्चित करते हैं तल-मापन कहलाती है। दूसरे शब्दों में, तल-मापन के द्वारा धरातल के किसी बिन्दु की स्वेच्छानुसार छाँटी गई समतल सतह अर्थात् आधार तल (datum) से लम्बवत् दूरी मापते हैं, जिससे यह निश्चित किया जा सके कि वह बिन्दु धरातल के किसी अन्य दिये हुए बिन्दु की तुलना में कितना ऊँचा अथवा कितना नीचा स्थित है। तल-मापन करने का एक अन्य उद्देश्य किसी दिये हुए बिन्दु के सन्दर्भ में अन्य बिन्दुओं को एक समान अथवा भिन्न-भिन्न ऊँचाइयों पर स्थापित करना होता है। यद्यपि वायुदाबमापी व जल के क्वथनांक से भी किसी स्थान की समुद्र तल से ऊँचाई ज्ञात की जा सकती है परन्तु प्रस्तुत अध्याय में सर्वेक्षण उपकरणों के द्वारा तल-मापन करने की विधियों को विशेष रूप से समझाया गया है।
तल-मापन के आवश्यक उपकरण
(Instruments Required for Levelling)
लेविल यन्त्र के द्वारा तल-मापन करने के लिये निम्नलिखित उपकरणों की आवश्यकता होती है :
(1) लेविल यन्त्र तथा उसका त्रिपाद-स्टैण्ड,
(2) तलेक्षण मापी दण्ड, तथा
(3) ज़रीब अथवा फीता ।
[I] लेविल यन्त्र
(The level)
तल मापन में लेविल यन्त्र का मुख्य स्थान है। तल-मापन में आठ प्रकार के लेविल प्रयोग किये जाते हैं- (i) डम्पी लेविल, (ii) वाई लेविल, (iii) कुक का उत्क्रमणीय लेविल, (iv) कुशिंग लेविल (v) जाइस लेविल, (vi) वाट्स लेविल (vii) वास्तुशिल्पियों का डम्पी लेविल तथा (vii) जी. एस. परिशुद्ध लेविल। लेविल यन्त्रों की इन प्रकारों के मुख्य-मुख्य लक्षणों को नीचे लिखा गया है।
1. डम्पी लेविल (Dumpy level)-लेविल यन्त्रों में डम्पी लेविल का सबसे अधिक प्रयोग होता है। प्रारम्भ में इस लेविल में उल्टाकारी नेत्रिका (inverting eye-piece) लगाई जाती थी जिससे यह लेविल वाई लेविल की अपेक्षा कुछ छोटा होता था। अतः इसे डम्पी लेविल कहा जाने लगा । इस लेविल की बनावट सरल होती है तथा इसमें शीघ्र खराब हो जाने वाले पुजों की संख्या कम होती है। डम्पी लेविल की दूरबीन अपने आधारों पर इस प्रकार कसी होती है कि उसे केवल क्षैतिज तल में घुमाया जा सकता है अर्थात् न तो इसे थियोडोलाइट की दूरबीन की भाँति ऊर्ध्वाधर तल में घुमाना सम्भव है और न ही इसे वाई लेविल की दूरबीन की तरह आधारों से पृथक् किया जा सकता है। इस लेविल को प्रयोग करना अपेक्षाकृत सरल होता है। डम्पी लेविल के विभिन्न अंगों के नाम तथा इसके उपयोगों को आगे चलकर तलाया जायेगा ।
2. वाई लेविल (wye or Y-level) - इस लेविल की दूरबीन Y-आकार के दो बेयरिंगों पर टिकी होती है, जिन्हें वाइयाँ (wyes) कहते हैं। इन्हीं वाइयों के आधार पर इस लेविल का वाई लेविल नाम पड़ गया है (चित्र A) । इनमें से एक वाई को कैप्स्टन डिबरियों के द्वारा आवश्यकतानुसार ऊँचा या नाचा किया जा सकता है। प्रत्येक वाई के ऊपर एक क्लिप होती है, जो दूरबीन को वाइयों में यथास्थान स्थिर रखती है। इन क्लिपों को खड़ी करके दूरबीन को न केवल भाइयों में घुमाया जा सकता है अपितु सिरे बदलने के लिये उसे वाइयों से अलग भी किया जा सकता है। इस उपकरण की लेविल नलिका दूरबीन से जुड़ी होती है तथा इस नलिका को क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर दोनों तलों में समायोजित किया जा सकता है। यद्यपि वाई लेविल का समायोजन शीघ्र हो जाता है परन्तु यह समायोजन अधिक समय तक शुद्ध नहीं रह पाता।
3. कुक का उत्क्रमणीय लेविल (Cook's reversible level)- कुक के उत्क्रमणीय लेविल में डम्पी तथा वाई दोनों लेविलों के गुण विद्यमान होते हैं । इस लेविल की दूरबीन के सिरों को रिवर्स या प्रतिलोमित करने के लिये पहले रोक पेंच (stop screw) को ढीला करते हैं तथा उसके बाद दूरबीन को साकेटों से अलग करके, उसे दूसरे सिरे की ओर से पुनः साकेटों में लगाते हैं और इस प्रकार दूरबीन का उक्रमण हो जाता है। इसके अतिरिक्त दूरबीन को उसके अनुदैर्ध्य अक्ष (longitudinal axis) के चारों ओर भी घुमाया जा सकता है।
4. कुशिंग लेविल (Cushing's level) - कुशिंग लेविल की दूरबीन को न तो साकेटों से बाहर निकाला जा सकता है और न ही इसे साकेटों के भीतर अनुदैर्ध्य अक्ष के चारों ओर घुमाना सम्भव है अतः दूरबीन का उत्क्रमण करने के लिये नेत्रिका को अभिदृश्यक के स्थान पर तथा अभिदृश्यक को नेत्रिका के स्थान पर लगा देते हैं। इसके अतिरिक्त नेत्रिका व अभिदृश्यक को उनके साकेटों में घुमाया जा सकता है।
5. जाइस लेविल (Zeiss level) - वाइस लेविल उपरोक्त लेविलों से कई बातों में भिन्न होता है । प्रथम, अपेक्षाकृत बड़े आकार का होने के कारण यह लेविल परिशुद्ध तल-मापन के लिये बहुत उपयोगी होता है। द्वितीय, इस लेविल की दूरबीन नलिका के दोनों सिरों पर दो एक-जैसे समतल उत्तल लेन्स (plano-convex lens) लगे होते हैं तथा इन लेन्सों की आन्तरिक सतह पर क्रॉस-तार खुदे रहते हैं। अतः इस लेविल में डायाफ्राम पेंचों की आवश्यकता नहीं होती है। दोनों लेन्सों के मध्य में एक तीसरा नेगेटिव लेन्स (negative lens) होता है, जिसे फोकसन पेंच के द्वारा नलिका के भीतर आगे या पीछे की ओर खिसकाया जा सकता है। इस नेगेटिव लेन्स को आवश्यकतानुसार आगे-पीछे हटाकर अभिदृश्यक द्वारा निर्मित किसी विवरण के प्रतिबिम्ब का दूसरे सिरे वाले लेन्स पर फोकस करते हैं, जिससे सर्वेक्षक को वह विवरण स्पष्ट दिखलाई देने लगता है। तृतीय.दूरबीन के नेत्रिका वाले सिरे से मुलबुले की स्थिति को लेबिल नलिका के ऊपर लगे दर्पण में देखा जा सकता है, अतः बुलबुले को लेबिल नलिका के मध्य में लाने के लिये सर्वेक्षक को नेत्रिका से आँख हटाने की आवश्यकता नहीं होती।
6. पाट्स लेखिल (Watts level) वाट्स लेविल का बुलबुला इस प्रकार बनाया जाता है कि प्रत्येक दशा में उसकी लम्बाई एक समान रहती है। इस बुलबुले को नेत्रिका वाले सिरे से देखने के लिये लेविल नलिका के ऊपर एक दर्पण लगा होता है, जिसे परावर्तक (reflector) कहते हैं। वाट्स लेविल की शेष बनावट जाइस लेविल के समान होती है।
7. वास्तुशिल्पियों का डम्पी लेविल (Bulders' dumpy level)यह एक हल्का किन्तु मजबूत लेविल होता है जिसका निर्माण विशेषतः वास्तुशिल्पियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया गया है। इस लेविल की दूरबीन आन्तरिक फोकसन वाली होती है तथा दूरबीन को मन्द गति से क्षैतिज तल में घुमाने के लिये बन्धन व टेंजेन्ट पेंचों की व्यवस्था होती है (चित्र B)। इस लेविल में समतलन पेंचों के ऊपर एक अंशांकित वृत्त होता है, जिस पर प्रेक्षित विवरणों के अंशों में कोण पढ़े जा सकते हैं। यह वृत्त पूर्णतः अथवा आंशिक रूप में खुला हुआ सकता है।
8. एस. परिशुद्ध लेविल (G. S. precision level)यह लेविल इन्जीनियर लेविल का एक परिष्कृत रूप है तथा इसे परिशुद्ध तल-मापन हेतु प्रयोग में लाया जाता है (चित्र C)। समतलन पेंचों के साथ-साथ कन्दुक-खल्लिका सन्धि की व्यवस्था होने से इस लेविल को अपेक्षाकृत शीघ्र समतल स्थापित किया जा सकता है । दूरबीन को समतल करने के लिये पहले समतलन पेंचों का प्रयोग करते हैं और जब दूरबीन करीब-करीब समतल हो जाती है तो माइक्रोमीटर पेंचों के द्वारा उसका परिशुद्ध समतलन किया जाता है।
[II] तलेक्षण मापी दण्ड
(Levelling staff)
तलेक्षण मापी दण्ड पर लेविल की संधान रेखा तक की लम्बवत् दूरी को पढ़ा जाता है। ये दण्ड धातु अथवा भली-भाँति सुखाई गई महोगनी की लकड़ी के बने होते हैं तथा इनके पार्श्व पर फीट अथवा मीटर में मापनी अंकित होती है। मीट्रिक मापनी वाले साधारण तलेक्षण मापी दण्ड पर आधे सेन्टीमीटर तक की दूरी को पढ़ा जा सकता है तथा फीट में मापनी वाले साधारण दण्ड पर एक फुट के सौ वें भाग तक की दूरी मापी जा सकती है। सामान्यतया तलेक्षण मापी दण्ड की लम्बाई 4 मीटर तक होती है। परन्तु पर्वतीय क्षेत्रों में प्रयोग किये जाने वाले तलेक्षण मापी दण्ड की लम्बाई 5.5 मीटर तक हो सकती है।
तलेक्षण मापी दण्ड पर दूरियों के अंकों को लिखने की पद्धति के अनुसार ये दण्ड दो प्रकार के हो सकते हैं- (i) खड़ा दण्ड (upright staff) तथा (ii) विलोम दण्ड (reverse staff)। खड़े दण्ड पर अंक सीधे लिखे जाते हैं अतः ये अंक दूरबीन में उल्टे दिखाई देते हैं। इसके विपरीत विलोम दण्ड पर दूरियों के अंकों को उल्टी आकृति में लिखा जाता है अतः विलोम दण्ड पर अंकित अंक दूरबीन में सीधे दिखलाई देते हैं। चूँकि दूरबीन में कोई तलेक्षण मापी दण्ड उल्टा लटका हुआ प्रतीत होता है अतः दण्ड पर किसी दूरी को दूरबीन में सदैव ऊपर से नीचे की ओर को पढ़ते हैं।
एक अन्य वर्गीकरण के अनुसार तलेक्षण मापी दण्डों को दो वर्गों में रखा जाता है - (i) स्वयंपाठी दण्ड (self-reading staff), तथा (ii) टागेट दण्ड (target staff)। इन दण्डों के अन्तरों एवं उनके उप-भेदों को नीचे समझाया गया है।
1. स्वयंपाठी दण्ड (Self-reading staff) यन्त्र-वाहक (instrument man) के द्वारा दूरबीन से पढ़े जाने वाले तलेक्षण मापी दण्ड को स्वयंपाठी दण्ड कहते हैं। इस दण्ड को प्रायः 100 मीटर तक की दूरी के लिये प्रयोग में लाया जाता है। बनावट के विचार से स्वयंपाठी दण्ड निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं :
(a) सापविथ दण्ड (Sopwith staff) यह एक सामान्य प्रकार का तलेक्षण मापी दण्ड है जिसका साधारण तल-मापन में सर्वाधिक प्रयोग होता है। सापविथ दण्ड लकड़ी का बना होता है तथा इसकी लम्बाई प्रायः 4 मीटर होती है। यह लम्बाई तीन टुकड़ों में विभाजित होती है-निचले टुकड़े की लम्बाई 1.5 मीटर, मध्यवर्ती टुकड़े की लम्बाई 1.3 मीटर तथा सबसे ऊपरी टुकड़े की लम्बाई 1.2 मीटर होती है (चित्र A)। ऊपरी टुकड़ा अपेक्षाकृत पतला व ठोस होता है तथा शेष दो टुकड़े सन्दूक के समान खोखले होते हैं। अतः प्रयोग न करते समय ऊपरी टुकड़े को मध्यवर्ती टुकड़े के खोल में तथा मध्यवर्ती टुकड़े को सबसे निचले टुकड़े के खोल में खिसकाकर बन्द कर देते हैं। मध्यवर्ती तथा ऊपरी टुकड़ों के निचले सिरों पर पीतल या लोहे की दो स्पिरिंगदार क्लिप लगी होती हैं, जो बाहर खींचे गये टुकड़े को निचले टुकड़े के खोल में स्वतः खिसकने से रोक देती हैं। इन क्लिपों को दबाने के बाद ही किसी टुकड़े को निचले टुकड़े के खोल में खिसकाया जा सकता है। सापविथ दण्ड पर दायें किनारे के साथ-साथ काली स्याही से डेसीमीटरों में दूरियों के मान लिखे होते हैं तथा बायें किनारे पर लाल स्याही से मीटरों में दूरियों के मान अंकित होते हैं। प्रत्येक एक डेसीमीटर की दूरी में आधे सेन्टीमीटर के अन्तराल पर आधे-आधे सेन्टीमीटर मोटे 10 काले चिह्न होते हैं। इस प्रकार इस दण्ड पर आधे सेन्टीमीटर तक की दूरी को बिना किसी कठिनाई के पढ़ा जा सकता है। यहाँ यह संकेत करना आवश्यक है कि दण्ड पर 1 मीटर की दूरी 1 मीटर के लाल चिह्न के ऊपरी किनारे तक होती है। इसी प्रकार 1.15 मीटर की दूरी लाल चिह्न के ऊपर की ओर स्थित दूसरे लाल चिह्न के निचले किनारे तक होगी। संक्षेप में, किसी चिह्न का ऊपरी किनारा सेन्टीमीटर की पूर्णांकों में दूरी व्यक्त करता है।
फीट में दूरी व्यक्त करने वाले सापविथ दण्ड की लम्बाई प्रायः 14 फीट के बराबर होती है (चित्र B) । मीट्रिक प्रणाली अपना लेने के फलस्वरूप अब भारत में इस प्रकार के दण्डों का प्रचलन बहुत कम हो गया है। इस दण्ड की बनावट ऊपर लिखे गये मीट्रिक दण्ड के समान होती है। इस दण्ड के निचले टुकड़े की लम्बाई 5 फीट तथा मध्यवर्ती व ऊपरी टुकड़ों में प्रत्येक 4 फीट 6 इंच लम्बा होता है। समूचे दण्ड पर फीट तथा एक फुट के दसवें व सौवें भाग अंकित होते हैं। दण्ड के बायें किनारे के साथ लाल रंग की संख्याएँ फीट इंगित करती हैं तथा दायें किनारे पर काले रंग से लिखी गई संख्याएँ एक फुट के विषम दसवें भागों की दूरी प्रकट करती हैं। काले रंग से लिखे गये प्रत्येक अंक की लम्बाई ठीक एक फुट के दसवें भाग के बराबर होती है अतः किसी अंक के निचले सिरे से एक फुट के सम दसवें भाग जैसे, 0.2, 0.4, 0.6 व 0.8 फुट का बोध होता है तथा ऊपरी सिरा एक फुट के विषम दसवें भाग, जैसे 0.1, 0.3, 0.5, 0.7 व 0.9 फुट की इंगित करता है। जैसा कि चित्र में प्रकट है, एक फुट के प्रत्येक दसवें भाग को समान मोटाई वाले 5 काले व 5 श्वेत भागों में बाँटा गया है जिससे एक फुट के सौवें भाग की दूरी को प्रकट किया जा सके। इन भागों में भी किसी काले भाग का ऊपरी किनारा एक फुट के सम सौवें भाग को तथा श्वेत भाग का ऊपरी किनारा विषम सौवें भाग की दूरी को इंगित करता है।
(b) मुड़वाँ दण्ड (Folding staff) यह भी एक स्वयंपाठी तलेक्षण मापी दण्ड है जिसकी लम्बाई प्रायः 10 फीट के बराबर होती है। इस दण्ड में 5 फीट की ऊँचाई पर एक कब्जा लगा होता है जिसकी सहायता से कार्य समाप्ति के पश्चात् दण्ड के ऊपरी आधे भाग को निचले आधे भाग पर मोड़ कर रख देते हैं। मुड़वाँ दण्ड को कब्जेदार दण्ड (hinged staff) भी कहा जाता है।
(c) एकल-लम्बाई दण्ड (One-length staff) यह स्वयंपाठी दण्ड एक लम्बाई में होता है अर्थात् इसमें कोई जोड़ या टुकड़े नहीं होते। एकल-लम्बाई दण्ड की लम्बाई 10 फीट होती है तथा इसे मुख्यतः परिशुद्ध तल-मापन में प्रयोग करते हैं।
2. टार्गेट दण्ड (Target staff)-100 मीटर से अधिक दूरी पर स्थित दण्ड स्टेशनों को लक्ष्य करने के लिये टार्गेट दण्ड विशेष उपयोगी रहता है। इस दण्ड पर लगभग 5 इंच व्यास वाली वृत्ताकार अथवा दीर्घवृत्तीय चक्रिका (disc) लगी होती है, जिसे टार्गेट कहते हैं (चित्र 3) । इस टार्गेट में आमने-सामने के दो वृत्तपादों को लाल रंग देते हैं जिससे उसमें एक क्षैतिज तथा एक ऊर्ध्वाधर रेखा बन जाती है। टार्गेट के मध्य में एक आयताकार झिरी होती है, जिसमें दण्ड के अंशांकित पार्श्व का कुछ भाग दिखलाई देता है। आयताकार झिरी के एक किनारे पर साधारण या वर्नियर मापनी बनी होती है, जिसका शून्य बिन्दु चक्रिका की क्षैतिज रेखा पर होता है। इस मापनी की सहायता से टार्गेट दण्ड पर एक फुट के एक हजारवें भाग तक की दूरी को पढ़ा जा सकता है ।
इस दण्ड को प्रयोग करते समय दण्ड वाहक (rod man) टार्गेट को यन्त्रवाहक के संकेतानुसार दण्ड पर ऊपर या नीचे की ओर इतना खिसकाता है कि यन्त्रवाहक को टार्गेट की क्षैतिज रेखा संधान रेखा की सीध में दिखलाई देने लगे। इसके पश्चात् दण्डवाहक टार्गेट को एक पेंच के द्वारा दण्ड पर कस देता है तथा वर्नियर के पाठ्यांक को पढ़कर क्षेत्र-पुस्तिका में यथास्थान लिख लेता है। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि टार्गेट दण्ड को दण्डवाहक पढ़ता है जबकि स्वयंपाठी दण्ड को यन्त्रवाहक पढ़ता है।
टार्गेट दण्ड में दो पट्टियाँ होती हैं जिनमें एक पट्टी को दूसरी पट्टी के सहारे खिसका कर दण्ड की लम्बाई को बढ़ाया जा सकता है। पूरी लम्बाई में बढ़ाये गये दण्ड को लम्बा दण्ड (long rod) तथा बिना बढ़ाये गये दण्ड को लघु दण्ड (short rod) कहते हैं। दोनों पट्टियों पर फीट तथा एक फुट के दसवें व सौवें भाग तक अंकित होते हैं । खिसकने वाली निचली पट्टी के पिछले पार्श्व पर अगली पट्टी से आगे की दूरियों के चिह्न होते हैं, परन्तु इन चिह्नों के मान विपरीत दिशा में अर्थात् ऊपर से नीचे की ओर को बढ़ते जाते हैं। खिसकने वाली पट्टी के पिछले पार्श्व पर एक वर्नियर मापनी होती है जिसे दण्ड बढ़ाये जाने पर प्रयोग में लाया जाता है।
यदि कोई पाठ्यांक 7 फीट से कम है तो दण्ड को आगे बढ़ाये बिना अर्थात् लघु दण्ड पर पहले बतलाई गई विधि के अनुसार टार्गेट को संधान रेखा की सीध में कस कर सही-सही पाठ्यांक पढ़ लेते हैं। 7 फीट से अधिक मान वाले पाठ्यांकों के लिये पहले टार्गेट के शून्य बिन्दु को खिसकने वाली पट्टी के ठीक सातवें फीट के चिह्न के सामने करके टार्गेट को कस देते हैं। दण्ड बढ़ाने से पूर्व पिछले पार्श्व का पाठ्यांक भी ठीक 7 फीट होना चाहिए (चित्र A) । इसके पश्चात् खिसकने वाली पट्टी को इतना ऊँचा उठाते हैं कि उसमें लगे टार्गेट का शून्य बिन्दु संधान रेखा की सीध में आ जाये । अब खिसकने वाली पट्टी के पिछले पार्श्व पर वर्नियर को पढ़ते हैं। यह पाठ्यांक धरातल से टार्गेंट की क्षैतिज रेखा तक की ऊर्ध्वाधर दूरी को प्रकट करेगा।
उदाहरणार्थ, यदि खिसकने वाली पट्टी को 0.06 फुट बढ़ाया गया है तो वर्नियर पाठ्यांक 7.06 फीट होगा (चित्र B) ।
टार्गेट में लगी मापनी के अनुसार टार्गेट दण्डों के निम्न दो भेद होते हैं :
(a) साधारण मापनियों वाले टार्गेट दण्ड (Target staves with ordinary scales)-जिन टार्गेट दण्डों के टार्गेटों में साधारण मापनी लगी होती हैं उन्हें साधारण मापनी वाले टार्गेट दण्ड या फिलाडेल्फिया दण्ड (Philadelphia staff) कहते हैं। । इस दण्ड पर फीट तथा एक फुट के दसवें भाग अंकित होते हैं। दण्ड की टार्गेट मापनी भी 1/10 फुट लम्बी होती है तथा यह 10 बड़े भागों में अथवा 20 छोटे भागों में विभाजित होती है। अतः इस मापनी के सबसे छोटे एक भाग की लम्बाई 0.005 फुट के बराबर होती है। नीचे दिए चित्र में फिलाडेल्फिया दण्ड पर टार्गेट की तीन भिन्न-भिन्न स्थितियाँ दिखलाई गई हैं। इन दण्डों पर टार्गेट के शून्य तक की दूरी को निम्न प्रकार पढ़ा जायेगा।
(b) वर्नियर मापनियों वाले टार्गेट दण्ड (Target staves with vernier scales) -इन दण्डों के टार्गेट में साधारण मापनी के बजाय वर्नियर मापनी लगी होती है अत: इन्हें वर्नियर मापनियों वाले दण्ड या न्यूयार्क दण्ड (New York staff) नाम पुकारा से जाता है। फिलाडेल्फिया दण्ड के विपरीत इस दण्ड पर एक फुट के सौवें भाग तक की दूरी अंकित होती है तथा हजारवें भागों को वर्नियर पर पढ़ा जा सकता है। इस प्रकार इस दण्ड पर पाठ्यांक लेते समय हजारवें भागों का अनुमान लगाने की आवश्यकता नहीं होती। नीचे दिए चित्र में दण्ड पर टार्गेट की तीन स्थितियाँ दिखलाई गई हैं। इन दण्डों के पाठ्यांकों को निम्नलिखित प्रकार से ज्ञात किया जा सकता है :
तल-मापन में दण्ड स्टेशनों की यन्त्र स्टेशन से दूरियाँ मापने के लिये ज़रीब अथवा फीते की आवश्यकता होती है। अति परिशुद्ध तल-मापन में इस्पाती फीते अथवा इन्वार फीते का प्रयोग लाभदायक रहता है। ज़रीब तथा फीता सर्वेक्षण के अध्याय में विभिन्न प्रकार की जरीब व फीता का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जा चुका है, अत: उन्हें यहाँ पुनः लिखने की आवश्यकता नहीं है।
डम्पी लेविल के अंग
(Parts of a Dumpy Level)
नीचे दिए चित्र में डम्पी लेविल के मुख्य-मुख्य अंगों के नाम दिये गये हैं। डम्पी लेविल की प्रयोग-विधि पढ़ने से पूर्व इन अंगों के नाम तथा उनके कार्यों को भली-भाँति समझ लेना चाहिए। ये अंग निम्नलिखित हैं :
डम्पी लेविल का त्रिपाद-स्टैण्ड मजबूत लकड़ी का बना होता है तथा इसकी बनावट थियोडोलाइट के त्रिपाद-स्टैण्ड के समान होती है। इस स्टैण्ड के ऊपरी सिरे पर धातु की एक प्लेट लगी होती है, जिस पर डम्पी लेविल की आधार प्लेट को कसकर उपकरण को त्रिपाद-स्टैण्ड पर रखते हैं।
[II] आधार प्लेट
(Base plate)
डम्पी लेविल की सबसे निचली तिकोनी प्लेट को आधार प्लेट या पाद-पट्ट (foot plate) कहते हैं। इस प्लेट के मध्य में एक वृत्ताकार छिद्र बना होता है, जिसकी चूड़ियों को त्रिपाद शीर्ष की चूड़ियों पर कसा जाता है।
[III] समतलन अवयव
(Levelling head)
आधार प्लेट के थोड़ा ऊपर डम्पी लेविल का समतलन अवयव होता है। इस अवयव में आधार प्लेट से मिलते-जुलते आकार की दूसरी तिकोनी प्लेट होती है, जिसके साकेट में डम्पी लेविल का तकुआ (spindle) होता है। यह तकुआ डम्पी लेविल का ऊर्ध्वाधर अक्ष बनाता है तथा इसके चारों ओर लेविल की दूरबीन क्षैतिज तल में घूमती है।
[IV] समतलन पेंच
(Levelling screws)
आधार प्लेट तथा समतलन अवयव के मध्य में तीन खंचित (milled) पेंच होते हैं, जिन्हें समतलन पेंच कहते हैं। इन पेंचों के द्वारा दूरबीन को समतल स्थापित किया जाता है ।
[V] बॉडी क्लैम्प
(Body clamp)
समतलन अवयव के ऊपरी भाग में एक पेंच लगा होता है, जिसे पूरा कस देने पर दूरबीन क्षैतिज तल में घूमना बन्द कर देता है। इस पेंच को बॉडी क्लैम्प कहते हैं।
[VI] प्रिज्मीय कम्पास
(Prismatic compass)
दण्ड स्टेशनों (staff stations) के चुम्बकीय दिकमानों को ज्ञात करने के लिये डम्पी लेविल में दूरबीन के नीचे एक प्रिज्मीय कम्पास होती है। इस कम्पास का प्रिज़्म दूरबीन की संधान रेखा से 90° पर होता है तथा कम्पास के अंशांकित वृत्त पर सुई की उत्तरी नोक भी 90° इंगित करती है। अतः जब दूरबीन का अभिदृश्यक ठीक उत्तर की ओर होता है तो प्रिन के पाठ्यांक का मान शून्य अंश होता है। यही कारण है कि संधान रेखा की सीध में न होते हुए भी प्रिम का सूचक किसी दण्ड स्टेशन का सही-सही दिक्मान इंगित कर देता है।
[VII] कम्पास क्लैम्प
(Compass clamp)
प्रिज्म के सामने कम्पास के दूसरी ओर एक पेंच लगा होता है, जिसे कम्पास क्लैम्प कहते हैं। कम्पास के अंशांकित वृत्त को स्थिर करने के लिये अथवा उसके दोलन को कम करने के लिये इस पेंच को प्रयोग में लाया जाता है।
[VIII] बॉडी टेंजेन्ट पेंच
(Body tangent screw)
दूरबीन को मन्द गति से घुमाने के लिये बॉडी टेंजेट पेंच को प्रयोग में लाते हैं। स्मरण रहे, बॉडी क्लेम्प को पूरा कस देने के बाद ही यह पेंच कार्य करता है।
[IX] दूरबीन
(Telescope)
डम्पी लेविल की दूरबीन लगभग 37 सेमी लम्बी होती है। इसके एक सिरे पर नेत्रिका (eye-piece) तथा दूसरे सिरे पर अभिदृश्यक लेन्स (objective lens) लगा होता है। अभिदृश्यक लेन्स के चारों ओर एक सूर्य झाँप या सन शेड (sun shade) होता है, जो सूर्य की सीधी किरणों को अभिदृश्यक लेन्स पर पड़ने से रोकता है। उपकरण को प्रयोग न करते समय लेन्स पर धूलरक्षी-टोपी (dust cap) लगा देते हैं। दूरबीन का फोकसन करने के लिये फोकसन पेंच (focussing screw) को प्रयोग में लाते हैं। दूरबीन की आन्तरिक बनावट व डायाफ्राम के क्रॉसतारों के विभिन्न प्रतिरूपों को पिछले अध्याय में लिखा जा चुका है। डम्पी लेविल की दूरबीन दो साकेटों में स्थायी रूप से बंधी होती है तथा ये साकेट नीचे के फ्रेम में मजबूती से जुड़े होते हैं।
[X] लेविल नलिकाएँ
(Level tubes)
दूरबीन के ऊपर दो स्पिरिट लेविल लगे होते हैं। इनमें लम्बी नलिका वाला लेविल संधान रेखा के समान्तर होता है तथा छोटी नलिका वाला लेविल इस रेखा पर समकोण बनाता है। इन लेविलों को देखकर उपकरण को समतल स्थापित करते हैं।
तल-मापन में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों के अर्थ
(Meaning of Terms Used in, Levelling)
तल-मापन करने की विधि पढ़ने से पूर्व तल-मापन में प्रयोग किये जाने वाले निम्नलिखित पारिभाषिक शब्दों के सही-सही अर्थों को भली-भाँति समझ लेना आवश्यक है अन्यथा लेविल क्षेत्र-पुस्तिका आदि भरने में भूल हो सकती है।
[I] समतल पृष्ठ
(Level surface)
पृथ्वी के औसत गोलाभ पृष्ठ (mean spheroidal surface) के समान्तर स्थित किसी पृष्ठ को समतल पृष्ठ कहते हैं। चूँकि पृथ्वी एक लध्वक्ष गोलाभ (oblate spheroid) है अतः समतल पृष्ठ को एक ऐसा वक्र पृष्ठ ( curved surface) माना जा सकता है, जिसका प्रत्येक बिन्दु पृथ्वी के केन्द्र से समदूरस्थ (equidistant) होता है।
[II] समतल रेखा
(Level line)
समतल पृष्ठ में स्थित किसी रेखा को समतल रेखा कहा जाता है।
[III] क्षैतिज तल
(Horizontal plane)
किसी बिन्दु से होकर जाने वाले क्षैतिज तल का अभिप्राय उस तल से है जो उस बिन्दु पर समतल पृष्ठ पर स्पर्श करता है। यह तल गुरुत्व (gravity) की दिशा अर्थात् साहुल सूत्र (plumb line) से लम्बवत् होता है ।
[IV] क्षैतिज रेखा
(Horizontal line)
क्षैतिज तल में स्थित किसी सरल रेखा को क्षैतिज रेखा कहते हैं। यह रेखा समतल रेखा को स्पर्श करती है।
[V] ऊर्ध्वाधर रेखा
(Vertical line)
किसी बिन्दु पर समतल पृष्ठ से अभिलम्ब रेखा को (अर्थात् साहुल सूत्र को) ऊर्ध्वाधर रेखा की संज्ञा दी जाती है।
[VI] ऊर्ध्वाधर तल
(Vertical plane)
जिस तल में ऊर्ध्वाधर रेखा होती है उस तल को ऊर्ध्वाधर तल कहते हैं।
[VII] ऊर्ध्वाधर कोण
(Vertical angle)
दो रेखाओं के प्रतिच्छेदन से ऊर्ध्वाधर तल में बने कोण को ऊर्ध्वाधर कोण कहते हैं। सर्वेक्षण उपकरणों के द्वारा ऊर्ध्वाधर कोण-मापन में इन दोनों रेखाओं में कोई एक रेखा क्षैतिज होती है ।
[VIII] आधार पृष्ठ
(Datum surface)
स्वेच्छानुसार कल्पित कोई समतल सतह, जिससे ऊर्ध्वाधर दूरियाँ मापी जाती हैं, आधार पृष्ठ कहलाती हैं। आधार पृष्ठ को आधार रेखा (datum line) अथवा केवल डेटम नाम से भी पुकारा जाता है। आधार पृष्ठ का अभिप्राय: शून्य तल से है। बेंच मार्क आदि निश्चित करने के लिये प्रायः औसत समुद्र तल को आधार पृष्ठ मान लिया जाता है। उदाहरण के लिये भारत में चेन्नई के समीप का बृहत् ज्वार में औसत समुद्र तल आधार पृष्ठ माना गया है।
[IX] समानीत तल
(Reduced level)
आधार पृष्ठ से किसी बिन्दु की ऊर्ध्वाधर दूरी को उस बिन्दु की ऊँचाई (elevation) या समानीत तल (R.L.) कहते हैं। यदि वह बिन्दु आधार पृष्ठ से ऊँचा है तो उसका समानीत तल धनात्मक (+) होगा। इसके विपरीत यदि वह बिन्दु आधार पृष्ठ से नीचा है तो उसके समानीत तल को ऋणात्मक (-) कहा जायेगा । प्रायः तल-मापन करते समय बिन्दुओं की ऊँचाइयों को किसी ऐसे आधार पृष्ठ के संदर्भ में ज्ञात किया जाता है जिसका औसत समुद्र तल से कोई ज्ञात सम्बन्ध नहीं होता। उदाहरण के लिये, तल-मापन में प्रारम्भिक दण्ड स्टेशन का समानीत तल 100 मीटर या 100 फीट आदि मानकर अन्य बिन्दुओं की आपेक्षिक ऊँचाइयाँ ज्ञात कर लेते हैं। सरल शब्दों में, यदि तल-मापन का उद्देश्य केवल दिये हुए बिन्दुओं की आपेक्षिक ऊँचाइयाँ ज्ञात करना हो तो प्रारम्भिक स्टेशन के समानीत तल को स्वेच्छानुसार कल्पित किया जा सकता है।
[X] बेंच मार्क
(Bench mark)
ज्ञात ऊँचाई वाला वह बिन्दु, जिसके संदर्भ में अन्य बिन्दुओं की ऊँचाइयाँ परिकलित की जाती हैं, बेंच मार्क कहलाता है। बेंच मार्क चार प्रकार के होते हैं-(i) जी. टी. एस. बैंच मार्क (Great Trigonometrical Survey or G.T.S. bench marks), (ii) स्थायी बेंच मार्क, (iii) स्वेच्छ (arbitrary) बेंच मार्क तथा (iv) अस्थायी बेंच मार्क। प्रथम प्रकार के बेंच मार्क सर्वेक्षण विभाग द्वारा समस्त देश में अंकित किये गये हैं। इन बेंच मार्कों के संदर्भ में सार्वजनिक निर्माण विभाग (PW.D.) के द्वारा स्थायी स्थानों जैसे, किसी भवन की दीवार, लोहे के खम्बों अथवा मील-पत्थरों आदि, पर संदर्भ एवं जाँच हेतु अंकित किये गये बेंच मार्को को स्थायी बेंच मार्क कहते हैं। छोटे-छोटे तल-मापन कार्यों में प्रयोग किये जाने वाले संदर्भ बिन्दु, जिनके समानीत तल को स्वेच्छानुसार कल्पित कर लिया जाता है, स्वेच्छ बेंच मार्क कहलाते हैं। अस्थायी बेंच मार्क वे संदर्भ बिन्दु होते हैं जिन्हें पहले दिन कार्य समाप्त करते समय किसी स्थायी स्थान पर अंकित कर देते हैं जिससे अगले दिन आगे का तल-मापन कार्य किया जा सके।
[XI] दूरबीन अक्ष
(Axis of the telescope)
अभिदृश्यक लेन्स के प्रकाशिक केन्द्र (optical centre) को नेत्रिका के केन्द्र से मिलाने वाली कल्पित रेखा को दूरबीन अक्ष कहते हैं।
[XII] लेविल नलिका का अक्ष
(Axis of the level tube)
लेविल नलिका के मध्य बिन्दु पर उसके अनुदैर्ध्य वक्र (longitudinal curve) को स्पर्श करने वाली कल्पित रेखा लेविल नलिका का अक्ष कहलाती है। इस अक्ष को बुद्बुद् रेखा (bubble line) भी कहते हैं। यदि बुलबुला नलिका के मध्य में स्थिर है तो यह अक्ष क्षैतिज माना जायेगा ।
[XIII] संधान रेखा
(Line of collimation)
क्रॉस-तारों के प्रतिच्छेदन बिन्दु व अभिदृश्यक लेन्स के प्रकाशिक केन्द्र से होकर जाने वाली रेखा को संधान रेखा या दृष्टि रेखा (line of sight) कहते हैं।
[XIV] यन्त्र स्टेशन
(Instrument station)
जिस बिन्दु पर लेविल यन्त्र स्थापित किया जाता है, उस बिन्दु को यन्त्र स्टेशन कहते हैं।
[XV] दण्ड स्टेशन
(Staff station)
यह वह स्टेशन होता है, जहाँ तलेक्षण मापी दण्ड खड़ा किया जाता है।
[XVI] पश्चदृष्टि पाठ्यांक
(Back sight reading)
किसी ज्ञात या कल्पित ऊँचाई वाले स्टेशन का तलेक्षण मापी दण्ड पर पढ़ा गया पाठ्यांक पश्चदृष्टि पाठ्यांक या केवल पश्चदृष्टि (B.S.) कहलाता है। यह वह पाठ्यांक है जिसे तल-मापन करते समय सबसे पहले पढ़ा जाता है।
[XVII] अग्रदृष्टि पाठ्यांक
(Fore sight reading)
किसी एक स्टेशन से जितने दण्ड स्टेशनों के पाठ्यांक पढ़े जाते हैं उनमें सबसे अन्तिम दण्ड स्टेशन का पाठ्यांक अग्रदृष्टि पाठ्यांक या केवल अग्रदृष्टि (FS.) कहा जाता है।
[XVIII] मध्यवर्ती दृष्टि पाठ्यांक
(Intermediate sight reading)
किसी एक स्टेशन से प्रेक्षित प्रथम व अन्तिम दण्ड स्टेशनों के बीच में स्थित अन्य बिन्दुओं के तलेक्षण. मापी दण्ड पर पढ़े गये पाठ्यांकों को मध्यवर्ती दृष्टि (I.S.) या मध्यवर्ती दृष्टि पाठ्यांक कहते हैं।
[XIX] वर्तन बिन्दु
(Turning point)
वर्तन बिन्दु (T.P) को परिवर्तन बिन्दु (change point or C.P) भी कहते हैं। यह वह दण्ड स्टेशन होता है, जिसका पूर्ववर्ती यंत्र स्टेशन से अग्रदृष्टि पाठ्यांक एवं अगले स्टेशन से पश्चदृष्टि पाठ्यांक पढ़ा जाता है। इस प्रकार वर्तन बिन्दु से लेविल यन्त्र के स्थानान्तरण का बोध होता है।
[XX] उपकरण की ऊँचाई
(Height of instrument)
पूर्णतया सही-सही समतल स्थापित उपकरण की संधान रेखा के समानीत तल (R.L.) को उपकरण की ऊँचाई (H.I.) कहते हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि यन्त्र स्टेशन से दूरबीन की ऊँचाई को उपकरण की ऊँचाई नहीं कहते । उपकरण की ऊँचाई ज्ञात करने के लिये यन्त्र स्टेशन से प्रेक्षित किसी दण्ड स्टेशन के समानीत तल में उसके (दण्ड स्टेशन) दण्ड पाठ्यांक को जोड़ देते हैं। उदाहरणार्थ, यदि A स्टेशन से प्रेक्षित किसी दण्ड स्टेशन B का समानीत तल 100 मीटर तथा दण्ड पाठ्यांक 1.55 मीटर है, तो A स्टेशन पर उपकरण की ऊँचाई 100+ 1.55 = 101.55 मीटर होगी। अब मान लीजिये A स्टेशन से प्रेक्षित किसी दूसरे 1. दण्ड स्टेशन C का दण्ड पाठ्यांक 2.45 है तो B दण्ड स्टेशन का समानीत तल 101.55-2.45 =99.10 मीटर होगा। इस प्रकार किसी दण्ड स्टेशन का समानीत तल ज्ञात करने के लिये उस स्टेशन के दण्ड पाठ्यांक को उपकरण की ऊँचाई में से घटा देते हैं।
लेविल यन्त्र का अस्थायी समायोजन
(Temporary Adjustment of the Level)
लेविल यन्त्र के अस्थायी समायोजन से हमारा अभिप्राय किसी स्टेशन पर डम्पी लेविल के स्थापन, समतलन व फोकसन से है। चूँकि तल-मापन में प्रत्येक स्टेशन पर इन क्रियाओं की पुनरावृत्ति करना आवश्यक होता है अतः डम्पी लेविल का यह समायोजन अस्थायी कहलाता है। लेविल यन्त्र के अस्थायी समायोजन को निम्नलिखित चरणों में पूर्ण करते हैं :
[I] त्रिपाद-स्टैण्ड पर यन्त्र को रखना
(Fixing the instrument on the tripod stand)
त्रिपाद-स्टैण्ड पर यन्त्र को कसने से पूर्व त्रिपाद-स्टैण्ड को आवश्यकतानुसार ऊँचाई में आँख से देखकर यथासम्भव समतल रखते हैं। इसकी टाँगें भली प्रकार फैली हुई एवं धरातल पर मजबूती से टिकी होनी चाहिएँ जिससे कार्य करते समय स्टैण्ड हिल न सके। इसके बाद लेविल यन्त्र के बॉडी क्लैम्प को ढीला करके बायें हाथ से उपकरण को त्रिपाद-स्टैण्ड की चूड़ियों पर पकड़े रखते हैं तथा दायें हाथ से यन्त्र की आधार प्लेट को चूड़ियों पर कसते हैं। बिना बॉडी क्लैम्प ढीला किये सम्पूर्ण यन्त्र को घुमाकर कसने में यन्त्र के गिर जाने का भय रहता है।
[II] यन्त्र को समतल करना
(Levelling up the instrument)
त्रिपाद-स्टैण्ड पर रखने के पश्चात् डम्पी लेविल को समतल किया जाता है। इस कार्य के लिये पहले दूरबीन को किन्हीं दो समतलन पेंचों के समान्तर रखते हैं तथा दोनों पेंचों को अन्दर की ओर अथवा दोनों पेंचों को बाहर की ओर एक समान घुमाकर बड़ी लेविल नलिका के बुलबुले को नलिका के मध्य में लाते हैं। इसके पश्चात् दूरबीन को 90° घुमाते हैं तथा तीसरे समतलन पेंच की सहायता से बुलबुले को पुनः नलिका के मध्य में लाया जाता है। उपरोक्त क्रिया की एक दो बार पुनरावृत्ति करने से प्रत्येक नलिका का बुलबुला नलिका के ठीक मध्य में स्थिर हो जाता है तथा दूरबीन घुमाने से उनकी स्थिति अपरिवर्तित रहती है। जब दोनों बुलबुले अपनी-अपनी नलिका के ठीक मध्य में हों तथा दूरबीन घुमाने से उनकी स्थितियों में कोई अन्तर न आये तो उपकरण को समतल स्थापित समझ लेना चाहिए।
[III] नेत्रिका एवं अभिदृश्यक लेन्स को फोकस करना
(Focussing the eye-piece and the objective lens)
नेत्रिका के फोकसन से डायाफ्राम के क्रॉस-तारों को देखा जाता है। इस कार्य के लिये अभिदृश्यक लेन्स के सामने सफेद कागज़ का टुकड़ा रखकर नेत्रिका को इतना आगे या पीछे की ओर खिसकाते हैं कि डायाफ्राम के क्रॉस-तार स्पष्ट दिखलाई देने लग अभिदृश्यक लेन्स के फोकसन द्वारा तलेक्षण मापी दण्ड के प्रतिबिम्ब को स्पष्ट किया जाता है । इस कार्य के लिये दूरबीन के फोकसन पेंच को प्रयोग में लाते हैं।
[IV] पैरेलैक्स का विलोपन
(Elimination of the parallax)
तलेक्षण मापी दण्ड पर पाठ्यांक पढ़ने से पूर्व पैरेलैक्स की जाँच करना परम आवश्यक होता है। यदि पैरेलैक्स है तो नेत्रिका व अभिदृश्यक लेन्स का पुनः सही-सही फोकसन करके उसे दूर कर देना चाहिए। पैरेलैक्स की जाँच करने के लिये नेत्रिका पर आँख ऊपर-नीचे करके तलेक्षण मापी दण्ड को पढ़ते हैं। यदि ऐसा करने से दण्ड पाठ्यांक के मान में कोई अन्तर न आये तो यह समझ लेना चाहिए कि पैरेलैक्स पूर्णतः समाप्त हो गई है।
दण्ड पाठ्यांकों का प्रेक्षण एवं अभिलेखन
(Observation and Recording of Staff Readings)
[I] दण्ड पाठ्यांकों का प्रेक्षण
(Observation of staff reading)
किसी दण्ड स्टेशन का पाठ्यांक पढ़ने से पूर्व यह देख लेना चाहिए कि उस स्टेशन पर तलेक्षण मापी दण्ड को यथार्थ रूप में लम्बवत् खड़ा किया गया है। यदि तलेक्षण मापी दण्ड आगे या है। पीछे की ओर झुका हुआ है तो दण्ड पाठ्यांक अपने वास्तविक मान से अधिक हो जायेगा। दण्ड को लम्बवत् पकड़ने के लिये दण्डवाहक को अपनी दोनों एड़ियाँ जोड़कर दण्ड के पीछे सीधा खड़ा होना चाहिए तथा दण्ड की तली उसके पैर के दोनों अंगूठों के मध्य में होनी चाहिए।
परिशुद्ध तल-मापन में प्रयोग किये जाने वाले तलेक्षण मापी दण्ड पर एक मुड़वाँ वृत्ताकार लेविल लगा रहता है। इस लेविल में बुलबुले की स्थिति देखकर दण्डवाहक तलेक्षण मापी दण्ड को सरलतापूर्वक लम्बवत् खड़ा कर सकता है । परन्तु साधारण तल-मापन में तलेक्षण मापी दण्ड को थोड़ा सा आगे या पीछे की ओर झुका कर बारी-बारी से कई पाठ्यांक पढ़ते हैं। इन पाठ्यांकों में जो पाठ्यांक सबसे कम होता है उसी को शुद्ध पाठ्यांक मान लेते हैं।
तलेक्षण मापी दण्ड को पढ़ते समय कुछ अन्य ध्यान देने योग्य बातें निम्न हैं:
(1) लेविल की दूरबीन पूर्णतः क्षैतिज होनी चाहिए।
(2) नेविका व अभिदृश्यक लेन्स दोनों का फोकसन सही होना चाहिए अर्थात् पैरेलैक्स नहीं होनी चाहिए।
(3) तलेक्षण मापी दण्ड डायाफ्राम के दोनों ऊर्ध्वाधर तारों के ठीक मध्य में होना चाहिए।
उपरोक्त जाँच कार्य पूर्ण करने के पश्चात् डायाफ्राम के मध्यवर्ती क्षैतिज क्रॉस-तार की सीध में तलेक्षण मापी दण्ड पर पाठ्यांक पढ़िये। दण्ड पाठ्यांक का मान पढ़ने में कोई भूल न हो, इसके लिये यह आवश्यक है कि सबसे पहले लाल अंक, फिर काले अंक तथा अन्त में काले व सफेद चिह्नों की गणना की जाये। परिशुद्धता के विचार से प्रत्येक दण्ड पाठ्यांक को कम से कम दो बार पढ़ना आवश्यक होता है। यहाँ यह पुनः संकेत किया जा रहा है कि दूरबीन में तलेक्षण मापी दण्ड उल्टा लटका हुआ दिखलाई देता है। अतः तलेक्षण मापी दण्ड को सदैव ऊपर से नीचे की ओर को पढ़ा जाता है। दण्ड पाठ्यांकों के सम्बन्ध में दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि कोई दण्ड-स्टेशन जितना नीचा स्थित होगा उसका दण्ड पाठ्यांक उतना ही अधिक होगा तथा जो स्टेशन जितना ऊँचा होगा उसका दण्ड पाठ्यांक उतना ही कम होगा।
[II] दण्ड पाठ्यांकों का अभिलेखन
(Recording of staff readings)
क्षेत्र में पढ़े गये दण्ड पाठ्यांकों को साथ-साथ लेविल क्षेत्र-पुस्तिका (level field-book) में लिखकर प्रेक्षित दण्ड स्टेशनों के समानीत तलों की गणना कर लेते हैं। समानीत तलों के अभिकलन की पद्धति के अनुसार लेविल क्षेत्र-पुस्तिकाएँ दो प्रकार की होती हैं-(i) उत्थान-पतन लेविल क्षेत्र-पुस्तिका तथा (ii) संधान-ऊँचाई लेविल क्षेत्र-पुस्तिका । प्रथम प्रकार की क्षेत्र-पुस्तिका में किसी दण्ड-स्टेशन के समानीत तल को ज्ञात करने के लिये उसके दण्ड पाठ्यांक की पूर्ववर्ती दण्ड-स्टेशन के पाठ्याक से तुलना करते हैं तथा द्वितीय प्रकार की क्षेत्र-पुस्तिका में किसी दण्ड स्टेशन के समानीत तल को निश्चित करने के लिये उसके दण्ड पाठ्यांक को संघान तल की ऊंचाई (अर्थात् उपकरण के ऊँचाई) में से घटा देते हैं। इन क्षेत्र-पुस्तिका ओं को पूर्ण करने का विधियों को नीचे समझाया गया है।
1. उत्थान-पतन लेविल क्षेत्र-पुस्तिका (Rise and fall level field-book)- जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है उत्थान-पतन पद्धति के अनुसार लिखी गई क्षेत्र-पुस्तिका में किसी दण्ड स्टेशन के पाठ्यांक की पूर्ववर्ती दण्ड-स्टेशन के पाठ्यांक से है। तुलना करके यह देखा जाता है कि उन दण्ड स्टेशनों में कौन सा स्टेशन अपेक्षाकृत ऊँचा अथवा नीचा है। यदि पूर्ववर्ती दण्ड स्टेशन अधिक ऊँचा है तो दोनों दण्ड-स्टेशनों के पाठ्यांकों के अन्तर को पूर्ववर्ती दण्ड-स्टेशन के समानीत तल में से घटाकर अगले दण्ड-स्टेशन का समानीत तल ज्ञात कर लेते हैं। पूर्ववर्ती दण्ड-स्टेशन के नीचे होने की दशा में (अर्थात् उसका दण्ड पाठ्यांक अधिक होने की दशा में) दोनों स्टेशनों के पाठ्यांकों के अन्तर को पूर्ववर्ती दण्ड-स्टेशन के समानीत तल में जोड़कर अगले दण्ड-स्टेशन का समानीत तल ज्ञात किया जायेगा। पहली दशा में ढाल के पतन (fall) का तथा दूसरी दशा में डाल के उत्थान का बोध होता है।
ऊपर दिये गये उत्थान-पतन लेविल क्षेत्र-पुस्तिका के नमूने को देखने से निम्न बातें स्पष्ट होती हैं :
(1) इसके पहले कॉलम में यन्त्र-स्टेशनों के नाम, दूसरे कॉलम में दण्ड-स्टेशनों के नाम, तीसरे कॉलम में दण्ड-स्टेशनों की प्रथम दण्ड-स्टेशन से मीटरों में दूरियाँ, चौथे कॉलम में दण्ड-स्टेशनों के पाठ्यांक (पश्चदृष्टि, मध्यवर्ती दृष्टि व अग्रदृष्टि पाठ्यांक आदि), पाँचवें कॉलम में उत्थान, छठे कॉलम में पतन, सातवें कॉलम में समानीत तल, आठवें कॉलम में दिकमान तथा अन्तिम कॉलम में विशेष विवरण या टिप्पणी लिखी गयी है।
(2) दण्ड-स्टेशनों को 50 मीटर की दूरी के समान अन्तराल पर है। चुना गया ।
(3) A स्टेशन से a दण्ड-स्टेशन पश्च दृष्टि पाठ्यांक, b, c व d के मध्यवर्ती दृष्टि पाठ्यांक तथा e का अग्रदृष्टि पाठ्यांक पढ़ा गया है। इसी प्रकार B स्टेशन से e दण्ड-स्टेशन का पश्चदृष्टि पाठ्यांक, f व g के मध्यवर्ती दृष्टि पाठ्यांक तथा h का अग्रदृष्टि पाठ्यांक पढ़ा गया है।
(4) चूंकि e दण्ड-स्टेशन का A से अग्रदृष्टि पाठ्यांक तथा B से पश्चदृष्टि पाठ्यांक पढ़ा गया है। अतः यह दण्ड-स्टेशन वर्तन बिन्दु (T.P.) हुआ। इस तथ्य को टिप्पणी वाले कॉलम में लिखा गया है।
(5) किसी दण्ड-स्टेशन के पाठ्यांक की पूर्ववर्ती दण्ड-स्टेशन के पाठ्यांक से तुलना करके उसके उत्थान या पतन की गणना की गई है। उदाहरणार्थ, b दण्ड-स्टेशन का पाठ्यांक 2.60 व a दण्ड-स्टेशन का पाठ्यांक 2.50 है अब चूँकि a की तुलना में b दण्ड स्टेशन की ऊँचाई 0.10 कम है अतः b के सामने पतन के कॉलम में 0.10 लिखा गया है।
(6) प्रथम दण्ड-स्टेशन a जो एक तल चिह्न (B.M.) है, का समानीत तल 100 मीटर लिखा गया है। शेष दण्ड-स्टेशनों के समानीत तलों को ज्ञात करने के लिये पूर्ववर्ती स्टेशन के है। समानीत तल में पति के मान को घटाया गया है तथा उत्थान के मान को जोड़ा गया है।
(7) अन्त में निम्न सूत्र के द्वारा क्षेत्र-पुस्तिका की प्रविष्टियों की शुद्धता को जाँचा गया है:
Σपश्चदृष्टि व Σअग्रदृष्टि का अन्तर =Σ उत्थान व Σ पतन का अन्तर = प्रथम व अन्तिम दण्ड-स्टेशनों के समानीत तलों का अन्तर।
2. संधान-ऊँचाई लेविल क्षेत्र-पुस्तिका (Height of collimation level field-book)- इस लेविल क्षेत्र-पुस्तिका में उत्थान व पतन के कॉलम नहीं बनाये जाते अपितु उनके स्थान पर संधान की ऊँचाई अर्थात् उपकरण की ऊँचाई प्रदर्शित करने वाला कॉलम बनाया जाता है क्षेत्र-पुस्तिका के शेष कॉलम उत्थान-पतन लेविल क्षेत्र-पुस्तिका के कॉलमों जैसे होते हैं। जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है, किसी यन्त्र स्टेशन पर संधान तल की ऊँचाई ज्ञात करने के लिये उस स्टेशन से पढ़े गये पश्चदृष्टि पाठ्यांक में सम्बन्धित दण्ड स्टेशन के समानीत तल का मान जोड़ देते हैं। उदाहरणार्थ, नीचे दी गई क्षेत्र-पुस्तिका में a दण्ड-स्टेशन का पश्चदृष्टि पाठ्यांक 2.50 मीटर व समानीत तल 100 मीटर है, अत: A यन्त्र-स्टेशन पर संधान तल की ऊँचाई 2.50 + 100 = 102.50 मीटर होगी। इसी प्रकार B यन्त्र -स्टेशन पर संधान तल की ऊँचाई 1.80 + 100.40 = 102.20 मीटर होगी। अब यदि किसी दण्ड-स्टेशन के पाठ्यांक को सम्बन्धित यन्त्र-स्टेशन की संधान ऊँचाई में से घटा दिया जाये तो उस दण्ड-स्टेशन का समानीत तल ज्ञात हो जायेगा।
नीचे संधान-ऊँचाई पद्धति के अनुसार लिखी गई लेविल क्षेत्र-पुस्तिका को दिखलाया गया है। इस क्षेत्र-पुस्तिका की उत्थान-पतन लेविल क्षेत्र-पुस्तिका से तुलना करके दोनों प्रकार की क्षेत्र-पुस्तिकाओं के अन्तर को भली-भाँति समझा जा सकता है।
तल-मापन की विधियाँ
(Methods of Levelling)
डम्पी लेविल के द्वारा तल-मापन करने की चार विधियां होती हैं-(i) साधारण तल-मापन, (ii) विभेदी तल-मापन, (ii) परिच्छेदिका तल-मापन तथा (iv) व्युक्रम तल-मापन । इन विधियों का अन्तर नीचे समझाया गया है।
[I] साधारण तल-मापन
(Simple levelling)
यह तल-मापन करने की सबसे सरल विधि है, जिसे धरातल के किन्हीं दो ऐसे बिन्दुओं की ऊँचाइयों का अन्तर ज्ञात करने में प्रयोग करते हैं, जो (i) किसी एक यन्त्र स्टेशन से दिखलाई देते हों तथा (ii) जिनकी ऊँचाइयों का अन्तर अधिक न हो।
मान लीजिये A तथा B कोई दो बिन्दु हैं, जिन्हें 0 यन्त्र-स्टेशन से देखा जा सकता है । इन बिन्दुओं की ऊंचाइयों के अन्तर को साधारण तल-मापन विधि के द्वारा निम्न प्रकार ज्ञात किया जायेगा:
(2) दूरबीन के पूर्णतया समतल हो जाने पर A बिन्दु पर खड़े किये गये तलेक्षण मापी दण्ड को लक्ष्य कीजिये एवं उस पर दण्ड पाठ्यांक (मान लीजिये 1.55 मी) पढ़िये।
(3) इसी प्रकार B बिन्दु का दण्ड पाठ्यांक पढ़िये। मान लीजिये यह पाठ्यांक 2.45 मी आता है ।
अतः A व B बिन्दुओं की ऊँचाइयों का अन्तर 2.45-1.55 = 0.90 मी हुआ। चूंकि B बिन्दु का पाठ्यांक A बिन्दु के पाठ्यांक से अधिक है इसलिये A से B बिन्दु 0.90 मी नीचा स्थित है। दूसरे शब्दों में, यदि A बिन्दु का समानीत तल 100 मीटर मान लिया जाये तो B विन्दु का समानीत तल 100-0.90 = 99.10 मीटर होगा।
[II] विभेदी तल-मापन
(Differential levelling)
जब दो बिन्दुओं की ऊँचाइयों का अन्तर अधिक होता है अथवा किसी अवरोध के कारण उन्हें एक यन्त्र-स्टेशन से लक्ष्य करना सम्भव नहीं होता है अथवा वे बिन्दु एक दूसरे से बहुत दूर स्थित होते हैं, तो विभेदी तल-मापन के द्वारा उन बिन्दुओं की ऊँचाइयों का अन्तर ज्ञात करते हैं। इस विधि में दो दिये हुए बिन्दुओं के मध्य आवश्यकतानुसार संख्या में यन्त्र -स्टेशन चुनकर, प्रत्येक स्टेशन से पढ़े गये पश्चदृष्टि व अग्रदृष्टि पाठ्यांकों को लेविल क्षेत्र-पुस्तिका में लिखना आवश्यक होता है। चूंकि विभेदी विधि में प्रत्येक यन्त्र स्टेशन पर साधारण तल मापन की विधि की पुनरावृत्ति करते हुए कई अवस्थाओं में कार्य पूर्ण होता है, अत: विभेदी तल मापन को संयुक्त या सतत तल-मापन (compound or continuous levelling) भी कहते हैं।
मान लीजिये A तथा B कोई दो बिन्दु हैं। इन बिन्दुओं की ऊँचाइयों के अन्तर को विभेदी तल-मापन के द्वारा निम्न प्रकार ज्ञात किया जायेगा:
(1)नीचे दिए चित्र के अनुसार, O, स्टेशन पर डम्पी लेविल को समतल स्थापित कीजिये तथा A बिन्दु का तलेक्षण मापी दण्ड पर पश्चदृष्टि पाठ्यांक (1.50 मी) पढ़िये ।
(2) O१स्टेशन से लगभग O१A के बराबर दूरी पर चुने गये वर्तन बिन्दु C का अप्रदृष्टि पाठ्यांक (0.60 मी) पढ़िये ।
(3) अब डम्पी लेविल को O१से उठाकर C बिन्दु से कुछ आगे O२ स्टेशन पर समतल स्थापित कीजिये ।
(4) O२ स्टेशन से C बिन्दु का पश्चदृष्टि पाठ्यांक (3.15 मी) व D बिन्दु का अग्रदृष्टि पाठ्यांक (2.55 मी) ज्ञात कीजिये। D दूसरा वर्तन बिन्दु होगा।
(5) अब D व B के मध्य तीसरा यन्त्र- स्टेशन O३ चुनिये ।
(6) O३ पर यन्त्र को समतल स्थापित करके D बिन्दु का पश्चदृष्टि पाठ्यांक (1.35 मी) तथा B बिन्दु का अग्रदृष्टि पाठ्यांक (1.85 मी) पढ़िये।
इन पाठ्यांकों को उत्थान-पतन अथवा संधान- ऊँचाई पद्धति के अनुसार लेविल क्षेत्र-पुस्तिका में यथास्थान लिखकर A व B बिन्दुओं की ऊँचाइयों का अन्तर ज्ञात किया जा सकता है । नीचे दी गई क्षेत्र-पुस्तिका में उपरोक्त पाठ्यांकों को उत्थान-पतन पद्धति के अनुसार लिखकर A व B बिन्दुओं की ऊँचाइयों का अन्तर ज्ञात किया गया है, जो 1 मी के बराबर है।
[III] परिच्छेदिका या प्रोफाइल तल-मापन
(Profile levelling)
किसी पूर्व निश्चित रेखा के सहारे-सहारे ज्ञात दूरियों के अन्तराल पर स्थित बिन्दुओं की ऊँचाइयों को निश्चित करने की विधि प्रोफाइल तल-मापन या अनुदैर्ध्य तल-मापन (longitudinal levelling) कहलाती है। इस तल-मापन के द्वारा किसी सड़क, रेलमार्ग या नहर आदि के किनारे-किनारे धरातल के तरंगण (undulation) को निश्चित किया जाता है। इस विधि में तल-मापन की प्रक्रिया सदैव किसी बेन्च मार्क से प्रारम्भ होकर दूसरे बेन्च मार्क पर समाप्त होती है। यदि परिच्छेदिका रेखा के समीप कोई स्थायी बेन्च मार्क नहीं है तो पहले बतलाई गई विधि के अनुसार स्थायी बेन्च मार्क पर पश्चदृष्टि पाठ्यांक पढ़कर परिच्छेदिका रेखा के निकट कोई अस्थायी बेन्च मार्क स्थित कर लेते हैं। दण्ड-स्टेशनों की ऊँचाइयाँ निश्चित करने की विधि विभेदी तल-मापन के समान होती है। परिच्छेदिका तल-मापन करते समय प्रत्येक दण्ड-स्टेशन की प्रारम्भिक दण्ड स्टेशन से दूरी लेविल क्षेत्र-पुस्तिका में लिखना आवश्यक होता है जिससे बाद में दण्ड-स्टेशनों की दूरियों व समानीत तलों के अनुसार सर्वेक्षित रेखा के सहारे धरातल की परिच्छेदिका बनायी जा सके। परिच्छेदिका बनाने की विधि को परस्पर दृश्यता एवं ढाल विश्लेषण के अध्याय में विस्तारपूर्वक समझाया जा चुका है। कभी-कभी परिच्छेदिका रेखा का प्लान बनाना आवश्यक हो जाता है अंतः तल-मापन करते समय परिच्छेदिका के मोड़ों के चुम्बकीय दिक्मान पढ़कर लेविल क्षेत्र-पुस्तिका में लिख लेने चाहिएँ।
[IV] व्युत्क्रम तल-मापन
(Reciprocal levelling)
प्रथम व अन्तिम दण्ड स्टेशनों (अर्थात् A व B) की ऊँचाइयों का अन्तर= 1.0 मी जब दो बिन्दु एक-दूसरे से काफी दूर स्थित होते हैं अथवा नदी आदि के कारण उन बिन्दुओं के मध्य में डम्पी लेविल को स्थापित करना सम्भव नहीं होता तो व्युत्क्रम तल-मापन विधि के द्वारा दिये हुए बिन्दुओं की ऊँचाइयों का अन्तर ज्ञात करते हैं। इस विधि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें संधान रेखा के पूर्णतः क्षैतिज न होने से उत्पन्न त्रुटि तथा पृथ्वी की वक्रता से उत्पन्न त्रुटियों का स्वतः निवारण हो जाता है। अत: व्युत्क्रम विधि के द्वारा दिये हुए बिन्दुओं के समानीत तलों की शुद्धतापूर्वक गणना की जा सकती है।
नीचे दिए चित्र के अनुसार मान लीजिये किसी नदी के विपरीत किनारों पर स्थित A व B कोई दो बिन्दु हैं। व्युक्रम तल-मापन के द्वारा इन बिन्दुओं की ऊँचाइयों के अन्तर को निम्न प्रकार ज्ञात किया जायेगा।
(1) A बिन्दु के समीप डम्पी लेविल को समतल स्थापित करके A व B बिन्दुओं के दण्ड पाठ्यांकों को पढ़िये। मान लीजिये ये दण्ड पाठ्यांक क्रमशः 1.55 व 0.70 मीटर के बराबर हैं।
(2) अब डम्पी लेविल को नदी के दूसरे किनारे पर स्थित B बिन्दु के समीप समतल स्थापित कीजिये तथा A व B बिन्दुओं के दण्ड पाठ्यांक पढ़िये । मान लीजिये इन पाठ्यांकों के मान क्रमशः 2.35 व 1.40 मीटर के बराबर हैं। चूँकि प्रथम दशा में A व B की ऊँचाइयों का आभासी अन्तर = 1.55-0.70 =0.85 मीटर है तथा द्वितीय दशा में A व B की ऊँचाइयों का आभासी अन्तर = 2.35-1.40 = 0.95 मीटर है अतः,
A व B की ऊँचाइयों का यथार्थ अन्तर,
अब चूँकि A स्टेशन के तलेक्षण मापी दण्ड पर पढ़े गये पाठ्यांकों के मान अपेक्षाकृत अधिक हैं अत: इस बिन्दु की ऊँचाई B बिन्दु की ऊँचाई से 0.90 मीटर कम होगी। दूसरे शब्दों में यदि A का समानीत तल 100 मीटर है तो B का समानीत तल 100 + 0.90 = 100.90 मीटर होगा।
अनुदैर्ध्य परिच्छेदिका का आलेखन
(Plotting the Longitudinal Profile)
सिविल इन्जीनियरी कार्यों जैसे सड़क बनाना, नहर खोदना अथवा सीवर या रेल लाइन बिछाना आदि, को प्रारम्भ करने से पूर्व दिये हुए मार्ग का तल-मापन करके उसकी अनुदैर्ध्य परिच्छेदिका प्राप्त करना आवश्यक होता है। कभी-कभी इस परिच्छेदिका में धरातल की ऊँचाई-नीचाई के साथ-साथ अन्य आवश्यक विवरण जैसे निर्माण रेखा (formation line) की भिन्न-भिन्न स्थानों पर ऊँचाई, ढाल की मात्रा तथा सड़क आदि बनाने के लिये विभिन्न स्थानों पर की जाने वाली कटान (cutting) की गहराई या तटबन्धों (embankments) की ऊँचाई का भी स्पष्ट अंकन होता है। तल-मापन की परिच्छेदिका बनाने की विधि सीखने से पूर्व परिच्छेदिका से सम्बन्धित निम्नलिखित बातों को समझ लेना चाहिए:
[I] प्रोफाइल पेपर
(Profile paper)
सामान्यतः भूगोल के विद्यार्थी क्षेत्र में तल-मापन करके एक ही ड्राइंग शीट पर सर्वेक्षित मार्ग का प्लान व उसकी अनुदैर्ध्य परिच्छेदिका बना देते हैं परन्तु अपेक्षाकृत कम समय में अधिक शुद्ध परिच्छेदिका बनाने के लिये प्रोफाइल पेपर का प्रयोग लाभप्रद होता है। यह एक प्रकार का रेखज (ruled) कागज़ होता है जिस पर 1 मिलीमीटर तक के अन्तराल पर क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर रेखाएँ अंकित होती हैं अतः समानीत तलों को अंकित करने के लिये बार-बार कागज़ पर पैमाने से दूरी मापने की आवश्यकता नहीं होती अपितु पूर्व निश्चित मापनी के अनुसार आवश्यक संख्या में ऊर्ध्वाधर एवं क्षैतिज रेखाएँ गिनकर बिन्दु अंकित कर लेते हैं। अंग्रेज़ी माप-प्रणाली के प्रोफाइल पेपर में ऊर्ध्वाधर रेखाएँ 1/4 या 1/2 इंच के अन्तराल पर तथा क्षैतिज रेखाएँ 1/20 या 1/10 इंच के अन्तराल पर छपी होती हैं । प्रोफाइल पेपर में गणना की सुविधा के लिये प्रत्येक दसवीं ऊर्ध्वाधर रेखा तथा प्रत्येक पाँचवीं क्षैतिज रेखा का रंग कुछ गहरा छापा जाता है।
[II] परिच्छेदिका की मापनी (Scale of a profile)
जैसा कि हम अध्याय-7 में पढ़ चुके हैं धरातल के उच्चावच को अधिक स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करने हेतु किसी परिच्छेदिका की ऊर्ध्वाधर मापनी को उस परिच्छेदिका की क्षैतिज मापनी से सदैव कुछ बड़ी रखते हैं तथा ऊर्ध्वाधर मापनी में की गयी बढ़ोत्तरी से उत्पन्न विकृति (exaggeration) की मात्रा को परिच्छेदिका के नीचे लिख देते हैं जिससे सुविज्ञ पाठक परिच्छेदिका निहित अशुद्धता को भली प्रकार समझ जायें। सामान्यतः किसी परिच्छेदिका की ऊर्ध्वाधर मापनी को उसकी क्षैतिज मापनी से 10 गुना बड़ा रखते हैं परन्तु विशेष दशा में इस अनुपात में कमी या वृद्धि की जा सकती है। यहाँ यह पुनः समझ लेना चाहिए कि यदि किसी परिच्छेदिका की ऊर्ध्वाधर व क्षैतिज मापनियाँ एक समान नहीं हैं तो उस परिच्छेदिका को धरातल की यथार्थ परिच्छेदिका (true profile) कहना त्रुटिपूर्ण होगा। फिर भी परिच्छेदिका की ऊर्ध्वाधर मापनी को बड़ा रखते हैं जिसका एकमात्र उद्देश्य धरातल के उच्चावच को स्पष्ट प्रदर्शित करना होता है।
[III] तल-मापन की मालारेखा
(Traverse line of levelling)
जैसा कि आगे चलकर समझाया जायेगा किसी परिच्छेदिका की आधार रेखा तल-मापन करते समय चुनी गयी मालारेखा को प्रदर्शित करती है। तल-मापन की मालारेखा के दो रूप हो सकते हैं-(i) एकल सरल रेखा (single straight line) तथा (ii) जुड़ी हुई सरल रेखाओं की श्रृंखला (series of cornected straight lines)। नीचे दिए चित्र A में EFGH किसी मालारेखा EH का प्लान है तथा efgh उसकी तदनुरूपी परिच्छेदिका है जिसमें क्षैतिज मापनी की अपेक्षा ऊर्ध्वाधर मापनी बड़ी है। यद्यपि EF', F'G' तथा G'H' दूरियाँ क्रमशः EF FG तथा GH दूरियों के बराबर हैं किन्तु F G तथा H बिन्दुओं से क्रमश: सीधा प्रक्षेपण करके F', G' तथा H' बिन्दुओं को अंकित नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत चित्र B में चूंकि A, B, C व D चारों बिन्दु एक सरल रेखा में स्थित हैं अतः इन बिन्दुओं से सीधा प्रक्षेपण करके परिच्छेदिका की आधार रेखा पर क्रमशः A', B', C' व D' बिन्दु अंकित कर लिये गये हैं। इस प्रकार पहले चित्र में cfgh एक ऐसी परिच्छेदिका को प्रदर्शित करता है जिसे E व F F व G तथा G व H बिन्दुओं से होकर जाने वाले तीन ऊर्ध्वाधर तलों की श्रृंखला परिच्छेद करती है जबकि दूसरे चित्र में abcd परिच्छेदिका को केवल एक ऊर्ध्वाधर तल काटता है।
इस प्रकार यह बात ध्यान देने योग्य है कि यदि तल-मापन की मालारेखा कई जुड़ी हुई सरल रेखाओं की श्रृंखला के रूप में हो तो परिच्छेदिका की आधार रेखा बनाने के लिये मालारेखा की समस्त जुड़ी हुई सरल रेखाओं की सम्मिलित लम्बाई के बराबर लम्बी सरल रेखा खींचना आवश्यक होता है। इसके विपरीत यदि प्लान में केवल एक ही सरल रेखा दी गयी है तो उसके सिरों से लम्ब गिराकर परिच्छेदिका की आधार रेखा प्राप्त की जा सकती है।
[IV] परिच्छेदिका आलेखन की सामान्य विधि (General method of plotting profiles)
तल-मापन से प्राप्त समानीत तलों को आलेखित करके धरातल की परिच्छेदिका बनाने की सामान्य विधि नीचे लिखी गयी है।
(1) परिच्छेदिका बनाने के लिये अपनी आवश्यकता के अनुरूप उचित प्रकार के रेखज कागज़ अथवा ड्राइंग शीट का चयन कीजिये तथा ड्राइंग पिनों की सहायता से उसे आरेख-पट्ट पर लगाइये।
(2) कागज़ के आकार को ध्यान में रखते हुए परिच्छेदिका के लिये उचित क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर मापनियाँ निश्चित कीजिये । मापनी निश्चित करते समय क्षेत्र-पुस्तिका में लिखी ज़रीब दूरियों एवं समानीत तलों के मानों को भी ध्यान में रखना चाहिए।
(3) लेविल क्षेत्र-पुस्तिका पर दृष्टिपात करके सबसे ऊँचे व सबसे नीचे बिन्दु की ऊँचाई ज्ञात कीजिये ।
(4) परिच्छेदिका की आधार रेखा (base line या datum line) बनाने के लिये रेखज कागज़ की किसी एक क्षैतिज सरल रेखा का चयन कीजिये । यदि परिच्छेदिका को ड्राइंग शीट पर बनाना हो तो ड्राइंग शीट पर एक क्षैतिज सरल रेखा खींचिये । रेखज कागज़ या ड्राइंग शीट पर आधार रेखा की स्थिति ऐसी होनी चाहिए कि परिच्छेदिका के सबसे ऊंचे व सबसे नीचे बिन्दु कागज़ पर अंकित किये जा सकें । यदि परिच्छेदिका का कोई भी बिन्दु आधार रेखा से नीचे अंकित न हो तो भी आधार रेखा कागज़ या शीट के निचले किनारे से 10 या 12 सेमी ऊपर होनी चाहिए जिससे उसके नीचे आवश्यक विवरण या दूरियाँ आदि लिखी जा सकें ।
(5) जिस प्रकार रैखिक आलेख रचना करते समय कभी-कभी आभासी आधार रेखा (false base line) बनाकर उसका पूर्णांकों में कोई उचित मान कल्पित कर लिया जाता है ठीक उसी प्रकार परिच्छेदिका की आधार रेखा का भी कोई उचित मान कल्पित करके उस पर लिख देना चाहिए। यह मान चाहे डेटम के ऊपर हो या नीचे हो किन्तु सदैव मीटर या फीट के पूर्णांकों में होना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि सबसे नीचे व सबसे ऊँचे बिन्दु के मान क्रमशः 105 व 122 मीटर हैं तो आधार रेखा की ऊँचाई 100 मीटर कल्पित की जा सकती है।
(6) अब आधार रेखा के बायें सिरे से दायीं ओर को पूर्व निश्चित क्षैतिज मापनी के अनुसार दी गयी ज़रीब दूरियों (chainages) के चिह्न अंकित कीजिये तथा उनके मीटर आदि में मान लिखिये। यदि आधार रेखा ड्राइंग शीट पर बनायी गई है तो इन चिह्नों पर लम्ब उठाइये ।
(7) आधार रेखा के बायें सिरे पर उठाये गये लम्ब पर पूर्व निश्चित की गई ऊर्ध्वाधर मापनी के चिह्न लगाइये तथा उनके मान लिखिये।
(8) अब प्रत्येक लम्ब पर ऊर्ध्वाधर मापनी के अनुसार सम्बन्धित स्टेशन के समानीत तल की ऊँचाई का चिह्न अंकित कीजिये तथा इन चिह्नों को हाथ से खींची गयी सरल रेखाओं के द्वारा मिलाते हुए परिच्छेदिका पूर्ण कीजिये ।
(9) परिच्छेदिका खींचने के पश्चात् उसकी शुद्धता की जाँच कर लेनी चाहिए। इस जाँच कार्य में पहले किसी बिन्दु की ऊँचाई को परिच्छेदिका में पढ़ते हैं तथा फिर इस पढ़ी गई ऊँचाई का क्षेत्र-पुस्तिका में लिखे समानीत तल से मिलान करते हैं। दूसरे शब्दों में, किसी बिन्दु के अंकन की शुद्धता जाँचने के लिये क्षेत्र-पुस्तिका में लिखे गये उसके मान को पहले नहीं देखना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से आलेखन में की गयी त्रुटि की मस्तिष्क पुनरावृत्ति कर सकता है।
(10) अन्त में परिच्छेदिका के ऊपर उसका शीर्षक आदि लिखिये तथा आधार रेखा के नीचे ऊर्ध्वाधर मापनी में आयी विकृति लिखिये।
नीचे दिए चित्र में एक अनुदैर्ध्य परिच्छेदिका दी गयी है जिसे सारणी-1 में लिखी दूरियों व समानीत तलों के अनुसार बनाया गया है। इस चित्र को देखकर परिच्छेदिका बनाने की विधि को भली-भाँति समझा जा सकता है।
[V] कार्यदर्शी परिच्छेदिका
(Working profile)
सड़क बनाने या रेललाइन बिछाने के लिये एक विशेष प्रकार की विस्तृत परिच्छेदिका बनायी जाती है जिसे कार्यदर्शी परिच्छेदिका कहते हैं। इस परिच्छेदिका में निर्माण सम्बन्धी सभी आवश्यक तथ्य एवं निर्देश जैसे समूचे मार्ग में मिट्टियों की प्रकृति, ढाल की दशा, मोड़ों के स्थान व अंश, दिशा, विभिन्न स्थानों पर बनाये जाने वाले तटबन्धों की ऊँचाई या कटानों की गहराई, उत्तरोत्तर स्टेशनों के समानीत तल तथा प्रत्येक स्टेशन पर निर्माण रेखा की ऊँचाई आदि अंकित होते हैं।
तल-मापन के अन्य भेद
(Other Kinds of Levelling)
ऊपर लिखी गयी चार प्रकारों के अतिरिक्त तल-मापन के कुछ अन्य प्रमुख भेद निम्न हैं :
[I] वायुदाब तल-मापन
(Barometric levelling)
वायुदाबमापी (barometer) यन्त्र की सहायता से दिये हुए बिन्दुओं की ऊँचाइयों को ज्ञात करने की प्रक्रिया वायुदाब तल-मापन कहलाती है। तल-मापन की यह विधि इस तथ्य पर आधारित है कि समुद्र तल से कुछ हजार फीट की ऊँचाई तक वायुमण्डलीय दाब में 1 इंच प्रति 900 फीट की दर से हास होता है। वायुमण्डलीय दाब पर तापमान का भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः यदि किसी स्थान का एक ही समय पर प्रेक्षित वायुमण्डलीय दाब व तापमान ज्ञात हो तो उस स्थान की समुद्र तल से ऊँचाई ज्ञात की जा सकती है। चूंकि किसी स्थान के वायुमण्डलीय दाब में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है अतः परिशुद्ध तल-मापन के विचार से यह विधि सर्वथा अनुपयुक्त है। इस विधि को मुख्यतः पर्वतीय क्षेत्रों, जहाँ स्थानों की ऊँचाइयों में पर्याप्त अन्तर होता है, में किये जाने वाले अन्वेषी (exploratory) एवं आवीक्षी (reconnaissance) सर्वेक्षणों में प्रयोग किया जाता है।
[II] हिप्सोमितीय तल-मापन
(Hypsometric levelling)
तल-मापन की इस विधि में जल के क्वथनांक (boiling point) को प्रेक्षित करके पर्वतों आदि की ऊँचाइयाँ ज्ञात करते हैं।
[III] परिशुद्ध तल-मापन
(Precise levelling)
परिष्कृत विधियों एवं उच्च कोटि के लेविल यन्त्रों की सहायता से किये गये तल-मापन को परिशुद्ध तल-मापन कहते हैं। इस तल-मापन में प्रत्येक क्रिया को बहुत सावधानीपूर्वक पूर्ण किया जाता है। परिशुद्ध तल-मापन मुख्यतः सरकार द्वारा कराये जाते हैं जिनका उद्देश्य बहुत दूर-दूर स्थित बिन्दुओं पर बेन्च मार्क अंकित करना होता है।
[IV] त्रिकोणमितीय तल-मापन
(Trigonometrical levelling)
क्षैतिज दूरियों एवं ऊर्ध्वाधर कोणों के आधार पर दिये हुए बिन्दुओं की आपेक्षिक ऊँचाइयाँ निर्धारित करने की प्रक्रिया त्रिकोणमितीय तल-मापन कहलाती है। क्षैतिज दूरियों को ज़रीब, फीता अथवा स्टेडिया विधि के द्वारा मापते हैं तथा ऊर्ध्वाधर कोणों को थियोडोलाइट, क्लाइनोमीटर (clinometer), ऐबनी लेविल (abney level) अथवा सेक्सटैन्ट (sextant) की सहायता से ज्ञात किया जाता है।
ऐबनी लेविल
(Abney Level)
हाथ में पकड़ कर प्रयोग किये जाने वाले लेविल यन्त्रों में ऐबनी लेविल एक प्रमुख एवं लोकप्रिय किन्तु अपेक्षाकृत निम्न परिशुद्धता वाला उपकरण है। इस उपकरण का आकार छोटा एवं बनावट बहुत सरल होती है। ऐबनी लेविल को लेविल यंत्र एव क्लाइनोमीटर दोनों रूपों में प्रयोग किया जा सकता है, अतः कभी-कभी इस उपकरण को ऐबनी लेविल तथा क्लाइनोमीटर अथवा केवल क्लाइनोमीटर नाम से पुकारा जाता है। लेविल यन्त्र के रूप में ऐबनी लेविल से तल-मापन करते हैं तथा क्लाइनोमीटर के रूप में इस उपकरण से ढालों के कोणों को मापते हैं। इसके अतिरिक्त समोच्च रेखण एवं प्रतिशत में ढाल मापने के लिये भी इस उपकरण को प्रयोग में लाया जा सकता है।
[I] ऐबनी लेविल के अंग
(Parts of an abney level)
ऐबनी लेविल में निम्नलिखित मुख्य अंग होते हैं :
1. दर्श नलिका (Sighting tube)- अवनी लेविल में सबसे नीचे लगभग 10 सेमी लम्बी एवं 1.5 वर्ग सेमी मुँह वाली एक चौकोर नलिका होती है, जिसे दर्श नलिका कहते हैं । दर्श नलिका के एक सिरे पर नेत्रिका या छोटी दूरबीन लगी होती है, जिसे दर्श नलिका से आवश्यकतानुसार लम्बाई में बाहर खींच कर फोकसन करते हैं। दर्श नलिका के अगले खुले हुए सिरे से भीतर की ओर को लगभग 4.5 सेमी लम्बी दूसरी चौकोर नलिका लगी होती है। इस छोटी नलिका का बाहरी सिरा खुला हुआ एवं आन्तरिक सिरा 45° के कोण पर झुका होता है। यह आन्तरिक सिरा दर्पण या पालिशयुक्त पीतल की चादर से आधा बन्द होता है। पालिश युक्त चादर के पीछे की ओर एक क्षैतिज क्रॉस तार होता है, जिसे नेत्रिका पर आँख रखकर देखा जा सकता है। ऊर्ध्वाधर कोण पढ़ते समय इसी क्रॉस-तार की सीध में किसी विवरण को लक्ष्य करते हैं। पालिशयुक्त चादर के ठीक 1. ऊपर की ओर दर्श नलिका में एक आयताकार छिद्र या खिड़की (window) बनी होती है।
2. चाँदा (Protractor)- दर्श नलिका के सामने वाले पार्श्व पर एक आयताकार फ्रेम जड़ा होता है, जिसमें ऐबनी लेविल का अर्द्धृत्ताकार अंशांकित चाप या चाँदा लगा होता है। इस चाँदे के मध्य में शून्य अंश का चिह्न अंकित होता है तथा इस चिह्न के है। दोनों ओर को 0° से 90° तक के चिह्न बने होते हैं। शून्य से बायीं ओर को उन्नयन-कोण (angle of elevation) तथा दायी ओर को अवनमन-कोण (angle of depression) पढ़े जाते हैं। इस चाप के आन्तरिक किनारे पर ढाल अंकित होते हैं, जिन्हें वर्नियर प्लेट के बाहरी किनारे के द्वारा पढ़ते हैं।
3. वर्नियर भुजा (Vernier arm) - वर्नियर भुजा के निचले सिरे पर दोहरी वर्नियर मापनी बनी होती है जिसकी सहायता से अंशांकित चाप पर शून्य से बायीं अथवा दायीं ओर को 10 मिनट तक का कोण पढ़ा जा सकता है। इस भुजा का ऊपरी सिरा चाँदे के केन्द्र पर इस प्रकार धुराम्रस्थ (pivoted) होता है कि भुजा के निचले सिरे (अर्थात् वर्नियर प्लेट) को चाँदे पर दोनों ओर को खिसकाया जा सकता है।
4. लेविल नलिका (Level tube)- चाँदे के पीछे की ओर एक स्पिरिट लेविल होता है जिसकी काँच नली का ऊपरी खोल मध्यवर्ती भाग में नली के ऊपर व नीचे दोनों ओर कटा हुआ होता है। खोल की निचली कटान दर्श नलिका की खिड़की के ठीक ऊपर होती है। अतः जब काँच नली क्षैतिज होती है तो उसके बुलबुले का प्रतिबिम्ब दर्श नलिका में लगे दर्पण पर पड़ता है जिसे नेत्रिका पर आँख रखकर देखा जा सकता है। यह लेविल नलिका वर्नियर भुजा से स्थायी रूप में समकोण पर जुड़ी होती है। अतः लेविल नलिका के क्षैतिज हो जाने पर वर्नियर भुजा स्वतः लम्बवत् हो जाती है।
5. खंचित पहिये (Milled wheels)- चोदे के केन्द्र पर दो खंचित पहिये लगे होते हैं। इन पहियों को घुमाकर लेविल नलिका को क्षैतिज स्थापित किया जाता है। इनमें ऊपरी छोटा पहिया लेविल नलिका के किसी सिरे को मन्द गति से ऊपर-नीचे करने के लिये प्रयोग में लाया जाता है।
6. आवर्धक लेन्स (Magnifying lens) - वर्नियर मापनी को पढ़ने के लिये उपकरण में एक आवर्धक लेन्स लगा होता है। इस लेन्स को चाँदे पर आवश्यकतानुसार झुका कर फोकसन करते हैं। आवर्धक लेन्स की भुजा चाँदे के केन्द्र पर धुराम्रस्थ होती है, अतः लेन्स को चाँदे पर घुमाया जा सकता है।
[II] ऐबनी लेविल के द्वारा धरातल का ढाल मापना
(Measuring slope of the ground by abney level)
मान लीजिये A व B कोई दो बिन्दु हैं, जिनके मध्य धरातल के ढाल का कोण ज्ञात करना है तो निम्न प्रकार क्रिया की जायेगी :
(1) B बिन्दु पर एक सर्वेक्षण दण्ड गाड़िये तथा इस दण्ड पर सर्वेक्षक की आँख की ऊँचाई के बराबर ऊँचाई पर कोई ऐसा चिह्न अंकित कीजिये जिसे दूर से स्पष्ट देखा जा सके।
(2) अब A स्टेशन पर खड़े होकर व नेत्रिका पर आँख रखकर दर्श नलिका के क्रॉस-तार की सीध में दण्ड पर अंकित चिह्न को लक्ष्य कीजिये तथा दायें हाथ की अंगुलियों से खंचित पहिये को इतना घुमाइये कि लेविल नलिका के बुलबुले का दर्पण या पालिशयुक्त चादर पर प्रतिबिम्ब क्रॉस-तार के आधा ऊपर व आधा नीचे दिखलाई देने लगे। जब क्रॉस-तार एक ओर दण्ड पर अंकित चिह्न का प्रतिच्छेदन करे तथा दूसरी ओर बुलबुले के प्रतिबिम्ब को समद्विभाजित कर दे तो इसका यह अर्थ होगा कि दृष्टि या संधान रेखा ढाल के समान्तर है तथा लेविल नलिका पूर्णतया क्षैतिज है।
(3) इसके पश्चात् वर्नियर के द्वारा चाँदे पर कोण पढ़िये । यह कोण A व B बिन्दुओं के मध्य धरातल के ढाल के कोण को प्रदर्शित करेगा।
[III] ऐबनी लेविल के द्वारा आपेक्षिक ऊँचाइयों का निर्धारण
(Determination of relative heights by abney level)
ऐबनी लेविल की सहायता से दिये हुए बिन्दुओं की आपेक्षिक ऊँचाइयाँ अथवा यन्त्र-स्टेशन से किसी दिये गये बिन्दु की लम्बवत् दूरी को ज्ञात किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, मान लीजिये धरातल पर A व B कोई दो बिन्दु हैं, जिनकी ऊँचाइयों का अन्तर ज्ञात करना है तो,
(1) A स्टेशन पर खड़े होकर ऐबनी लेविल की दर्श नलिका के क्रॉस-तार की सीध में B बिन्दु को लक्ष्य कीजिये तथा खंचित पहिये की सहायता से लेविल नलिका के बुलबुले के प्रतिबिम्ब को क्रॉस-तार से समद्विभाजित कीजिये।
(2) जब B बिन्दु क्रॉस-तार की सीध में हो तथा बुलबुले का प्रतिबिम्ब क्रॉस-तार से समद्विभाजित हो जाये तो चाँदे पर वर्नियर द्वारा इंगित कोण पढ़िये। मान लीजिये यह कोण 10° 20' के बराबर है।
(3) A व B बिन्दुओं के बीच की क्षैतिज दूरी को ज़रीब अथवा फीते से मापिये तथा A बिन्दु से सर्वेक्षक की आँख की ऊँचाई (अर्थात् नेत्रिका की धरातल के A बिन्दु से ऊँचाई) भी माप लीजिये । मान लीजिये ये दूरियाँ क्रमशः 150 मीटर व 1.7 मीटर हैं।
(4) टेन्जेन्ट सारणी से 10° 20' का टेन मूल्य ज्ञात कीजिये, जो 0.182 होता है।
(5) उपरोक्त दूरियों व टेन मूल्य को निम्न सूत्र में रखिये :
ऊर्ध्वाधर अन्तराल
= क्षैतिज दूरी x टेन = a
+ नेत्रिका की धरातल से ऊँचाई
= 150x0.182+1.7
=27.3+1.7=29 मीटर
अर्थात् B बिन्दु A बिन्दु से 29 मीटर ऊँचा है। दूसरे शब्दों में, यदि A का समानीत तल 100 मीटर है तो B का समानीत तल 120 मीटर होगा। स्मरण रहे, अवनमन कोण होने की दशा में क्षैतिज दूरी टेन 6- नेत्रिका की धरातल से ऊँचाई' सूत्र का प्रयोग करते हैं।
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