जैसा कि नाम से विदित है 'वायुमण्डल' दो शब्दों से मिलकर बना है, वायु और मण्डल, अर्थात् वायु का विशाल भण्डार जो पृथ्वी को एक खोल अर्थात् लिफाफे की भाँति चारों ओर से घेरे हुए है। वायुमण्डल अपने आप में अपने को एक रंगहीन, गन्धहीन तथा स्वादहीन प्रकट करता है । इसी कारणवश मनुष्य वायुमण्डल का पूर्ण परिज्ञान करने में अभी तक अनभिज्ञ है । अरस्तु (Aristotle) नामक महान विद्वान ने ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद वायुमण्डल के बारे में काफी जानकारी दी, यह जानकारी आज के ज्ञान से काफी भिन्न थी। उन्होंने इसके प्रादेशिक वितरण के बारे में एक अच्छी जानकारी दी । अरस्तु (Aristotle) के बाद लगभग पन्द्रह व सोलहवीं शताब्दी तक वायुमण्डल की ज्ञान वृद्धि हेतु अधिक प्रयास नहीं हुए सोलहवी शताब्दी के अन्तिम चरण में गैलीलियो के शिष्य टौरीसली (Torricelli) ने पहली बार यह सिद्ध किया कि वायु में दाब होता है और इसी सिद्धान्त के आधार पर एक साधारण वायुदाबमापी की रचना हुई कि वायुमण्डल चारों तरफ से दबाव डालता है । वायुमण्डल का मानव से अविरक्त सम्बन्ध है अर्थात् मानव वायु से श्वास लेता है । वायुमण्डल के अभाव में इस पृथ्वी पर न हवा चलेगी, न जल प्रबह होगा. वर्षा, बादल, तूफान आदि सभी क्रियाएँ समाप्त हो जायेगी । साथ ही इस पृथ्वी पर से प्राणी जीवन सदा-सदा के लिए समाप्त हो जायेगा । प्रसिद्ध जलवायु विज्ञानवेत्ता ट्रिवार्था (Trewartha) ने बतलाया कि "पृथ्वी से परिवे प्ठित गैसों का एक विशाल आवरण जो पृथ्वी का अभिन्न अंग है और उसे चारों ओर से घेरे हुए है, वायुमण्डल कहलाता है । उसी समय वायुमण्डल में चलने वाली व्यापारिक और मानसूनी पवनों को हैली (Halley) महोदय ने सन् १६८६ में बताया कि "ये पवने श्र बों तथा भूमध्य रेखा के बीच तापान्तर के कारण चलती है। इसीलिए वायुमण्डल में ताप के अन्तर का भेद जाना गया। इन पवनों का पूर्व परिचय देते हुए कोलम्बस ने अमरीका की खोज में सहायक सिद्ध किया, साथ ही महान पराक्रमी सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण करके लौटते समय बतलाया कि भारत एक मानसूनी पवनों का देश है । हैडले (Hadley) महोदय ने सन १७३५ में बतलाया कि पवन की दिशा और चलन की गति पृथ्वी के परित्रमणकारी सिद्धान्त पर आधारित है सन १७४९ में इंगलैण्ड के विद्वान विलसन (Wilson) ने वायुमण्डल के ऊपरी भाग का सर्वप्रथम ज्ञान दिया । साथ ही पतंग तथा गुब्बारों की सहायता से थर्मामीटर और हाइड्रोमीटर को वायुमंडल की ऊपरी सतह तक पहुँचाया तथा साथ ही यह भी सिद्ध किया कि वायुमण्डल की ऊपरी सतह में हवा का दबाव कम है । जर्मन विद्वान डोब (Dove) ने उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण में पवन प्रणाली को संकेत करते हुए पृथ्वी के ऊपर वायुमण्डल को दो कटिबन्धों में बाँटा, प्रथम उष्ण कटिबन्ध, द्वितीय शीतोष्ण कटिबन्ध साथ ही डोव (Dove) महोदय ने यह भी बतलाया कि उत्तरी गोलार्द्ध में जो तूफान उत्पन्न होते हैं वे उत्तरी-पूर्वी ठण्डी तथा दक्षिणी-पश्चिमी गर्म पवनों के आपसी संघर्ष के कारण होते हैं । अमरीकी विद्वान रेडफील्ड (Redfield) ने चक्रवात की उत्पत्ति वामावर्त दिशा को चलती हुई वायु से बतलाया । साथ ही मौरी (Maury) नामक अमरीकी विद्वान ने यह भी बतलाया कि उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के बीच वाय का आपसी आदान-प्रदान होता रहता है। इसके अतिरिक्त मेल्ड्रम (Meldrum) महोदय ने मारीशस द्वीपों में रहकर मानसून के द्वारा उत्पन्न चक्रवातों का अध्ययन किया । इसके पश्चात वायुमण्डल की खोज प्रारम्भ हो गयी और पश्चिमी देशों के विभिन्न भूगोल वेत्ता इसमें काफी रुचि रखने लगे सन १८५० से १८६० के विगत १० वर्षों के मध्य फ्रांसीसी ऋतु विज्ञानवेत्ताओं ने विशेष प्रगति की लिवेरियर (Leverrier ) महोदय ने ऋतु विज्ञान (Meteorology) में प्रतिदिन का ऋतू सम्बन्धित ब्यौरा तैयार कराया इसी समय (सन् १८५०-१८६०) बाइंज बेलट (Buys Ballot) नामक ऋतु विज्ञानवेत्ता ने पवनों के चलने का एक सिद्धान्त प्रस्तुत किया और सिद्ध करके बतलाया कि उत्तरी गोलार्द्ध में खड़ा हुआ आदमी दक्षिणी गोलार्द्ध अर्थात पीठ पीछे से आने वाली पवन के वायुदाब को अपने बाय हाथ की ओर कम दाब महसूस करेगा, जो आज भी करता है। यह सिद्धान्त अपने में आज तक सत्य है इसी सिद्धान्त को देखते हुए अमरीकी विद्वान फेरल (Ferrel) महोदय ने अपना एक सिद्धान्त प्रस्तुत किया कि भूमध्य रेखा से चलने वाली पवने उत्तरी गोलार्ध में अपने से बायें तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दायीं दिशा की ओर घूम जाती हैं, ऐसे ही चक्रवातों की उत्पत्ति होती है। इन बातों के अतिरिक्त वायुमण्डल की विशेष जानकारी वायु का परिसंचरण' अध्याय से मिलती है। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण तथा बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में वायुमण्डल के ज्ञान में काफी वृद्धि हुई, क्योंकि विकसित देश के लोगों ने वास्तविक वायुमण्डल का महत्व जाना। पश्चिमी प्रगतिशील देशों ने अपने यहाँ वाय मण्डल के दैनिक ऋतु सम्बन्धी पत्र प्रकाशित किये और वायु मण्डल के ऊपरी भाग की खोज जारी रही । फ्रांसीसी विद्वान टीसरेंस डि बोर्ट (Teisserence de Bort) ने सन् १८९९ में ऊंचाई के हिसाब से दो वायुमण्डलीय परते परिवर्तन मण्डल (Tropo- sphere) तथा समताप मण्डल (SIratespliere) की जानकारी दी। डि बोर्ट ने केवल दो परतों की जानकारी ही न की, बल्कि यह भी बताया कि सम्पूर्ण मौसम की प्रत्येक छड़ वायुमण्डल के ऊपरी भाग से अवश्य प्रभावित रहती है । समताप मण्डल उस समय की दूसरी या अन्तिम परत होने के कारण से इसकी आद्रता, ताप और वायुदाब आदि की पूर्ण जानकारी रेडियो-मीटियोरोग्राफ (Radio-Meteorograpli) के द्वारा की गयी। इन सब बातों का ज्ञान देने वाले रूसी वैज्ञानिक मौलशनोफ (Moltchanof) हुए जिन्होंने सन् १९२० में समपात मण्डल की विशेष जानकारी प्राप्त कर सांसारिक देणों के सामने रखा। अब तक की परिस्थितियों के अनुसार वायुमण्डल का ज्ञान बहुत कम ही माना गया। जब प्रथम तथा द्वितीय विश्व यद्ध प्रारम्भ हुए, तब वायु मण्डल के महत्व को वास्तविक गहराई से समझा गया और इसमें विशेष प्रगति से रुचि ली। द्वितीय विश्वयुद्ध (Second World War) के समय पश्चिमी विकसित देशों ने मौसम के बारे में भविष्यवाणी करना, हवाई जहाजों को उड़ाना तथा बम वर्षा कराना आदि बातों की अति आवश्यकता महसूस की, साथ ही कृषि से सम्बन्धित युद्ध की खाद्य सामग्री तथा समुद्र के समीप बसने वाले मछली पकड़ने वालों के लिए मौसम सम्बन्धी सूचना के बिना अपार धन-जन की हानि होती थी। लोग भाग्य के भरोसे कृषि तथा मछली पकड़ने में व्यस्त रहते थे । इन सब बातों को देखते हुए आज हवाई जहाजों तथा पानी के समुद्री जहाजों से यात्रा करना अथवा व्यापार आदि के लिए वायुमण्डलीय मौसम सम्बन्धी ज्ञान से प्रतिपल व प्रतिक्षण के लिए आवश्यक है ।
वायुमण्डल की ऊँचाई (Height of the Atmosphere) वायुमण्डल की ऊंचाई के बारे में अभी तक लोगों में मतभेद रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध तक खोजकर्ताओं का अनुमान केवल ३०० किमी तक आँका गया था। लेकिन कुछ समय बाद दूसरे खोजकर्ताओं ने १,००० किमी तक की ऊंचाई निश्चित की बाद में चलकर कुछ प्राकृतिक तथा सांसारिक मौसम सम्बन्धी यन्त्रों, जैसे प्राकृतिक उल्का (Comets), ध्रुवीय ज्योति (Aurora), पायलट गुब्बारे (Pilot Balloons), मौसमी ज्ञान सूचक गुब्बारे (Sounding Balloons), रेविन सांटे (Rawinsande) आदि के द्वारा १,३०० किमी कॅजा वायुमण्डल आंका गया। लेकिन वर्तमान युग को कलयुग की संज्ञा प्रदान की है। इस युग में बतलाया गया है कि स्पुतनिक (Sput- niks), वेंगार्ड (Vangard), एक्सप्लोरर्स(Explorers) आदि पृथ्वी की चम्बकीय शक्तियों को भी पार कर गये हैं। प्रयोग करके देखा गया कि मिसाइल तथा राकेट यन्त्रों की सहायता से स्व चालित मशीनों (Automatic Machines) को १३०९ किमी की ऊँचाई से भी काफी ऊँचाई तक पहुंचाया गया । आज प्रगतिशील वर्तमान युग में वायुमण्डल की अनुमानत: ऊँचाई ३२,००० किमी तथा इससे भी अधिक आंकी गयी है। वायुमण्डल का संघटन (Composition of the Atmosphere) (1) गैस (Gases)- वायुमण्डलीय संघटन का अर्थ रचना से है कि वायुमण्डल को संघ- तट में मुख्य रूप से किन-किन पदार्थों का कितना योगदान रहा है यद्यपि वायु कई प्रकार की गैसों का मिश्रण है लेकिन मुख्य रूप से इसमें दो ही गैस नाइटोजन ७८% और ऑक्सीजन २१% मिलती है जो सम्पूर्ण वायुमण्डल में अपना ९९% भाग अदा करती है। शेष १% भाग में अन्य गैसें आ जाती हैं। वाय मण्डल की महत्वपूर्ण गैसें निम्नलिखित तालिका में प्रतिशत मात्रा सहित इस प्रकार हैं ।
गैसों के नाम |
मात्रा(प्रतिशत में) |
नाइट्रोजन(Nitrogen) |
78.8% |
ऑक्सीजन(Oxygen) |
20.95% |
आर्गन(Argon) |
0.9323% |
कार्बन डाइऑक्साइड(Carbon-di-oxide) |
0.36% |
हाइड्रोजन(Hydrogen) |
0.00005% |
नियॉन(Neon) |
0.002% |
हीलियम(हीलियम) |
0.0005% |
क्रिप्टोन(Krypton) |
0.001% |
जीनन (Zenon) |
0.00009% |
वायुमण्डल के निचले भाग में भारी गैस कार्बन डाई-ऑक्साइड २० किमी०, ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन १०० किमी और हाइड्रोजन १२५ किमी० तक की ऊँचाई तक पायी जाती है। इसके अतिरिक्त जो हल्की गैस (हीलियम, नियॉन, क्रिपटॉन, जीनन, ओजोन) ये १२५ किमी० से अधिक ऊंचाई पर पायी जाती है। 
(2) जलवाष्प की मात्रा (Quantity of The water vapour)- जलवाष्प का वायुमण्डल में एक महत्वपूर्ण स्थान है। बताया गया है कि वायु में इसकी अधिकतम माया ५% तक रहती है। ये जलवाष्प पृथ्वी के विभिन्न भागों जैसे सागर, झीलों, मिट्टियों, बनस्पतियों आदि का वाष्पीकरण द्वारा वायुमण्डल में गैसों की स्थिति वायुमण्डल में एकत्रित होती रहती है । वायुमण्डल में वाष्पीकरण की मात्रा तापक्रम पर आधारित होती है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि सूर्य ताप प्रति सेकण्ड में १.६ करोड़ टन जल को भाप में परिवर्तित कर देता है। यदि वायुमण्डल की सम्पूर्ण जलवाष्प को एक साथ पृथ्वी पर गिरा दिया जाये तो २५ सेमी ऊंचा जल एकत्रित हो जायेगा। पृथ्वी से सम्बन्धित वायुमण्डल की निचली परत परिवर्तन मण्डल (Troposphere) में जल वाष्प की मात्रा प्रत्येक भाग में कम तथा अधिक मात्रा में अवश्य मिलती है। बताया गया कि अधिक ऊंचाई पर जाने से जलवाष्प की मात्रा बहुत कम कहीं-कहीं विल्कुल नहीं मिलती है। ७५०० मीटर से अधिक ऊँचाई पर तो जलवाष्प से रहित वायमण्डल हो जाता है। शीतोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में वाष्प की प्रतिशत मात्रा ५०% अक्षांश पर २६ तथा ७०° अक्षाश पर ०.९ और इससे अधिक ऊँचाई वाले अक्षांश पर ०.२ ही रह जाती है, तथा जैसे जैसे ध्रुवों की ओर बढ़ते जायेंगे वैसे-वैसे जलवाष्प की मात्रा में और भी कमी होती जाती है । वायुमण्डल में होने वाली सभी क्रियाएँ जैसे बादल, वर्षा, तुषार, हिमपात, ओस तथा ओला आदि जलवाष्प पर ही आधारित है। जलवाष्प वायुमण्डल में सूर्य की किरणो के लिए एक पारदर्शक वस्तु की भाँति कार्य करती है ।(3) धूल कणों की मात्रा (Quantity of Dust Particles)- ऐसा हमें रोज देखने को मिलता है कि सूर्य के प्रकाश में धूल के ठोस तथा सूक्ष्म कण स्वतन्त्रतापूर्वक घूमते नजर आते हैं, जो कि भू-पृष्ठ से अधिक ऊँचाई पर नहीं जा पाते । ये धूल कण भूतल की मिट्टी के अतिरिक्त धुआँ, ज्वालामुखी की धूल और समुद्री लवण आदि से भी उत्पन्न होते हैं। ये धूल कण आर्द्रताग्राही (Hygroscopic) कहलाते हैं क्योंकि वर्षा कराने में इनका काफी योग रहता है। जब वर्षा होती है तो धूल कणों पर जल की बूंदें चमकाते मोती के समान दिखायी देती हैं । पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के पश्चात यह बताया गया कि सूर्य किरणों में प्रकीर्णन (Seattering) की क्रिया धूल कणों के द्वारा ही होती है। इसी कारणवश अक्षाश का रंग नीला, सूर्य उदय तथा अस्त एवं गोधूलि आदि के समय सूर्य प्रकाश की रंग तब्दीली इन्हीं कणां के कारण होती है। धुएँ तथा नमक आदि के कण आद्रताग्राही नाभिक (Hygroscopic Nuclei) कहलाते हैं, क्योंकि संघनन के समय जलवाष्प जलकणों के रूप में इनके चारों ओर छा जाती है । वायु पर संघटन का प्रभाव वायुमण्डल में वायु पर संघ टन का प्रभाव एक महत्वपूर्ण नीति है क्योंकि पृथ्वी में एक गुण विशेषनीय है गुरुत्वाकर्षण । गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से प्रत्येक वस्तु पृथ्वी की ओर आकर्षित होती रहती हैं। साथ ही पृथ्वी वायुमण्डल की गैसों को भी आकर्षित करती है चाहे वे सभी गैस इस गुरुत्वाकर्षण (Gravitational) नियम को न माने या माने जैसे हाइड्रोजन, ऑर्गन, क्रिपटांन, जीनन आदि हल्की होने के कारण वायुमण्डल के सबसे ऊपर वाले भाग पर भ्रमण करती हैं ये समस्त पदार्थ गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी पर एक वायुदाब उत्पन्न करते हैं और यह वायुदाब पृथ्वी के प्रत्येक वर्ग सेमी० क्षेत्रफल पर २.७ किमी० (एक वर्ग इंच पर १४.७ पौण्ड) पड़ता है। इस समस्त पृथ्वी पर वायुदाब के कारण ही वायुमण्डल में अनेक क्रियाएँ जैसे तूफानों का आना, चक्रवातों का आना तथा वर्षा आदि उत्पत्र हो जाती हैं । वायुदाब तापक्रम तथा जलवाष्प के अन्तर के कारण ही उत्पन्न होता है, जहाँ तापक्रम अधिक होगा वहाँ वायुदाब कम तथा जहां तापक्रम कम होगा वहाँ वायुदाब अधिक पाया जाता है, साथ ही जलवाष्प तापक्रम से हमेशा बंधी रहती है। बताया गया है कि एक घनमीटर जलवाष्प का दाब एक घनमोटर शुष्क वायु के दाब का ३.५ होता है जबकि वायुदाब और ताप समान रहे । वायुमण्डल में जलवाष्प की मात्रा में बढ़ने-घटने से अन्य पदार्थों की मात्रा में भी अन्तर रहता है। उदाहरण के लिए, जलवाष्प की बढ़ती हुई मात्रा में ऑर्गन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन गैसों की मात्रा में कमी होती जाती है। निम्नलिखित सारणी में आद्र वायु का संघटन आयतन के अनुसार प्रतिशत में दिया हुआ है।
जलवाष्प |
ऑर्गन |
ऑक्सीजन |
नाइट्रोजन |
0 |
0.93 |
20.99 |
78.03 |
1 |
0.92 |
20.77 |
77.25 |
2 |
0.91 |
20.51 |
76.47 |
3 |
0.90 |
20.36 |
75.69 |
4 |
0.89 |
20.15 |
74.81 |
5 |
0.86 |
19.95 |
74.14 |
जिस प्रकार वायुमण्डल में ऊँचाई की ओर जाते हैं तो हल्की वायु परतों के रूप में मिलती है। वायु के भार में कमी आने के साथ-साथ ऊँचाई की तरफ दबाव भी कम होता जाता है। वायुदाब के अनुसार ही घनत्व की मात्रा भी कम होती जाती है । वायुमण्डल की सबसे निचली वाली परत परिवर्तन मण्डल (Troposphere) में घनत्व की मात्रा सर्वाधिक होती है। इस परिवर्तन मण्डल में ही मानव निवास करता है क्योंकि उसको साँस लेने में ऑक्सीजन की मात्रा पर्याप्त रूप से मिल जाती है। इसीलिए मानव अधिक ऊँचाई वाले भागों में कम संख्या में रहते हैं। अधिक ऊँचाई वाले भागों में मानव को वायु में सभी आवश्यक तत्व समान अनुपात में नहीं मिल पाते हैं। प्रयोग करके बताया गया है कि समुद्र की सतह पर २.५ बर्ग सेमी० पर बायु का दबाव ६-८किग्रा० होता है और ५-६ किमी० की ऊंचाई पर वायू का दबाव घटकर ३-४ किग्रा० रह जाता है । इस बात का भी मापन किया गया है कि ५.६ किमी० की ऊँचाई पर वायु में आक्सीजन की मात्रा आधी रह जाती है । यही कारण है कि मनुष्य जब वायुमण्डल में अधिक ऊंचाई पर पहुँच जाता है, तो उसे ऑक्सीजन के अभाव में गहरी तथा लम्बी सांस लेनी पड़ती है। कभी-कभी मनुष्य मूर्च्छित हो जाता है और पर्याप्त रूप से उचित मात्रा में ऑक्सीजन नही मिलती है तो मर भी जाता है।सन् १९६२ में चीन ने जब भारत पर आक्रमण किया था तब भारतीय सैनिकों को एकदम ५००० या ६०००मीटर की ऊंचाई पर नेफा तथा लद्दाख की सीमा पर पहुँचा दिया गया था। इसी कारण गंगा-यमुना के मैदान में रहने वाले सैनिकों को कम घनत्व और कम दाब में कम आक्सीजन की मात्रा मिल पायी थी, और उनको चीनी सैनिकों से युद्ध लड़ने में बहुत कटिनाइयों का सामना करना पड़ा। तभी से कुछ भारतीय सैनिकों को ऊँचे पहाड़ी भागों पर ही प्रशिक्षित किया जा रहा है इसीलिए आज भारतीय सैनिक अधिक ऊँचाई वाले देशों से मुकाबला करने के लिए तैयार हो गये हैं ।
वायुमण्डल के विभाग या परत (DIFFERENT LAYERS OF THE ATMOSPHERE) वायुमण्डल के विभाग या परतो को मोटे रुप से दो भागों में बाँटा गया है : (1) वायुमण्डल का रासायनिक स्तरीकरण (Chemical Stratification of the Atmosphere) (II) वायुमण्डल का माधारण स्तरोकरण (General Stratification of the Amosphere) |
(1) वाय मण्डल का रामायनिक स्तरीकरण (Chemical Stratification of the Atmo sphere)-वायुमण्डल के रासायनिक स्तरीकरण को दो भागों में बाँटा जाता है: (1) सम मण्डल (Homosphere)। (2) विषम मण्डल (Heterosphere) |
1. सम मण्डल (Homosphere) तापक्रम का ध्यान रखते हुए वायुमण्डल को कई उप-विभागों में पत्तों के रूप में बांटा गया है । तापक्रम परिवर्तन को देखते हुए सम मण्डल (Homosphere) को तीन उपमण्डलों में विभक्त किया जाता है। (1) परिवर्तन मण्डल (Troposphere)। (2) समताप मण्डल (Stratosphere) । (3) मध्य मण्डल (Mesosphere)।
उपर्यंक्त तीनों मण्डलों को सममण्डल (Homosphere) में इसलिए रखा गया है कि रासायनिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए गैसो की मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता है। सम मण्डल की ऊँचाई समुद्रतल के हिसाब से ९० किमी० तक आंकी गयी है । रचना की दृष्टि से इस मण्डल में मुख्य गैसें ऑक्सीजन (२०.९४६%) तारा नाइट्रोजन (७८.०८४%) ९९% भाग घेरे हुए है। शेष १% में कार्बन डाई-ऑक्साइड (०.०३३%) आर्गन (०.९३४%), नियोन, होलियम, क्रिपटॉन, जीनन और हाइड्रोजन मिलती है।
2. विषम मण्डल (Heterosphere)-इस मण्डल की ऊँचाई ९०किमी० से लेकर १०,००० किमी तक आंकी गयी है। धरातल से ९० किमी० की ऊँचाई के बाद इस मण्डल को गैसों के आधार पर चार उपविभागों में बांटा गया है। (A) आणविक नाइट्रोजन परत ( Molecular Nitrogen Layer)। (B) आणविक ऑक्सीजन परत (Atomic Oxygen Layer)। (C) हीलियम परत ( Helium Layer )। (D) आणविक हाइड्रोजन परत ( Atomic Hydrogen Layer) । विषम मण्डल की चारों परत गैसों की अधिकता के कारण नामांकित की गयी है । ९० से २०० किमी० वायुमण्डल की ऊंचाई में आणविक नाइट्रोजन गैस का पूर्णतः आधिक्य रहता है। १२५ से ७०० किमी वो ऊँचाई में आणविक आक्सीजन गैस अधिकता में पायी जाती है। ७०० से १,१०० किमी० की ऊँचाई में हीलियम गैस की अधिकता देखने को मिलती है। अन्तिम परत आणविक हाइड्रोजन की है जो १,१०० से लेकर १०,०० किमी तक अनुमानतः ऊँचाई में आँकी गयी है। लेकिन फिर भी इसकी अन्तिम सीमा सही नहीं बतलायी जा सकती । यह गैस सभी गैसों से हल्की होने के कारण वायुमण्डल के सबसे ऊपरी भाग में निवास करती है। परिवर्तन मण्डल और मानव (Troposphere and Man)—यह वायुमण्डल की सबसे निचली परत है जिसे परिवर्तन मण्डल कहते हैं। इस परत से मानव का महत्वपूर्ण तथा सीधा ही सम्पर्क है । मानव इस परत की तली में निवास करता है जितने भी वातारण के तत्व वायु मण्डल में नजर आते हैं वे सभी परिवर्तन मण्डल में ही पाये जाते हैं। धूल के कण भी इस परत में बहुतायत में मिलते है सबसे भारी कण पृथ्वी तल से स्पर्श करते हुए घूमते हैं तथा हल्के कण क्रमश: ऊँचाई के हिसाब से ऊपरी भाग में विचरण करते हैं, लेकिन ये भी केवल परिवर्तन मण्डल में ही रहते हैं इससे आगे धूल कणों का अभाव रहता है।
(II) वायमण्डल का साधारण स्तरीकरण (General Stratification of the AImo- sphere)- आधुनिक विज्ञान के युग में नवीन खोजों के अनुसार वायुमण्डल में अनेक परतों का समाधान किया है। लेकिन वायु मण्डल में दवाब को आधार मानकर साधारण तौर पर छ परतों का समावेश किया है: (1) परिवर्तन मण्डल या अधोमण्डल (Troposphere) (2) क्षोभ सीमा या मध्य स्तर (Tropopause) (3) समताप मण्डल (Stratosphere) (4) ओजोन मण्डल (Ozonosphere) (5) आयन मण्डल (lonosphere) (6) आयतन मण्डल (Exosphere)
(1) परिवर्तन मण्डल या अधोमण्डल (Troposphere)-यह मण्डल वायुमण्डल का सबसे निचला भाग है। इसकी औसत ऊँचाई लगभग ११ किमी० है। भूमध्य रेखा पर इसकी औसत ऊँचाई १६ किमी० तथा ध्रुवीय अक्षांणों पर इसकी औसत ऊँचाई लगभग ६ किमी० ही रह जाती है। कारण यह है कि ज्यों-ज्यों भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर जाते हैं इसकी ऊँचाई कम हो जाती है । वायुमण्डल के इसी भाग में मानव निवास करता है। इस मण्डल की हवा कुछ गरम होती है। इस मण्डल की गरम हवा का कारण पृथ्वी ताप का मुख्य स्रोत है, साथ ही जल कण, जलवाष्प, धूल कण आदि से परिपूर्ण है जिनके कारण पार्थिक विकिरण (Terrestrial Radiation) की क्रिया होती है । यह मण्डल विकिरण (Radiation), संचालन ( Conduction) और सम्वाहन (Convection) की क्रिया द्वारा गर्म तथा ठण्डा होता रहता है। इस मण्डल में वायु कभी शान्त नहीं रहती है । कुछ न कुछ परिवर्तन की क्रिया हमेशा जारी रहती है। इसी से इसको परिवर्तन मण्डल नाम दिया गया है । यह बात हम इस अध्याय में पहले ही बता चुके हैं कि ऊँचाई के हिसाब से ताप तथा दाब दोनों ही कम होते जाते है। साथ ही आद्रता तथा धूल कण की भी मात्रा ऊँचाई के हिसाब से कम होती जाती है । बताया गया है कि इस मण्डल में प्रत्येक ३०० फुट की ऊंचाई पर १०° फारेनहाइट तापमान (प्रति ३०० मीटर पर १८° से ग्रे०) कम होता जाता है। इस मण्डल की अन्तिम सीमा पर दबाव घटकर धरातल की अपेक्षा रह जाता है । इस मण्डल में वायु वेग, वायु दिशा, तापमान, बादल, वर्षा, आर्द्रता आदि सभी परिवर्तनकारी क्रियाएँ होती रहती है । आंधी, तूफान, बादलों की गर्जना, विद्युत प्रकाश आदि इसी मण्डल में होते हैं, इन्हीं क्रियाओं के फलस्वरूप रेडियो में भड़भड़ाहट उत्पन्न होती है। संवाहनिक हवाएँ (turbulent convection sf ratum) भी मुख्य रूप से इसी मण्डल में चला करती है सभी प्रकार की मौसमी घटनाओं (Weather phenomena) का मुख्य केन्द्र है । आज मानव ने चन्द्रमा की खोज तथा अन्य उपग्रहों की खोज का प्रारम्भ इसी मण्डल में रहकर किया है ।
(2) मध्य स्तर (Tropopause)-जैसा कि नाम से विदित होता है परिवर्तन मण्डल का समाप्तीकरण और समताप मण्डल वे प्रारम्भ वाले मध्य भाग को मध्य स्तर का नाम दिया गया है। मध्य स्तर इन आसपास की दोनों पेटियों का संक्रमण भाग भी कहलाता है । इस पेटी की चौड़ाई लगभग १.५ किनी है। कभी-कभी परिवर्तन मण्डल और समताप मण्डल मेंविशेष परिवर्तन क्रियाएं प्रारम्भ हो जाती है,
तब इस पेटी का अस्तित्व कम दिखायी देता है और ऐसा मालूम पड़ता है कि मध्य स्तर है ही नहीं । यह एक शान्त पेटी के नाम से जानी जाती है । यहाँ किसी प्रकार की कोई परिवर्तनकारी क्रिया नहीं होती है।
(3) समताप मण्डल (Stratosphere)- इसको अचल स्तर के नाम से भी पुकारते हैं। यह मण्डल मध्य स्तर के बाद से प्रारम्भ हो जाता है । उस मण्डल में तापमान लगभग समान रहता है। समताप मण्डल के समान तापमान की जांच करने वाले वैज्ञानिक टिसरो डी बोर्ट हैं जिन्होंने अप्रैल सन् १८८८ में यह सिद्ध किया कि इस भाग में प्राप्त किया हुआ विकिरण द्वारा तापमान प्रसृत विकिरण के बराबर होता है ।

स्पूतनिकों द्वारा की गयी खोजों के अनुसार इस मण्डल की ऊँचाई १६ किमी० से ८० किमी० तक आंकी गयी है। बताया गया है कि इस मण्डल की ऊँचाई अक्षाश और ऋतुओं के अनुसार परिवर्तनशील है जैसे ग्रीष्म के मई जून, जुलाई तथा अगस्त तक इसकी ऊँचाई जाड़े की ऋतु से बढ़ जाती है। इसका मुख्य कारण यह है कि ग्रीष्म के महीनों में वायुमण्डल में सभी परिवर्तन- कारी क्रियाएँ जोर-जोर से प्रारम्भ होती है और इनका लेशमात्र प्रभाव ही ऊँचाई में अन्तर कर देता है। हालांकि वायुमण्डलीय प्रभावकारी क्रियाएँ (आँधी तूफान, हिम, घन गर्जन, आर्द्रता,धूल कण आदि) इस मण्डल से वंचित रहती है। इस मण्डल में पूर्णतः सम्बाहन रहित (Non- convective) वातावरण रहता है और बादल भी नहीं मिलते हैं ।
(4) ओजोन मण्डल (Ozonosphere) यह समताप मण्डल के ठीक ऊपर वाला भाग है । इस मण्डल में ओजोन गैस अत्यधिक मात्रा में मिलती है। इसीलिए इसको ओजोन मण्डल नाम दिया जाता है। कुछ वैज्ञानिकों ने इसे समताप मण्डल का ऊपरी भाग समझकर इसमें शामिल कर लिया है। इस मण्डल की ऊंचाई ३२ मे ८० किमी० तक है । इस मण्डल की ओजोन गैस का एक प्रधान गुण यह है कि सूर्य से आने वाली तीक्ष्ण गरम पराबैंगनी किरणों (ultra-violet rays) को बहुत जल्दी अपने में सोख लेती है। इससे पृथ्वी की जलवायु तथा मानव-जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि इस गैस के द्वारा यह क्रिया नहीं होती तो आधे से अधिक सुर्य ताप पृथ्बी तक आता और तेज गर्मी के कारण मानव-जीवन ही क्या सांसारिक जगत में पेड़-पौधे व जन्तुओं का जीवन भी समाप्त हो जाता ।
(5) आयन मण्डल (Ionosphere) वायुमण्डल में इस भाग की ऊँचाई ८० से ६४०किमी० तक है। इस भाग में आयन को प्रधानता होने से इसे आयन मण्डल के नाम से ही पुकारते है। यह मण्डल ओजोन मण्डल के ठीक ऊपर वाला भाग है। इस भाग के अधिकांश ऊपरी भाग की जांच अभी पूर्ण रूप से नहीं हुई है। आकाश का नीलवर्ण, विद्युत चमक और ब्रह्माण्ड किरण (Cosmic-rays) इस भाग की विशेषता के रूप में पाये जाते हैं। आयन मण्डल रेडियो तरंगों को अपने यहाँ से पृथ्वी की ओर लौटा देता है तथा पृथ्वी पुनः ऊपर भेज देती है और यह क्रिया तब तक चलती रहती है जब तक तरंग कोई दूर अपना स्थान ग्रहण नहीं कर लेती हैं। आज अनेक वैज्ञानिक रेडियो तरंगों तथा ध्वनि तरंगों के द्वारा खोज-कार्य में जुटे हुए हैं ।
(6) आयतन मण्डल (Exosphere)-वायुमण्डल में ऊंचाई के हिसाब से यह सबसे ऊँची तथा आखिरी परत है। अनुमानतः इस परत की ऊँचाई ६४० से ९६० किमी० या इससे भी अधिक आँकी गयी है। एक पाश्चात्य वैज्ञानिक ने खोज करने के उपरान्त जो हल निकाला उसके बारे में यह लिखा है। It has no defined border as the altitude rise, it thins out until there are no air molecules left. इस मण्डल को आयतन मण्डल के स्थान पर सीमा प्रदेश (Fringe-region) भी कहते हैं। इस मण्डल की खोज अभी जारी है क्योंकि इस मण्डल में अभी तक वैज्ञानिकों ने कोई विशेष बात की खोज का हल नहीं निकाला है। उत्तरी ध्रुव की सुमेरु ज्योति और दक्षिणी ध्रुव की कुमेरु ज्योति तथा ब्रह्माण्ड किरणों (Cosmic-rays) आदि के द्वारा आधुनिक मानव इसकी खोज में दिन-रात एक कर रहा है।
वायुमण्डल का महत्व (Importance of the Atmosphere) वायु मनुष्य के लिए अति आवश्यक है । वाय मनुष्य के लिए ही नहीं अपितु जल मण्डल, पल मण्डल और वायुमण्डल में रहने वाले सभी प्राणी मात्र जीव-जन्तु, पेड़-पौधों आदि के लिए प्रतिक्षण के लिए एक अनिवार्य तत्व है । वायु के अभाव में प्राणी की मृत्य हो जाती है। अर्थात् बिना वायु के प्राणोजन का जीवन एक क्षण भी नहीं रह सकता । हवा के अभाव में तापक्रम, दबाव, धुन्ध, कुहरा, तुषार आदि वायुमण्डलीय क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं। भोजन तथा जल के बिना मनुष्य तथा जीव-जन्तु कुछ समय तक जीवित रह सकते हैं, लेकिन हवा के अभाव में एक क्षण भी नहीं रह सकते। बादलों से आच्छादित आकाश तथा मोसम सम्बन्धी क्रियाएँ फिल्म आदि के लिए हानिकारक होती है । स्वच्छ आकाश तथा मौसम सम्बन्धी क्रियाएँ फिल्म प्रोजेक्ट के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के कैलीफोनिया प्रान्त में अति उत्तम मानी जाती है। इन सब बातों के अतिरिक्त कृषि पर वायुमण्डलीय क्रियाओं का सीधा प्रभाव पड़ता है। पूर्वी एशिया के कृषि प्रधान देशों में इन क्रियाओं से भारी धन-जन की हानि होती है। जैसे पकी हुई फसल पर ओले पड़ना, सूखा, तुषार पाला, कुहरा इत्यादि। ग्रामीण क्षेत्रों के अलावा शहरी क्षेत्रों के उद्योग-धन्धों में भी हानि होती है । हानि के अतिरिक्त लाभ अधिक होते हैं। मुख्य रूप से देखा जाये तो किसान का भाग्य वायु मण्डलीय क्रियाओं से जुड़ा हुआ है। पश्चिमी विकसित देशों में सब्जी तथा फलों की कृषि वाय- मण्डलीय दशाओं पर निर्भर होती है । यहाँ पर अक्सर इस फसल को पाले का भय रहता है। यहां के लोग वायुमंडलीय क्रियाओं के अध्ययन में इतने आगे बड़ चुके हैं कि पहले पाले रहित दिनों की गिनती करके फसतों को बुवाते हैं। संयुक्त राज्य अमरीका के प्रान्त फ्लोरिडा, मिशीगन, कैलीफोर्निया इस बात के प्रत्यक्ष प्रतीक है। वायुमण्डलीय गैसों में नाइट्रोजन तथा कार्बन डाईऑक्साइड का प्रभाव जन्तु तथा वनस्पति जगत पर अधिक पड़ता है। कृषि के लिए नाइट्रोजन (N2) का होना अति आवश्यक सा बन गया है। पश्चिमी देश अपने यहां की जमीन में नाइट्रोजन की कमी को कभी अधूरी नहीं रखते । इसके बाद अन्य तत्वों की पूर्ति करते हैं । जबकि भारतीय कृषि में कम उपज का मुख्य कारण नाइट्रोजन की कमी ही है। इसी प्रकार कार्बन डाई-आजमाइड (CO2) से पेड़-पौधे सांस लेते हैं । भूमध्य रेखा पर सघन वनों का मुख्य कारण कार्बन डाई-आक्साइड की बहुल्यता से है । इस के ठीक विपरीत टुण्ड्रा (Tundra), टैगा (Tainga) प्रदेश में कार्बन डाई-ऑक्साइड गैस कम मात्रा में मिलती है। इन गैसों के अलाबा हाइड्रोजन, आर्गन, हीलियम, नियोन, क्रिप्टन, जीनन आदि भी सांसारिक जगत में जीव मात्र में थोड़ी-बहुत काम अवश्य आती रहती हैं।
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