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मौसमी संकट और आपदाएँ ( Meteorological Hazards and Disasters)

मौसमी संकट और आपदाएँ (मौसम संबंधी खतरे और आपदाएँ) प्रकृत्तिजन्य अप्रत्याशित ऐसी सभी घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों को इतना तीव्र कर देती हैं कि विनाश की स्थिति उत्पन्न होती है, चरम प्राकृतिक घटनाएँ या आपदा कहलाती है। इन चरम घटनाओं या प्रकोपों से मानव समाज, जन्तु एवं पादप समुदाय को अपार क्षति होती है। चरम घटनाओं में ज्वालामुखी विस्फोट, दीर्घकालिक सूखा, भीषण बाढ़, वायुमण्डलीय चरम घटनाएँ; जैसे- चक्रवात, तड़ित झंझा, टॉरनेडो, टाइफून, वृष्टि प्रस्फोट, ताप व शीत लहर, हिम झील प्रस्फोटन आदि शामिल होते हैं। प्राकृतिक और मानव जनित कारणों से घटित होने वाली सम्पूर्ण  वायुमण्डलीय एवं पार्थिव चरम घटनाओं को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है। इन आपदाओं से उत्पन्न विनाश की स्थिति में धन-जन की अपार हानि होती है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन निम्न प्रकार है:- चक्रवात (Cyclone) 30° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्णकटिबन्धीय चक्रवात कहते हैं। ये आयनवर्ती क्षेत्रों में पाए जाने वाला एक निम्न वायुदाब अभिसरणीय परिसंचरण तन्त्र होता है। इस चक्रवात का औसत व्यास लगभग 640 किमी...

GEOMORPHOLOGY

भू-आकृति विज्ञान 
(Geomorphology)

भू-आकृति विज्ञान की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द Geomorphology (Geo-Earth Morphi-Form तथा Logos-Discourse) से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ स्थलरूपों का अध्ययन है। इसके अन्तर्गत स्थलमण्डल के उच्चावचो (Relief). उनके निर्माणक प्रक्रमों तथा उनके एवं मानव के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।
सर्वप्रथम स्कॉटिश भूगर्भशास्त्री जेम्स हट्टन ने भू-आकृतियों के सन्दर्भ में चक्रीय पद्धति की अवधारणा दी। भू-आकृति विज्ञान का वर्तमान स्वरूप विगत शताब्दियों में हुए क्रमिक विधितन्त्रात्मक विकासों के फलस्वरूप सम्भव हुआ है। स्थलरूपों का प्रारम्भिक अध्ययन प्रोस, यूनान तथा अरब में 500 ई. पू. से प्रारम्भ हुआ है, किन्तु भू-आकृति विज्ञान को आधुनिक स्वरूप भू-आकृति विज्ञान को कुछ मौलिक संकल्पनाओं ने दिया।
इस विज्ञान के अन्तर्गत निम्न तीन प्रकार के उच्चावचो को सम्मिलित किया जाता है
• प्रथम श्रेणी की भू-आकृतियाँ इन भू-आकृतियों का निर्माण सबसे पहले हुआ है और ये आकृतियाँ भूतल की सबसे बड़ी भू-आकृतियाँ है; जैसे-महाद्वीप एवं महासागर 
• द्वितीय श्रेणी की भू-आकृतियाँ ये भू-आकृतियाँ पहली श्रेणी की भू-आकृतियों पर आरोपित है। इसके अन्तर्गत महाद्वीपो पर उपस्थित पर्वत एवं पठारों को सम्मिलित किया जाता है।
• तृतीय श्रेणी की भू-आकृतियाँ इन भू-आकृतियों का निर्माण प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी की भू-आकृतियों पर होता है। इसके अन्तर्गत नदी घाटियाँ जल-प्रताप, बाढ़ का मैदान, पर्वतीय दाल, हिमानी घाटियाँ, हिमगहूवर, हिमोढ़, पूलिन, रोधिकाएं, बजादा, बालू टिब्बे आदि शामिल होते हैं।

भू-संचलन का परिचय 
(Introduction of Earth Movements)

भू-पृष्ठ अथवा भू-खण्डों में पृथ्वी के आन्तरिक बलों से जो गति उत्पन्न होती है, उसे भू-संचलन या भू-पटल संचलन या पटल विरूपण भी कहा जाता है। भू-संचलन के तीन मुख्य कारण पृथ्वी के आन्तरिक भाग में तापीय विषमता, पृथ्वी के भीतर चट्टानों का फैलाव और सिकुड़न तथा पृथ्वी के भीतरी भागों में द्रव पदार्थों का स्थानान्तरण है।
पृथ्वी की सतह पर परिवर्तन लाने वाली शक्तियों को दो भागों अन्तर्जनिक शक्तियों या अन्तर्जात बल व बहिर्जात शक्तियाँ या बहिर्जात बल में बाँटा जा सकता है। ये शक्तियाँ पृथ्वी की अन्तजांत शक्तियों द्वारा उत्पन्न विषमताओं को दूर करने में प्रयत्नशील रहती है, अत: इन्हें समतल स्थापक शक्तियाँ भी कहा जाता है। इनका विवरण इस प्रकार है

अन्तर्जात बल (Endogenetic Force)
ऐसी शक्तियाँ, जो पृथ्वी के आन्तरिक भागों में उत्पन्न होती है अन्तर्जनिक शक्तियाँ या अन्तर्जात बल कहलाती है। इन शक्तियों के कारण भू-पटल पर उथल-पुथल तथा भू-पटल पर विषमताओं का सूत्रपात होता है। इनके कारण भूतल पर पर्वत, पठार, मैदान धंशों आदि का निर्माण होता है। तीव्रता के आधार पर अन्तर्जात बलों को दो भागों पटल विरूपणी संचलन तथा आकस्मिक संचलन में बाँटा जा सकता है।

पटलविरूपणी संचलन
इसके अन्तर्गत अन्तर्जात शक्तियाँ काफी मन्द गति से कार्य करती है तथा इनके सम्पन्न होने में हजारों वर्षों का समय लगता है। पृथ्वी के आन्तरिक भाग में दीर्घकालीन शक्तियों के कारण पृथ्वी पर विशाल भू-भाग धीरे-धीरे ऊपर उठते एवं नीचे धँसते हैं। दीर्घकालिक संचलनों को भी दो भागों में विभाजित किया जा सकता है महादेश निर्माणक तथा पर्वत निर्माणकारी। 

(i) महादेश निर्माणक अथवा ऊर्ध्वाधर संचलन
ये शक्तियाँ पठारों, मैदानों या महाद्वीपों के निर्माण में सहायक होती हैं, इन शक्तियों के कारण ही महाद्वीपों का निर्माण होता है। इन शक्तियों के द्वारा संचलन मुख्यतः ऊर्ध्वाधर या अरीय हुआ करता है।
इस प्रकार के संचलन की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें चट्टानों की परतों में तोड़ मरोड़ नहीं होती केवल भू-पटल के कुछ भाग चौड़े तथा चपटे महराव के रूप में ऊपर उठ जाते हैं, परन्तु परतों में विक्षोभ नहीं होता है। इस संचलन से महाद्वीपों में उत्थान तथा अवतलन एवं निर्गमन तथा निमज्जन की क्रियाएँ होती हैं।
महादेशीय संचलन को दो प्रकारों में बांटा जा सकता है।
  • उपरिमुखी संचलन इस संचलन के कारण महाद्वीपों में दो तरह के उत्थान होते हैं। जब महाद्वीप का कोई भाग अपनी समीपी सतह से ऊंचा उठ जाता है, तो इसे उत्थान कहा जाता है। जब महाद्वीप का तटीय भाग (जो कभी जलमग्न थे) यदि निकटवर्ती क्षेत्र से ऊपर उठ जाता है, तो इस घटना को निर्गमन कहा जाता है।
  • . अघोमुखी संचलन इस संचलन के कारण महाद्वीपीय भाग में दो तरह के धंसाव होते हैं। जब महाद्वीप का कोई भाग स्थानीय या प्रादेशिक रूप से अपनी समीपी सतह से नीचे धँस जाता है, तो इस क्रिया को अवतलन कहते हैं।
जब कोई समुद्रतटीय भाग सागर तल से नीचे चला जाता है, तो इस क्रिया को निमज्जन कहते हैं। भारत के समुद्री तट का अवलोकन कर धँसाव के उदाहरण देखे जा सकते हैं। पुदुचेरी के पास इस प्रकार के धँसाव की क्रिया देखने को मिलती है।


(ii) पर्वत निर्माणकारी अथवा क्षैतिज संचलन
पर्वत निर्माणकारी संचलन क्षैतिज या स्पर्शीय शक्तियों द्वारा उत्पन्न होते हैं। ऐसी शक्तियों के कारण चट्टानों में तनाव एवं सम्पीडन दो प्रकार की स्थितियाँ पैदा होती हैं।
जब किसी भू-खण्ड पर दो विपरीत दिशाओं में क्षैतिज बल कार्य करता है, तो उसे हम तनाव कहते हैं। इसके कारण घरातल में भ्रंशन (विभंग), वलन तथा चटकनें आदि अनेक स्थलाकृतियों का जन्म होता है। जब किसी भू-खण्ड पर क्षैतिज वल किसी एक ही दिशा में (केन्द्र की ओर), आमने-सामने से कार्य करते हैं, तो ऐसी स्थिति में चट्टानों में सम्पीडन उत्पन्न होता है। परिणामस्वरूप भू-पटल पर वृहत संचलन एवं वलन पड़ जाते हैं।
इस प्रकार से भू-पटल पर पर्वतों का निर्माण होता है, जो एक दीर्घकालिक क्रिया का ही प्रतिफल है। तनाव एवं सम्पादन दोनों ही क्रियाएँ स्थलाकृतियों के निर्माण में एक साथ मिलकर कार्य करती है। जब भू-पटल के किसी भी भाग में अगर खिंचाव होता है, तो उसके परिणामस्वरूप दूसरे भागों में तनाव का होना भी निश्चित है। हालाँकि पर्वत निर्माणकारी भू-संचालन में मुख्यतः भिचाव की प्रधानता रहती है।

आकस्मिक संचलन
आकस्मिक अन्तर्जात शक्तियों द्वारा उत्पन्न संचलनों को इसके अन्तर्गत रखा जाता है। इसके अन्तर्गत भूकम्प तथा ज्वालामुखी क्रियाएँ सम्मिलित हैं।

बहिर्जात बल (Exogenetic Force)
ऐसी शक्तियां जो पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होती है, बहिर्जात शक्तियाँ या बहिजोत बल कहलाती है। ये शक्तियाँ भू-पटल पर अन्तर्जनिक शक्तियों द्वारा उत्पन्न विषमताओं को दूर करने का प्रयास करती है, इसी कारण इन्हें समतल स्थापना कारक शक्तियाँ भी कहा जाता है। बहिर्जात शक्तियों का प्रमुख कार्य अनाच्छादन होता है।
अनाच्छादन के अन्तर्गत अपक्षय, अपरदन तथा परिवहन को सम्मिलित किया जाता है। अपक्षय एक स्थैतिक प्रक्रम है, अपक्षय के अन्तर्गत चट्टानों का विघटन एवं वियोजन उसी स्थान पर होता है। इन विखण्डित पदार्थों का परिवहन नहीं होता है।
अपरदन एक गतिशील प्रक्रम है। अपरदन के अन्तर्गत चट्टानों के टूटने-फूटने से लेकर उनके परिवहन को सम्मिलित किया जाता है। बहता हुआ जल, पवन, हिमानी परिहिमानी, सागरीय तरंगे अपरदन के प्रमुख कारक है, जो दीर्घकाल तक भू-पटल पर समतल स्थापना का प्रयास करते रहते हैं।


भूकम्प (Earthquake)

भूकम्प का तात्पर्य भू-पटल के नीचे या ऊपर चट्टानों के बीच कम्पन या गुरुत्वाकर्षण की समस्थिति (Equilibrium) में क्षणिक अव्यवस्था होने पर उत्पन्न हलचल से है। इस प्रकार भूकम्प का सामान्य अर्थ पृथ्वी के कम्पन से है। यह कम्पन सामान्यतः भू-गर्भ में ऊर्जा की विमुक्ति (Release) के कारण होता है। भूकम्प में कम्पन होने पर तरंगे उत्पन्न होती है, जो अपने उद्गम केन्द्र से चारों ओर चलती (गमन) है। वह केन्द्र जहाँ से भूकम्पीय तरंगे उत्पन्न होती है, भूकम्प का उद्गम केन्द्र (Focus) कहलाता है तथा वह बिन्दु जहाँ भूकम्पीय तरंग को सर्वप्रथम महसूस किया जाता है, अधिकेन्द्र (Epicentre) कहलाता है। अधिकेन्द्र पर सर्वाधिक विनाश होता है। अधिकेन्द्र, उद्गम केन्द्र के ठीक ऊपर (90° के कोण पर) होता है।

भूकम्पीय तरंगें
भू-गर्भिक तरंगे (Body Waves) उद्गम केन्द्र से ऊर्जा मुक्त होने के दौरान उत्पन्न होती है एवं पृथ्वी के आन्तरिक भागों से सभी दिशाओं में प्रसारित होती है। इन भू-गर्भिक तरंगों एवं धरातलीय शैलों के मध्य अन्योन्य क्रिया के कारण नवीन तरंगें उत्पन्न होती है, जिसे धरातलीय तरंगे (Surface Waves) कही जाती हैं।
तरंगों का वेग अलग-अलग घनत्व वाले पदार्थों से गुजरने पर परिवर्तित हो जाता है। इससे पृथ्वी की आन्तरिक संरचना को समझने में सहायता मिलती है। भूकम्पीय तरंगे मुख्यतः दो प्रकार की होती है-भू-गर्भिक तरंगे व धरातलीय तरंगे।

भू-गर्भिक तरंगें

इन तरंगों का विवरण इस प्रकार है
• P तरंगें इन्हें प्राथमिक या अनुदैर्ध्य या सम्पीडन तरंगें (Longitudinal or Compression Waves) कहते हैं। ध्वनि के समान इन तरंगों का संचरण वेग से होता है, फलतः ये ठोस, गैस एवं द्रव्य तीनो माध्यमों से होकर गुजरती है। सिस्मोग्राफ पर सर्वप्रथम P तरंगों का ही अंकन होता है। ये तरंगे आगे-पीछे धक्का (Push) देती हुई आगे बढ़ती है। P तरंगों को ठोस माध्यम में गति 7.8 किमी / से होती है।
• S तरंगें P तरंग की उत्पत्ति के बाद S तरंग का आविर्भाव होता है। इन्हें द्वितीयक या अनुप्रस्थ तरंगें (Transverse Waves) भी कहते हैं। इस तरंग का संचरण वेग अपेक्षाकृत कम होता है। यह केवल ठोस माध्यम से ही होकर गुजर सकती है। इसकी गति 4.5 से 6 किमी / से होती है।

धरातलीय तरंगें (L तरंगे )
• इनका संचरण केवल धरातलीय भाग पर होता है। इनका वेग सबसे कम (1.5 से 3 किमी/से) होता है। ये धरातल पर सबसे अन्त में पहुंचती है। इनका भ्रमण पथ उत्तल (Convex) होता है। ये आड़े-तिरछे धक्का (Zig-Zag) देकर चलती है, फलत: ये सर्वाधिक विनाशक होती है।

भूकम्प के कारण
भूकम्प के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
• ज्वालामुखी विस्फोट से उत्पन्न कम्पन, भूकम्प को जन्म देता है। पृथ्वी की प्लेटो में जब कभी असन्तुलन उत्पन्न होता है,
तो भूकम्प उत्पन्न होता है।
• वलन या भ्रंश जैसी टैक्टोनिक क्रियाओं से भी भूकम्प उत्पन्न होता है। वृहताकार जलाशयों के जलभार से सतह पर असन्तुलित दबाव पड़ता है, इससे भी भूकम्प उत्पन्न होता है। हिमखण्डों या शिलाओं के खिसकने तथा गुफाओं की छतों के धँस जाने या खानों की छतों के गिर जाने से भी भूकम्प आता है।

भूकम्प का पूर्वानुमान
भूकम्प का पूर्वानुमान लगाने में मानव एवं विज्ञान को अभी भी पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई है, फिर भी निम्नलिखित कारकों द्वारा भूकम्प आने के कुछ संकेत अवश्य प्राप्त होते हैं
  • रेडॉन गैस का उत्सर्जन किसी बड़े भूकम्प के आने से पूर्व रेडॉन गैस का उत्सर्जन बढ़ जाता है। अत: रेडॉन गैस के निकास पर दृष्टि रखने से किसी बड़े भूकम्प के आने की चेतावनी मिल सकती है।
  • पशुओं का आचरण सामान्यतः यह देखा गया है कि किसी बड़े भूकम्प के आने से पहले जीव-जन्तु, विशेषतः बिलों में रहने वाले जीव-जन्तु असाधारण ढंग से व्यवहार करने लगते है। चीटियाँ, दीमक तथा बिलों में रहने वाले अन्य जीव अपने छिपने के स्थानों से बाहर निकल आते हैं। चिड़ियाँ जोर-जोर से चह चहाती है तथा कुत्ते एक नियत प्रकार से भाँकते तथा रोते हैं।
भूकम्प की माप
भूकम्पीय घटनाओं का मापन भूकम्पीय तीव्रता एवं आघात की तीव्रता के आधार पर किया जाता है। भूकम्पीय तीव्रता की मापनी रिक्टर स्केल के नाम से जानी जाती है। यह एक लॉगरिथमिक (Logarithmic) स्केल होता है, जिसमें 0 से 10 तक पाठ्यांक दर्ज होते हैं। इसमें प्रत्येक पाठ्यांक पिछले पाठ्यांक से 10 गुना अधिक परिमाण को दर्शाता है। समान भूकम्पीय तीव्रता को मिलाने वाली रेखा समभूकम्प रेखा (Isoseismal Line) कहलाती है। वास्तव में, भूकम्पीय तीव्रता भूकम्प के दौरान मुक्त होने वाली ऊर्जा से सम्बन्धित है। आघात की तीव्रता / गहनता (Intensity Scale) भूकम्पीय झटकों से हुई प्रत्यक्ष हानि द्वारा निर्धारित की जाती है। इसकी गहनता का पाठ्यांक 1 से 12 तक होता है। एक ही समय पर पहुंचने वाली तरंगों को मिलाने वाली रेखा को सहभूकम्प रेखा (Homoseismal Line) कहते हैं।

भूकम्पों का विश्व वितरण
 भूकम्प की पेटियों का विश्व वितरण इस प्रकार है
  • परिप्रशान्त पेटी यह धरातल की सबसे वृहत एवं विस्तृत भूकम्पीय पेटी है। विश्व के दो-तिहाई भूकम्प इसी क्षेत्र में आते हैं। यह ज्वालामुखी का अग्निवलय (Ring of Fire) क्षेत्र है, जो न्यूजीलैण्ड (प्रशान्त के पश्चिमी तट या ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के पूर्वी तट) से लेकर कमचटका प्रायद्वीप, अलास्का होते हुए (उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तट या प्रशान्त महासागर के पूर्वी तट) फॉकलैण्ड तक विस्तृत है। यह प्लेटो के अभिसरण सीमा क्षेत्र में अवस्थित है एवं नवीन मोड़दार पर्वतों एवं ज्वालामुखी का क्षेत्र है।
  • मध्य महाद्वीपीय पेटी यह भूमध्य सागर से लेकर पूर्वी द्वीप समूह (भूमध्य सागर, काकेशस, तुर्की, आरमीनिया, ईरान, बलूचिस्तान, महान् हिमालय के क्षेत्र, यूनान, म्यांमार, इण्डोनेशिया) तक फैली हुई है। मुख्य रूप से इस क्षेत्र में सन्तुलनमूलक (तुर्की के पर्वतीय क्षेत्र, जहाँ नवीन मोड़दार पर्वत अभी उत्थान की अवस्था में हैं, के साथ-ही-साथ हिमालय पर्वतीय क्षेत्र) एवं भ्रंशमूलक (इण्डोनेशिया के पश्चिमी तट पर अवस्थित ट्रेंच में) भूकम्प आते हैं। इस क्षेत्र में ज्वालामुखियों के उद्गार कम मिलते हैं (अण्डमान के बैरन एवं नारकोण्डम द्वीप एवं दक्कन लावा क्षेत्र को छोड़कर) इस पेटी में विश्व के 21% भूकम्प आते हैं।
  • मध्य अटलाण्टिक पेटी यह पेटी अटलाण्टिक महासागर में उपस्थित मध्य अटलाण्टिक कटक के सहारे आइसलैण्ड से लेकर दक्षिण में बोवेट द्वीप तक फैली हुई है। इसमें ज्वालामुखी उद्गार तथा कटक निर्माण प्रक्रिया से भूकम्प आते हैं।

भूकम्प के प्रभाव
भूकम्प एक प्राकृतिक आपदा है, जिसके कारण स्थलखण्डों पर भूमि का हिलना, घरातलीय विसंगति, भू-स्खलन, मृदा सर्पण, धरातलीय झुकाव, हिमस्खलन जैसे प्रभाव पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त तटबन्ध के टूटने, आग लगने, इमारतों का ध्वस्त होना, वस्तुओं का गिरना आदि के कारण जन-धन की हानि होती है। समुद्री भूकम्पीय तरंगों के कारण सुनामी लहरें पैदा होती हैं। भूकम्प से सर्वत्र विनाश क्रिया ही दृष्टिगोचर नहीं होती है, वरन् कभी-कभी नवीन भू-जल स्रोत की धारा भी बह निकलती है या खारे की जगह मीठा जल स्रोत भी परिलक्षित हो जाता है।



ज्वालामुखी 
(Volcano)

ज्वालामुखी एक छिद्र होता है, जिससे होकर पृथ्वी के अत्यन्त तप्त गर्म लावा, गैस, जल एवं चट्टानों के टुकड़ों से युक्त पदार्थ पृथ्वी के धरातल पर प्रकट होते हैं, जबकि ज्वालामुखीयता (Volcanism) में पृथ्वी के आन्तरिक भाग में मैग्मा व गैस के उत्पन्न होने से लेकर भू-पटल के नीचे व ऊपर लावा प्रकट होने तथा उसके शीतल व ठोस होने की समस्त प्रक्रियाएँ शामिल की जाती हैं। ज्वालामुखी के दो रूप हैं— आभ्यान्तरिक (Intrusive) और बाह्य (Extrusive)।
आभ्यान्तरिक क्रिया में पिघला पदार्थ (लावा) धरातल के नीचे ही जमकर ठोस रूप धारण कर लेता है, जिनमें वैथोलिथ, लैकोलिथ, सिल तथा डाइक प्रमुख हैं। बाह्य क्रिया में धरातलीय प्रवाह के रूप में लावा का जमकर ठोस रूप लेना, गर्म जल के झरने और गैसों का उत्पन्न होना प्रमुख हैं।

ज्वालामुखी की संरचना
ज्वालामुखी शंकु के शीर्ष पर एक विदर (क्रेटर) (Crater) होता है, जिसका आकार कीप (Funnel) जैसा होता है। ज्वालामुखी के शान्त होने के बाद इसमें जल भर जाता है, जिसे क्रेटर झील (Crater Lake) कहते हैं। उत्तरी सुमात्रा को टोबा झील विश्व की विशालतम क्रेटर झीलों में से एक है। भारत में महाराष्ट्र को लोनार झील क्रेटर झील का ही उदाहरण है। ज्वालामुखी के तीव्र विस्फोट से शंकु का ऊपरी भाग उड़ जाने या धँस जाने से काल्डेरा का निर्माण होता है। विश्व का सबसे बड़ा काल्डेरा जापान का आसो है। ज्वालामुखी के मैग्मा में उपस्थित सिलिका की मात्रा से ज्वालामुखी की तीव्रता निर्धारित होती है, जैसे- मैग्मा में सिलिका की मात्रा अधिक होने पर ज्वालामुखी में विस्फोटक उद्गार होते हैं, जबकि सिलिका की मात्रा कम होने पर प्रायः शान्त ज्वालामुखी उद्गार होता है।

ज्वालामुखी के प्रकार
ज्वालामुखी के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं

मृत ज्वालामुखी
इस प्रकार के ज्वालामुखी में विस्फोट प्रायः बन्द हो जाते हैं और भविष्य में भी कोई विस्फोट होने की सम्भावना नहीं होती। इसका मुख मिट्टी, लावा आदि पदार्थों से बन्द हो जाता है और मुख का गहरा क्षेत्र कालान्तर में झील के रूप में बदल जाता है, जिसके ऊपर पेड़-पौधे उग आते हैं। म्यांमार का पोपा, अफ्रीका का किलीमंजारो आदि मृत ज्वालामुखी (Extinct Volcano) के प्रमुख उदाहरण हैं।

प्रसुप्त ज्वालामुखी
प्रसुप्त ज्वालामुखी (Dormant Volcano) में दीर्घकाल से उद्भेदन (विस्फोट) नहीं हुआ होता, किन्तु इसकी सम्भावनाएँ बनी रहती है। ये जब कभी अचानक क्रियाशील हो जाते हैं, तो जन-धन की अपार क्षति होती है। इसके मुख से गैसें तथा वाष्प निकलती है। इटली का विसुवियस ज्वालामुखी अनेक वर्षों तक प्रसुप्त रहने के पश्चात् वर्ष 1931 में अचानक फूट पड़ा था।

सक्रिय ज्वालामुखी
सक्रिय ज्वालामुखी (Active Volcano) में प्रायः विस्फोट तथा उद्भेदन होता ही रहता है। इनका मुख सर्वदा खुला रहता है और समय-समय पर लावा, धुआँ तथा अन्य पदार्थ बाहर निकलते रहते हैं, जिससे शंकु का निर्माण होता रहता है। इटली में पाया जाने वाला एटना ज्वालामुखी इसका प्रमुख उदाहरण है, जो 2500 वर्षों से सक्रिय है। सिसली द्वीप का स्ट्राम्बोली ज्वालामुखी प्रत्येक 15 मिनट बाद फटता है। इसे भूमध्य सागर का प्रकाश स्तम्भ (Light House of the Mediterranean) भी कहा जाता है।

उद्गार के आधार पर ज्वालामुखी का वर्गीकरण

उद्गार के आधार पर ज्वालामुखी का वर्गीकरण दो प्रकार से किया जाता है 
1. दरारी उद्गार इसमें लावा एक दरार या भ्रंश के सहारे शान्त रूप से निकलता है एवं उसमें गैस की मात्रा अधिक नहीं होती है।
2. केन्द्रीय उद्गार इसमें उद्गार प्रायः एक संकरी नली या द्रोणी के सहारे एक छिद्र से होता है। इन उद्गार से निरन्तर निकलने वाले पदार्थों की विविधता एवं उद्गार अवधि के अनुसार इन्हें निम्न भागों में बाँटा गया है
  • हवाई तुल्य इनका उद्गार शान्त व लावा पतला होता है। 
  • स्ट्राम्बोली तुल्य इनका उद्गार हवाई तुल्य की तुलना में तीव्रता से होता है।
  • वालकैनो तुल्य ये विस्फोटक व भयंकर उद्गार हैं।
  • पीलियन तुल्य ये सर्वाधिक विस्फोटक, भयंकर एवं विनाशकारी उद्गार हैं। 
उद्गार के आधार पर ज्वालामुखी के कारण
उद्गार के आधार पर ज्वालामुखी के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

प्लेट विवर्तनिकी
विनाशी प्लेट किनारों के सहारे विस्फोटक प्रकार के ज्वालामुखी का उद्गार होता है। जब दो प्लेट आमने-सामने खिसकती हैं, तो उनकी आपसी टक्कर के कारण कम घनत्व वाली प्लेट नीचे चली जाती है और 100 किमी की गहराई में पहुँचकर पिघल जाती है एवं केन्द्रीय उद्भेदन के रूप में प्रकट होती है। ऐसी ज्वालामुखी क्रिया परिप्रशान्त मेखला में घटित होती है। रचनात्मक प्लेट किनारों के सहारे भी ज्वालामुखी क्रिया होती है। यहाँ महासागरीय कटक के सहारे दो प्लेट विपरीत दिशाओं में अग्रसर होती हैं, जिससे दाबमुक्ति के कारण मैण्टल का भाग पिघलकर दरारी उद्भेदन के रूप में प्रकट होता है।

कमजोर भू-पटल का होना
ज्वालामुखी उद्गार के लिए कमजोर भू-भागों का होना अति आवश्यक है। ज्वालामुखी का लावा कमजोर भू-भागों को ही तोड़कर धरातल पर आता है। प्रशान्त महासागर के तटीय भाग, पश्चिमी द्वीप समूह और एण्डीज पर्वत क्षेत्र के ज्वालामुखी इसके प्रमाण हैं।

भू-गर्भ में अत्यधिक तापमान का होना
यह उच्च तापमान वहाँ पर पाए जाने वाले रेडियोधर्मी (Radioactive) पदार्थों के विघटन, रासायनिक प्रक्रमों (Chemical Processes) तथा ऊपरी दबाव के कारण होता है। इस प्रकार अधिक गहराई पर पदार्थ पिघल जाता है और भू-तल के कमजोर भागों को तोड़कर बाहर निकल आता है।

गैसों की उत्पत्ति
गैसों में जलवाष्प सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। वर्षा का जल भू-तल की दरारों तथा रन्ध्रों द्वारा पृथ्वी के आन्तरिक भागों में पहुँच जाता है और वहाँ पर अधिक तापमान के कारण जलवाष्प में परिवर्तित हो जाता है। समुद्र तट के निकट समुद्री जल भी रिसकर नीचे की ओर चला जाता है और जलवाष्प बन जाता है। जब जल से जलवाष्प बनती है, तो उसका आयतन तथा दबाव बहुत बढ़ जाता है। अतः वह भू-तल पर कोई कमजोर स्थान पाकर विस्फोट के साथ बाहर निकल आती है।

ज्वालामुखी से निःसृत पदार्थ
ज्वालामुखी से गैस, तरल एवं ठोस तीनों प्रकार के पदार्थ निकलते हैं। ज्वालामुखी से बाहर निकलने वाली गैसों में 60-50% अंश जलवाष्प का हो होता है, जो वातावरण के सम्पर्क में आते हो शीतल होकर संघनित हो जाता है एवं मूसलाधार वर्षा (Torrential Rain) करता है। ज्वालामुखी से निकलने वाली गैसों में प्रज्वलित गैसे (हाइड्रोजन सल्फाइड व कार्बन डाइ-सल्फाइड) तथा अन्य गैसे (हाइड्रोक्लोरिक एसिड व अमोनिया क्लोराइड) सम्मिलित है। ज्वालामुखी से निकलने वाले ठोस पदार्थों में बारीक धूलकण (टेल्क) से लेकर बड़े-बड़े टुकड़े (थम), लैपिली (मटर के दाने जैसे) होते हैं। जब छोटे-छोटे नुकीले शिलाखण्ड लावा से चिपककर संगठित हो जाते हैं, उन्हें शंकोणाश्म (Conical) कहा जाता है। छोटे-छोटे टुकड़ों को स्कोरिया एव लावा के झाग से निर्मित पदार्थ को प्यूमिस कहते हैं।

ज्वालामुखी स्थलाकृतियाँ
ज्वालामुखी से बाह्य एवं अन्तर्वेधी स्थलाकृतियाँ निर्मित होती है। जिनका विवरण इस प्रकार है

बाह्य स्थलाकृतियाँ
ज्वालामुखी को बाह्य स्थलाकृतियाँ निम्न है 
  •  राख अथवा सिण्डर शंकु ज्वालामुखी निकास से बाहर हवा में उड़ा हुआ लावा शीघ्र ही ठण्डा होकर ठोस टुकड़ों में परिवर्तित हो जाता है, जिसे सिण्डर कहते हैं। विस्फोटोय ज्वालामुखो द्वारा जमा की गई राख तथा अंगारों से बनने वाली शंक्वाकार (Conical) आकृति को सिण्डर शंकु कहते है। सिण्डर शंकु हवाई द्वीप में अधिक पाए जाते हैं।
  • मिश्रित शंकु ये सबसे ऊंचे और बड़े शंकु होते हैं। इनका निर्माण लावा, राख तथा अन्य ज्वालामुखी पदार्थों के बारी-बारी से जमा होने से होता है। यह जमाव समानान्तर परतों में होता है। इसके ढलानों पर अन्य कई छोटे-छोटे शकु बन जाते हैं, जिन्हें परजीवी शंकु (Parasite Cone) कहते हैं।
जापान का फ्यूजीयामा, संयुक्त राज्य अमेरिका का शास्ता, रेनियर और हुड फिलीपीन्स का मेयान, अलास्का का एजकीम्ब तथा इटली का स्ट्राम्बोली मिश्रित शंकु के मुख्य उदाहरण है।

  • शंकुस्थ शंकु इन शंकुओं को घोंसला शंकु (Nested Cone) भी कहते हैं। प्राय: एक शंकु के अन्दर ही एक अन्य शंकु बन जाते हैं। ऐसे शंकुओं में विसुवियस का शंकु सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है। 
  • क्षारीय लावा शंकु अथवा लावा शील्ड पैठिक लावा में सिलिका की मात्रा कम होती है और यह अम्ल लावा की अपेक्षा अधिक तरल तथा पतला होता है। यह दूर-दूर तक फैल जाता है और कम ऊँचाई तथा मन्द ढाल वाले शंकु का निर्माण करता है। हवाई द्वीप का मोनालोआ शंकु इसका उत्तम उदाहरण है।
  • अम्ल लावा शंकु अथवा गुम्बद इसका निर्माण अम्ल लावा से होता है। इस लावा में सिलिका की मात्रा अधिक होती है। अतः यह काफी गाढ़ा तथा चिपचिपा होता है। यह ज्वालामुखी से निकलने के तुरन्त बाद उसके मुख के आस-पास जम जाता है और तीव्र ढाल वाले गुम्बद का निर्माण कर देता है। इटली में स्ट्राम्योली तथा फ्रांस में पाई डी डोम (Puy De Dome) इसके अच्छे उदाहरण है।
  • लावा पठार ज्वालामुखी विस्फोट से लावा निकलने पर विस्तृत पठारों का निर्माण होता है। भारत का दक्कन पठार (Deccan Plateau) इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। संयुक्त राज्य अमेरिका का कोलम्बिया पठार इसका एक अन्य महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
  • ज्वालामुखी पर्वत जब ज्वालामुखी उद्गार से शंकु बहुत बड़े आकार के हो जाते हैं, तो ज्वालामुखी पर्वतों का निर्माण होता है। इस प्रकार के पर्वत इटली, जापान तथा अलास्का में पाए जाते हैं। जापान का फ्यूजीयामा (Fujiyama) सबसे प्रमुख ज्वालामुखी पर्वत है।
अन्तर्वेधी स्थलाकृतियाँ
ज्वालामुखी की अन्तर्वेधी स्थलाकृतियाँ निम्न है
  • वैथोलिथ यह भू-पर्पटी में अत्यधिक गहराई पर निर्मित होता है एवं अनाच्छादन (Denudation) को प्रक्रिया के द्वारा भू-पटल पर प्रकट होता है ये ग्रेनाइट के बने पिण्ड हैं। मुख्यतः ये मैग्मा भण्डार के जमे हुए भाग है।
  • लैकोलिध यह गुम्बदनुमा विशाल अन्तर्वेधी चट्टान है, जिसका तल समतल व एक पाइपरूपी लावा बाहक नली से जुड़ा होता है। ऐसी आकृति कर्नाटक के पठार में मिलती है। इनमें अधिकतर चट्टाने अपत्रित (Exfoliated) हो चुकी है।
  • डाइक इसका निर्माण तब होता है, जब लावा का प्रवाह दरारों में धरातल के समकोण पर होता है। यह दीवार की भाँति संरचना बनाता है। पश्चिमी महाराष्ट्र क्षेत्र में इसके उदाहरण मिलते हैं। दक्कन ट्रेप के विकास में भी डाइक की भूमिका मानी जाती है।
सिल, लैपोलिथ एवं फैकोलिथ मैग्मा जब चट्टानों के बीच में क्षैतिज तल में चादर के रूप में ठण्डा होता है, तो यह सिल (Sill) कहलाता है, कम मोटाई वाले जमाव को शीट (Sheet) कहते हैं।
यदि मैग्मा या लावा तश्तरी (Saucer) की तरह जम जाए, तो लैपोलिथ कहलाता है, परन्तु जब चट्टानों की मोड़दार अवस्था में अपनति के ऊपर या अभिनति के तल में लावा का जमाव हो, तो फैकोलिथ (Phacolith) कहलाता है।
ज्वालामुखी का विश्व वितरण
ज्वालामुखी का विश्व वितरण निम्न प्रकार है 
  •  प्रशान्त महासागरीय पेटी प्रशान्त महासागर के पूर्वी तथा पश्चिमी तटों पर बड़ी संख्या में ज्वालामुखी पाए जाते हैं। यह एक विस्तृत पेटी है, जिसे प्रशान्त महासागर का अग्नि वलय (Ring of Fire of the Pacific Ocean) कहते हैं। इस पेटी का विस्तार पूर्वी तट पर दक्षिणी अमेरिका के हॉर्न अन्तरीप से लेकर उत्तरी अमेरिका के अलास्का तक है। पश्चिमी तट पर इसका विस्तार एशिया के पूर्वी तट के साथ-साथ है। यहाँ यह पेटी क्यूराइल द्वीप समूह, जापान, फिलीपीन्स तथा पूर्वी द्वीप समूह तक फैली हुई है। 
  • मध्य महाद्वीपीय पेटी यह पेटी यूरोप तथा एशिया के मध्यवर्ती भागों में आल्पस तथा हिमालय पर्वत के साथ-साथ पूर्व-पश्चिम में फैली हुई है।  
  • अफ्रीकन रिफ्ट घाटी यह अफ्रीका के पूर्वी भाग में झील क्षेत्र से लाल सागर तक विस्तृत है। इसका सबसे क्रियाशील ज्वालामुखी कैमरून पर्वत है। तंजानिया का किलिमंजारो एक मृत ज्वालामुखी है, जो रिफ्ट घाटी से बाहर स्थित है।
  • अन्य क्षेत्र कुछ ज्वालामुखी अटलाण्टिक महासागर में भी हैं। इस महासागर में केप वर्डे (Cape Verde) प्रमुख है। आइसलैण्ड में बीस से भी अधिक सक्रिय ज्वालामुखी हैं। एजोर्स, सैण्ट हेलेना आदि अन्य ज्वालामुखी द्वीप हैं।
ज्वालामुखी से मानव को लाभ
ज्वालामुखी से मानव को होने वाले लाभ निम्नवत् है

  • यह हमारे लिए प्राकृतिक सुरक्षा वाल्व (Safety Valve) के रूप में कार्य करता है। यह भू-गर्भ में निर्मित उच्च दाब को बाहर निकालने में सहायता करता है।
  • लावा से निर्मित रेगुर या काली मृदा कपास, गेहूं, गन्ना, तम्बाकू आदि फसलों के लिए विशेष उपजाऊ होती है।
  • ज्वालामुखी उद्भेदन से सोना, चाँदी, ताँबा आदि मूल्यवान खनिज प्राप्त होते हैं।
  • अधिक तापमान वाली भाप को संचित कर भू-तापीय ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है।
  • ज्वालामुखी प्रदेशों में गर्म जल के झरने मिलते हैं, जिनमें गन्धक प्राप्त होती है तथा चर्मरोग की चिकित्सा में सहायक होते हैं। 
  • मिस्र की नील नदी शान्त ज्वालामुखी के विदर में जल भरने से निर्मित विक्टोरियाझील से निकलती है।
  • पृथ्वी के आन्तरिक भाग की स्थिति का ज्ञान होता है।
  • लावा से ग्रेनाइट (आग्नेय) चट्टानों का निर्माण होता है।
  • दस हजार धूम्र घाटी, जहाँ से जलवाष्प एवं जल फव्वारे की तरह निकलता रहता है, जो पर्यटन में सहायक है।


वलन 
(Folds)

पृथ्वी के अन्तर्जात बल द्वारा उत्पन्न क्षैतिज संचलन के कारण जब भू-पटलीय चट्टानों में सम्पीडन द्वारा लहरनुमा मोड़ उत्पन्न हो जाते हैं, तो इस तरह के मोड़ों को वलन कहा जाता है। वलन में ऊपर उठे भाग अपनति तथा नीचे धँसे भाग अभिनति कहलाते है।

वलन के प्रकार
अधिवलन, सममित वलन, असमामित बलन, एकनत वलन, समनत वलन, परिवलित वलन, अधिक्षिप्त वलन, प्रतिवलन प्रोवा खण्ड आदि वलन के प्रमुख प्रकार है।

अधिवलन
इसमें वलन की दोनों ही भुजाएँ किसी एक दिशा में झुक जाती है तथा एक भुजा तीव्र दाल वाली तथा दूसरी भुजा धीमे ढाल वाली होती है। वलन का अक्ष टूटा हुआ नहीं होता केवल झुका हुआ होता है। उदाहरण के लिए, जम्मू-कश्मीर में हिमालय की पीर पंजाल श्रेणी।
सममित वलन
इस प्रकार के मोड़ में वलन की दोनों भुजाएँ समान रूप से झुकी हुई होती है तथा वलन का अक्ष धरातल पर लम्बवत् होता है। इसे सरल वलन या जूरा मोड़ भी कहा जाता है, क्योंकि जूरा पर्वत में इसी प्रकार के सरल वलन पाए जाते हैं। सममित वलन के उदाहरण विश्व में कम ही देखने को मिलते हैं।
असममित वलन
इस प्रकार के वलन में एक भुजा कम तथा दूसरी भुजा काफो झुकी हुई होती है। दूसरे शब्दों में, दोनों भुजाओं का झुकाव असमान होता है। असममित वलन में भी अक्ष धरातल के लम्बवत् ही होता है झुका हुआ या टूटा हुआ नहीं होता है।उदाहरण के लिए, ब्रिटेन के दक्षिणी पेननाइन, वृहत एवं लघु हिमालय आदि।
एकनत वलन
इस प्रकार के वलन में वलन को एक भुजा बिल्कुल खड़ी तथा दूसरी भुजा सामान्य झुकाव या ढाल वाली होती है। वास्तव में इस प्रकार के पर्वतों में एक ही भुजा होती है तथा अक्ष स्वयं दूसरी लम्बवत् खड़ी भुजा का कार्य करता है। यदि सम्पीडनात्मक बल केवल एक ही दिशा से आ रहा हो तो इस प्रकार के वलन का निर्माण सम्भव होता है। उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया की मध्य रेंज।
समनत वलन
यह अधिवलन की ही एक विकसित अवस्था है, जिसमे वलन की दोनों भुजाएँ समान रूप से झुककर एक-दूसरे के समानान्तर हो जाती हैं। ऐसा प्रायः तब होता है जब वलन की दोनों भुजाओं पर दोनों दिशाओं से समान सम्पीडनात्मक बल क्रियाशील होता है। इसमें वलन का दूसरा भाग लटका हुआ नजर आता है। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त में स्थित चिट्टा रेंज।
परिवलित वलन या शयान वलन
यह समनत वलन की आगे की विकसित अवस्था है, जिसमें अत्यधिक तीव्र क्षैतिज संचलन के कारण जब वलन की दोनों भुजाएँ समानान्तर के साथ-साथ क्षैतिज भी हो जाती हैं तथा पूरा वलन धरातल पर लेटा हुआ-सा लगता है। इसे दोहरा मोड़ भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन की केरीककैसल रेंज।
अधिक्षिप्त वलन
जब कभी क्षैतिज संचलन के कारण अधिक सम्पीडन के फलस्वरूप चट्टाने वलन अक्ष पर टूटकर एक-दूसरे पर चढ़ जाती है या फिर आगे बढ़कर किसी दूसरी चट्टान पर आरोपित नजर आती हैं और चट्टानों का क्रम उलट जाता है अर्थात् पुरानी चट्टाने ऊपर की ओर नई चट्टानें नीचे हो जाती हैं। चट्टानों में ऐसे उलट पुलट को ही उत्क्रम कहा जाता है। वलन का ऊपर की ओर उठा भाग ही अधिक्षिप्त वलन कहलाता है।
प्रतिवलन
जब अत्यधिक सम्पीडन के कारण वलन की एक भुजा दूसरे पर उलट जाती है, तो उसे प्रतिवलन कहते हैं। इस प्रकार के वलन में वलन की भुजाएँ क्षैतिज अवस्था में नहीं होती हैं।
ग्रीवा खण्ड
सम्पीडन की अत्यधिक तीव्रता के कारण जब किसी वलन की भुजा इतनी अत्यधिक मुड़ जाती है कि वह वलन के अक्ष पर टूट जाती है तथा छिटक कर दूर जा गिरती है, तो इसे ग्रीवा खण्ड कहा जाता है।
ग्रीवा खण्डों का सबसे अधिक क्रमबद्ध अध्ययन आल्पस पर्वत में हुआ है। यल चार प्रमुख ग्रीवा खण्डों का विशेष रूप से अध्ययन हुआ है। जिनका स्थिति के अनुसार नीचे से ऊपर की ओर क्रम हैं- हेल्वेटिक ग्रीवा खण्ड, पिनाइन ग्रोवा खण्ड, ऑस्ट्राइड ग्रीवा खण्ड तथा डिनाराइड ग्रीवा खण्ड। जब एक ग्रीवाखण्ड के ऊपर दूसरे ग्रीवा खण्ड के कुछ भाग के कट जाने से निचले ग्रीवा खण्ड का भाग दिखाई पड़ने लगता है, तो उस खुले हुए भाग को खिड़की कहा जाता है। आल्पस की तरह हिमालय पर्वत में भी ग्रीवा खण्डों के कुछ उदाहरण मिलते हैं। गढ़वाल तथा कुमाऊँ हिमालय में गढ़वाल नैपे तथा क्रॉल नैपे विशेष उदाहरण हैं। गढ़वाल नैपे में चट्टाने रवेदार नीस और शिष्ट हैं जिनमें ग्रेनाइट अन्तर्वेधित हैं। क्रॉल नैपे में मुख्य चट्टान क्वाट्र्जाइट है।
पंखाकार वलन
जब एक वृहत वलन की भू-अपनति एवं भू-अभिनति में अनेक छोटी-छोटी अपनतियाँ एवं अभिनतियाँ बन जाती हैं, तो उन्हें क्रमशः समपनति एवं समअभिनति कहा जाता है।
चूँकि इनकी आकृति पंखे की तरह होती है। अतः इन्हें पंखा वलन भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जमशेदपुर एक पंखाकार मोड़ पर ही बसा हुआ है, जो घिसने एवं कटने से ऊबड़ खाबड़ बन गया है।
समपनति में एक वृहद् अपनति के अन्तर्गत अनेक छोटी-छोटी अपनतियाँ एवं अभिनतियाँ होती हैं। उदाहरण स्कॉटलैण्ड के दक्षिणी उच्चभाग समअभिनति में एक वृहद् अभिनति के अन्तर्गत अनेक छोटी-छोटी अपनतियाँ एवं अभिनतियाँ होती हैं। उदाहरण पाकिस्तान का पोटवार का पठार।


भ्रंश 
(Fault)

अन्तर्जात बलों से उत्पन्न क्षैतिज संचलन के परिणामस्वरूप भू-खण्ड में तनाव एवं कभी अत्यधिक सम्पीडन होने पर शैलों का स्थानान्तरण होने लगता है। जब तनाव सामान्य रहता है तो भू-पटल पर केवल चटकने उत्पन्न होती हैं, किन्तु तनाव के अधिक प्रबल होने पर शैलों में विभंग उत्पन्न हो जाते हैं।
हालाँकि भ्रंश की उत्पत्ति सम्पीडन तथा तनाव दोनों के द्वारा हो सकती है, परन्तु इसमें तनाव बल का स्थान अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। भ्रंश अनेक प्रकार के होते हैं और इनसे अनेक विशिष्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।

भ्रंश की संरचना के प्रमुख भाग

भ्रंश की संरचना के प्रमुख भाग इस प्रकार है। 
  • भ्रंश तल वह सतह जिसके सहारे संचलन होने से चट्टानों का स्थानान्तरण होता है।
  • भ्रंश नति यह भ्रंश तथा क्षैतिज तल के बीच का कोण है।
  • शीर्ष भित्ति यह भ्रंश की ऊपरी दीवार है।
  • पाद भित्ति यह भ्रंश की निचली दीवार है।
  • शिफ्ट यह किसी भ्रंश की चट्टानों में होने वाली कुल गति है। स्लिप यह किसी भ्रंश के सहारे होने वाली सापेक्षिक गति है।
  • थ्रो यह चट्टानी संरचना में होने वाला कुल ऊर्ध्वाधर विस्थापन है।
  • हीव जब भ्रंश झुका हुआ हो, तो पार्शिवक विस्थापन हीव कहलाता है।
  • हेज यह भ्रंश तल का ऊर्ध्व के साथ कोण है। 
  • भ्रंश रेखा यह धरातल पर दिखने वाले भ्रंश के चिह्न है।
  • भ्रंश कगार भ्रंश के कारण स्थलीय सतह पर निर्मित खड़े ढाल वाले किनारे को भ्रंश कगार कहते हैं। ये खड़े ढाल वाले क्लिक के समान प्रतीत होते हैं।
  • भ्रंश रेखा प्राचीन भ्रंशों के सहारे चट्टानों के विभन्दक अपरदन से जब कगार कगार निर्मित होते हैं, तो उसे भ्रंश रेखा कगार कहते हैं। भ्रंश कगार की उत्पत्ति विवर्तनिक है, जबकि भ्रंश रेखा कगार संरचना नियन्त्रित अपरदन आकृति की होती है।
भ्रंश के प्रकार
भ्रंश के विभिन्न प्रकार निम्न है

सामान्य भ्रंश
इस भ्रंश में क्षैतिज विस्थापन का मान पार्श्वक्षेप कहलाता है। तनाव के कारण जब दो खण्ड विपरीत दिशाओं में खिसकते हैं, तो उसे सामान्य भ्रंश कहते हैं। इसमें भ्रंश तल खड़े ढाल वाला या लगभग लम्बवत् वाला होता है। सामान्य भ्रंश द्वारा निर्मित खड़े ढाल वाले कगार को भ्रंश कगार कहा जाता है। सामान्य भ्रंशन के कारण भू-पटल का विस्तार होता है। सामान्य भ्रंश तनाव के कारण विकसित होते हैं।
विपरीत या उत्क्रम भ्रंश
जब चट्टानों के दोनों खण्ड आमने-सामने खिसकते हैं व एक खण्ड दूसरे पर चढ़ जाता है, तो निर्मित भ्रंश व्युत्क्रम भ्रंश कहलाता है।
व्युत्क्रम भ्रंश में संपीडन के कारण भू-पटल में सिकुड़ाव होता है। इस भ्रंश में भ्रंश तल का ढाल सामान्य होता है।
अमिक्षैपित भ्रंश
ये एक प्रकार के उत्क्रम भ्रंश ही होते हैं, जिनमें भ्रंश का निर्माण प्रायः शयान वलनों के मध्यीय पाश्र्वों में होता है।
सोपानी भ्रंश
इसमें अनेक भ्रंश एक-दूसरे के समानान्तर हुआ करते हैं और सब में भू-खण्ड के ऊपर उठने या नीचे धँसने की गति एक ही दिशा में होती है। ऊँचाई से देखने पर भूमि सीढ़ीनुमा प्रतीत होती है। उदाहरण के लिए, यूरोप की राइन घाटी सोपानी भ्रंशों पर ही बनी है।
पाश्र्वीय या नतिलम्बी सर्पण या विदारण भ्रंश
इसमें दो विपरीत दिशाओं से दबाव आने के कारण दोनों ओर के भू-खण्ड भ्रंश तल के सहारे ऊपर उठने या नीचे धँसने के बजाय क्षैतिज दिशा में आगे-पीछे खिसक जाते हैं। उदाहरण के लिए, कैलिफोर्निया का सन एण्ड्रियास भ्रंश एवं हिमालय के गढ़वाल उत्तरकाशी क्षेत्र में इस भ्रंश का उदाहरण मिलता है। जब स्ट्राइक स्लिप भ्रंश में चट्टानों का सापेक्षिक विस्थापन दाईं ओर हो, में तो इसे दाएँ पाविक भ्रंश या डेक्सट्रल भ्रंश कहते हैं। जब स्ट्राइक स्लिप भ्रंश में चट्टानों का सापेक्षिक विस्थापन बाईं ओर हो, तो इसे बाईं पाविक अंश या सिनिस्ट्रल भ्रंश कहा जाता है।
स्ट्राइक स्लिप भ्रंश को रेंच भ्रंश या ट्रान्स करण्ट भ्रश भी कहा जाता है। से भ्रंश मुख्यतः प्लेट मार्जिन से सम्बन्धित होते हैं।
भ्रंश से उत्पन्न स्थलाकृतियाँ
भ्रंश से उत्पन्न स्थलाकृतियों का वर्णन निम्न है 
भ्रंश घाटी
दो सामान्य भ्रंशों के बीच धंसी हुई भूमि को भ्रंश घाटी कहा जाता है। यह गहरी, लम्बी एवं संकरी होती है। इसे जर्मन भाषा में ग्रैबेन कहा जाता है। यूरोप की राइन नदी, एशिया की जॉर्डन घाटी आदि भ्रंश घाटी के उदाहरण हैं।
भारत में नर्मदा तथा दामोदर नदी घाटियाँ भी भ्रंश घाटी हैं। स्कॉटलैण्ड का मध्यवर्ती मैदान तथा दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया की स्पेन्सर खाड़ी भी रिफ्ट घाटियों के उदाहरण हैं। कुछ रिफ्ट घाटियाँ सागर तल से नीचे पाई जाती हैं; जैसे- अमेरिका की डेथ वैली, एशिया की मृत सागर आदि।
रैम्प घाटी
कभी-कभी दो समानान्तर भ्रंशों के दोनों ओर के भू-खण्ड ऊपर की और उठ जाते हैं, जिसके कारण बीच की भूमि नीची रह जाती है। ऐसी घाटी रैम्प घाटी कहलाती है। असोम घाटी जिससे होकर ब्रह्मपुत्र नदी बहती है, इस प्रकार की घाटी का एक उदाहरण है।
होर्स्ट या ब्लॉक पर्वत
जब किसी भू-भाग में दो सामान्य भ्रंश के बीच में स्थित भू-खण्ड ऊपर उठ जाएँ या दोनों ओर के किनारों के भू-खण्ड नीचे खिसक जाएं, तो बीच का ऊपर उठा भू-खण्ड होस्टं या ब्लॉक पर्वत कहलाता है। यूरोप के हार्ज, ब्लैक फॉरेस्ट तथा वास्जेज तथा भारत में सतपुड़ा ब्लॉक पर्वतों के उदाहरण है।
मिश्रित शंकु का निर्माण लावा तथा राख की एक परत के बाद दूसरी परत जमने से होता है। अमेरिका का माउण्ट शीस्ता, हुड तथा जापान का फ्यूजीयामा मिश्रित शंकु के उदाहरण है। जब ज्वालामुखी मुख्य क्रेटर से उद्गार न होकर उसके पार्श्व या नए-नए केन्द्रों से उद्गार हो, तो इन्हें मुख्य शंकु पर परिपोषित शंकु कहते हैं।

महाद्वीपीय प्रवाह 
(Continental Drift)

स्थलखण्ड विभिन्न प्रारूपों में गतिशील होता है। स्थल खण्ड किसी-न-किसी महाद्वीप का भाग है, जिससे महाद्वीप भी गतिशील होता है। महाद्वीपीय प्रवाह कहलाता है।
महाद्वीपीय विस्थापन को सिद्धान्त के रूप में अमेरिकी भू-वैज्ञानिक एफ बी टेलर ने वर्ष 1908 में प्रस्तुत किया। उन्होंने मत व्यक्त किया कि स्थल भागों का क्षैतिज दिशा में स्थानान्तरण हुआ है।
उनका मुख्य उद्देश्य टर्शियरी युग के वलित पर्वतों का भौगोलिक अध्ययन करना था। टेलर ने बताया कि रॉकीज एवं एण्डीज पर्वतों का विस्तार उत्तर दक्षिण दिशा में है, जबकि आल्पस एवं हिमालय का विस्तार पूर्व-पश्चिम दिशा में है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने अपना महाद्वीपीय विस्थापन का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
वेगनर ने वर्ष 1912 में महाद्वीपों की उत्पत्ति तथा उनके वितरण के सम्बन्ध में अपना महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त प्रस्तुत किया। महाद्वीपों के आकार, पर्वत श्रेणियों के विस्तार चट्टानों एवं जीवाश्मों के वितरण आदि को देखकर उन्होंने यह विचार व्यक्त किया कि पृथ्वी के इतिहास में महाद्वीप अपने वर्तमान स्थान पर नहीं थे, बल्कि महाद्वीपों का विस्थापन हुआ है।

वेगनर का महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धान्त
वेगनर का मुख्य उद्देश्य पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी समस्या का समाधान करना था। पृथ्वी पर अनेक क्षेत्रों में ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिनके आधार पर यह ज्ञात होता है कि एक ही स्थान पर जलवायु में समय-समय पर अनेक परिवर्तन हुए संसार के मध्यवर्ती अक्षांशों के ठण्डे प्रदेशों में कोयले का पाया जाना यह हैं। प्रमाणित करता है कि कार्बोनिफेरस युग में वहाँ की जलवायु उष्ण एवं आर्द्र धो तथा वनस्पति घने वनावरण के रूप में थी जिसके दबने से कोयले के निर्माण में सहायता मिली।
इसके विपरीत प्रायद्वीपीय भारत, दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील जहाँ अभी जलवायु उष्ण है, में हिमावरण के कुछ चिह्न पाए जाते हैं जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहाँ पर कभी जलवायु अत्यन्त शीतल रही होगी। जलवायु सम्बन्धी इन विभेदों को ढूँढना ही वेगनर का मुख्य उद्देश्य था।
सामान्यतः इन विभेदों को दो रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है।
  • स्थल भाग तो स्थिर रहे जबकि जलवायु कटिबन्धों में परिवर्तन होता रहा है। जिस कारण किसी स्थान पर कभी शीत, कभी उष्ण तो कभी शुष्क या आर्द्र जलवायु का विस्तार होता रहा है।
  • जलवायु कटिबन्ध स्थिर रहे हैं और स्थल भागों का एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानान्तरण होता रहा है।
वेगनर को जलवायु कटिबन्धों में परिवर्तन होने का कोई प्रमाण नहीं मिला। अतः उसने जलवायु विभेदों की व्याख्या करने के लिए उपयुक्त दूसरी संकल्पना के अनुसार महाद्वीपीय विस्थापन को अपने सिद्धान्त का आधार बनाया।

सिद्धान्त का प्रधान रूप
वेगनर ने बताया की कार्बोनिफेरस युग में संसार के सभी स्थल भाग एक- दूस से संलग्न थे तथा एक महान् स्थलखण्ड के रूप में उपस्थित थे। वेगनर ने इस महान् स्थलखण्ड को पैन्जिया कहा है। पैन्जिया के उत्तरी भाग में उत्तरी अमेरिका, यूरोप तथा एशिया थे, जिन्हें संयुक्त रूप से लॉरेशिया कहा जाता है।
पैन्जिया के दक्षिणी भाग में दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, प्रायद्वीपीय भारत, ऑस्ट्रेलिया तथा अण्टार्कटिक महाद्वीप थे, जिन्हें गोण्डवाना लैण्ड कहा जाता है। पैन्जिया चारों ओर से एक विशाल महासागर से घिरा हुआ था, जिसे पेन्थालासा कहा जाता है। लोरेशिया तथा गोण्डवाना लैण्ड स्थलखण्डों के मध्य एक लम्बा और संकरा छिछला सागर था, जिसे टेथिस सागर कहा जाता है। आगे चलकर पैन्जिया का विभंजन हो गया तथा स्थल भाग एक-दूसरे से अलग हो गए, परिणामस्वरूप महासागरों एवं महाद्वीपों का वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ।

महाद्वीपों के प्रवाह के लिए उत्तरदायी शक्तियाँ 
वेगनर ने पैन्जिया के विभिन्न भागों के विस्थापन के लिए निम्नलिखित दो शक्तियों को उत्तरदायी माना है

  • गुरुत्वाकर्षण बल तथा प्लवनशीलता का बल वेगनर के अनुसार महाद्वीप अपेक्षाकृत कम घनत्व वाले सियाल के बने हुए हैं। और वे अधिक घनत्व वाली सीमा (समुद्री तलहटी की चट्टानें) पर स्वतन्त्र रूप से तैर रहे हैं। इनके ऊपर गुरुत्वाकर्षण तथा प्लवनशीलता के बल अपना प्रभाव डालते हैं। जिसके अधीन महाद्वीपीय खण्ड भूमध्य रेखा की ओर विस्थापित होते हैं। यह विस्थापित तैरते हुए स्थल भाग गुरुत्व केन्द्र तथा उसके प्लवनशीलता केन्द्र के सम्बन्धों पर आधारित हैं। यह दोनों बल प्रायः विपरीत दिशा में कार्य करते हैं, परन्तु पृथ्वी पूर्ण रूप से गोलाकार न होकर अण्डाकार रूप में है इसलिए ये बल प्रत्यक्ष रूप में विपरीत दिशा में नहीं होते। यदि प्लवनशीलता बिन्दु, गुरुत्व केन्द्र के नीचे होता है, तो गति भूमध्य रेखा की ओर होती है।
  • ज्वारीय बल वेगनर के अनुसार महाद्वीपों के विस्थापन के लिए दूसरा कारण 'ज्वारीय बल' था। सूर्य तथा चन्द्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण पृथ्वी पर ज्वारीय बल उत्पन्न हो जाता है। वेगनर की मान्यता है कि जब चन्द्रमा की घूर्णन गति तीव्र रही होगी उस समय यह बल भी अधिक प्रबल रहा होगा। पृथ्वी पश्चिम से पूर्व दिशा में घूर्णन करती है, जिसमें ज्वारीय शक्ति व्यवधान उत्पन्न करती है, जिसके फलस्वरूप महाद्वीपीय भाग घूर्णन में पृथ्वी का साथ नहीं दे पाते तथा पीछे छूट जाते हैं तथा पश्चिम की ओर विस्थापित हो जाते हैं। इस प्रकार ज्वारीय शक्ति के अधीन उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका पश्चिमी दिशा में खिसकने लगे तथा गुरुत्वाकर्षण बल तथा प्लवनशीलता बल के संयुक्त प्रभाव के कारण बहुत से भाग भूमध्य रेखा की ओर खिसकने लगे। वेगनर के अनुसार कार्बोनिफेरस युग में पैन्जिया की टूटने की प्रक्रिया शुरू हुई। उत्तर में स्थित गोण्डवाना लैण्ड एक-दूसरे के निकट आ गए, जिससे टेथिस सागर का आकार छोटा होता गया। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी दिशा में खिसकने से अटलाण्टिक महासागर लगभग 1000 किमी चौड़ा हो गया था। प्रायद्वीपीय भारत के उत्तर की ओर खिसकने से हिन्द महासागर का विस्तार भी बढ़ा । वेगनर के अनुसार सारा विस्थापन अफ्रीका के सन्दर्भ में हुआ। उस समय दक्षिणी ध्रुव अफ्रीका में नटाल के निकट था। वेगनर की मान्यता है कि भूमध्य रेखा तथा ध्रुवों की स्थिति में भी पर्याप्त अन्तर हुआ है। ध्रुवों की स्थिति में परिवर्तन की प्रक्रिया को वेगनर ने ध्रुवों का भ्रमण की संज्ञा दी है सिल्यूरिन युग में भूमध्य रेखा सर्वाधिक उत्तर में थी और वह नॉव के उत्तर से होकर गुजरती थी। कार्बोनिफेरस युग में भूमध्य रेखा ब्राजील तथा यूरेशिया के मध्य में से होकर जाती थी तथा टर्शियरी युग में वर्तमान अल्पाइन पर्वतीय क्षेत्र से होकर गुजरती थी।
  • पर्वत निर्माण वेगनर ने अपने विस्थापन के सिद्धान्त की सहायता से मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति की समस्या को भी सुलझाने का प्रयास किया है। वेगनर के अनुसार जब उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका पश्चिम की ओर विस्थापित हो रहे थे तब इन महाद्वीपों के पश्चिमी किनारों पर सीमा के प्रतिरोध के कारण वलन पड़, गए जिससे रॉकी तथा एण्डीज पर्वतों का निर्माण हुआ। इसी प्रकार उत्तर से यूरेशिया तथा दक्षिण से अफ्रीका तथा प्रायद्वीपीय भारत के भूमध्य रेखा की ओर विस्थापित होने से टेथिस सागर की भू-अभिनति में वलन पड़ गए जिससे हिमालय तथा आल्पस जैसे वलित पर्वतों का निर्माण हुआ।

वेगनर के सिद्धान्त के पक्ष में विचार

  • साम्य स्थापना वेगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व विश्व के विभिन्न स्थल खण्डों के बीच साम्य स्थापना है। वेगनर ने बताया कि अटलाण्टिक महासागर के पूर्वी तथा पश्चिम तटों की रूपरेखा को देखने से यह प्रतीत होता है कि ये सभी स्थल पहले एक साथ थे। बाद में उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के पश्चिम की ओर खिसकने से अटलाण्टिक महासागर का निर्माण हुआ। ब्राजील के उभार को गिनी की खाड़ी में भली-भाँति मिलया जा सकता है। इसी प्रकार पश्चिम ग्रीनलैण्ड, बैफिन लैण्ड, एल्समी लैण्ड तथा उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट के अन्य भागों का पश्चिम यूरोप के तट के साथ निकट का सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। अटलाण्टिक महासागर के मध्य जल मग्न कटक की उपस्थिति भी वेगनर के सिद्धान्त की पुष्टि करती है, क्योंकि इस कटक के साथ पश्चिम में स्थित उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका तथा पूर्व में स्थित यूरोप तथा अफ्रीका को मिलाया जा सकता है।
  • भू-वैज्ञानिक समानता अटलाण्टिक महासागर के पूर्व तथा पश्चिम स्थित  बल भागों की भू-वैज्ञानिक रचना में भी समानता वेगनर के विचारों की पुष्टि करती है। अमेरिका तथा यूरोप में स्थित हसनियन वलन दोनों जोड़ो को मिलाने पर एक रेखा पर बैठते हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ये एक ही पर्वत माला के टूटे हुए हिस्से हैं।  बैली ने वेगनर के सिद्धान्त का समर्थन करते हुए बताया कि उत्तरी ब्रिटेन के कैलिडोनियन वलन अमेरिका में अप्लेशियन के रूप मे विकसित है। जोकि हसनियन वलन को पेन्सिलवेनिया में काटते हैं। इससे अमेरीका हर्सिनियन वलन कैलिडोनियान वलन के उत्तर में पश्चिमी स्पिट्सवर्जन और पूर्वी ग्रीनलैण्ड तक फैले हैं। इसी प्रकार दक्षिणी अटलाण्टिक महासागर के दोनों ओर तटों की भू-वैज्ञानिक संरचना में समानता दिखाई देती है। ब्राजीलाइड वलन उत्तर दक्षिण दिशा में ब्राजील से उरुग्वे होते हुए 27° दक्षिणी अक्षांश पर दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी तट पर दिखाई देते हैं। इसी प्रकार गोण्डवानाइड्स नामक वलन दक्षिणी अमेरिका में अर्जेण्टाइना से प्रारम्भ होकर अफ्रीका के केप प्रान्त तक विस्तृत है।
  • वलित पर्वतों का निर्माण विश्व में नवीन वलित पर्वतों का वितरण भी वेगनर के विस्थापन सिद्धान्त के आधार पर दर्शाया जा सकता है। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के रॉकीज तथा एण्डीज पर्वतों का निर्माण इन महाद्वीपों के पश्चिम दिशा में खिसकने से हुआ। इसी प्रकार हिमालय, आल्पस तथा एटलस पर्वत श्रेणियों का निर्माण लॉरेशिया तथा गोण्डवाना लैण्ड के भूमध्य रेखा की ओर खिसकने से टेथिस सागर के तलछट में वलन पड़ने के फलस्वरूप हुआ है।
    • पुरा जलवायु प्रमाण कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि आज से लगभग 30 करोड़ वर्ष पहले कार्बोनिफेरस युग में दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, मालागासो, प्रायद्वीपीय भारत, दक्षिणी व पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया, तस्मानिया तथा अण्टार्कटिका महाद्वीप में बहुत शीतल जलवायु थी। वर्तमान युग में दक्षिण अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया तथा प्रायद्वीपीय भारत उष्ण अथवा उपोष्ण कटिबन्ध में स्थित हैं। इन क्षेत्रों में इतने बड़े पैमाने पर जलवायु सम्बन्धी परिवर्तन केवल महाद्वीपों के विस्थापन द्वारा ही स्पष्ट किए जा सकते हैं। वेगनर ने कार्बोनिफेरस युग के हिमानीकरण का एक मानचित्र तैयार किया जिसमें उन्होंने बताया कि उस समय अण्टार्कटिका महाद्वीप दक्षिण अमेरिका तथा प्रायद्वीपीय भारत एक-दूसरे के साथ जुड़े हुऐ थे। बाद में वे विस्थापन के कारण अपनी वर्तमान स्थिति में आ गए।
    • पुरा जीवाश्मी प्रमाण अटलाण्टिक महासागर के पूर्वी एवं पश्चिमी तटों पर मीजोसोर्स जन्तु तथा ग्लोसोप्टेरिस वनस्पति के जीवाश्मों में बहुत साक्ष्य पाया जाता है। इनके जीवाश्म दक्षिण अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, भारत व ऑस्ट्रेलिया तथा अण्टार्कटिका में इनके जीवाश्मों का पाया जाना महाद्वीपीय विस्थापन की संकल्पना को ठोस आधार प्रदान करता है अर्थात् ये भू-खण्ड पहले आपस में जुड़े हुए थे। मीजोसोर्स जलीय सरीसृप के जीवाश्म दक्षिणी-पूर्वी अमेरिका तथा दक्षिणी अमेरिका में ही मिलते हैं।
    यदि मोजोसोर्स तैर सकता तो उसका वितरण समीपवर्ती महाद्वीपों अर्थात् उत्तर अमेरिका तथा यूरोप में भी मिलता, परन्तु वास्तविक स्थिति यह नहीं है इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इन जीवों का यह वितरण दोनों भू-खण्डों के जुड़े होने के कारण ही सम्भव हो सकता है।
    इसी प्रकार लिस्टरोसोर्स के जीवाश्म दक्षिणी अफ्रीका, अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, दक्षिणी तथा अण्टार्कटिका में मिलते हैं। ये जीव पुराजीवी तथा मध्य जीवी महाकाल के स्तनधारी सदृश्य सरीसृप थे। ये जीव स्थलवासी थे, जो विशाल महासागरों को तैरकर पार करने में असमर्थ थे। इससे यह सिद्ध होता है कि ये सभी दक्षिणी महाद्वीप प्राचीनकाल में एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।
        • जन्तुओं का व्यवहार स्कैण्डेनेविया के उत्तरी भाग में लेमिंग्ज जैसे कुछ ऐसे जीव पाए जाते हैं, जो ऋतु विशेष में पश्चिम की ओर यात्रा करते हैं। पश्चिम में अटलाण्टिक महासागर के तट पर पहुंचकर ये महासागर में कूदकर अपने प्राण दे देते हैं। इन जीवों के इस प्रकार के आचरण से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि ये जोव किसी ऐसे भू-खण्ड की खोज में निकलते हैं, जिनसे उनके पूर्वज परिचित थे, किन्तु वह भू-खण्ड अब वहाँ नहीं है। परन्तु जीवों की यह आदत अभी भी बनी हुई है।
        • विश्व में कोयले का वितरण विश्व के अधिकांश कोयले क्षेत्र यूरेशिया में पाए जाते हैं। विद्वानों का विचार है कि कोयले का निर्माण कार्बोनिफेरस युग में वनस्पति के दबने तथा सड़ने से हुआ है, परन्तु वर्तमान जलवायु को देखते हुए इन प्रदेशों में इतनी अधिक वनस्पति की कल्पना करना कठिन है। वेगनर ने बताया कि कार्बोनिफेरस युग में भूमध्य रेखा यूरेशिया से होकर गुजरती थी इसलिए उस समय वहाँ पर उष्णकटिबन्धीय जलवायु पाई जाती थी। अत: वहाँ पर घने वनों का विकास हुआ, जिसके दब जाने से बाद में कोयले का निर्माण हुआ।
        वेगनर के सिद्धान्त के विपक्ष में विचार
        वेगनर तथा उसके अनुयायियों ने महाद्वीपीय विस्थापन के सिद्धान्त को ठोस आधार देने का अत्यधिक प्रयत्न किया और इसके लिए पर्याप्त सामग्री भी एकत्रित की, परन्तु इसमें अनेक त्रुटियाँ रह गई, जिससे इस सिद्धान्त को कटु आलोचना का सामना करना पड़ा। इसके विपक्ष में निम्नलिखित विचार प्रकट किए जाते हैं

        •  साम्य विस्थापन में त्रुटि वेगनर के सिद्धान्त का मूल तत्त्व महाद्वीपों की साम्य स्थापना है, परन्तु अनेक विद्वानों ने इसे त्रुटिपूर्ण बताया है। उनका विचार है कि साम्य विस्थापना किसी सीमा तक ही शुद्ध है। यदि दक्षिणी अमेरिका को गिनी के तट से मिलाया जाए, तो उसमें 15° का अन्तर रह जाता है।
        • विस्थापन की दिशा से असहमति वेगनर ने विस्थापन के लिए दो दिशाओं का वर्णन किया है, एक विस्थापन पश्चिम की ओर तथा दूसरा भूमध्य रेखा की ओर हुआ। एफ बी टेलर ने दोनों ध्रुवों को विस्थापन का केन्द्र माना है। उनके अनुसार हिमालय, उसके हिमालय, आल्पस तथा रॉकी पर्वत श्रेणियाँ तथा पूर्वी एवं पश्चिमी द्वीप समूह ऐसे विस्थापन की ही बाह्य सीमाएँ हैं। जे डब्ल्यू इवान्स ने अफ्रीका महाद्वीप को ही विस्थापन का केन्द्र माना है। उनका विचार है कि अफ्रीका से विस्थापन पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण की ओर प्रशान्त महासागर के केन्द्र की ओर बढ़ा।
        • महाद्वीपों का वर्तमान वितरण विस्थापन के अनुकूल नहीं वेगनर की मान्यता है कि महाद्वीपों का एक विस्थापन भूमध्य रेखा की ओर हुआ यदि यह सत्य है, तो अधिकांश महाद्वीपों को भूमध्य रेखा के पास ही एकत्रित होना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं है। होम्स का कथन है कि महाद्वीप भूमध्य रेखा के पास अधिक मात्रा में एकत्रित नहीं हैं, इसलिए कोई अन्य शक्ति कार्यरत् रही होगी।
        • विस्थापन के लिए शक्तियों का अपर्याप्त होना पश्चिम दिशा तथा भूमध्य रेखा की ओर विस्थापन के लिए वेगनर ने जिन शक्तियों का उल्लेख किया है, विद्वानों ने उन्हें बहुत ही अपर्याप्त बताया है और इनकी कड़ी आलोचना की है। महाद्वीपों का पश्चिम की ओर विस्थापन करने के लिए वेगनर ने जिस ज्वारीय शक्ति का वर्णन किया है। वह वर्तमान ज्वारीय शक्ति से 1,000 करोड़ गुनी अधिक होनी चाहिए। पहले तो इतनी अधिक ज्वारीय शक्ति नितान्त ही असम्भव है और यदि इसे सम्भव मान भी लिया जाए, तो यह एक वर्ष में ही पृथ्वी के घूर्णन को समाप्त कर देगी। वेगनर द्वारा महाद्वीपों का भूमध्य रेखा की ओर विस्थापन का कारण गुरुत्वाकर्षण तथा प्लावनता के केन्द्र के बीच अन्तर बताया गया है। यह शक्ति 45° अक्षांश पर अधिकतम है, परन्तु वहाँ पर भी यह गुरुत्वाकर्षण बल का 1/20 से 1/30 लाखवाँ भाग ही है। इतने थोड़े बल द्वारा अधिक श्यानता वाले अधःस्तर में महाद्वीप गति नहीं कर सकते।
        • वलन सम्बन्धी आपत्ति वेगनर का विचार है कि पश्चिम विस्थापन के कारण रॉकीज तथा एण्डीज पर्वत श्रेणियों तथा विषुवतरेखीय से आल्पस तथा हिमालय पर्वत श्रेणियों का निर्माण हुआ, वेगनर के विरुद्ध विलिस ने यह आपत्ति प्रस्तुत की है कि सियाल से सीमा अधिक दृढ़ है किन्तु सियाल में शक्ति अधिक है। अतः पश्चिमी विस्थापन द्वारा रॉकीज तथा एण्डीज का निर्माण कदापि सम्भव नहीं है। बोवी ने भी सीमा को शक्तिहीन माना है और बताया कि सियाल के सीमा से टकराने से वलन नहीं पड़ सकते हैं। कुछ विद्वानों ने वेगनर के सीमा के ऊपर तैरते तथा उसमें वलन पड़ने कथन को विरोधाभास बताया है। उनका विचार है कि यदि सियाल सीमा से अधिक दृढ़ है, तो उसमें वलन नहीं पड़ सकते और सीमा के ऊपर विस्थापन नहीं हो सकता। 
        • समय सम्बन्धी आपत्ति अनेक वैज्ञानिकों ने वेगनर सिद्धान्त के विरुद्ध समय सम्बन्धी आपत्ति उठाई है। वेगनर ने यह माना है कि पैन्जिया का विघटन पुराजीव कल्प में शुरू हुआ। विद्वानों की आपत्ति है कि इस युग से पहले इसे किस शक्ति ने जोड़े रखा। यह विघटन इस काल से पहले या बाद में क्यों नहीं आरम्भ हुआ।
        प्लेट विवर्तनिकी 
        (Plate Tectonics)

        स्थलीय दृढ़ भूखण्डों को प्लेट कहा जाता है। प्लेट शब्द का नामकरण सर्वप्रथम दूजो विल्सन के द्वारा किया गया। वर्ष 1962 में हैरी हैस ने महाद्वीपीय भागों से सम्बन्धित अपना प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार सभी महाद्वीप एवं महासागर विभिन्न प्लेटों के ऊपर स्थित हैं, जो हमेशा संचरणशील हैं। प्लेट विवर्तनिकी में संवाहन तरंगों का सिद्धान्त समाहित है। इनकी गति के कारण ही कार्बोनिफेरस काल का विशाल स्थलखण्ड पैन्जिया का विखण्डन हुआ तथा विखण्डन से निर्मित प्लेटों के स्थानान्तरण से महाद्वीपों तथा महासागरों को वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ।
        प्लेट के प्रकार
        स्थल मण्डलीय प्लेटों की वास्तविक संख्या का सही निर्धारण एक कठिन कार्य है, परन्तु विवर्तनिक क्रियाओं के आधार पर अब तक 6 प्रमुख तथा 20 लघु प्लेटों का निर्धारण किया गया है, जो निम्नलिखित हैं
        • प्रशान्त प्लेट यह मुख्यतः एक महासागरीय प्लेट है, जिसके अन्तर्गत प्रशान्त महासागर का अधिकांश भाग सम्मिलित है।
        • अमेरिकी प्लेट इसके अन्तर्गत उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिकी तथा एटलाण्टिक महासागर का पश्चिमी आधा भाग सम्मिलित है। 
        • इण्डियन प्लेट इसे ऑस्ट्रेलियन प्लेट भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत टर्की से बर्मा तक हिमालय तथा अन्य पर्वतमालाओं के दक्षिण में स्थित, हिन्द महासागर, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड तथा प्रशान्त महासागर के दक्षिणी-पश्चिमी भाग शामिल है। 
        • यूरेशियन प्लेट इसमें यूरोप, एशिया तथा उत्तरी एटलाण्टिक का पूर्वी भाग शामिल है। 
        • अफ्रीकी प्लेट इसमें अफ्रीका, मैडागास्कर, दक्षिणी एटलाण्टिक का आधा पूर्वी भाग तथा हिन्द महासागर का पश्चिमी आधा भाग शामिल है। 
        • एण्टार्कटिक प्लेट इसमें एण्टार्कटिक महाद्वीप तथा इसके चारों ओर सागरीय तली शामिल है।
        मुख्यतः महाद्वीपों का निर्माण करने वाली प्लेट को महाद्वीपीय प्लेट तथा मुख्यतः महासागरों तल का निर्माण करने वाली प्लेट को महासागरीय प्लेट कहा जाता है। हालांकि कोई भी प्लेट (प्रशान्त प्लेट को छोड़कर) पूर्णतः महाद्वीपीय या पूर्णतः महासागरीय नहीं है।
        इसी प्रकार यूरेशियन प्लेट एक ऐसी प्लेट है, जो अधिकांशतः महाद्वीपीय पर्पटी से निर्मित है। प्लेटों के अन्तर्गत भू-पर्पटी तथा उसके नीचे स्थित मैण्टल का ऊपरी भाग सम्मिलित है। यह स्थलमण्डल दृढ़ व कठोर प्लेटों का एक समुच्चय है, जिसके नीचे दुर्बलतामण्डल स्थित है।
        स्थलमण्डल की इन दृढ एवं कठोर प्लेटो का समुच्चय दुर्बलता मण्डल के अस्थिर एवं कमजोर क्षेत्र के ऊपर उठकर दाएं-बाएँ पाश्र्वों की ओर प्रसारित होता रहता है, जिसके प्रभाव से प्लेटों के पाश्र्वों पर हलचल होती रहती है, जिससे प्लेटों के किनारों पर भ्रंशन, वलन, विस्थापन तथा भूकम्प एवं ज्वालामुखी आदि विवर्तनिको क्रियाएँ होती है। अतः प्लेटों के उद्भव, प्रकृति व गतियों की सम्पूर्ण प्रक्रिया एवं उसके परिणाम प्लेट विवर्तनिकी कहलाते हैं ।


        प्लेट संकल्पना का प्रादुर्भाव
        प्लेट संकल्पना का प्रादुर्भाव दो तथ्यों के आधार पर हुआ है

        महाद्वीपीय प्रवाह की संकल्पना
        वर्ष 1963 में वाइन तथा मैथ्यू ने हिन्द महासागर के कार्ल्सबर्ग कटक के मध्यवर्ती भाग में चुम्बकीय विसंगतियों का पता लगाया, जिससे सागर नितल की परिकल्पना को बल मिला। हर्जलर ने विभिन्न महासागरीय नितलों के अनुमानित प्रसरण के आधार पर चुम्बकीय पट्टियों का 75 मिलियन वर्षों का समय मापक तैयार किया तथा सभी महासागरों के लिए 10 मिलियन वर्षों के अन्तराल पर समकालिक रेखाओं का निर्माण किया। समकालिक रेखा की आयु तथा उनके बीच की दूरी के आधार पर सागरों के नितल के प्रसरण की दर ज्ञात की जा सकती है। गणना से यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि हिन्द महासागर सबसे कम (1 से 1.5 सेमी प्रतिवर्ष) तथा प्रशान्त महासागर सबसे तीव्र (6 सेमी प्रतिवर्ष) गति से फैलते हैं।

        प्लेट सीमान्त
        संवहन धाराओं के अनुरूप प्लेटों का विस्थापन तीन प्रकार से होता है। 
        इस आधार पर प्लेट सीमान्त तीन प्रकार के होते हैं
        • अपसारी सीमान्त ये वे सीमान्त हैं जहाँ मैग्मा ऊपर उठकर विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होता है। इस क्रिया से प्लेटें एक-दूसरे से दूर हटती हैं तथा महासागरीय तली का प्रसरण होता है। ऐसे सीमान्तों पर ज्वालामुखी क्रिया अधिक होती है। चूंकि ऐसे सीमान्तों के सहारे मैग्मा के निस्सृत होकर जमा होने से नए पहल का निर्माण होता है। अतः इन्हें रचनात्मक प्लेट से किनारा भी कहा जाता है। अफ्रीका की ग्रेट रिफ्ट वेली तथा मध्य अटलाण्टिक कटक अपसारी सीमान्त के अच्छे उदाहरण हैं।
        • अभिसारी सीमान्त जब दो भिन्न दिशाओं से संवहन धाराएँ परस्पर मिलती हैं तथा दूसरी उसके ऊपर चढ़ जाती है। अवतलित प्लेट का अग्रभाग मैण्टल में प्रवेश करने पर वहाँ की ऊष्मा के कारण पिघल जाता है, अतः इसे भंजक या क्षीणकारी सीमान्त भी कहते हैं। अभिसारी सीमान्त पर खाइयाँ (Trenches) होती हैं, जिनसे होकर अवतलित प्लेट का पिघला हुआ पदार्थ पुनः बाहर निकलकर ज्वालामुखियों, ज्वालामुखी शृंखलाओं तथा द्वीपीय चापों का रूप धारण कर लेता है।
        • परवर्ती सीमान्त जब किसी भ्रंश के सहारे दो प्लेटें भिन्न दिशाओं में सरकती है, तो उसे परवर्ती सीमान्त कहते हैं। यहाँ संवहन धाराएँ एक-दूसरे के पार्श्व में चलती हैं। इनसे नति लम्ब भ्रंश उत्पन्न होते हैं। इन्हें संरक्षी प्लेट किनारे भी कहते हैं, क्योंकि इन किनारों पर न तो नए पटल का निर्माण होता है और न ही विनाश होता है। पैसेफिक तथा अमेरिकन प्लेटों के मध्य सान एण्ड्रियांस भ्रंश इसी प्रकार का भ्रंश है।
        प्लेटों की गति के कारण
        प्लेट विवर्तनिकी के लिए किसी चालक बल की आवश्यकता होती है, यह बल मैण्टल में प्रवाहित संवाहनिक धाराओं के रूप में बताया गया है। 
        संवाहनिक धाराओं की उत्पत्ति के दो प्रतिमान बताए गए हैं । 
        • सम्पूर्ण मैण्टल को घेरे हुए संवहन क्रिया । 
        • केवल दुर्बलता मण्डल तक सीमित संवहन क्रिया। 
        जिस स्थान पर दो तापजनित संवहनीय तरंगे एक-दूसरे से विपरीत दिशा में अलग होकर प्रवाहित होती हैं। वहाँ पर अपसरण होने से तनाव की शक्ति पैदा हो जाती है, जिस कारण स्थल भाग दो खण्डों में विभक्त होकर दो विपरीत दिशाओं में हट जाते हैं तथा बीच वाले खुले भाग में सागर का निर्माण हो जाता है। यह स्थिति अपसारी सीमान्तों पर होती है। 
        जिस स्थान पर दो केन्द्रों से उठने वाली संवहनीय तरंगें पृथ्वी की पपड़ी के नीचे पहुँचकर एक-दूसरे की ओर प्रवाहित होती हैं तथा मुड़कर नीचे की ओर चलती हैं, तो वहाँ पर दबाव की शक्तियों के कारण धरातलीय भाग का अवतलन हो जाता है तथा पर्वत निर्माण और वलन सम्बन्धी घटनाएँ एवं उससे सम्बन्धित ज्वालामुखी और भूकम्प की क्रियाएँ होती हैं। 
        कुछ विद्वानों ने प्लेटों की गति के अन्य कारण भी बताए हैं। इनका सुझाव है कि प्लेट कटकों तथा ट्रेंचों के बीच गुरुत्व के प्रभाव से खिसकते हैं। इसके दो आयाम हैं। 
        • स्लैप पुल इसके अन्तर्गत ट्रेंचों में डूबता हुआ भू-पटल प्लेट को उस दिशा में बराबर खींचता जाता है और इसकी क्षतिपूर्ति कटकों पर मैग्मा के निरन्तर ऊपर उठने से होती है।
        • कटक दबाव इसके तहत् कटकों पर मैग्मा के निरन्तर ऊपर उठने से उसके प्रसार के कारण प्लेटों में दबाव पड़ता है, जिससे वे एक-दूसरे से दूर हटती जाती हैं और पृथ्वी के धरातलीय क्षेत्रफल को स्थिर बनाए रखने के लिए एक प्लेट दूसरे प्लेट के अन्दर (ट्रेंचों में) समाविष्ट होती रहती हैं।
        संवाहनिक धाराओं की उत्पत्ति के लिए आवश्यक ऊर्जा स्रोत के विषय में भी विद्वानों के भिन्न मत हैं, किन्तु रेडियो सक्रिय पदार्थ जनित ऊर्जा के विषय में अधिकांश भूगर्भशास्त्री सहमत हैं।

        सागर नितल का प्रसरण
        इस संकल्पना का प्रस्तुतीकरण सर्वप्रथम हैरी हैस ने वर्ष 1960 में किया। मध्य महासागरीय कटकों के समीप स्थित सैलों में पुरा चुम्बकत्व की खोज ने सागर तल के विस्तारण की संकल्पना को जन्म दिया। प्रशान्त महासागर की तली पर उपस्थित चुम्बकीय विसंगति के अध्ययन के दौरान यह पता चला कि महासागर की तली पर चट्टानों का उत्तर से दक्षिण दिशा में पट्टियों का क्रम पाया जाता है।
        इस आधार पर हैरी हैस ने बताया कि मध्य महासागरीय कटक मैण्टल से उठने वाली संवहन तरंगों के ऊपर स्थित है। इस कटक के सहारे नए पदार्थों का निर्माण होता तथा इस तरह से नव-निर्मित क्रस्ट कटक के दोनों ओर खिसक जाती है तथा महासागरीय नितल में प्रसार होता है तथा महासागरीय खण्ड के सहारे क्रस्ट का विनाश होता है।
        वाइन तथा मैथ्यू ने भी हिन्द महासागर में चुम्बकीय विसंगतियों का अध्ययन कर सागर नितल प्रसारण की संकल्पना का समर्थन किया।
        पुरा चुम्बकत्व तथा सागर नितल प्रसरण के प्रमाणों के आधार पर वैलेनटाइन तथा मूर्स ने महाद्वीपों तथा महासागरों के प्रारम्भ से आज तक के इतिहास की पुनर्रचना का प्रयास किया है। उनके अनुसार 70 करोड़ वर्ष पूर्व एक विशाल भूखण्ड था, जिसे पैन्जिया प्रथम कहा गया। 50 से 60 करोड़ वर्ष पूर्व संवाहन धाराओं के कारण उसमें भ्रंशन व विस्थापन हुआ। आज से 20-30 करोड़ वर्ष पूर्व ये विस्थापित भू-भाग प्लेट विवर्तनिकी के कारण पुनः मिल गए, जिससे पैन्जिया बना। इसका विभंजन भी प्रारम्भिक जुरासिक युग में प्रारम्भ हुआ और आगे चलकर वर्तमान महाद्वीपीय तथा महासागरीय प्रारूप अस्तित्व में आया।

        भूकम्प तथा ज्वालामुखीयता का प्लेट विवर्तनिकी से सम्बन्ध
        विश्व के अधिकांश भूकम्प और ज्वालामुखी संकीर्ण तथा सुनिश्चित पट्टियों में पाए जाते हैं, जोकि प्लेटों के किनारों पर ही स्थित हैं। वास्तव में प्लेटों की संख्या तथा सीमांकन में भूकम्पीय क्रिया की पट्टियों का सहारा लिया गया है। भूकम्पनीयता, महासागरीय कटकों, ट्रेंच चाप प्रणालियों, प्रमुख विभंग क्षेत्रों तथा नवीन पर्वत पेटियों तक ही सीमित हैं और ये सभी आकृतियाँ प्लेट सीमाओं की परिचायक हैं।
        अपसारी प्लेट सीमाओं पर छिछले केन्द्रीय भूकम्प पाए जाते हैं, जबकि माध्यमिक तथा गहरे भूकम्प, जिनका उत्पत्ति केन्द्र 200 किमी से अधिक गहरा है, अभिसारी सीमान्तों (समुद्री ट्रेंचों) में ही मुख्यतः सीमित हैं। यहाँ पर भूकम्प केन्द्र ट्रेंच के धरातल से शुरू होकर एक तिरछे झुके हुए क्षेत्र में प्राय: 300 से 400 किमी की गहराई तक पाए जाते हैं। इस तिरछे भूकम्प उत्पत्ति क्षेत्र को बेनिऑफ क्षेत्र कहा जाता है।
        बेनिऑफ क्षेत्र की भूकम्पनीयता का सम्बन्ध भू-पटल के नीचे की ओर गिरने की गति से है। मध्यम गहराई वाले भूकम्प तनाव अथवा सम्पीडन से पैदा होते हैं। तनाव तब पैदा होता है। जब अधिक त्व वाली प्लेट अपने भार के कारण डूब जाती है। जब नीचे जाने वाली प्लेट की गति में मैग्मा अवरोध पैदा करता है, तो सम्पीडन पैदा होता है। अधिक गहराई वाले भूकम्प 700 किमी की गहराई तक पाए जाते हैं। प्लेट विवर्तनिकी के सिद्धान्त की सहायता से हमें इस बात का पता चलता है कि भूकम्प तथा ज्वालामुखी प्रशान्त महासागर के तटीय क्षेत्र में क्यों अधिक सक्रिय हैं। प्रशान्त प्लेट का प्रविष्ठन किनारा भू-पर्पटी तथा ऊपरी मैण्टल में अधिक गहराई तक पहुँच जाता है और वहाँ से पिघले हुए मैग्मा को ऊपर धकेल देता है। यह मैग्मा दबाव के प्रभावधीन भूतल पर आता है और ज्वालामुखी का रूप धारण कर लेता है। प्लेट विवर्तनिकी से हमें यह भी पता चलता है कि अलग-अलग ज्वालामुखियों उद्गार में मैग्मा बेसाल्टिक या एण्डेसाइटिक क्यों होता है। विनाशी प्लेट मार्जिन के ज्वालामुखी महाद्वीपीय हैं तथा रचनात्मक प्लेट मार्जिन के ज्वालामुखी महासागरीय हैं। महासागरीय ज्वालामुखी बेसाल्ट चट्टानों द्वारा निर्मित हैं, जबकि महाद्वीपीय ज्वालामुखियों में एण्डेसाइट चट्टानें मिलती है।
        पृथ्वी का सम्पूर्ण सागरीय भू-पटल बेसाल्ट द्वारा निर्मित है और यह सभी बेसाल्ट महासागरीय कटक के नीचे स्थित मैण्टल के ऊपरी भाग में पाई जाने वाली पेरिडोटाइट चट्टानों के पिघलने से बना है। चूंकि संसार के सभी भागों में मैण्टल एक ही प्रकार की चट्टानों द्वारा निर्मित है।
        अतः हवाई और आइसलैण्ड जैसे दूरस्थ ज्वालामुखीय द्वीप एक ही प्रकार की बेसाल्ट चट्टानों द्वारा निर्मित हैं। इसके विपरीत महाद्वीपीय ज्वालामुखियों का लावा तीन विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होता है-कुछ नीचे खिसकते हुए सागरीय प्लेट के नीचे स्थित मैण्टल के ऊपरी भाग से, कुछ सागरीय प्लेट के आंशिक द्रवण से और कुछ ग्रेनाइट द्वारा निर्मित महाद्वीपीय भू-पटल के निचले भाग से, इसके अतिरिक्त सागरीय प्लेट पर स्थित कुछ समुद्री तलछटें भी पिघल जाती हैं। अतः यहाँ ज्वालामुखीय चट्टानें सागरीय ज्वालामुखीय चट्टानों से बिल्कुल भिन्न होती हैं। इन्हें एण्डेसाइट कहा जाता है। इनका संघटन ग्रेनाइट तथा बेसाल्ट के बीच का होता है।

        प्लेट मध्यस्थ ज्वालामुखी
        कुछ ऐसे ज्वालामुखी होते हैं, जो प्लेटों के सीमान्तों पर स्थित न होकर प्लेट के मध्य में स्थित होते हैं। इस प्रकार के ज्वालामुखी मध्य सहारा में मिलते हैं, किन्तु इसका सबसे अच्छा उदाहरण प्रशान्त महासागर में स्थित हवाई द्वीप है।
        ऐसा माना जाता है कि ये एकाकी ज्वालामुखी मैण्टल में गर्म स्थल के ऊपर स्थित हैं। मैण्टल का गर्म स्थल स्थिर है, किन्तु सागरीय प्लेट के गतिशील होने के कारण ज्वालामुखी एक रेखिक श्रृंखला में मिलते हैं तथा प्लेट की गति की दिशा को बनाते हैं। इसमें एक छोर पर सबसे पुराने और दूसरे छोर पर सबसे नए ज्वालामुखी अवस्थित हैं।
        प्लेट विवर्तनिकी के विरुद्ध आपत्तियाँ
        प्लेट विवर्तनिकी एक क्रान्तिकारी एवं व्यापक सिद्धान्त है जिसके द्वारा विश्व में भूकम्पों तथा ज्वालामुखियों के वितरण, उत्पत्ति, महाद्वीपों एवं महासागरों के वितरण, विस्थापन तथा पर्वत निर्माण की समेकित व्याख्या सम्भव हो सकी है, परन्तु प्लेट विवर्तनिकी के विरुद्ध निम्न आपत्तियाँ भी हैं।
        • प्रसार कटकों की संख्या अवतलन क्षेत्रों से अधिक है अर्थात् भू-पटल निर्माण की दर भू-पटल विनाश की दर से बहुत अधिक होनी चाहिए।
        • प्लेट विवर्तनिकी यह बतलाने में असमर्थ है कि जहाँ प्रसार सभी महासागरों में होता है जबकि अवतलन लगभग प्रशान्त महासागर के तटों तक ही क्यों सीमित है।
        • कभी-कभी एक प्लेट के दो दिशाओं में एक साथ स्थानान्तरण के प्रमाण मिलते हैं, जोकि प्लेट विवर्तनिकी के अनुसार असम्भव है।
        • यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि प्रत्येक प्लेट एक इकाई के रूप में काम करता है।
        • अनेक ऐसी पर्वतमालाएँ हैं, जैसे ऑस्ट्रेलिया का ईस्टर्न हाइलैन्स, दक्षिण अफ्रीका का ड्रेकेन्सबर्ग तथा ब्राजील का सियरा डेलयार, जो प्लेट विवर्तनिकी से सम्बन्धित नहीं है।

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