मौसमी संकट और आपदाएँ (मौसम संबंधी खतरे और आपदाएँ) प्रकृत्तिजन्य अप्रत्याशित ऐसी सभी घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों को इतना तीव्र कर देती हैं कि विनाश की स्थिति उत्पन्न होती है, चरम प्राकृतिक घटनाएँ या आपदा कहलाती है। इन चरम घटनाओं या प्रकोपों से मानव समाज, जन्तु एवं पादप समुदाय को अपार क्षति होती है। चरम घटनाओं में ज्वालामुखी विस्फोट, दीर्घकालिक सूखा, भीषण बाढ़, वायुमण्डलीय चरम घटनाएँ; जैसे- चक्रवात, तड़ित झंझा, टॉरनेडो, टाइफून, वृष्टि प्रस्फोट, ताप व शीत लहर, हिम झील प्रस्फोटन आदि शामिल होते हैं। प्राकृतिक और मानव जनित कारणों से घटित होने वाली सम्पूर्ण वायुमण्डलीय एवं पार्थिव चरम घटनाओं को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है। इन आपदाओं से उत्पन्न विनाश की स्थिति में धन-जन की अपार हानि होती है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन निम्न प्रकार है:- चक्रवात (Cyclone) 30° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्णकटिबन्धीय चक्रवात कहते हैं। ये आयनवर्ती क्षेत्रों में पाए जाने वाला एक निम्न वायुदाब अभिसरणीय परिसंचरण तन्त्र होता है। इस चक्रवात का औसत व्यास लगभग 640 किमी...
सूर्यातप और तापमान
(Insolation and Temperature)
सूर्य से विकीर्ण ऊर्जा का वह भाग जो पृथ्वी की ओर प्रवाहित होता है, उसे सूर्यातप कहते हैं। पृथ्वी पर प्राप्त यही ऊर्जा समस्त भौतिक एवं जैविक घटनाओं का संचालन करती है।
सूर्यातप (Insolation)
पृथ्वों तथा उसके वायुमण्डल के लिए समस्त ऊर्जा का स्रोत सूर्य है। सूर्य के तल से ऊष्मा निरन्तर लघु तरंगों के रूप में विकिरित होती रहती है। सूर्य से विकिरित होने वाले इस ताप को सूर्यातप कहते हैं। अंग्रेजी का शब्द Insolation तीन शब्दो Incoming Solar Radiation का संक्षिप्त रूप है अर्थात् सूर्यात का शाब्दिक अर्थ प्रवेशी सौर विकिरण है। यह ऊर्जा लघु तरंगो (Short Wavea) के रूप में सूर्य से पृथ्वी पर पहुंचती है।
पृथ्वी अपनी समस्त ऊर्जा सूर्य से प्राप्त करती है। सूर्य अत्यधिक गर्म गैस का पिण्ड है, जिसके पृष्ठ का तापमान 6000° सेल्सियस है। यह गैसीय पिण्ड निरन्तर अन्तरिक्ष में चारों और ऊष्मा का विकिरण करता रहता है जिसे सौर विकिरण कहते हैं। पृथ्वी को ऊष्मा इस सौर विकिरण से ही प्राप्त होती है।
वायुमण्डल की बाहरी सीमा पर सूर्य से प्रति मिनट प्रति वर्ग सेमी पर 1.94 कैलोरी ऊष्मा प्राप्त होती है। एक ग्राम जल का एक डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ाने के लिए प्रयोग की गई ऊष्मा को कैलोरी कहते हैं। सूर्य से प्राप्त होने वाली ऊष्मा को इस मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं होता, इसलिए इसे सूर्य को अपरिवर्तनशील शक्ति अथवा सौर स्थिरांक कहते हैं। सौर विकिरण सूर्य से पृथ्वी तक प्रकाश को तीव्र गति से चलता है।।
यह गति तीन लाख किमी प्रति सेकण्ड है। पृथ्वी को सूर्यातप (सौर विकिरण) का केवल दो अरबवे का आधा भाग ही प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि पृथ्वी सूर्य से अधिक दूर (लगभग 15 करोड़ किमी की दूरी पर) स्थित है। दूसरे, पृथ्वी का आकार सूर्य की अपेक्षा बहुत छोटा है। सौर विकिरण का यह दो अरबवे का आधा भाग ही हमारे लिए इतना महत्त्वपूर्ण है कि यह पृथ्वी पर ऊर्जा का मुख्य स्रोत है और पृथ्वी पर होने वाली अधिकाश भौतिक तथा जैविक घटनाओं को नियन्त्रित करता है।
सूर्यातप का वितरण
(Distribution of Insolation)
सूर्य से पृथ्वी पर प्राप्त होने वाला सूर्यातप सभी स्थानों पर एकसमान नहीं है। इसमें स्थानिक परिवर्तन पाया जाता है। यह विषुवत रेखा पर सर्वाधिक होता है और ध्रुवों की ओर कम होता जाता है। यह ध्रुवों पर न्यूनतम होता है। विषुवत रेखा पर सूर्यातप की मात्रा ध्रुवों की अपेक्षा लगभग चार गुना अधिक होती है। उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रो (अर्थात् कर्क रेखा तथा मकर रेखा के बीच स्थित क्षेत्रों में सूर्यातप अधिक होता है और मौसमी भिन्नताएँ कम होती है। इसका कारण यह है कि उष्णकटिबन्ध में स्थित सभी स्थानों पर वर्ष में दो बार सूर्य लम्बवत् चमकता है। शीतोष्ण कटिबन्ध में अर्थात् 23° 30' और 60* 30' अक्षांश के मध्य, सूर्यातप को मात्रा उष्णकटिबन्ध से कम है और मौसमी विभिन्नता अधिक है। यहाँ सूर्य प्रत्येक स्थान पर वर्ष में एक बार लम्बवत् चमकता है और ध्रुवीय मण्डल में सूर्यातप वर्ष में एक बार अधिकतम तथा एक बार न्यूनतम प्राप्त होता है, परन्तु वर्ष के कुछ समय में सूर्य की प्रत्यक्ष किरणों के अभाव में सूर्यातप शून्य हो जाता है।
सूर्यातप के वितरण को प्रभावित करने वाले कारक
सूर्यातप के वितरण को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन निम्न है
सूर्य की किरणों का झुकाव सूर्य की किरणों का झुकाव पृथ्वी के किसी भाग पर प्राप्त हुए सूर्यातप को दो प्रकार से प्रभावित करता है।
- क्षेत्रफल लम्बवत् किरणों को कम क्षेत्र गर्म करना पड़ता है इसलिए प्रति इकाई सूर्यातप अधिक प्राप्त होता है। तिरछी किरणें भू-पृष्ठ के अधिक क्षेत्रफल पर फैलती हैं और उनसे प्रति इकाई सूर्यातप कम प्राप्त होता है।
- वायुमण्डल की मोटाई लम्बवत् किरणों को वायुमण्डल की कम मोटाई तय करनी पड़ती है। तिरछे किरणपुंज को अधिक वायुमण्डल की मोटाई तय करनी पड़ती है। जितनी अधिक वायुमण्डल की मोटाई सूर्य की किरणों को तय करनी पड़ेगी, उतना ही अधिक सूर्यातप का, वायुतप का वायुमण्डल द्वारा हास होगा और पृथ्वी पर कम सूर्यातप पहुँचेगा। अतः भूमध्य रेखा पर वायुमण्डल का सबसे कम तथा ध्रुवों पर सबसे अधिक हास होता है। परिणामस्वरूप भूमध्य रेखा पर अधिकतम तथा ध्रुवों पर न्यूनतम सूर्यातप प्राप्त होता है।
पृथ्वी से सूर्य की दूरी
पृथ्वी 4 जुलाई को सूर्य से सबसे अधिक दूरी पर होती है, इस स्थिति को अपसौर कहा जाता है। 3 जनवरी को पृथ्वी सूर्य के सबसे निकट होती है तथा यह स्थिति उपसौर कहलाती है। उपसौर की स्थिति में उत्तरी गोलार्द्ध में शीत ऋतु 7% कम तीव्र तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में गर्मियाँ 7% अधिक तीव्र होती हैं। अपसौर की स्थिति में उत्तरी गोलार्द्ध में गर्मियाँ 7% कम तीव्र तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में शीत ऋतु 7% अधिक तीव्र होती है।
दिन की लम्बाई अथवा धूप की अवधि
हमें सूर्यातप दिन के समय ही मिलता है। अतः किसी स्थान पर प्राप्त हुई सूर्यातप की मात्रा दिन की लम्बाई अथवा धूप की अवधि पर भी निर्भर करती है। ग्रीष्म ऋतु में दिन बड़े होते हैं और सूर्यातप अधिक प्राप्त होता है। इसके विपरीत, शीत ऋतु में दिन छोटे होते हैं और सूर्यातप कम प्राप्त होता है।
भूमध्य रेखा पर सालभर या वर्षभर दिन की अवधि लगभग बराबर रहती है इसलिए वहाँ पर सूर्यातप वर्षभर लगभग एकसमान प्राप्त होता है। 23 सितम्बर से 21 मार्च तक दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन बड़े और रातें छोटी होती हैं तथा 22 दिसम्बर का दिन सबसे लम्बा होता है जबकि सूर्य मकर रेखा पर लम्बवत् चमकता है।
22 मार्च से 23 सितम्बर तक उत्तरी गोलार्द्ध में दिन बड़े तथा रातें छोटी होती हैं। 21 जून को उत्तरी गोलार्द्ध का सबसे बड़ा दिन होता है जबकि सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है।
ध्रुवों पर छः महीने का दिन तथा छः महीने की रात होती है। अतः वहाँ पर सूर्यातप की प्राप्ति में अत्यधिक विषमताएँ पाई जाती हैं।
भूमि का ढाल
जो ढाल सूर्य के सामने होते हैं उन पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं और वहाँ पर अधिक सूर्यातप प्राप्त होता है। इसके विपरीत, जो ढाल सूर्य से विमुख होते हैं उन पर सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं और वहाँ पर सूर्यातप कम प्राप्त होता है। उत्तरी गोलार्द्ध में पर्वतों के दक्षिणी ढाल पर सूर्यातप की मात्रा अधिक तथा उत्तरी ढाल पर कम होती है। चित्र में पर्वत के दक्षिणी पार्श्व पर सूर्य की किरणें 'र' कम तिरछी पड़ रही हैं और 'अ व' कम स्थान घेर रही हैं। अतः क्षेत्रफल को प्रति इकाई सूर्यातप अधिक प्राप्त होता है।
सी पर्वत के उत्तरी पार्श्व पर 'र' किरणें 'क ख' से अधिक स्थान घेरती हैं, अतः क्षेत्रफल को प्रति इकाई सूर्यातप कम प्राप्त होता है। यही कारण है कि हिमालय पर्वत की दक्षिणी ढलाने उसकी उत्तरी ढलानों से अधिक सूर्यातप प्राप्त करती हैं।
सूर्यातप पर वायुमण्डल का प्रभाव
वायुमण्डल में मेघ, आर्द्रता तथा धूल-कण आदि परिवर्तनशील दशाएँ सूर्य से आने वाले सूर्यातप को अवशोषित, परावर्तित तथा प्रकीर्णन करती हैं, जिससे पृथ्वी पर पहुँचने वाले सूर्यातप में परिवर्तन आ जाता है। वायुमण्डल की गैसें सूर्य की दृश्य (दिखाई देने वाली) प्रकाश किरणों के लिए पारदर्शी हैं लेकिन हवा में निलम्बित द्रव एवं पदार्थों के कण प्रकाश का अवशोषण अथवा परावर्तन कर सकते हैं।
मेघों की एक मोटी परत वहाँ तक पहुँचने वाले प्रकाश के केवल 10% भाग को ही भू-पृष्ठ तक आने दे सकती है। मेघ सामान्यतः काँच की भाँति आचरण करते हैं। वे सूर्य प्रकाश को अवशोषित करने के स्थान पर उन्हें विभिन्न दिशाओं में फैला देते हैं।
परावर्तित सूर्य प्रकाश स्थायी रूप से पृथ्वी के लिए समाप्त हो जाता है। दिन के समय आकाश का नीला रंग सूर्य किरणों के प्रकीर्णन के कारण होता है। सूर्य किरणों के प्रकीर्णन न होने की स्थिति में, सूर्य के क्षितिज पर ऊँचा होने पर भी आकाश काला दिखाई देगा।
सूर्यातप का वायुमण्डलीय अपक्षय
सौर विकिरण को धरातल पर पहुँचने के क्रम में वायुमण्डल का मोटा और घना आवरण पार करना पड़ता है। अतः ऐसे में सूर्य किरणों के पथ की लम्बाई जितनी अधिक होगी, सूर्यातप उतना ही कम प्राप्त होगा। सूर्यातप में इसी कमी या कटौती को सौर विकिरण का वायुमण्डलीय अपक्षय (Atmospheric Erosion) कहते हैं। अपक्षय की यह क्रिया वायुमण्डल के विभिन्न तत्वों द्वारा नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है।
सौर विकिरण के अपक्षय को बढ़ावा देने वाले निम्नलिखित तत्व हैं ।
प्रकीर्णन
आकाश का नीला रंग और लाल रंग प्रकीर्णन (Scattering) के कारण दिखता है। विभिन्न तरंग दैर्ध्य (Wavelength) की सौर किरणें धूल कणों और जल कणों से जब गुजरती हैं, तब अगर इन कणों का व्यास किरणों के तरंग-दैर्ध्य से छोटा होता है, तो लघु तरंगों (आसमानी, बैंगनी रंग) का प्रकीर्णन हो जाता है, जबकि दीर्घ लाल तरंग आगे बढ़ जाती है, फलतः आकाश नीला दिखता है। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय जब सौर किरणों को अधिक दूरी तय करनी पड़ती है, तब यही प्रक्रिया विपरीत तरह से होती है और आकाश लाल दिखता है।
विसरण
जब आपतित किरणों के मार्ग में ऐसे अणु या कण पड़ जाते हैं, जिनका व्यास प्रकाश की किरणों के तरंग दैर्ध्य से बड़ा होता है, तब उनसे सभी तरंगे (छोटी या बड़ी) इधर-उधर परावर्तित हो जाती हैं, इस प्रक्रिया को प्रकाश का विसरण (Diffusion) कहते हैं। यह प्रक्रिया अवर्णात्मक (Non-selective) होती है, इसलिए प्रकाश के विविध अवयव रंग अलग-अलग नहीं हो पाते। इसमें वायुमण्डल में उपस्थित असंख्य धूलकणों के कारण सूर्य के छिपने या निकलने से पहले कुछ देर तक विसरित प्रकाश चारों ओर फैला रहता है। सांध्य प्रकाश एवं खगोलीय सांध्य प्रकाश (Astronomical Twilight) विसरण की देन है।
परावर्तन
प्रकाश की किरणों के कुछ भाग का धरातल से परावर्तन (Reflection) हो जाता है। परावर्तन की मात्रा धरातल के चिकनेपन पर निर्भर करती है। परावर्तन को सबसे अधिक बादलों की मात्रा प्रभावित करती है। पूर्ण मेघाच्छादित धरातल पर सूर्य के प्रकाश में कमी का मूल कारण परावर्तन होता है।
अवशोषण
ऑक्सीजन (0.26 माइक्रॉन की लघु तरंग), कार्बन (15 माइक्रॉन की लघु तरंग) तथा ओजोन गैस पराबैगनी लघु तरंगों का अवशोषण (Absorption) करती है। गैसों के स्थान पर जलवाष्प सूर्यातप का सबसे बड़ा भाग अवशोषित करता है। यह लघु तरंगों के लिए पारदर्शक तथा दीर्घ तरंगों के लिए अपारदर्शक होता है। अतः लघु तरंगे पृथ्वी तक पहुंच जाती है, परन्तु दीर्घ तरंगों का यह अवशोषण कर लेता है।
जलवाष्प पृथ्वी द्वारा विकिरित दीर्घ तरंगों को वापस नहीं जाने देता। इसी प्रक्रिया को हरितगृह प्रभाव (Greenhouse Effect) कहते हैं। वस्तुतः जलवाष्प काँच की छत जैसा कार्य करता है। अतः यह ताप अवशोषण के साथ-साथ ताप नियन्त्रक भी है।
पार्थिव अवशोषण एवं विकिरण
पृथ्वी विद्युत परिपथ में एक ट्रांसफॉर्मर का कार्य करती है। यह एक दशा में ऊर्जा प्राप्त करती है और दूसरी दशा में इसे प्रेषित कर देती है सूर्य से विकिरित होने वाली सौर ऊर्जा लघु तरंगों के रूप में होती है और वायुमण्डल इसका अवशोषण नहीं कर सकता। यह ऊर्जा भू-पृष्ठ को गर्म करती है और भू-पृष्ठ वायुमण्डल को गर्म करता है। सौर ऊर्जा का लगभग 51% भाग पृथ्वी पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पहुंचता है। अवशोषित सूर्यातप धरातलीय तापमान में वृद्धि करता है और बदले में स्थल एक ऊर्जा विकिरण (Radiator) बन जाता है। पृथ्वी दीर्घ तरंगों में ऊर्जा विकिरित करती है, इसे पार्थिव विकिरण कहते हैं।
वायुमण्डल का तापन
सूर्य से आने वाली किरणों के कारण वायुमण्डल के तापमान में वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त वायुमण्डल के तापक्रम में वृद्धि के अन्य कारण भी महत्त्वपूर्ण है, जो निम्नलिखित हैं
विकिरण
विकिरण (Radiation) में ऊष्मा गर्म वस्तु से ठण्डी वस्तु की ओर बिना किसी माध्यम के तथा बिना माध्यम को गर्म किए संचरित हो जाती है; जैसे—सूर्य और पृथ्वी के बीच निर्वात है फिर भी सूर्य किरणें पृथ्वी तक पहुँचती है, यह प्रक्रिया विकिरण कहलाती है।
चालन
चालन (Conduction) ऊष्मा संचार की वह विधि है, जिसमें माध्यम के गर्म भागो से ठण्डे भागों की ओर ऊष्मा का संचार होता है। इसमें ऊष्मा एक कण से प्रत्येक समीपवर्ती कणों के माध्यम से गन्तव्य तक पहुंचती है। इसमें वस्तु के कणों का विस्थापन नहीं होता है, केवल ऊष्मा का स्थानान्तरण होता है।
संवहन
जब धरातल से प्राप्त ऊर्जा का स्थानान्तरण, एक स्थान से दूसरे स्थान पर ऊर्ध्वाधर (Vertical) गति से होता है, तो इसे संवहन कहते है। इसमें गर्म वायु ऊपर उठ जाती है तथा ठण्डी वायु नीचे आ जाती है।
अभिवहन
ऊष्मा के क्षैतिज स्थानान्तरण की प्रक्रिया को अभिवहन कहते हैं। यह ऊर्जा स्थानान्तरण की सबसे प्रभावशाली विधि है। मध्य अक्षांशीय प्रदेशों में मौसम के महत्त्वपूर्ण दैनिक परिवर्तनों का मूल कारण विभिन्न प्रकार की अभिवहन (Advection) धाराएँ ही है।
सूर्यातप पर स्थल एवं जल का प्रभाव
आते हुए सौर विकिरण या सूर्यातप के लिए स्थलीय तथा जलीय सतह विभिन्न प्रकार से आचरण करते हैं। स्थलीय सतह की अपेक्षा जलीय सतह की ऊष्मा क्षमता या विशिष्ट ऊष्मा पाँच गुना अधिक है। एक ग्राम पदार्थ का तापमान एक अंश सेल्सियस बढ़ाने के लिए जितनी ऊर्जा की आवश्यकता होती है, उसे विशिष्ट ऊष्मा कहते हैं।
इसका अर्थ यह हुआ कि यदि स्थलीय और जलीय सतह एकसमान मात्रा में ऊष्मा प्राप्त करें, तो इससे स्थल का तापमान जल की अपेक्षा पाँच गुना अधिक होगा। इसी प्रकार यदि स्थल एवं जल से ऊष्मा वापस कर ली जाए, तो स्थल के तापमान में जल के तापमान से पाँच गुना अधिक कमी आएगी। यह बात इस तथ्य से स्पष्ट होती है कि जल में प्राप्त ऊष्मा को संग्रह करने की प्रवृत्ति होती है, जबकि स्थल शीघ्रता से इसे वायुमण्डल को वापस कर देता है। जल मुख्य रूप से पारदर्शक है और ऊष्मा की कुछ मात्रा को कई मीटर की गहराई तक जाने देता है। इसके विपरीत स्थल अपारदर्शी है। अतः इसकी ऊपरी परतों में ही सूर्यातप का बहुत अधिक संकेन्द्रण होता है। इस विषय में सामान्य नियम इस प्रकार है। सूर्य किरणों के प्रभाव से स्थलीय घरातल शीघ्रता से और गर्म होते हैं, जबकि जलीय धरातल धीरे-धीरे तथा कम गर्म होते हैं। इसके विपरीत सूर्यातप हटाए जाने पर स्थलीय धरातल, जलीय धरातल की अपेक्षा अधिक शीघ्रता से ज्यादा ठण्डे होते हैं। इसलिए स्थल पर तापमान विपर्यास काफी अधिक होता है, जबकि जल पर यह अन्तर साधारण होता है।
पृथ्वी का ऊष्मा बजट
(Heat Budget of Earth)
पृथ्वी का औसत तापमान लगभग एकसमान रहता है, क्योंकि सूर्य से प्राप्त होने वाला सूर्यातप तथा पृथ्वी द्वारा छोड़े जाने वाले पार्थिव विकिरण को मात्रा लगभग एकसमान है। इस सन्तुलन को ही ऊष्मा बजट (Heat Budget) कहते हैं। हमारी पृथ्वी को सूर्य से निकलने वाली कुल ऊष्मा का केवल दो अरबवाँ भाग ही प्राप्त होता है। वायुमण्डल तथा पृथ्वी के धरातल द्वारा इस थोड़े से भाग का बहुत बड़े हिस्से का अवशोषण, परावर्तन तथा प्रकीर्णन हो जाता है। जितनी ऊष्मा हमारे वायुमण्डल की ऊपरी सीमा पर प्राप्त होती है उसका लगभग आधा भाग ही धरातल तक पहुंचता है।
सौर विकिरण की 100 इकाई में से 6 इकाइयाँ वायुमण्डल के प्रकीर्णन द्वारा, 27 इकाइयाँ बादलों द्वारा तथा 2 इकाइयाँ पृथ्वी के हिमाच्छादित क्षेत्रों द्वारा परावर्तित होकर शून्य में लौट जाता है, इसे ही एल्बिडो (Albedo) कहते हैं। बाकी 65 इकाइयों में से 14 इकाइयाँ वायुमण्डल द्वारा अवशोषित कर दी जाती हैं तथा शेष 51 इकाइयाँ ही पृथ्वी के धरातल को प्राप्त होती हैं। पृथ्वी द्वारा अवशोषित 51 इकाइयों को पार्थिव विकिरण के रूप में शून्य को लौटा दिया जाता है। इसमें से 34 इकाइयों को वायुमण्डल अवशोषित कर लेता है, जबकि 17 इकाइयाँ सीधे अन्तरिक्ष में चली जाती हैं, इसी को पृथ्वी का ऊष्मा बजट या ऊष्मा सन्तुलन कहते हैं।
बाह्य ऊष्मा बजट (अक्षांशीय ऊष्मा सन्तुलन)
सम्पूर्ण पृथ्वी पर सूर्यातप तथा पार्थिव विकिरण के बीच एक सन्तुलन बना रहता है, फिर भी पृथ्वी के प्रत्येक भाग में ऊष्मा का वितरण समान नहीं है, क्योंकि सूर्य की किरणें विषुवत् रेखा पर ध्रुवों की अपेक्षा अधिक लम्बवत् पड़ती हैं। इसलिए विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर सूर्यातप की मात्रा भी विभिन्न अक्षांशों पर भिन्न होती है। विषुवत् रेखा से 38° उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों तक सूर्य से प्राप्त होने वाला सूर्यातप अधिक तथा उसकी तुलना पार्थिव विकिरण द्वारा अन्तरिक्ष में खोई गई ऊष्मा कम होती है। में
38° उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों ध्रुवों तक प्राप्त ऊष्मा की तुलना में खोई जाने वाली ऊष्मा अधिक होती है। अतः विषुवत् रेखा से 38° तक ऊष्मा ऊर्जा की अधिकता तथा इन अक्षांशों से ध्रुवों तक ऊष्मा की कमी रहती है।
इसलिए उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों को निरन्तर अधिक गर्म तथा ध्रुवीय क्षेत्रों को निरन्तर अधिक ठण्डा रहना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं होता। पवनें तथा सागरीय धाराएँ निरन्तर ऊष्मा के वितरण का सन्तुलन बनाए रखती हैं। अधिकांश ऊष्मा का आदान-प्रदान 30° से 50° अक्षांशों के बीच होता है। और अधिकांश तूफानी मौसम वहीं पर पाए जाते हैं। प्रकृति सम्पूर्ण पृथ्वी पर सन्तुलन बनाए रखने के लिए ऐसी क्रियाविधि को जन्म देती है, जिससे ऊष्मा का स्थानान्तरण उष्णकटिबन्ध से उच्च अक्षांशों की ओर वायुमण्डलीय परिसंचरण (75%) तथा महासागरीय धाराओं (25%) द्वारा सम्पन्न होता है। जब पृथ्वी गर्म होती है तो वह स्वयं दीर्घ तरंगों के रूप में ऊर्जा का विकिरण करती है। वायुमण्डल इन दीर्घ तरंगों के लिए अपारदर्शी होता है तथा इनमें से अधिकांश को अवशोषित करके गर्म हो जाता है तथा इन दीर्घ तरंगों के विकिरण के कुछ भाग को आकाश की ओर तथा अधिकांश को पृथ्वी की ओर वापस भेज देता है, जो पृथ्वी को गर्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
पृथ्वी का एल्बिडो
सौर विकिरण की वह मात्रा या प्रतिशत, जो पृथ्वी पर आने से पूर्व ही अन्तरिक्ष में परावर्तित हो जाती है, पृथ्वी का एल्बिडो कहलाता है। पृथ्वी का अनुमानित औसत एल्विडो 32% है। पृथ्वी का एल्विडो चन्द्रमा से अधिक है। इस कारण पृथ्वी अन्तरिक्ष से चन्द्रमा से अधिक चमकीली प्रतीत होती है। ताजे बर्फ तथा बादलों की सतह का एल्बिडो बहुत अधिक होता है। जल तथा नम भूमि का एल्बिडो बहुत कम होता है।
प्रमुख तत्त्वों का एल्विडो निम्नवत् है
नाम | एल्विडो(% में) |
---|---|
ताजा बर्फ | 40-70 |
शुष्क बालू | 35-45 |
पक्की सड़क | 5-10 |
चरागाह (घास स्थल) | 10-20 |
शंकुधारी वन (टैगा) | 5-15 |
पर्णपाती वन | 10-20 |
फसल | 15-25 |
तापमान (Temperature)
किसी स्थान पर मानक अवस्था में मापी गई भू-तल से लगभग एक मीटर ऊँची वायु की गर्मी को उस स्थान का तापमान (Temperature) कहते हैं। सूर्यातप प्राप्त होने से पृथ्वी तथा उसके वायुमण्डल का तापमान बढ़ जाता है। प्रायः सूर्यातप तथा तापमान को पर्यायवाची ही समझा जाता है, परन्तु दोनों शब्दों के भिन्न अर्थ हैं और ये दो शब्द भिन्न अवधारणाओं के द्योतक हैं।
तापमान के प्रकार
उच्चतम ताप
वायु का ताप तापमापी यन्त्र से नापते हैं। उच्चतम ताप दिनभर के सबसे ऊँचे ताप को दैनिक अधिकतम ताप कहते हैं। दिन में दोपहर को सूर्य सबसे ऊँचा होता है, परन्तु उच्चतम ताप 12 बजे न होकर 2-4 अपराह्न के बीच होता है। यदि किसी महीने के सबसे ऊँचे ताप को नोट किया जाए, तो यह ताप महीने का उच्चतम ताप होता है। इसी प्रकार किसी वर्ष का उच्चतम ताप ज्ञात किया जाता है। यदि महीने भर तक प्रतिदिन के उच्चतम तापों का औसत निकाला जाए, तो उसे औसत मासिक उच्च ताप कहते हैं। इसी तरह औसत वार्षिक उच्च ताप भी निकाला जा सकता है।
न्यूनतम ताप
दिनभर के सबसे न्यूनतम ताप को दैनिक न्यूनतम ताप कहते हैं। महीनेभर तक प्रतिदिन के निम्नतम तापो का औसत मासिक निम्नतम ताप होता है। न्यूनतम ताप रात्रि 12 बजे न होकर प्रातः 4 से 5 बजे के बीच होता है, क्योंकि पार्थिव विकिरणों के रूप में ऊष्मा की हानि देर तक होती रहती है।
औसत ताप
दिन के अधिकतम तथा न्यूनतम तापक्रम के औसत को औसत दैनिक तापक्रम कहते हैं।
- औसत दैनिक ताप =दिन का उच्चतम ताप+दिन का न्यूनतम ताप/२
- मासिक औसत ताप = प्रतिदिन महीने भर के दैनिक औसत तापों का योग/महीने में दिनों की कुल संख्या
- वार्षिक औसत ताप = 12 महीनों के औसत तापों का योग/१२
तापमान को नियन्त्रित करने वाले कारक
किसी स्थान के तापमान को निम्नलिखित कारक नियन्त्रित करते हैं
भूमध्य रेखा से दूरी
सूर्य की किरणें भूमध्य रेखा पर लगभग पूरे वर्ष लम्बवत् पड़ती हैं, जिससे वहाँ पर सूर्यातप अधिक प्राप्त होता है और तापमान लगभग 30° सेग्रे होता है। भूमध्य रेखा से दूर जाने पर सूर्य की किरणें तिरछी हो जाती हैं जिससे वहाँ पर सूर्यातप कम प्राप्त होता है और तापमान भी कम ही होता है। ध्रुवों पर तापमान हिमांक से भी कम हो जाता है। अतः वहाँ पर बर्फ जमी रहती है।
समुद्र तल की ऊँचाई
समुद्र तल पर उच्च तापमान पाया जाता है। जैसे-जैसे हम ऊँचाई की ओर जाते हैं, वैसे-वैसे तापमान में कमी आती जाती है। सामान्यतः 165 मी की ऊँचाई पर 10 सेग्रे तापमान गिर जाता है।
यही कारण है कि पर्वतीय प्रदेश मैदानों की अपेक्षा अधिक ठण्डे होते हैं। दिल्ली की अपेक्षा शिमला का तापमान कम है, क्योंकि शिमला, दिल्ली की अपेक्षा अधिक ऊँचाई पर स्थित है।
समुद्र तट से दूरी
स्थल की अपेक्षा जल देर से गर्म होता है और देर से ही ठण्डा होता है। अतः जो स्थान समुद्र के निकट हैं, वहाँ पर तापमान लगभग एकसमान रहता है। इसके विपरीत समुद्र से दूर स्थित स्थानों का तापमान अधिक होता है। अर्थात् समुद्र तट के निकट स्थित स्थानों पर सर्दियों में कम सर्दी होती है, जबकि समुद्र तट से दूर स्थित स्थानों पर सर्दियों में अधिक सर्दी तथा गर्मियों में अधिक गर्मी होती है। उदाहरणत: मुम्बई का तापमान दिल्ली के तापमान की अपेक्षा अधिक है।
समुद्री धाराएँ
समुद्री धाराएँ तटवर्ती क्षेत्रों के तापमान को काफी हद तक प्रभावित करती है। जिन क्षेत्रों में गर्म धारा बहती है वहाँ का तापमान अधिक होता है तथा जिन क्षेत्रों में ठण्डी धारा बहती है। उन क्षेत्रों का तापमान कम हो जाता है।
उत्तर-पश्चिम यूरोप के तट के साथ गल्फ स्ट्रीम को गर्म धारा बहती है, जो यूरोप के तटीय भागों का तापमान ऊंचा बनाए रखती है। इसके विपरीत, लगभग उसी अक्षांश पर स्थित
लैब्रेडोर के तट के साथ लैब्रेडोर की ठण्डी धारा बहती है जिससे यह क्षेत्र वर्ष में लगभग नौ मास हिमाच्छादित रहता है। जर्मनी में बर्लिन 52° उत्तरी अक्षांश पर स्थित है तथा न्यूयॉर्क का अक्षांश केवल 40° उत्तर है। फिर भी समुद्री धाराओं के प्रभाव के कारण इन दोनों नगरों में जनवरी का तापमान लगभग एक समान है। दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट पर वेनेजुएला की ठण्डी धारा बहती है। अतः अफ्रीका के पश्चिमी तट पर तापमान कम तथा पूर्वी तट पर तापमान अधिक होता है।
प्रचलित पवनें
जिन स्थानों पर गर्म पवने आती है वहाँ का तापमान अधिक तथा जहाँ पर ठण्डी पवने आती है वहाँ का तापमान कम होता है। इटली में सहारा मरुस्थल से आने वाली सिरोको पवन तथा उत्तरी भारत के मैदानी भाग में ग्रीष्म ऋतु में चलने वाली लू से अनेक बार तापमान 45° सेप्रे तक पहुंच जाता है। यूरोप में मिस्टूल तथा चीन में चलने वाली मध्य एशिया की ठण्डी वायु से तापमान काफी नीचे गिर जाता है।
भूमि का ढाल
यह तथ्य पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि भूमि के ढाल जो सूर्य के सामने होते हैं वे अधिक सूर्यातप प्राप्त करते हैं और वहाँ पर तापमान भी अधिक होता है। इसके विपरीत, जो ढाल सूर्य से परे होते हैं वहाँ पर सूर्या कम प्राप्त होता है और वहाँ पर तापमान भी कम होता है। हिमालय तथा आल्पस पर्वतों के दक्षिण ढलानों पर तापमान अधिक तथा उत्तरी ढलानों पर तापमान कम पाया जाता है।
भू-तल का स्वभाव
हिम व वनस्पति से ढके हुए भू-तल सूर्य से प्राप्त हुए अधिकांश ताप को परिवर्तित कर देते हैं। अत: इन प्रदेशों में तापमान अधिक नहीं हो पाता। इसके विपरीत, बालू तथा काली मिट्टी से ढके हुए प्रदेश अधिकांश सूर्यातप का अवशोषण कर लेते हैं और वहां पर तापमान अधिक होता है।
मेघ तथा वर्षा
जिन प्रदेशों में मेघ छाए रहते हैं तथा वर्षा अधिक होती है वहाँ पर तापमान अधिक नहीं हो पाता, क्योंकि मेघ सूर्य की किरणों का परावर्तन कर देते हैं। उदाहरणतः भूमध्यरेखीय खण्ड में सूर्य की किरणों के लम्बवत् पड़ने के बावजूद भी वहाँ पर इतना अधिक तापमान नहीं हो पाता जितना कि मेघरहित उष्ण मरुस्थलीय भागों में हो जाता है।
तापमान का वितरण
प्रादेशिक क्षैतिज व ऊर्ध्वाधर वितरण के आधार पर तापमान का वितरण किया गया है।
जिसका विवरण इस प्रकार है।
तापमान का प्रादेशिक वितरण
तापक्रम के वितरण तथा उनकी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ग्रीक विचारकों ने पृथ्वी को तीन प्रमुख कटिबन्धों में बांटा है
- उष्णकटिबन्ध
- शीतोष्ण कटिबन्ध
- शीत कटिबन्ध
तापमान का क्षैतिज वितरण
तापमान के क्षैतिज वितरण का अर्थ अक्षांशीय वितरण से है। भूमध्य रेखा से ध्रुवों तक तापमान कम होता जाता है। मानचित्र पर तापमान का वितरण समताप रेखाओं द्वारा दर्शाया जाता है। समताप रेखा वह काल्पनिक रेखा है, जो मानचित्र पर समान तापमान वाले स्थानों को मिलाती है।
विश्व के अधिकांश भागों में जनवरी तथा जुलाई के महीनों में तापमान
जनवरी माह में उत्तरी गोलार्द्ध में महाद्वीपों की अपेक्षा महासागर अधिक है। इसलिए समताप रेखाएँ महाद्वीपों को पार करते समय भूमध्य रेखा की ओर तथा महासागरों को पार करते हुए ध्रुवों की ओर मुड़ जाती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थिति ठीक इसके विपरीत होती है। यहाँ समताप रेखाएँ महासागरों को पार करते समय भूमध्य में न्यूनतम अथवा अधिकतम तापमान पाया जाता है। इसलिए तापमान के विश्लेषण के लिए साधारणतः जनवरी तथा जुलाई महीने ही चुने जाते हैं।
जनवरी में तापमान का क्षैतिज वितरण
जनवरी के महीने में सूर्य की किरणें दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थित मकर रेखा पर लम्बवत् पड़ती है जिससे दक्षिणी गोलार्द्ध में ग्रीष्म तथा उत्तरी गोलार्द्ध में शीत ऋतु होती है। अतः दक्षिणी गोलार्द्ध में तापमान अधिक तथा उत्तरी गोलार्द्ध में तापमान कम होता है। दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थित उत्तर-पश्चिमी अर्जेण्टीना, पूर्वी मध्य अफ्रीका, बोर्नियो और मध्य ऑस्ट्रेलिया में तापमान 30° सेग्रे से भी अधिक होता है। उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित साइबेरिया तथा ग्रीनलैण्ड में न्यूनतम तापमान पाया जाता है, विश्व में सबसे ठण्डा स्थान साइबेरिया में स्थित बखोयांस्क है, जिसका तापमान 50° सेग्रे है। रेखा की ओर तथा महाद्वीपों को पार करते समय सूर्य की किरणें ध्रुवों की ओर मुड़ जाती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में स्थलखण्डों के अधिक होने के कारण समताप रेखाएँ अनियमित और पास-पास होती हैं जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में जल भाग के अधिक होने के कारण समताप रेखाएँ अपेक्षाकृत अधिक नियमित तथा दूर-दूर होती हैं।
जुलाई में तापमान का क्षैतिज वितरण
इस समय सूर्य की किरणें उत्तरी गोलार्द्ध में कर्क रेखा पर लगभग लम्बवत् चमकती हैं। अतः उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म ऋतु तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में शीत ऋतु होती है। उत्तरी गोलार्द्ध में अधिकतम तापमान (30° सेग्रे से अधिक) 10° सेग्रे से 40° सेग्रे उत्तरी अक्षांशों के बीच होता है। इस कटिबन्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका का दक्षिण-पूर्वी भाग, सहारा, दक्षिण-पश्चिमी एशिया, चीन का विस्तृत क्षेत्र तथा उत्तर-पश्चिमी भारत सम्मिलित हैं। उत्तरी ध्रुव के निकट इस ऋतु में तापमान हिमांक से नीचे रहता है। उत्तरी गोलार्द्ध में समताप रेखाएँ महासागरों पर से गुजरते समय भूमध्य रेखा की ओर तथा महाद्वीपों पर से गुजरते समय ध्रुव की ओर मुड़ जाती हैं। रेखाएँ उत्तरी गोलार्द्ध में अनियमित तथा एक-दूसरे से दूर स्थित होती हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थिति बिल्कुल इसके विपरीत होती हैं।
तापमान का ऊर्ध्वाधर वितरण
विभिन्न प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि क्षोभमण्डल में ऊँचाई के साथ तापमान नियमित रूप से कम होता है। सामान्यतः 165 मी की ऊंचाई पर 10 सेग्रे तापमान कम हो जाता है। तापमान के इस प्रकार कम होने की दर को सामान्य ह्रास दर कहते है। भू-तल पर सामान्यत: 20° सेग्रे तापमान रहता है और क्षोभमण्डल की ऊपरी सीमा (क्षोभ सीमा) तक पहुँचते-पहुँचते तापमान -55° से 60° सेग्रे तक गिर जाता है।
क्षोभमण्डल के ऊपर समतापमण्डल में तापमान प्रायः एक समान रहता है। यही कारण है कि वायुमण्डल के इस भाग को समतापमण्डल कहा जाता है। समतापमण्डल के निचले भाग में 20 किमी की ऊँचाई तक तापमान लगभग - 55° से 60° सेग्रे तक रहता है। 20 किमी से 50 किमी की ऊँचाई तक ओजोन गैस की प्रधानता है। ओजोन गैस में पराबैंगनी किरणों को सोखने की क्षमता होती है जिस कारण यहाँ तापमान बढ़ने लगता है। 50 किमी की ऊँचाई तक पहुँचते-पहुँचते तापमान 0° सेल्सियस हो जाता है।
इसके बाद मध्यमण्डल आरम्भ हो जाता है और तापमान फिर से गिरना आरम्भ हो जाता है। 80 किमी की ऊँचाई तक पहुँचकर तापमान - 80° सेग्रे से भी नीचे गिर जाता है। इसके बाद तापमान फिर से बढ़ना शुरू हो जाता है। चित्र में धरातल से 160 किमी की ऊँचाई तक तापमान के वितरण को दिखाया गया है। अनुमान है 400 किमी की ऊँचाई पर 1000° सेग्रे से अधिक तापमान हो जाता है। इतने अधिक तापमान वाले वायुमण्डल के इस भाग को ऊष्मामण्डल कहते हैं।
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