मौसमी संकट और आपदाएँ (मौसम संबंधी खतरे और आपदाएँ) प्रकृत्तिजन्य अप्रत्याशित ऐसी सभी घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों को इतना तीव्र कर देती हैं कि विनाश की स्थिति उत्पन्न होती है, चरम प्राकृतिक घटनाएँ या आपदा कहलाती है। इन चरम घटनाओं या प्रकोपों से मानव समाज, जन्तु एवं पादप समुदाय को अपार क्षति होती है। चरम घटनाओं में ज्वालामुखी विस्फोट, दीर्घकालिक सूखा, भीषण बाढ़, वायुमण्डलीय चरम घटनाएँ; जैसे- चक्रवात, तड़ित झंझा, टॉरनेडो, टाइफून, वृष्टि प्रस्फोट, ताप व शीत लहर, हिम झील प्रस्फोटन आदि शामिल होते हैं। प्राकृतिक और मानव जनित कारणों से घटित होने वाली सम्पूर्ण वायुमण्डलीय एवं पार्थिव चरम घटनाओं को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है। इन आपदाओं से उत्पन्न विनाश की स्थिति में धन-जन की अपार हानि होती है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन निम्न प्रकार है:- चक्रवात (Cyclone) 30° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्णकटिबन्धीय चक्रवात कहते हैं। ये आयनवर्ती क्षेत्रों में पाए जाने वाला एक निम्न वायुदाब अभिसरणीय परिसंचरण तन्त्र होता है। इस चक्रवात का औसत व्यास लगभग 640 किमी...
जलवायु परिवर्तन
(Climate Change)
किसी भी स्थान का दीर्घकालिक औसत मौसम, जलवायु कहलाता है, जो सदैव परिवर्तनशील रहता है। किसी भी स्थान की मौसम सम्बन्धी दशाओं में दीर्घकालिक परिवर्तन को जलवायु परिवर्तन कहा जाता है। इसमें मापन स्थानिक व कालिक होता है।
जलवायु परिवर्तन एवं कारण
(Climate Change and Reason)
जलवायु परिवर्तन मौसमी दशाओं के पैटर्न में ऐतिहासिक रूप से बदलाव आने को कहते हैं। सामान्यतया इन बदलावों का अध्ययन पृथ्वी के इतिहास को दीर्घ अवधियों में बाँट कर किया जाता है। जलवायु की दशाओं में यह बदलाव प्राकृतिक (Natural) भी हो सकता है और मानव के क्रियाकलापों का परिणाम भी। ये सभी साक्ष्य इंगित करते हैं कि जलवायु परिवर्तन एक प्राकृतिक एवं सतत् प्रक्रिया है, जो सभी कालों में होती रही है।
विगत दशकों में जलवायु परिवर्तन के कारण
विगत दशकों में एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी जलवायु परिवर्तन की स्पष्टता के दो कारण है प्राकृतिक तथा मानवीय इनका विवरण निम्न प्रकार है
जलवायु परिवर्तन के प्राकृतिक कारण
जलवायु परिवर्तन के प्राकृतिक कारण निम्नलिखित है
- सौर कलंक का सिद्धान्त इस सिद्धान्त में सूर्य पर काले धब्बे की संख्या बढ़ने से मौसम ठण्डा व आर्द्र हो जाता है और तूफानों की संख्या बढ़ जाती है, जबकि संख्या घटने पर उष्ण व शुष्क दशाएँ पैदा होती है।
- मिलँकोविच दोलन सिद्धान्त इस सिद्धान्त का सम्बन्ध सूर्यातप से होता है। यह सिद्धान्त सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के कक्षीय लक्षणों में बदलाव या पृथ्वी के अक्षीय झुकाव आदि में परिवर्तन के आधार पर पृथ्वी को प्राप्त होने वाले सूर्यातप (Insolation) की मात्रा के घटने व बढ़ने के आधार पर जलवायु परिवर्तन की व्याख्या करता है।
- ज्वालामुखी सिद्धान्त इसके द्वारा वायुमण्डल में आए पदार्थ व गैसें पृथ्वी पर आने वाले सूर्यातप की मात्रा को कम कर देती है। विगत वर्षों में हुए पिनाटोबा व एल सियोल ज्वालामुखी उद्भेदनों के बाद पृथ्वी का औसत ताप कुछ हद तक गिर गया था। पिछली शताब्दी में पृथ्वी के औसत तापमान में 0.8°C की वृद्धि देखी गई है।
- वायुमण्डल के गैसीय संयोजन में परिवर्तन का सिद्धान्त वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रिक ऑक्साइड, मीथेन, जलवाष्प आदि की मात्रा में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात्, जब से पेट्रोलियम, कोयले तथा प्राकृतिक गैस का प्रयोग बढ़ा है, तब से वायुमण्डल की गैसों की संरचना में तेजी से परिवर्तन हो रहा है, जो जलवायु परिवर्तन की दर को बढ़ाता है।
- महाद्वीपीय विस्थापन का सिद्धान्त महाद्वीपीय विस्थापन से सम्बद्ध विभिन्न सिद्धान्तों; जैसे-वेगनर का महाद्वीपीय सिद्धान्त, हैरी-हैस का सागर तल विस्तारण सिद्धान्त एवं मॉन का प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त आदि के अनुसार 30 करोड़ वर्ष पूर्व शुरू हुई महाद्वीपों में विस्थापन की प्रक्रिया निरन्तर जारी है। इस प्रक्रिया के कारण भी जलवायु में परिवर्तन होता रहता है।
जलवायु परिवर्तन के मानवीय कारण
जलवायु परिवर्तन के निम्नलिखित मानवजनित कारण हो सकते हैं
- वन विनाश वन भू-तल के लिए प्राकृतिक छतरी का निर्माण करते हैं, क्योंकि ये मानव द्वारा उत्सर्जित गैसों को सोखकर वायुमण्डल के हरितगृह प्रभाव को कम करते हैं। वस्तुतः वन अपनी वृद्धि के लिए कार्बन डाइआक्सॉइड का उपयोग करते हैं। अतः वनों के विनाश से कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हो रही है। इसके अतिरिक्त अतिचारण (Overgrazing) तथा स्थानान्तरित/झूमिंग कृषि से भी वनों का विनाश हो रहा है, जिससे वैश्विक तापन में वृद्धि हुई है।
- जीवाश्म ईंधन कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड जैसी गैसों का उत्सर्जन जीवाश्म ईंधन के व्यापक प्रयोग से बढ़ा है, जो जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी मानवजनित कारण है। जीवाश्म (Fossil) आधारित ईंधन के प्रयोग से वायु एवं जल प्रदूषण के अतिरिक्त ग्रीनहाउस गैसों का संचयन भी बढ़ा है।
- वर्तमान कृषि पद्धति जलवायु परिवर्तन में मानव द्वारा अपनाई जाने वाली वर्तमान कृषि पद्धति भी बहुत हद तक उत्तरदायी है। जलमग्न चावल के खेत की जुताई से मीथेन का उत्सर्जन होता है, जो ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा करती है। जुगाली करने वाले पशु भी मीथेन का उत्सर्जन करते हैं। प्रति इकाई द्रव्यमान के आधार पर वायुमण्डलीय मीथेन दीर्घ आवेशित विकिरणों (Charged Radiation) को अवशोषित (Absorption) करने में CO. तुलना में 22 गुना अधिक प्रभावी है। की
- औद्योगीकरण तथा शहरीकरण जलवायु परिवर्तन के लिए औद्योगीकरण तथा शहरीकरण में उत्तरोत्तर वृद्धि मानवजनित (Man-made) प्रमुख कारणों में से एक है। प्रकृति का अतिदोहन कर मानव औद्योगीकरण तथा शहरीकरण में वृद्धि कर रहा है, जो व्यापक रूप से जलवायु को प्रभावित करता है।
जलवायु परिवर्तन के मापक
जलवायु परिवर्तन का विश्लेषण स्थानिक एवं कालिक दोनों आधारों पर किया जाता है। सामान्य रूप में जलवायु परिवर्तन का मापन अतिसूक्ष्म (10 दिनों की अवधि) से वृहदस्तरीय (हजारों-लाखों वर्ष) तक होता है।
बारी और चोर्ले ने जलवायु परिवर्तन की परिवर्तनशीलता को मापने के लिए तीन वर्गों को वर्गीकृत किया है; जैसे- आवर्ती, अर्द्ध आवर्ती एवं अनावर्ती। महाद्वीपीय या देशीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन के अध्ययन को प्रमुख तीन कालिक मापकों में वर्गीकृत किया गया है।
- वृहदस्तरीय कालिक मापक इसकी समयावधि लाखों वर्ष की होती है। इसको भूमण्डलीय स्थानिक मापक की संज्ञा भी दी जाती है।
- मध्यस्तरीय कालिक मापक इसकी समयावधि हजारों वर्ष की होती है। इसको प्रादेशिक स्थानिक मापक भी कहा जाता है।
- सूक्ष्म स्तरीय कालिक मापक इसकी समयावधि सैकड़ों वर्ष की होती है।
सामान्य तौर पर जलवायु परिवर्तनों का दो स्तरों पर अध्ययन किया जाता है
-अल्पकालीन परिवर्तन इसमें पृथ्वी के वायुमण्डलीय तन्त्र के ऊर्जा सन्तुलन में होने वाले परिवर्तनों जैसे मौसम एवं जलवायु सम्बन्धी परिवर्तनों को शामिल किया जाता है।
-दीर्घकालिन परिवर्तन इसमें हजारों वर्षों से लेकर लाखों वर्षों तक हुए दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन शामिल होते हैं, इसमें परिवर्तन मन्द एवं प्राकृतिक कारकों द्वारा होता है।
जलवायु परिवर्तन के साक्ष्य
जलवायु परिवर्तन के साक्ष्यों को जलवायु परिवर्तनों के संकेतकों की संज्ञा दी जाती है। इसमें साक्ष्य प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में दिखाई देता है। जलवायु परिवर्तनों के संकेतकों के माध्यम से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर ही पुराजलवायु के इतिहास की पुनर्रचना की जाती है। ऐसे में आधारभूत स्रोतों के आधार पर पुराजलवायु के संकेतकों को निम्न रूप में वर्गीकृत किया जाता है
जैविक संकेतक
- वानस्पतिक संकेतक (पौधों के जीवाश्म अवशेष, जीवाश्मित पराग, ऑक्सीजन आइसोटोप, वृक्षवलय वृद्धि और वृक्ष कालानुक्रमिकी)
- प्राणिजात संकेतक (जीव-जन्तुओं का विवरण एवं प्रसारण और जीवाश्मित प्राणिओं का अवशेष)
भौमिक संकेतक
- स्थलीय आदिकालिक निक्षेप [अवसादी, सरोवरी और वाष्पजन (इवैपोराइट निक्षेप]
- सागरीय निक्षेप (सागरीय नितलीय निक्षेप)
- मृदीय निक्षेप
हिमानी संकेतक
- हिमानीकरण (हिमकाल, हिमानी, हिमचादर और हिमकोर)
- परिहिमानी साक्ष्य
विवर्तनिक संकेतक
- ध्रुवों का परिक्रमण एवं महाद्वीपीय प्रवाह
- पुराचुम्बकत्व एवं सागर नितल प्रसरण
भ्वाकृतिक संकेतक
- भ्वाकृतिक आकृतियों (हिमानी बोल्डर्स, बालुका स्तूप, नदी वेदिकाएँ, पेडीमाण्ट, ड्यूटी क्रस्ट, टार्स)
- भ्वाकृतिक प्रक्रम
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के उपाय
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के उपायों (Climate Change Mitigations) के अन्तर्गत ऐसे उपाय सम्मिलित हैं, जो दीर्घकाल में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों एवं दुष्प्रभावों की गहनता (Intensity) को कम करने में सहायक हो सकें। इसके अन्तर्गत मानवजनित ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को कम करना भी शामिल है, ही वनीकरण व जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का प्रबन्धन शामिल है। जलवायु परिवर्तन को कम करने के उपाय निम्नलिखित हैं
कार्बन पृथक्करण
कार्बन पृथक्करण (Carbon Sequestration) वातावरण से कार्बन को करने तथा उसे एक भण्डार गृह में एकत्र करने की प्रक्रिया है। इसके में दूर अतिरिक्त यह ग्रीन हाउस गैसों के वायुमण्डलीय तथा समुद्री संचय की गति को क्षीण करने की एक प्रक्रिया है। कार्बन डाइऑक्साइड प्राकृतिक रूप से जैविक, रासायनिक या भौतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से वातावरण से पृथक् होती है, लेकिन अधिकतर यह पृथक्करण सम्पूर्णतया कृत्रिम प्रक्रिया अपनाकर किया जाता है।
कार्बन ऑफसेट
कार्बन ऑफसेट से तात्पर्य कार्बन डाइऑक्साइड अथवा इसके समान किसी अन्य ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के एक मीट्रिक टन में कमी से है। कार्बन ऑफसेट के मापन में कार्बन डाइऑक्साइड इक्वलैण्ट (CO,e) और छ: प्राथमिक हरित गृह गैसों को मीट्रिक टन में मापा जाता है।
छ: हरित गृह गैसों के अन्तर्गत कार्बन डाइऑक्साइड (CO,), मीथेन (CH,), नाइट्स ऑक्साइड (N,O), परफ्लोरोकार्बन्स (PFCs), हाइड्रोफ्लोरोकार्बन्स (HFCs) तथा सल्फर हेक्साफ्लोराइड (SF) सम्मिलित हैं।
कार्बन कुण्ड
कार्बन कुण्ड (Carbon Sink) से तात्पर्य उस स्थान या वस्तु से है, जो कार्बन को सोख लेती है। जंगल/वन, मृदा, सागर, महासागर, जलाशय, वायुमण्डल आदि सभी कार्बन कुण्ड के ही रूप हैं। इन सभी में कार्बन को सोखने की क्षमता होती है। अनेक जगहों पर बहुत से कृत्रिम कार्बन कुण्ड (Artificial Carbon Sink) भी बनाए गए हैं; जैसे-लैण्डफिल (Landfill) तथा कार्बन संचय स्थल (Carbon Capture and Storage) । वनों द्वारा सोखे गए कार्बन को हरित कार्बन (Green Carbon) और सागरों द्वारा सोखे गए / संगृहीत किए गए कार्बन को नीला कार्बन (Blue Carbon) कहते हैं।
कार्बन टैक्स
यह एक प्रकार का पर्यावरणीय कर है, जो कार्बन उत्सर्जन पर लगाया जाता है। यह उस कार्बन का मूल्य है, जो कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस जैसे हाइड्रोकार्बन ईंधन के जलने से उत्सर्जित होता है। इस टैक्स के साथ दो अन्य कर भी सम्बन्धित हैं- पहला, उत्सर्जन कर (Emission Tax) और दूसरा, ऊर्जा कर (Energy Tax)। उत्सर्जन कर जहाँ प्रत्येक टन ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन पर लगने वाला टैक्स है, वहीं ऊर्जा कर ऊर्जा से सम्बन्धित वस्तुओं पर लगने वाला टैक्स है।
कार्बन उधार / कार्बन क्रेडिट
क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) के पश्चात् कार्बन क्रेडिट (Carbon (Credit) की अवधारणा अस्तित्व में आई। इसके अन्तर्गत क्योटो प्रोटोकॉल के आधार पर विकसित देशों को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को सीमित करने के लिए निम्न कदम उठाने होंगे।
- वास्तविक हानिकारक गैसों का उत्सर्जन क्योटो समझौते की सीमा के अनुसार होना चाहिए।
- प्रत्येक वैसे देश जो हानिकारक गैस निर्धारित सीमा से कम करेंगे, उनको कार्बन उधार (कार्बन क्रेडिट) के सर्टिफिकेट (प्रमाण-पत्र) दिए जाएँगे। इन हानिकारक गैसों में जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्स ऑक्साइड तथा ओजोन सम्मिलित हैं।
कार्बन चिह्न
कार्बन चिह्न, मानव प्रक्रियाओं के पर्यावरण पर प्रभाव को दर्शाता है। इसका एक विशेष विधि से आकलन किया जाता है। मनुष्य अपने दैनिक जीवन में प्रचुर मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड निष्कासित करता रहता है और इस कार्बन के चिह्न पृथ्वी पर छोड़ता रहता है। ग्रीन हाउस गैसों के प्रतिव्यक्ति या प्रति इकाई उत्सर्जन की मात्रा को उस व्यक्ति या औद्योगिक इकाई का कार्बन फुटप्रिण्ट कहा जाता है। कार्बन फुटप्रिण्ट की माप करने के लिए लाइफ साइकिल एसेसमेण्ट विधि का प्रयोग किया जाता है।
यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (INFCCC)
जलवायु पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (United Nation Framework Convention on Climate Changed, UNFCCC) एक अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्बन्धी सन्धि है। यह जून, 1992 में रियो-डि-जेनेरियो में होने वाले पृथ्वी सम्मेलन के दौरान मूर्त रूप में आई थी। इस सन्धि का प्रमुख उद्देश्य ग्रीन हाउस गैसों के भयंकर स्तर को रोककर जलवायु परिवर्तन में मानवीय हस्तक्षेप को रोकना है।
वर्ष 2011 तक इन सन्धि पर विश्व के 194 देशों ने सहमति प्रदान की। यह सन्धि 21 मार्च, 1994 से लागू की गई। इसकी पहली बैठक वर्ष 1995 में बर्लिन (जर्मनी) में हुई थी, तब से लेकर वर्ष 2015 के पेरिस (फ्रांस) सम्मेलन तक कुल 21 कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज की बैठक हो चुकी है। कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज का 22वाँ सम्मेलन नवम्बर, 2016 में माराकेश (मोरक्को) में तथा सम्मेलन का 23वाँ सत्र नवम्बर, 2017 बॉन (जर्मनी) में आयोजित हुआ। वहीं इस सम्मेलन के 24वें सत्र (कोप-24) का आयोजन दिसम्बर, 2018 कटोविस (पोलैण्ड) हुआ।
जलवायु परिवर्तन पर IPCC रिपोर्ट
संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन पर अन्तर्सरकारी दल (Intergovernmental Panel Climate Change, IPCC) ने अपनी पाँचवीं रिपोर्ट 2 नवम्बर, 2014 को प्रस्तुत की थी, जिसमें संयुक्त राष्ट्र संघ के 130 देशों के 831 वैज्ञानिक और विशेषज्ञ शामिल थे। IPCC की इस पाँचवीं रिपोर्ट में निम्न अनुमान व्यक्त किए गए हैं।
- यदि भविष्य में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ेगा, तो वैश्विक तापन (Global Warming) भी बढ़ेगा।
- वैश्विक जल चक्र (Global Water Cycle) में परिवर्तन होगा, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव विश्व स्तर पर आर्द्र एवं सूखे क्षेत्रों में असमानता के रूप में नजर आएगा।
- समुद्री सतह के और अधिक गर्म होने से ऊष्मा का स्थानान्तरण, गहरे सागरीय भागों तक होगा, जिससे महासागरीय परिसंचरण तन्त्र प्रभावित होगा।
- महासागरों में अम्लीकरण की दर में वृद्धि होगी। .
- उत्तरी अमेरिका गर्मी के कारण बर्फ पिघल रही है, जिससे बाढ़ आने का खतरा बना रहेगा। गर्म हवाओं का आविर्भाव होगा, जोकि मानव स्वास्थ्य तथा कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी।
- यूरोप वर्ष 2080 तक यूरोप के पर्वतीय क्षेत्रों में स्थित ग्लेशियर पिघल जाएंगे, जिससे बर्फ कम होगी, साथ ही अनेक प्रजातियाँ भी विलुप्त हो जाएँगी। दक्षिण यूरोप जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित होगा। पानी की कमी हो जाएगी। परिणामस्वरूप मानव स्वास्थ्य और कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
- लैटिन अमेरिका निरन्तर पिघलते हिमनद के कारण जल संकट गम्भीर हो जाएगा, बढ़ते तापमान और मिट्टी में पानी की कमी से जंगल खतरे में आ जाएंगे।
- अफ्रीका समुद्र का बढ़ा जलस्तर तटीय क्षेत्रों की आबादी को प्रभावित करेगा। वर्ष 2060 तक जल संकट के कारण 10-25 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। अनेक देशों में कृषि क्षेत्र घटकर आधा रह जाएगा।
- एशिया तटीय क्षेत्रों (Coastal Areas) में समुद्र का स्तर अधिक बढ़ने के कारण बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा। जलवायु परिवर्तन बढ़ते हुए शहरीकरण और औद्योगीकरण के साथ मिलकर पर्यावरण के लिए खतरा बन जाएगा। वर्ष 2050 तक पूर्वी, दक्षिण-पूर्वी, मध्य तथा दक्षिणी एशिया में साफ पीने के पानी की भयंकर समस्या होगी। इन क्षेत्रों में बाढ़, सूखा एवं महामारियों (Flood, Drought and Epidemic) से मरने वालों की संख्या बढ़ जाएगी।
- ऑस्ट्रेलिया वर्ष 2030 तक ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड में पानी की अधिक कमी होगी तथा वर्ष 2060 तक जैव-विविधता (Biodiversities) को अत्यधिक क्षति होगी। वनाग्नि तथा सूखे के कारण वर्ष 2030 तक ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड के पूर्वी भागों में कृषि की हानि होगी। अनेक तटीय क्षेत्रों के जलमग्न होने एवं ग्रेट बैरियर रीफ को अधिक क्षति पहुँचने की सम्भावना है।
मानव का वैश्विक जलवायु पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन के लिए प्राकृतिक और मानवजनित कारण दोनों ही उत्तरदायी होते हैं। वैसे मनुष्य की विविध क्रियाओं के फलस्वरूप जलवायु में हुए परिवर्तन को हम वृहत पैमाने पर नहीं देखते हैं लेकिन सूक्ष्म जलवायु की दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि मानव अपने विभिन्न कार्यकलापों के द्वारा इसमें भारी मात्रा में परिवर्तन करता है। इसके विभिन्न साक्ष्य हमें सामान्य जीवन से दृष्टिगोचर होता है जैसे
- मानव कृषि कार्य या उद्योग-धन्धे के लिए भारी मात्रा में जंगल की सफाई करते हैं या वनों को काटते हैं तब वह अनजाने में ही सही सूक्ष्म जलवायु को प्रभावित करते हैं, क्योंकि वृक्षों की कटाई से वृक्षों द्वारा होने वाला वाष्पोत्सर्जन की दर में कमी आती है, जिससे वर्षा के रूप में धरातल पर गिरने वाले जल की मात्रा भी परिवर्तित होती है।
- इसके विपरित हम पाते हैं कि वनों का विकास होने से वर्षा के रूप में धरातल पर गिरने वाले जल की मात्रा में वृद्धि होती है और साथ ही वृक्ष में पवनों के वेग को कम करके आपदा से भी निजात दिलाता है और वनों के विकास से धरातलीय तापमान भी नियन्त्रित रहता है।
- सिंचाई के लिए किए जाने वाले विभिन्न उपायों जैसे कृत्रिम जलाशय एवं झीलों का निर्माण और नदियों के प्रवाह पथ को मोड़ देना आदि से भी सूक्ष्म स्तरीय जलवायु में परिवर्तन देखने को मिलता है। इस प्रकार के परिवर्तन, के अनेक कारण हो सकते हैं जैसे उपलब्ध प्राकृतिक नमी में परिवर्तन, स्थल या जल की सतह में परिवर्तन द्वारा विभेदी ऊष्मन को प्रभावित करना तथा स्थानीय रूप से पवन प्रवाह में परिवर्तन आदि।
- मानव अपने वातावरण में धरातल द्वारा अवशोषित सूर्यातप की मात्रा को भी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करके स्थानीय जलवायु के परिवर्तन में मुख्य भूमिका निभाता है जैसे नगरों में बनाई गई सड़के और पक्की जमीन घास के मैदानों की अपेक्षा अधिक मात्रा में सौर विकिरण का अवशोषण करती हैं, जिससे स्थानीय जलवायु में परिवर्तन हो रहा है।
- नगरों में बनी इमारतों के कारण भी पवन का वेग कम होता जाता है, जिससे हवाएँ इमारतों के बीच वाले खुले स्थानों में ऊपर उठती है, जिससे कुछ ऊँचाई तक तापमान में वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त लोग अपने घरों को गर्म करने, वातानुकूलित से निकली गर्म हवाएँ व उद्योग-धन्धों के भट्टियों में जलाए गए ईंधनों से भी नगरों के तापमान अपने आस-पास के क्षेत्र में तापमान से उच्च होते हैं।
- नगरों में आस-पास के क्षेत्रों से वर्षा भी अधिक होती हैं। इसका कारण भी स्पष्ट है जैसे कल-कारखानों से निकला धुआँ, वाहनों से निकलने वाले प्रदूषण वायुमण्डल में संघनन नाभिकों का निर्माण करते हैं। जिससे यहाँ आर्द्रता युक्त हवाएँ संघनित होकर वर्षा करती हैं। निष्कर्पतः यह कहा जा सकता है कि नगरीकरण एवं औद्योगीकरण से वर्षा के प्रतिरूप में परिवर्तन हो जाता है। वर्षा के अतिरिक्त नगरों की दशाएँ तूषार दृष्टि एवं तड़ित झंझा के लिए भी उत्तरदायी होती है।
- नगरों में कोहरा भी अधिक उत्पन्न होता है। तापमान की व्युत्क्रमणता भी यहाँ के वायुमण्डल में स्थायित्व उत्पन्न करती हैं, जिससे प्रदूषित कणों में एवं गैसों का बाहर जाना कठिन होता है जिससे स्मॉग जैसी विध्वंसकारी घटनाएँ भी घटित होती है।
- . प्रकृति द्वारा स्वच्छ वातावरण को मानव अपने तूच्छ इच्छापूर्ति के लिए प्रदूषित एवं विखण्डित करता जा रहा है जो स्थानीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं ये परिवर्तन अल्पकालिक ही क्यों न हो लेकिन इसके परिणाम दीर्घकालिन होते हैं इसलिए आवश्यक है कि इस पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाया जा सके।
भूमण्डलीय पर्यावरण परिवर्तन
(Global Environment Changes)
भूमण्डलीय पर्यावरण में परिवर्तन को निम्नलिखित सन्दर्भों में देखा जा सकता है
वैश्विक तापन
वैश्विक तापन से तात्पर्य "पृथ्वी के तापमान में हो रही निरन्तर बढ़ोतरी से है।" हमारी पृथ्वी प्राकृतिक तौर पर सूर्य की किरणों से ऊष्मा प्राप्त करती है। यह किरणें वायुमण्डल से गुजरकर भू-सतह से टकराती हैं और फिर वहीं से परावर्तित होकर पुनः लौट जाती है। पृथ्वी का वायुमण्डल अनेक गैसों का मिश्रण है, जिनमें कुछ हरित गृह गैसें भी हैं।
इन हरित गृह गैसों को बढ़ते सान्द्रण के कारण सूर्य से आने वाली किरणों की ऊष्मा का कुछ भाग पृथ्वी पर ही रोक लिया जाता है और यही से वैश्विक तापन का शुरू हो जाता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को ही ग्रीन हाउस प्रभाव (हरित गृह प्रभाव) अथवा वैश्विक तापन या भूमण्डलीय ऊष्मन कहते हैं।
वैश्विक तापन के प्रभाव
वैश्विक तापन के प्रभाव निम्नलिखित हैं।
- बर्फ का पिघलना वैश्विक तापन के कारण ध्रुवों पर जमी बर्फ एवं अन्य ग्लेशियर के पिघलने से पर्यावरण एवं जैव-विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बर्फ के पिघलने से सर्वप्रथम बाढ़ आती है। उसके पश्चात् सूखे की समस्या निर्मित हो जाती है। नासा (NASA) के अनुसार 2003-08 के बीच अण्टार्कटिका, ग्रीनलैण्ड व अलास्का से लगभग 20 खरब टन बर्फ का पिघलाव हो चुका है।
- समुद्र का ऊपर उठना हिमनदियों के पिघलने से समुद्र तल ऊपर उठ जाता है, क्योंकि पिघला हुआ हिम अन्ततः नदियों आदि से होते हुए सागर तक पहुँचकर उसके जल तल में वृद्धि कर देता है। अतः समुद्र तल का ऊपर उठना हिमनदियों के पिघलने से पैदा हुआ प्रभाव है। वर्ष 1993 से 2003 के बीच समुद्र तल में 3 मिमी की दर से वृद्धि हुई है और यदि इसी दर से उत्थान होता रहा, तो वर्ष 2100 तक समुद्र तल में 28 से 43 सेमी की वृद्धि हो जाएगी।
- महासागरीय धाराओं में परिवर्तन वैश्विक तापन के कारण महासागरीय जल के तापमान, लवणता तथा घनत्व आदि में बदलाव आता है। इससे महासागरीय धाराओं की गति, दिशा व आकार प्रभावित होते हैं। जब धाराओं का वर्तमान प्रवाह चक्र बाधित होगा, तो वैश्विक ऊष्मा स्थानान्तरण की प्रक्रिया भी बाधित होगी और तटीय देशों की जलवायु में भी बदलाव होगा।
- जातियों के वितरण एवं जैव-विविधता पर प्रभाव प्रत्येक जाति एक विशिष्ट प्रकार के वातावरण से अनुकूलन स्थापित करके सामंजस्य स्थापित करती हैं, परन्तु भूमण्डलीय तापमान से जीवों का भौगोलिक वितरण प्रभावित हो सकता है, इससे विभिन्न जातियों का विस्थापन प्रारम्भ हो सकता है। यदि वातावरण 2°C से 5°C तक गर्म होता है, तो वानस्पतिक जातियों का वितरण 250-600 किमी तक स्थानान्तरित हो जाएगा। भूमण्डलीय तापन के कारण अण्टार्कटिका की पेंग्विन की संख्या में 40% की कमी देखी गई है, क्योंकि प्राणी प्लैकटन (Zoo Plankton), जो पेंग्विन के आहार हैं, ताप में वृद्धि के कारण नष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त प्रवाल विरंजन के कारण प्रवालों का भी विनाश प्रारम्भ हो जाता है।
- . खाद्यान्न उत्पादन पर प्रभाव तापमान में वृद्धि से पौधों में अनेक रोग एवं हानिकारक कीट एवं खरपतवार उत्पन्न हो जाते हैं एवं श्वसन क्रिया की दर में वृद्धि हो जाती है, जिस कारण फसलों का उत्पादन कम हो जाता है। तापमान में 1°C वृद्धि से केवल दक्षिण-पूर्व एशिया में चावल उत्पादन लगभग 5% कम हो सकता है। अतः कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि सम्पूर्ण विश्व में खाद्यान्न उत्पादन की समस्या को बढ़ा देगी। इसी कारण संयुक्त राष्ट्र संगठन (United Nation Organisation) महासचिव ने वर्ल्ड फूड समिट में कहा था, कि “जब तक जलवायु सुरक्षा नहीं होगी तब तक खाद्य सुरक्षा नहीं हो सकती।”
- मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव जीवाणुओं तथा विषाणुओं के प्रकोप में वृद्धि होगी, क्योंकि अधिक ताप में इनकी क्रियाशीलता बढ़ जाएगी, जिस कारण रोगों के संचार में वृद्धि शुरू हो जाएगी, वर्तमान में जो बीमारियाँ उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में हैं, उसका विस्तार शीतोष्ण कटिबन्ध में भी हो सकता है। डेंगू, मलेरिया, प्लेग, पीलिया, श्वसन सम्बन्धी एवं चर्म रोगों (Skin Disease) में वृद्धि होगी। मानव स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से विस्थापित आबादी पर्यावरण शरणार्थी (Environmental Migrants) कहलाएगी।
किसी गैस की वैश्विक ऊष्मन क्षमता से तात्पर्य किसी निश्चित समय के दौरान (प्राय: सौ वर्ष) कार्बन डाइऑक्साइड और उस गैस द्वारा अवशोषित ऊर्जा की तुलनात्मक माप है। कार्बन डाइऑक्साइड की वैश्विक ऊष्मन क्षमता 1 मानी गई है, जोकि अन्य गैसों की वैश्विक ऊष्मन क्षमता के मापन हेतु आधार रेखा का कार्य करती है। किसी गैस की वैश्विक ऊष्मन क्षमता जितनी अधिक होगी, वह प्रति पौण्ड उतनी ही अधिक ऊर्जा अवशोषित करेगी और पृथ्वी के गर्म होने में अधिक योगदान देगी।
वैश्विक ऊष्मन के सन्दर्भ में ग्रीन हाउस गैसों की क्षमता/प्रभाव का मापन दो आधारों पर किया जाता है
- कोई भी गैस कितनी ऊष्मा को अवशोषित कर उसे अन्तरिक्ष में जाने से रोक सकती है।
- कोई भी गैस कितने लम्बे समय तक वायुमण्डल में बनी रहती है।
- जलवायु पर प्रभाव उपोष्ण कटिबन्धीय (Sub-tropical Zone) क्षेत्रों में वर्षा 0.3% प्रतिदशक की दर से कम हुई है। इसके साथ ही अतिवादी घटनाओं; जैसे-वाढ़, सूखा आदि की बारम्बारता में पर्याप्त वृद्धि हो सकती है। इससे मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव भी पड़ेगा। वैश्विक तापन के कारण उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों की अपेक्षा ध्रुवीय क्षेत्रों के तापमान में अधिक वृद्धि होती है। समुद्री जल तल के ऊपर उठने और तापमान के बढ़ने से वाष्पीकरण में वृद्धि हो जाती है।
वैश्विक तापन को नियन्त्रित करने के उपाय निम्नलिखित हैं।
- ग्रीन हाउस गैसों का स्राव, जीवाश्म ईंधन का कम उपयोग तथा ऊर्जा के अन्य स्रोतों-पवन ऊर्जा, सौर्य ऊर्जा आदि का उपयोग बढ़ाना चाहिए। इसके अतिरिक्त पृथ्वी पर वानस्पतिक क्षेत्र विशेषकर वनों को बढ़ाएँ, जिससे CO, का उपयोग प्रकाश संश्लेषण में हो जाएगा।
- खेती में नाइट्रोजन खादों का उपयोग कम करें, जिससे NO, का उत्सर्जन कम होगा। क्लोरो-फ्लोरो कार्बन के प्रतिस्थापित पदार्थों का विकास करना।
- निःशेष तेल एवं गैस भण्डार, भूमिगत लवणीय शैलसमूह तथा परित्यक्त एवं गैर-लाभकारी कोयला संस्तर तापमान के न्यूनीकरण के सम्भावित उपाय हो सकते हैं।
हरित गृह प्रभाव
ग्रीन हाउस प्रभाव (Green House Effect) एक प्राकृतिक घटना है, क्योंकि इसी के कारण पृथ्वी का निचला वायुमण्डल गर्म बना रहता है और तापमान को जीवन के अनुकूल बनाए रखता है। पृथ्वी के धरातल के सन्दर्भ में कार्बन डाइ-ऑक्साइड, मीथेन, क्लोरो फ्लोरो कार्बन, नाइट्स ऑक्साइड तथा जलवाष्प (Water Vapour) आदि गैसें हरित गृह की तरह व्यवहार करती हैं। वातावरण की कार्बन डाइऑक्साइड तथा जलवाष्प के अवशोषण द्वारा हरित गृह प्रभाव होता है। ग्रीन हाउस गैसों की संकल्पना जोसफ कोरियर ने प्रस्तुत की थी।
ये सौर्यिक विकिरण (Solar Radiation) को तो धरातल तक पहुँचने में कोई बाधा उत्पन्न नहीं करती हैं, लेकिन पृथ्वी से उत्सर्जित होने वाली दीर्घ तरंग विकिरण, विशेषकर अवरक्त विकिरण को सोखकर उन्हें पुनः घरातल की ओर प्रत्यावर्तित कर देती हैं अर्थात् हरित् गृह प्रभाव आगामी सूर्य किरण को सूर्य किरण को अपने गैस मण्डल से होकर जाने देती हैं लेकिन निर्गामी अवरक्त विकिरण को रोकती है, जिससे पृथ्वी की धरातलीय सतह का निचला वायुमण्डल निरन्तर गर्म होता रहता है। ग्रीन हाउस प्रभाव जीवन के लिए अनिवार्य है। इसके अभाव में पृथ्वी एक शीत व जीवन विहीन ग्रह में बदल जाएगी, लेकिन ग्रीन हाउस गैसों की अनियन्त्रित बढ़ती सान्द्रता जीवन के लिए हानिकारक होती है।
| ग्रीन हाउस गैसें | मुख्य स्रोत (वृद्धि) | ह्रास | जलवायु हेतु महत्व |
|---|---|---|---|
| कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) | जीवाश्मी ईंधनों का दहन निर्वनीकरण | पौधों द्वारा प्रकाश संश्लेषण सागरों द्वारा ग्रहण | समतापमण्डलीय ओजोन (CO) पर प्रभाव |
| मीथेन (CH4) | आर्द्रभूमियाँ, समुद्र व जलीय चावल के खेत, ज्वालामुखी, वनीय आग पशुओं की जुगाली | हाइड्रॉक्साइड के साथ अभिक्रिया
मृदा के सूक्ष्मजीवों द्वारा अवशोषण - - |
अवरक्त किरणों का अवशोषण, कार्बन डाइ ऑक्साइड का निर्माण
- - |
| नाइट्रस ऑक्साइड (NO2) | जीवाश्म ईंधनों का दहन उर्वरक | मृदा द्वारा अवशोषण पराबैंगनी किरणों द्वारा विना | अवरक्त किरणों का अवशोषण - - |
| बायोमास के जलने से | - | - | |
| ओजोन (O3) | ऑक्सीजन की प्रकाश रासायनिक क्रिया द्वारा | विभिन्न रासायनिक अभिक्रियाएँ | अवरक्त और पराबैंगनी विकिरण का अवशोषण |
| कार्बन मोनो ऑक्साइड | जीवाश्म ईंधनों का दहन उद्योग | मृदा द्वारा अवशोषण हाइड्रॉक्साइड (OH) के साथ अभिक्रिया | कार्बन डाइऑक्साइड का निर्माण |
| क्लोरो फ्लोरो कार्बन (CFCs) | एयरकण्डिशनर, फ्रिज फोम उद्योग प्रसाधन सामग्री | समतापमण्डल में ऑक्सीजन के साथ
अभिक्रिया
- - |
अवरक्त विकिरण का अवशोषण, समतापमण्डलीय
ओजोन का ह्रास - - |
| सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) | ज्वालामुखी कोयला व बायोमास का जलना | हाइड्रॉक्साइड के साथ अभिक्रिया | सौर्य विकिरण को प्रकीर्णित (Scattering) करने वाले ऐरोसोल का निर्माण |
| जलवाष्प(H2O) | सागरों द्वारा वाष्पीकरण | वर्षा | जल चक्र का निर्माण |
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