मौसमी संकट और आपदाएँ (मौसम संबंधी खतरे और आपदाएँ) प्रकृत्तिजन्य अप्रत्याशित ऐसी सभी घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों को इतना तीव्र कर देती हैं कि विनाश की स्थिति उत्पन्न होती है, चरम प्राकृतिक घटनाएँ या आपदा कहलाती है। इन चरम घटनाओं या प्रकोपों से मानव समाज, जन्तु एवं पादप समुदाय को अपार क्षति होती है। चरम घटनाओं में ज्वालामुखी विस्फोट, दीर्घकालिक सूखा, भीषण बाढ़, वायुमण्डलीय चरम घटनाएँ; जैसे- चक्रवात, तड़ित झंझा, टॉरनेडो, टाइफून, वृष्टि प्रस्फोट, ताप व शीत लहर, हिम झील प्रस्फोटन आदि शामिल होते हैं। प्राकृतिक और मानव जनित कारणों से घटित होने वाली सम्पूर्ण वायुमण्डलीय एवं पार्थिव चरम घटनाओं को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है। इन आपदाओं से उत्पन्न विनाश की स्थिति में धन-जन की अपार हानि होती है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन निम्न प्रकार है:- चक्रवात (Cyclone) 30° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्णकटिबन्धीय चक्रवात कहते हैं। ये आयनवर्ती क्षेत्रों में पाए जाने वाला एक निम्न वायुदाब अभिसरणीय परिसंचरण तन्त्र होता है। इस चक्रवात का औसत व्यास लगभग 640 किमी...
AGRICULTURE GEOGRAPHY
कृषि भूगोल, भूगोल की वह शाखा है, जो कृषि तत्त्वों-खेती तथा फसल की पद्धतियों के स्थानिक वितरण के बारे में अध्ययन करती है। कृषि का मुख्य उद्देश्य मानव के लिए भोजन और कच्चे माल का उत्पादन करना है।
कृषि (Agriculture)
कृषि एक अत्यन्त ही व्यापक शब्द है, जिसके अन्तर्गत मानव साधारण से लेकर अत्यन्त जटिल क्रियाओं द्वारा भूमि का उपयोग अपने लाभ के लिए भूमि से खाधान्न और कच्चा माल प्राप्त करने के लिए करता है। इन सामान्य क्रियाओं के अतिरिक्त कृषि के अन्तर्गत फलोत्पादन, वृक्षारोपण, पास एवं दाल वालो फसले पैदा करना, पशुपालन एवं मछली पकड़ना भी आता है। कृषि क्रिया इस बात का उदाहरण है कि किस प्रकार मानव अपना वातावरण अपने अनुकूल बनाता है। कृषि का मुख्य उद्देश्य मानव के लिए भोजन और कच्चे माल का उत्पादन करना है।
कृषि के प्रकार
कृषि को मुख्य रूप से जल प्राप्त के आधार पर भूमि को उपलब्ध मात्रा के आधार पर और कृषि उत्पादों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है, जिनका वर्णन निम्नलिखित है
जल प्राप्ति के आधार पर कृषि के प्रकार
जल प्राप्ति के आधार पर कृषि के प्रकार निम्नलिखित है
- तर खेती यह विशेषत: कॉप मिट्टी के उन भागों में की जाती है जहाँ साधारणतया वर्षा 200 सेमी से ऊपर होती है। भारत में मध्य और पूर्वी हिमालय प्रदेश, दक्षिणी बंगाल, मालाबार तट आदि में बिना सिचाई के हो खेती द्वारा गन्ना, चावल आदि उपजे उत्पन्न की जाती है। विश्व के अन्य देशों में आर्द्र खेतो मुख्यतः उत्तर-पश्चिमी यूरोप, उत्तरी पूर्वी दक्षिण अमेरिका, इण्डोनेशिया, श्रीलंका तथा मलेशिया आदि दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में होती है। ऐसी खेती द्वारा पैदा किये जाने वाले पदार्थ सस्ते होते हैं, क्योंकि फसलों को जल देने की आवश्यकता नहीं रहती।
- आर्द्र खेती इसके अन्तर्गत विश्व की कृषि योग्य भूमि का सबसे अधिक भाग है। यूरोप, अमेरिका और एशिया के विस्तृत कृषि भागों में इस प्रकार की खेती होती है। भारत में यह विशेषकर कॉप मिटटी और काली मिट्टी के प्रदेशों में की जाती है यहाँ वर्षा 100 से 200 सेमी तक होती है। ऐसे भाग मध्यवर्ती गंगा का मैदान, दक्षिण और मध्य प्रदेश है। यहाँ प्राय: दो फसले उत्पन्न की जाती है।
- सिंचाई द्वारा खेती यह विश्व के मानसूनी अथवा अर्द/शुष्क प्रदेशों में की जाती है, 50 से 100 सेमी तक वर्षा होती है। इन प्रदेशों में वर्षा की मात्रा अनिश्चित कम अथवा मौसम विशेष में ही होती है और जहाँ वर्षभर ही तापमान कृषि उत्पादन के उपयुक्त रहता है। ऐसे भाग भारत में गंगा का पश्चिमी मैदान, उत्तरी तमिलनाडु और दक्षिण भारत की नदियों के डेल्टा प्रदेशों में है। विश्व के अन्य देशों (यथा-मिस, चीन, इराक, संयुक्त राज्य अमरीका, मेक्सिको और ऑस्ट्रेलिया) में भी सिंचाई द्वारा खेती की जाती है। सिंचाई के सहारे गेहूं, चावल, गन्ना, कपास आदि फसले पैदा की जाती है।
- सूखी खेती विश्व के जिन भागों में 50 सेमी से भी कम वर्षा होती है। वहाँ सूखी खेती की प्रणाली अपनाई जाती है। इस खेती के अन्तर्गत भूमि की गहरी जुताई ( 19 से 25 सेमी तक) की जाती है, जिसके कारण भूमि पर गिरा हुआ जल गिरे उसी में समा जाए। प्रातःकाल इस जोती हुई भूमि को छोटे-छोटे पत्थरों से ढक दिया जाता है अथवा पटेला फेर दिया जाता है, जिसमें सूर्य की गर्मी के कारण भूमि के जल की वाष्पीकरण क्रिया न हो। पुनः पत्थरों को हटा दिया जाता जिससे भूमि को ओस का लाभ मिल सके। इस क्रिया को निरन्तर करने से भूमि में इतनी नमी प्राप्त हो जाती है कि उसमें खेती की जा सके। सूखी खेती की जाने वाली भूमि साधारणतः बलुही अथवा चिकनी दोमट मिटटी होती है। वर्षा न होने से इसकी उर्वरा शक्ति नष्ट नहीं हो पाती। सूखी खेती के अन्तर्गत कृषि में अधिक व्यय करना पड़ता है। अतः उन्हीं फसलों का उत्पादन किया जाता है, जो शुष्कता सहन करने वाली हो या जिनमें कीड़े या बीमारियाँ न लग सके अथवा जिनका उत्पादन आर्थिक रूप से लाभदायक होता है। गेहूं, जो, राई, सोरगम, फलियाँ या चारा आदि ही अधिक पैदा किया जाता है। सूखी खेती में मुख्य क्षेत्र संयुक्त राज्य अमेरिका, (जहाँ ग्रेट बेसिन, कोलम्बिया नदी और स्नेक नदी बेसिन प्रमुख हैं) ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, पश्चिमी एशिया, दक्षिणी अफ्रीका और भारत (पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात) हैं।
भूमि की उपलब्ध मात्रा के अनुसार कृषि के प्रकार निम्नलिखित हैं।
- गहरी खेती जिन देशों में जनसंख्या हानि होती है, किन्तु कृषि के लिए भूमि का अभाव होता है, उनमें इस प्रकार की खेती की जाती है। अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए भूमि को अनेकों बार जोता जाता है, उत्तम बीजों और खाद का प्रयोग अधिक मात्रा में और उचित समय पर किया जाता है, निश्चित रूप से सिंचाई की व्यवस्था की जाती है, फसलों को हेर-फेर के साथ बोया जाता है और अधिक श्रमिकों का उपयोग किया जाता है। चूंकि घने बसे देशों में कृषि के लिए नई भूमि का मिलान सीमित होता है। अतः गहरी खेती द्वारा ही उत्पादन बढ़ाया जाता है। चीन, जापान, ईरान, ग्रेट ब्रिटेन नीदरलैण्ड, जर्मनी और बेल्जियम आदि देशों में गहरी खेती की जाती है।
- विस्तृत खेती इस प्रकार की खेती उन देशों में की जाती है जहाँ उपलब्ध भूमि की मात्रा जनसंख्या के अनुपात में अधिक होती हैं। चूंकि कार्य करने के लिए श्रमिकों का अभाव होता है। अतः सम्पूर्ण कार्य यन्त्रों द्वारा ही क्रिया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, अर्जेण्टीना, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और ब्राजील में खेती का सही रूप पाया जाता है।
कृषि उत्पादों के आधार पर कृषि के प्रकार
कृषि उत्पादों के आधार पर कृषि के प्रकार निम्नलिखित हैं
- बागाती कृषि उष्ण कटिबन्धीय देशों में उपयुक्त जलवायु के कारण विशेष प्रकार की बागानी कृषि की जाती है, जिसके लिए अधिक पूँजो, विशिष्ट श्रम एवं देख-रेख की आवश्यकता पड़ती है। पूँजी और प्रवन्ध यूरोपीय देशों से तथा श्रम स्थानीय निवासियों से प्राप्त कर वनों को साफ करके को गई भूमि में गन्ना, चाय, रबड़, कहवा तथा कोको जैसी फसले पैदा की जाती हैं। दक्षिणी पूर्वी एशिया, मध्य एवं दक्षिण अफ्रीकी देश, ब्राजील, पूर्वी ऑस्ट्रेलिया, फिजी, मॉरीशस आदि द्वीपों में इस प्रकार को कृषि की जाती है।
- फलों एवं सब्जियों की कृषि नगरों के समीपवर्ती क्षेत्रों में स्थानीय माँग को पूरा करने के लिए फल एवं सब्जियों का उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है। बाजारों की समीपता, यातायात की सुविधा के आधार पर ही इस प्रकार की कृषि की जाती है। संयुक्त राज्य की डैलीफोर्निया की घाटी, फ्लोरिडा, अटलाण्टिक तटीय राज्यों और पश्चिमी यूरोपीय देशों में नगरों के समीप अनेक प्रकार के फल एवं तरकारियाँ बड़े पैमाने पर पैदा किए जाते हैं।
कृषि के अन्य प्रकार
कृषि के अन्य प्रकार निम्नलिखित हैं
- झूमिंग प्रणाली द्वारा खेती इस प्रणाली के द्वारा खेती करने में पहले वनों को जलाकर साफ कर लेते हैं। फिर वर्षा के बाद उस राखयुक्त भूमि में मोटे अनाज बिखेरकर बो देते हैं। इस प्रकार के खेतों से दो या तीन वर्षों तक फसलें प्राप्त की जा सकती हैं, उसके बाद फिर नई भूमि साफ कर ली जाती है। इस प्रकार की खेती आदिवासियों द्वारा अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका और दक्षिणी-पूर्वी एशियाई देशों में की जाती है। विश्व के विभिन्न देशों में स्थानान्तरी कृषि के अलग-अलग नाम हैं। इसे फिलिपिन्स में चेनगिन, वियतनाम में डे, ब्राजील में रोका, मेक्सिको व मध्य अमेरिका में मित्पा, कांगो प्रजातान्त्रिक राज्य (अफ्रीका) में मसोले, यूरोपीय देशों में बुश फैलो, ग्वाटेमाला व जाम्बिया में मित्पा, श्रीलंका में चेना, सूडान में नमासू, म्यांमार में तुंग्था, मलेशिया में लेडांग, इण्डोनेशिया में हुम्मा, में थाइलैण्ड में तमराई, भारत के असम में झूम, आन्ध्र प्रदेश व ओडिशा में पोडू, केरल में ओनम, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में वेवार, माशा व पेण्डा तथा राजस्थान में वालरा तथा चिमाता कहते हैं।
- सीढ़ी के आकार की खेती इस प्रकार की खेती विशेषकर पहाड़ी ढालों पर की जाती है। पहाड़ी निवासी ढालों को सीढ़ियों के आकार में काटकर छोटे-छोटे खेत बना लेते है और बड़े परिश्रम के साथ आलू, मिर्च, सब्जियाँ, चावल तथा चाय पैदा कर लेते हैं। इस प्रकार की खेती इण्डोनेशिया, श्रीलंका, उत्तर पूर्वी भारत, हिमालय की ढालों पर, चीन, जापान और थाइलैण्ड में की जाती है।
- मिश्रित खेती इस खेती के अन्तर्गत भूमि पर न केवल फसले पैदा की जाती हैं वरन् पशु भी पाले जाते हैं। कुछ फसलें पशुओं के लिए और अधिकांश मनुष्यों के लिए खाद्यान्नों के रूप में पैदा की जाती हैं। पशुओं का मल-मूत्र खेतों की उत्पादक शक्ति को बढ़ा देता है। खेती के साथ- साथ चौपाये, भेड़-बकरियाँ तथा रेशम के कीड़े और मुर्गियाँ आदि पाली जाती हैं। इस प्रकार की खेती प्रायः सभी अधिक जनसंख्या वाले देशों में की जाती है।
विश्व की कृषि पद्धतियाँ
कृषि के विभिन्न प्रकारों के अनुसार पृथ्वी के धरातल को अनेक भागों में बांटा जा सकता है, जैसे
- वे प्रदेश, जिनमें मुख्य रूप से केवल पशुपालन किया जाता है।
- वे प्रदेश, जिनमें खाद्यान्न उत्पन्न होता है और
- वे प्रदेश जिनमें पशुपालन और कृषि उत्पादन पर समान रूप से बल दिया जाता है।
इन भागों को उनके उप-विभागों में बाँटा जा सकता है। इन उप विभागों में • श्रमिकों की उपलब्धि पूँजी तथा व्यवस्था की प्राप्ति, भूमि की किस्म एवं उसकी उपलब्धि आदि के आधार पर निम्नलिखित आठ कृषि पद्धतियाँ देखने को मिलती हैं।
- प्राचीन भरण-पोषण वाली खेती
- पौध वाली खेती
- गहन भरन-पोषण वाली खेती
- व्यापारिक अन्न उत्पादक खेती
- व्यापारिक फसल एवं पशुपालन
- भूमध्य सागरीय खेती
- व्यापारिक पशुपालन
- व्यापारिक बागवानी एवं फलोत्पादन खेती
भूमि क्षमता (Land Capability)
भूमि क्षमता से अभिप्राय पृथ्वी के किसी भू-भाग का मानव द्वारा उपयोग से है। पृथ्वी पर मानव विभिन्न क्रियाकलाप करता है। इन क्रियाकलापों हेतु मानव द्वारा किए गए धरातल के उपयोग को भूमि उपयोग की संज्ञा दी जाती है।
भूमि क्षमता का वर्गीकरण
भूमि क्षमता वर्गीकरण पृथ्वी के किसी क्षेत्र का मनुष्य द्वारा उपयोग को सूचित करता है। सामान्यतः भूमि के हिस्से पर होने वाले आर्थिक क्रिया कलाप को सूचित करते हुए उसे वन भूमि, कृषि भूमि, चालू परती, चरागाह इत्यादि वर्गों में बाँटा जाता है। यदि इसे तकनीकी रूप में परिभाषित किया जाए, तो भूमि क्षमता वर्गीकरण से अभिप्राय भूमि उपयोग को “किसी विशिष्ट भू-आवरण प्रकार की रचना, परिवर्तन अथवा संरक्षण हेतु मानव द्वारा उस पर किए जाने वाले क्रियाकलापों के रूप में परिभाषित किया गया है।
वृहत स्तर पर ग्रेट ब्रिटेन में प्रथम भूमि उपयोग सर्वेक्षण वर्ष 1930 में 'डडले स्टाम्प महोदय' द्वारा किया गया था। भारत में भूमि क्षमता से सम्बन्धित मामले 'भारत सरकार' के ग्रामीण विकास मन्त्रालय के भूमि संसाधन विभाग के अन्तर्गत आते हैं। वहीं राष्ट्रीय स्तर पर भूमि उपयोग से सम्बन्धित सर्वेक्षणों का कार्य नागपुर स्थित 'राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण' एवं 'भूमि उपयोग नियोजन व्यूरो' नामक संस्था करती है। इस संस्था द्वारा भारत के विभिन्न हिस्सों के भूमि उपयोग मानचित्र प्रकाशित किए जाते हैं।
भूमि उपयोग और इसमें परिवर्तन का किसी क्षेत्र के पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। प्राकृतिक संसाधन संरक्षण से जुड़े मुद्दों पर भूमि उपयोग संरक्षण से जुड़े विन्दु हैं- मृदा अपरदन एवं संरक्षण, मृदा गुणवत्ता संवर्धन, जल गुणवत्ता एवं उपलब्धता, वनस्पति संरक्षण तथा वन्यजीव आवास इत्यादि।
भूमि क्षमता के वर्गीकरण का आधार
भूमि क्षमता के वर्गीकरण का आधार भूमि के निश्चित उपयोग से है। भूमि का प्रयोग कृषि क्षेत्र, अकृष्य कार्यों, वनों, उद्यानों, आवास क्षेत्रों, गृह, सड़क, पार्क, प्रशासनिक व व्यापारिक संस्थाओं तथा विभिन्न नगरीय एवं ग्रामीण कार्यों में होता है। विश्व के अनेक भागों में अलग-अलग स्थानों पर भूमि का अलग-अलग तरीके से प्रयोग होता है, इसी को भूमि उपयोग कहते हैं।
कृषि क्षेत्रों में भूमि के विविध प्रयोगों का अध्ययन कृषि भूमि उपयोग के रूप में किया जाता है; जैसे-अकृषित भूमि, कृष्य बंजर भूमि, कृषित भूमि सिंचित भूमि, असिंचित भूमि, एक फसली भूमि, दो फसली भूमि तथा बहुसंख्यीय भूमि आदि। इसके अन्तर्गत कृषि भूमि क्षमता एवं उत्पादकता का भी अध्ययन किया जाता है। कृषि भूमि उपयोग क्षमता ज्ञात करते समय भूमि उपयोग प्रतिरूप के विभिन्न पक्षों को आधार माना जाता है, जो भूमि को अकृषित, कृष्य बंजर, कृषित, सिंचित एवं बहुसंख्यीय भूमि आदि रूपों में प्रभावित करते हैं। भूमि उपयोग क्षमता एवं शस्य गहनता को समानवर्ती माना है, परन्तु वास्तव में भूमि उपयोग क्षमता एवं शस्य गहनता दोनों अलग-अलग पहलू हैं। संख्य गहनता भूमि उपयोग क्षमता के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है, जबकि भूमि उपयोग क्षमता भूमि उपयोग के विभिन्न पक्षों के सम्मिलित प्रभाव का प्रतिफलन है। इसका निर्धारण एक ओर अकृषित, कृष्य बंजर और कृषित तथा दूसरी ओर संचित एवं द्विशस्यों भूमि तथा तीसरी ओर सभी उत्पादित शस्यों के प्रति हेक्टेयर उत्पादन के मध्य संयोग से होता है। भूमि उपयोग के प्रमुख पाँच तत्त्व अकृषित, कृष्य बंजर, कृषि भूमि, सिंचन गहनता और शस्य गहनता की अलग-अलग प्रतिशत गणना कर कोटि गणना ज्ञात की जाती है।
भारत में भूमि उपयोग वर्गीकरण
भारत में ग्रामीण भूमि उपयोग की विभिन्न श्रेणियाँ निम्नलिखित हैं
- वन
- बंजर तथा कृषि अयोग्य भूमि
- गैर-कृषि उपयोग हेतु प्रयुक्त भूमि
- कृषि योग्य बंजर
- स्थायी चरागाह एवं पशुचारा
- वृक्षों एवं झाड़ियों के अन्तर्गत भूमि
- चालू परती
- अन्य परती
- शुद्ध बोया गया क्षेत्र
- एक से अधिक बार बोया गया क्षेत्र नगरीय भूमि का उपयोग इससे भिन्न होता है।
भूमि उपयोग नियोजन (Land Use Planning)
भारत में पहली बार तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी के प्रयासों द्वारा वर्ष 1988 में एक राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति बनाई गई। इसके द्वारा भूमि उपयोग में अवांछित परिवर्तन को अवैध घोषित कर दिया गया। हालाँकि सतह के दशक में ही अधिकतर राज्यों ने भूमि उपयोग बोर्डों की स्थापना की थी, किन्तु इनमें कार्य राष्ट्रीय नीति के बनने के बाद ही शुरू हो पाया और वर्तमानकाल में इनमें से कितने सक्रिय हैं, कहा नहीं जा सकता।
भारत में भूमि उपयोग नीति के मुख्य लक्ष्य थे, जैसे भूमि उपयोग का विस्तृत और वैज्ञानिक सर्वेक्षण करना, वन नीति के अनुरूप 33.3% भूमि पर वनावरण स्थानिक करना, गैर-कृषि योग्य भूमि के क्षेत्र में बढ़ोतरी को रोकना, बंजर भूमिका विकास कर इसे कृषि योग्य बनाना, स्थायी चारागाहों का विकास करना और शस्य गहनता में वृद्धि करना है।
वर्ष 2013 में तैयार की गई राष्ट्रीय वन नीति इन्हीं उद्देश्यों को आगे बढ़ाने और भूमि संसाधनों के लिए अलग-अलग सेक्टर्स के बीच बढ़ती प्रतियोगिता को नियमित तथा नियन्त्रित करने का प्रयास है। नई नीति के अनुसार देश को मुख्य भूमि उपयोगों के आधार पर छः मण्डलों (Zones) में बाँटने की योजना थी। ये छः मण्डल हैं- ग्रामीण एवं कृषि क्षेत्र, रूपान्तरण से गुजार रहे क्षेत्र (जैसे नगरीय उपान्त), नगरीय क्षेत्र, औद्योगिक क्षेत्र, पारिस्थितिकीय और आपदा-प्रद क्षेत्र । प्रत्येक प्रकार के क्षेत्र के लिए स्थानीय तौर पर अलग-अलग जरूरतों के मुताबिक अलग-अलग तरह के आयोजन तरीकों का उपयोग किया जाएगा। इसके द्वारा कृषि और पारितन्त्रीय संवेदनशीलता वाले क्षेत्रों में भूमि उपयोग परिवर्तन को अपरिवर्तनीय बनाए जाने की योजना भी शामिल है। यह नीति वर्तमान समय में चल रहे भूमि अधिग्रहण विवादों के कारण भी महत्त्वपूर्ण है।
वॉन थ्यूनेन का भूमि उपयोग नियोजन मॉडल या सिद्धान्त
वॉन थ्यूनेन द्वारा प्रतिपादित कृषि स्थानीयकरण सिद्धान्त सबसे पहला सिद्धान्त था, जिसे सबसे अधिक मान्यता भी मिली। 1826 ई. में उन्होंने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, जो कुछ तो एडम स्मिथ तथा अलब्रेट थायर जैसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों के सिद्धान्तों पर आधारित था और कुछ अपने जागीर (मेकलेन वर्ग में रास्टाक के निकट टैलो नाम के स्थान) में उपलब्ध कार्यानुभव पर आधारित था। यह नियतिवादी सिद्धान्त है।
वॉन थ्यूनेन के सिद्धान्त के आधार
वॉन थ्यूनेन के सिद्धान्त को दो प्रारूपों द्वारा समझ सकते हैं
प्रारूप 1 बढ़ती दूरी के साथ-साथ भूमि उपयोग में परिवर्तन। यदि दो क्षेत्रों में दो फसलों का चयन करना हो तो किस क्षेत्र में कौन-सी फसल लगाई जाए यह उस फसल की कीमत, उत्पादन लागत, परिवहन लागत, प्रति एकड़ उपज, इत्यादि बातों को ध्यान में रखते हुए निर्धारित किया जाता है। प्रत्येक क्षेत्र में किसी एक फसल का उत्पादन दूसरी फसल की अपेक्षा अधिक हो सकता है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक क्षेत्र को उस फसल के उत्पादन में विशेषीकरण करना चाहिए, जिसका उत्पादन होता है। यदि दो फसलों में पहले का परिवहन व्यय कम और बाजार में कीमत अधिक प्राप्त हो तो दूसरे की तुलना में पहले का स्थानीयकरण बाजार के अधिक निकट होगा।
प्रारूप 2 बाजार से बढ़ती दूरी के साथ-साथ भूमि उपयोग की गहनता में कमी। बाजार के निकट उगाई गई फसलों का आर्थिक लगान बाजार से उगाई गई फसलों से अधिक होगा। मुख्य रूप से इसका कारण परिवहन दूर लागत है। थ्यूनेन के अनुसार बाजार के निकट अथवा दूर, दोनों स्थानों में प्रति इकाई उपज एक समान होगी परन्तु बाजार से दूर स्थित भूमि खण्डों के अत्यधिक उत्पादन को बाजार तक लाने के लिए अधिक परिवहन व्यय का भार उठाना पड़ेगा। अतः बाजार से दूर स्थित भूमि खण्डों में व्यापक कृषि ही अधिक लाभदायक होगी जबकि बाजार के निकट गहन कृषि अधिक लाभदायक होगी।
वॉन थ्यूनेन की मान्यताएँ
वॉन ध्यूनेन की मान्यताएँ निम्नलिखित है
- एक ऐसे विलग प्रदेश की कल्पना की गई, जिसमें केन्द्र में एक नगर है जिसके चारों ओर विस्तृत कृषि क्षेत्र है।
- यही नगर इस विलग प्रदेश के कृषि उत्पादन के खपत का एकमात्र बाजार है, जो न तो अन्यत्र से आयात करता है और न ही कृषि आधिक्य को किसी अन्य बाजार में बेचता है।
- इस विलग प्रदेश में सर्वत्र एक-सा प्राकृतिक वातावरण है अर्थात् सर्वत्र एक समान धरातल, जलवायु और मिट्टी विद्यमान है।
- इस प्रदेश में केन्द्रीय नगर के अतिरिक्त सभी ग्रामीण जनसंख्या हो। इसमें बसने वाले कृषक अधिकतम लाभ प्राप्त करने के इच्छुक हैं तथा नगर में माँग के अनुसार फसलों की किस्मों में फेरबदल करने में सक्षम हैं।
- सम्पूर्ण विलग प्रदेश में एक ही प्रकार के परिवहन साधन घोड़ा गाड़ी उपलब्ध हैं।
- परिवहन व्यय दूरी तथा भार के अनुपात में बढ़ता है।
वॉन थ्यूनेन के मौलिक सिद्धान्त
यूनेन का सिद्धान्त मुख्य रूप से आर्थिक लगान पर आधारित था, जिसे वाद के भूगोलवेत्ताओं ने स्थानीयकरण लगान का नाम दिया। आर्थिक लगान वस्तुत: वह लाभ है, जो विभिन्न प्रकार की उत्पादित वस्तुओं के अर्जित दाम से उत्पादन लागत को घटाकर प्राप्त होता है। थ्यूनेन ने आर्थिक लगान का परिकलन निम्नलिखित सूत्र के रूप में किया है।
LR =Y (m-c)-ytd.
जिसमें, LR = स्थानीयकरण लगान Y = प्रति इकाई उपज,
m = उत्पादन के बाजार मूल्य;
c= उत्पादन लागत;
t= परिवहन मूल्य;
d = बाजार से भूमि खण्ड की दूरी
वॉन थ्यूनेन के सिद्धान्त की मेखलाएँ
वॉन थ्यूनेन के अनुसार, केन्द्र से दूर क्रमशः छः निम्नलिखित भूमि उपयोग मेखलाएं पाई जाती हैं
- पहला वृत्त खण्ड में दुग्ध, फल एवं शाक-सब्जी की गहन कृषि ।
- दूसरे वृत्त खण्ड में लकड़ी का उत्पादन।
- तीसरे वृत्त खण्ड में गहन कृषि पद्धति द्वारा अन्न का उत्पादन।
- चौथे एवं पाँचवें वृत्त खण्डों में अपेक्षाकृत विस्तृत खेती द्वारा अन्न की खेती होगी जिसमें कुछ परती जमीन भी छोड़ी जाएगी।
- छठवें वृत्त खण्ड में पशुओं के चरागाह का उत्पादन होता है।
बाद में वॉन ध्यूनेन ने दो और कारकों को अपने सिद्धान्त में आत्मसात् किया
- परिवहन के साधन के रूप में एक नदी जिसमें परिवहन गति अधिक तीव्र एवं परिवहन व्यय 1/10 के बराबर होगा। इससे संकेन्द्रीय वृत्तखण्डों का स्वरूप बदलकर नदी के दोनों ओर समानान्तर खण्डों में होगा।
- उस विलग प्रदेश में कोई दूसरा उपनगर हो तो उसकी अपनी स्वतन्त्र पृष्ठभूमि में स्वतन्त्र संकेन्द्रीय वृत्त खण्डों में विभिन्न फसलों के उत्पादन की कल्पना थ्यूनेन ने की।
वॉन थ्यूनेन के सिद्धान्त की आलोचना
वॉन थ्यूनेन द्वारा कल्पित विलग प्रदेश की तरह कोई भी क्षेत्र वास्तविक जगत में मिलना कठिन है। आधुनिक समय में परिवहन व्यय केवल भार तथा दूरी के अनुपात में ही नहीं बढ़ता, बल्कि अन्य कारक भी कार्यरत होते हैं।
दिनों-दिन प्राविधिक विकास होने के कारण न केवल परिवहन बल्कि अन्य तकनीकी विकास भूमि उपयोग को विविध प्रकार से प्रभावित करता है; जैसे— रेफ्रिजिरेटर, आदि के विकास से अब शाक-सब्जी, दूध, आदि शीघ्र नष्ट होने वाले पदार्थों का परिवहन बहुत दूर तक करना सम्भव हो गया है। अतः उनका उत्पादन नगर के नजदीक होना अब अनिवार्य नहीं है।
किसी भी क्षेत्र में उत्पादित वस्तु के लिए अनेक बाजार उपलब्ध हैं। मिट्टी की उत्पादन क्षमता सभी फसलों के लिए समान दिखाई गई है। कृषि के लिए जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कारक है वह है मिट्टी का उपजाऊपन। इसे थ्यूनेन ने अपने सिद्धान्त में कहीं भी प्रमुखता नहीं दी है।
शस्य या फसल प्रतिरूप
(Cropping Pattern)
फसल प्रतिरूप के बहुत आयाम हैं। हम यहाँ पर उसके दो मुख्य आयामों का विशेष रूप से उल्लेख करेंगे। इसे क्षेत्र/ खेत में उगाई जाने वाली फसल है प्रणाली से समझा जा सकता है अर्थात् एक फसल, बहुफसल आदि। भारत में सामान्य प्रचलित फसल प्रतिरूप (मानसून के बाद की फसल) खरीफ फसल प्रतिरूप (मानसूनी फसल) के रूप में फसल प्रतिरूपों में जोड़ा गया है। इसके अधीन क्षेत्र के बोआई क्षेत्रफल के अधिकतम प्रतिशत में जो फसल पैदा की जाती है उसी के आधार पर फसल के प्रतिरूप का नाम रखा जाता है। अन्य बोई गई फसलों स्थानापन्न को फसलों के रूप में माना जाता है। इस आधार पर स्थानापन्न के अधीन रबी फसल प्रतिरूप को गेहूँ/चना आधारित और ज्वार आधारित फसल प्रतिरूप में विभाजित किया जाता है। दूसरी ओर खरीफ फसल पैटर्न में आई गई/ बोई गई आधार फसलें बहुत होती हैं; जैसे-चावल आधारित, बाजरा आधारित, मूँगफली आधारित तथा कपास आधारित आदि।
फसल प्रतिरूप के प्रकार
फसल प्रतिरूप के मुख्य दो प्रकार निम्नलिखित हैं
एक फसल यदि वर्ष दर वर्ष भूमि के टुकड़े पर एक ही फसल उगाई जाती है, तो इसे एक फसल प्रणाली कहा जाता है। ऐसी प्रथा या तो जलवायु के अत्यन्त उपयुक्तता के कारण अपनाई जाती है या किसी की सामाजिक, आर्थिक दशा के कारण अपनाई जाती है। यह फसल के उस विशेष प्रकार के उगाने में किसान की विशेषज्ञता के कारण भी सकता है। उदाहरण के लिए, नहर सिंचित क्षेत्रों में जलाक्रान्ति दशाओं में केवल धान बोया जा सकता है, क्योंकि ऐसी दशाओं में कोई अन्य फसल बोना सम्भव नहीं है।
बहुफसल एक कलैण्डर वर्ष में उसी भूमि के टुकड़े पर एक से अधिक फसल उगाने को बहुफसल प्रणाली कहा जाता है, इसलिए बहुफसल का अभिप्राय समय पर फसल की सघनता और स्थान का विस्तार करना है अर्थात् एक समय में एक फसल और किसी भी निर्धारित समय में उसी भूमि पर एक से अधिक फसलें उगाना है। फसल प्रतिरूप की तीन किस्म अर्थात् अन्तरा फसल, मिश्रित फसल और अनुक्रम फसल भी व्यवहार में लाई गई बहुफसल प्रणाली के ही अन्तर्भेद हैं।
अन्तराशस्यन का अर्थ निश्चित पंक्ति पद्धति से भूमि के एक ही खण्ड पर एकसाथ एक से अधिक फसल उगाना है। इस रीति का अनुसरण कुछ स्पष्ट अनुपात जैसे 5:1 में किया जा सकता है, जिसमें विशेष फसल प्रत्येक पाँच पंक्तियों के साथ एक प्रकार की फसलों की एक पंक्ति होगी। यह प्रणाली स्थान के भिन्न कर अधिक फसल घनता दे सकती है। प्रारम्भ में अन्तराशस्यन प्रणाली फसल विफलता के बीमें के रूप में प्रयोग की गई थी। अभी वर्तमान में इसका उद्देश्य बदल गया है, अब उत्पादन में स्थायित्व के अतिरिक्त अधिक उपज प्राप्त करना भी इसका उद्देश्य हो गया है।
फसल प्रतिरूप को प्रभावित करने वाले कारक
फसलों के प्रतिरूप को निर्धारित करने वाले बहुत से कारक होते हैं, जैसे भौतिक, तकनीकी एवं आर्थिक तत्त्व यहाँ तक कि राजनीतिक तत्त्व भी फसल प्रतिरूप को प्रभावित करते हैं। इनमें आर्थिक तत्त्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
भौतिक एवं तकनीकी तत्त्व
किसी प्रदेश का फसल प्रतिरूप उसकी भौतिक विशिष्टताओं अर्थात् मिट्टी, जलवायु, वर्षा तथा मौसम आदि पर निर्भर करता है। उदाहरणस्वरूप ऐसे शुष्क क्षेत्र जहाँ कम वर्षा होती है तथा मानसून अनिश्चित रहता है वहाँ पर ज्वार तथा बाजरा जैसी फसलों की प्रधानता होती हैं, क्योंकि ये फसलें कम वर्षा में भी उगाई जा सकती हैं। फसल चक्र कुछ भौतिक कारणों से प्रभावित होता है, किन्तु तकनीकी उपायों से फसल चक्र बदला जा सकता है तब भी कुछ परिस्थितियों में भौतिक बाधा निर्णायक होती है। उदाहरण के लिए, पंजाब के संगरूर और लुधियाना जिलों में जलरोध के कारण चावल के उत्पादन क्षेत्र में वृद्धि हुई है, क्योंकि चावल की फसल अधिक पानी को सघन कर सकती है। मिट्टी तथा जलवायु के अतिरिक्त किसी क्षेत्र की फसलों के प्रतिरूप पर सिंचाई सुविधाओं की उपलब्धता का भी प्रभाव पड़ता है। जहाँ पर पानी की सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों वहाँ पर दोहरी और तेहरी फसलें भी उगाई जा सकती है। जब भी किसी क्षेत्र को सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं, तो उस क्षेत्र के कृषि का ढ़ाँचा ही बदल जाता है अर्थात् पुराने फसल चक्र के स्थान पर नया फसल चक्र निर्धारित होता है। यह सम्भव है कि पूँजी अभाव में अच्छे एवं सुधरे हुए कृषि औजार, अधिक उपज देने वाले उन्नत किस्म के बीच और रासायनिक उर्वरकों के लिए वित्त न मिल पाने के कारण उचित प्रकार की फसल न उगाई गई हो, परन्तु जैसे ही वे सुविधाएँ कृषकों को प्राप्त होती हैं, फसलों के ढाँचे में परिवर्तन हो जाता है।
आर्थिक तत्त्व
किसी क्षेत्र अथवा प्रदेश की फसलों के प्रतिरूप को निर्धारित करने में आर्थिक कारण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। आर्थिक कारणों में निम्नलिखित तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं
- कीमत और आय को अधिकतम करना अनेक व्यावहारिक अध्ययनों से फसलों की कीमत तथा उनके ढाँचे में परस्पर सम्बन्ध स्थापित होता है। डॉ. बंसल पीसी ने 'कीमत समान अनुपात' की गतियों और गन्ने की अखिल भारतीय क्षेत्रफल में परिवर्तन के बीच तथा पटसन एवं चावल के अधीन क्षेत्रफल और इन वस्तुओं की सापेक्ष कीमतों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध को प्रमाणित किया है। खाद्य एवं कृषि मन्त्रालय के अध्ययन से पता चलता है कि कीमतों में परिवर्तन का क्षेत्रफल के परिवर्तन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालता है। वर्गीज का मत है कि अधिकतम आय की प्रेरणा भी फसलों का ढाँचा बदलने पर भी अधिक प्रभाव डालती है, क्योंकि कृषक उसी फसल को उगाना पसन्द करेगा, जिससे उसे अधिकतम आय प्राप्त होगी, किन्तु डॉ. भाटिया का मत है कि "फसलों के प्रतिरूप को प्रभावित करने वाला मुख्य कारण प्रति एकड़ सापेक्ष लाभ होता है।” स्पष्ट है कि किसी भी परिस्थितियों में फसल का चुनाव करने में किसान पर कीमत समता आय का अधिकतम होना और प्रति एकड़ सापेक्ष लाभ का भी अधिक प्रभाव पड़ता है।
- खेत का आकार खेत के आकार तथा फसलों के ढाँचे के बीच भी सम्बन्ध रहता है। छोटे किसान बड़े किसानों के सापेक्ष व्यापारिक फसलों के लिए कम क्षेत्रफल का उपयोग करते हैं। इसका कारण है कि छोटे कृषक सर्वप्रथम अपनी आवश्यकता पूर्ति हेतु खाद्यान्न उत्पन्न करना चाहते हैं। यह सत्य है कि निर्वाह की आवश्यकता के कारण छोटे कृषकों का फसल ढाँचा परम्परा से प्रभावित होता है, किन्तु उनकी मौद्रिक आय की सीमान्त आवश्यकता किसी भी प्रकार से बड़े कृषकों से अधिक नहीं हो सकती है। अर्थव्यवस्था की प्रगति के साथ छोटे कृषकों द्वारा अपनी आय अधिकतम करने के उद्देश्य से अपने सत्य-प्रतिरूप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सीमान्त परिवर्तन होने की सम्भावना रहती है।
- जोखिम के विरुद्ध बीमा फसल विफलता का जोखिम कम-से-कम करने की आवश्यकता का भी फसलों के ढाँचे पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, अनेक क्षेत्रों में ज्वार, बाजरा आदि मोटे अनाज की खेती के लगातार होने के कारण मुख्यत: वर्षा की अनिश्चितता से बचने का प्रयत्न है।
- आदानों की उपलब्धता शस्य प्रतिरूप, उन्नतशील बीज, रासायनिक उर्वरक, जल संग्रहण, विपणन और परिवर्तन आदि आदानों पर निर्भर रहता है। मूँगफली के बीज की उपलब्धता के कारण मध्य प्रदेश के अनेक कृषकों को मूँगफली की खेती अधिक विस्तृत क्षेत्रफल में करने की प्रेरणा प्राप्त हुई। कृषकों द्वारा रूई की फसल के मुकाबले मूँगफली की फसल को श्रेष्ठ समझने का एक कारण यह भी है कि रूई की फसल विलम्ब से तैयार होती है, जबकि मूंगफली की फसल शीघ्र पक कर तैयार हो जाती है।
- भू-धारण फसल बटाई प्रणाली के अन्तर्गत भू-स्वामी को फसलों के चुनाव का प्रमुख अधिकार होता है। परिणामस्वरूप आय को अधिक करने वाला फसलों का ढाँचा अपनाया जाता है।
वैधानिक और प्रशासनिक उपायों के माध्यम से फसलों के ढाँचे के निर्धारण पर प्रभाव पड़ता है। कृषकों को कृषिगत आदान और ज्ञान उपलब्ध कराने में राजनैतिक तत्त्व सहायता प्रदान करते हैं। सरकार कुछ फसलों के लिए विशेष सुविधाएँ उपलब्ध करा सकती है। यद्यपि खाद्य, शस्य अधिनियम, भू उपयोग अधिनियम, धान, कपास, तिलहन आदि की सघन खेती को उत्पादन शुल्क तथा निर्यात शुल्क आदि के प्रयोग से कल्पित दिशा में फसलों के ढाँचे को प्रभावित किया जा सकता है। तथापि सम्भव है कि उक्त समस्त उपायों का सम्पूर्ण फसलों के ढाँचे पर कुछ प्रभाव ऐसा ना पड़े, जो राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप न हो।
शस्य संयोजन विधि क्षेत्र का निरूपण
(Methods of Delineating Crop Combination Regions)
फसल प्रतिरूप के अध्ययन के साथ फसल संयोजन का अध्ययन महत्त्वपूर्ण फसल संयोजन के अन्तर्गत किसी क्षेत्र विशेष में उत्पन्न की जाने वाली सभी फसलों का अध्ययन होता है। प्राय: किसी क्षेत्र में एक मुख्य फसल के साथ अन्य गौण फसलों को भी उगाया जाता है। कृषि प्रदेशीकरण के अध्ययन में होता है। शस्य संयोजन विधि क्षेत्र के निरूपण की विधियाँ निम्नलिखित है
- जे. सी. वीवर की विधि फसल संयोजन के सम्बन्ध में वीवर ने "Rop Combination Region in the Middle West USA” में सर्वप्रथम सांख्यिकीय विधि का प्रयोग किया। वीवर ने अपने सिद्धान्त में प्रमाणिक विचलन विधि का प्रयोग किया।
- किकूकाजू दोई की विधि यह वीवर की विधि का ही संशोधित रूप है, जिसका उपयोग दोई ने जापान की औद्योगिक संरचना ज्ञात करने के लिए किया। वीवर की विधि से दोई की विधि में अन्तर यह है कि इन्होंने संयोजन के m∑D2/n लिए के स्थान पर ∑D2 का प्रयोग किया, जिसकी गणना प्रत्येक 72 संयोजन के लिए नहीं परन्तु एक शीट तालिका द्वारा की जाती है। इसके अतिरिक्त डी. थॉमस, स्कॉट तथा जॉनसन ने वीवर की विधि को संशोधनों के साथ संयोजन के निर्धारण हेतु अपनाया।
- रफीउल्लाह की विधि वीवर की विधि में निहित कमजोरी (अतिसामान्य परिणाम) को दूर करने के लिए रफीउल्लाह ने नवीन विचलन विधि का प्रयोग किया। उनके द्वारा प्रयुक्त सूत्र है
यहाँ d विचलन Dp धनात्मक अन्तर, Dn ऋणात्मक अन्तर तथा N फसलों की संख्या है। रफीउल्लाह की तकनीक अधिक शुद्ध, वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक है।
शस्य विविधीकरण (Crop Diversification)
शस्य विविधीकरण से आशय एक समय विशेष में किसी क्षेत्र में बोई जाने वाली फसलों की संख्या से है। यह कृषि क्रियाओं के गुणन का सूचक है, जिससे विभिन्न फसलों के बीच तीव्र प्रतिस्पर्द्धा का पता चलता है। यह प्रतिस्पर्द्धा जितनी तीव्र होती है फसल विविधीकरण का परिणाम उतना ही अधिक होता है।
फसल विविधीकरण फसल विशेषीकरण के विपरीत होती है। फसल आधुनिक कृषि पद्धति की प्रमुख विशेषता है, जिसके प्रोत्साहन में सिंचाई, उर्वरकों, उन्नत बीजों, कीटनाशकों एवं कृषि में मशीनों के प्रयोग आदि ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। मौसम की अनिश्चिता भी शस्य वैविध्य को बढ़ावा देती है।
विविधता का चुनाव विभिन्नताओं से किया गया है, क्योंकि कृषि व खाद्य सामग्री के उत्पादन में जैविक एवं भौतिक विभिन्नताओं का उचित प्रबन्धन करना तथा उचित अनुवांशिकी, किस्मों की कृषि के विकास के लिए आवश्यकता इत्यादि को प्रदर्शित करती है। इसे निम्न बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है।
- विभिन्न फसलों की किस्में, पशुपालन की नस्लें, घास एवं चारागाहों का पारिस्थितकीय तन्त्र
- पारिस्थितिकीय तन्त्र, जिसमें सूक्ष्मजीवों, लाभदायक कीटों एवं पेड़ पौधों की कृषि उत्पादन में अहम भूमिका रहती है।
- फसल विविधता के लिए मानव द्वारा उपलब्ध आनुवांशिकी आधार, भौतिक परिस्थितियाँ एवं प्रबन्धन को इसका अंग माना गया है।
फसल विविधता के अन्तर्गत उन सभी तत्त्वों को रखा जा सकता है, जो जैविक विविधता के लिए उपयोगी है तथा कृषि पारिस्थितिकीय तन्त्र के लिए आवश्यक है।
फसल वैविधीकरण के लिए उत्तरदायी कारण
फसल वैविधीकरण के लिए उत्तरदायी कारण निम्नलिखित हैं
- अनिश्चित मौसमी दशाएँ
- अनिश्चित वर्षा
- परम्परागत जीविकोपार्जन कृषि व्यवस्था
- मृदा की उर्वरता में वृद्धि हेतु
कृषि उत्पादकता (Agricultural Productivity)
कृषि उत्पादकता कृषि से होने वाली उत्पादन प्रक्रिया से है। कृषि उत्पादकता को प्रभावित करने में भौतिक, आर्थिक एवं सामाजिक घटक महत्त्वपूर्ण भागीदार होते हैं। भौतिक घटक के अन्तर्गत जलवायु दशाएँ, भूमि की प्रकृति उपजाऊ मिट्टी, परन्तु आर्थिक घटक में बाजार की निकटता, यातायात के साधन, श्रमिकपूर्ति आदि उत्तरदायी तत्त्व हैं। कृषि उत्पादकता के अन्तर्गत सामाजिक घटक में भोजन की रुचि एक महत्त्वपूर्ण कारक हैं।
कृषि उत्पादकता के मापन एवं निर्धारक
कृषि उत्पादकता का सम्बन्ध प्रति हेक्टेयर उत्पादन से है। यह लागत-आगत के मध्य का अनुपात होता है। प्रो. स्टाम्प के अनुसार, किसी इकाई क्षेत्र की कृषि उत्पादकता जलवायु एवं अन्य प्राकृतिक तत्त्वों एवं कृषि सक्षमता पर निर्भर करती है। कृषि उत्पादकता, कृषि सक्रियता, कृषि गहनता एवं कृषि कुशलता पर निर्भर करती है। यदि इनमें कमी आती है, तो उत्पादकता भी कम हो जाती है। भौतिक कारकों के अतिरिक्त उन्नत बीजों, उर्वरकों, सिंचाई के साधन, यन्त्रीकरण तथा कृषिक प्रशिक्षण आदि भी कृषि उत्पादकता को प्रभावित करते हैं।
कृषि उत्पादकता के अध्ययन में जिन विद्वानों ने कार्य किए हैं, वे हैं एम. जी. कैण्डाल, एल. डी. स्टाप, मोहम्मद शफी तथा जसवीर सिंह आदि।
कृषि उत्पादकता के मापन की विधियाँ
- कृषि उत्पादकता के मापन की अनेक विधियाँ हैं। उनमें कुछ प्रमुख हैं
- प्रति इकाई उत्पादन से प्राप्त आय पर आधारित विधि (केण्डाल)
- प्रति इकाई श्रमिक लागत पर उत्पादन की मात्रा पर आधारित विधि (खुसरो)
- प्रति इकाई उत्पादन से प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता पर आधारित विधि (जे. एल. वक)
- भूमि की वहन क्षमता पर आधारित विधि (स्टाम्प)
- विभिन्न फसलों की क्षेत्रीय उत्पादकता सूचकांक (एनयेदी, शकी)
- फसल उत्पादन व संकेन्द्रण के सूचकांकों के आधार पर पदानुक्रम गुणांक (जसवीर सिंह)
- पदानुक्रम गुणांक विधि (केण्डाल)
- धनराशि में कृषीय उत्पादकता मापन
इनमें से कोई भी विधि सर्वत्र प्रभावी नहीं है। कोई तकनीक स्थानीय स्तर पर, तो कोई प्रादेशिक स्तर अथवा राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी उतरती है।
केण्डाल की पदानुक्रम गुणांक विधि
कृषि उत्पादकता की गणना करने हेतु सर्वप्रथम डी. कैण्डाल ने पदानुक्रम गुणांक विधि का प्रयोग किया। इसमें कृषि उत्पादकता के निर्धारण हेतु प्रत्येक क्षेत्र के इकाई उत्पादन का प्रयोग किया जाता है। भारत में इस विधि का प्रयोग प्रो. शफी ने उत्तर प्रदेश के सभी जनपदों की कृषि उत्पादकता के निर्धारण हेतु किया। यद्यपि यह विधि सरल है, परन्तु इसका प्रमुख दोष यह है कि इसमें क्षेत्रफल को स्थान नहीं दिया गया है। दूसरे उत्पादकता की सापेक्षिक स्थिति ज्ञात करने के लिए किसी का कोई प्रमाणिक स्तर स्पष्ट नहीं किया गया है
कृषि उत्पादकता में क्षेत्रीय विभिन्नता
विश्व के धरातल पर सभी देशों में कृषि के अन्तर्गत भूमि समान नहीं है। कुल भूमि के अनुपात में कृषिगत भूमि का प्रतिशत लगभग आस्ट्रेलिया में 2%, कनाडा में 3%, रूस में 8%, अर्जेण्टाइना में 9%, फ्रांस में 36%, स्पेन में में 37%, भारत में 44%, इटली में 49% और पोलैण्ड में 49% है।
यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि विश्व का अधिकांश कृषि, उत्पादन विश्व के 75% भू-भाग (अण्टार्कटिका को छोड़कर) से ही प्राप्त किया जाता है और कृषि भूमि का लगभग 75% भू-भाग विश्व के 15 देशों में पाया जाता है जहाँ सम्पूर्ण विश्व की 52% जनसंख्या निवास करती है। विश्व की जनसंख्या का लगभग 50% भाग कृषि में संलग्न है। यह प्रतिशत भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है; जैसे- ग्रेट ब्रिटेन में लगभग 6%, संयुक्त राज्य अमरीका में 9%, जर्मनी में 19%, फ्रांस में 20%, जापान में 36%, रूस में 50%, भारत में 70%, चीन में 70%, टर्की में 70%, सूडान में 87% और न्यासालैण्ड में 92% है। कृषि जनसंख्य का अधिकांश अविकसित और विकासशील देशों में ही पाया जाता है।
सर्वप्रथम वर्ष 1936 में डी. छिटलसी ने कृषि प्रदेशों का वर्गीकरण किया, जो कृषि उत्पादकता में क्षेत्रीय विभिन्नता को मुख्य आधार प्रदान करते हैं।
कृषि उत्पादकता में क्षेत्रीय विभिन्नता के आधार पर कृषि प्रदेश
कृषि उत्पादकता में क्षेत्रीय विभिन्नता के आधार पर कृषि प्रदेश निम्नलिखित हैं।
- कृषि फसलों एवं पशुओं का पारस्परिक सम्बन्ध कृषि का तात्पर्य फसलों के उत्पादन के साथ-साथ पशुपालन से भी है, क्योंकि दोनों ही भूमि एवं मिट्टी की उत्पादन क्षमता पर निर्भर हैं तथा कृषि के लिए दोनों में पारस्परिक सम्बन्ध रहता है। भूमि के अनुकूलतम उपयोग के लिए फसलों एवं पशुओं का साहचर्य आवश्यक होता है। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में यह साहचर्य अलग-अलग प्रकार का मिलता है, जो कृषि दशाओं की समानता की प्रादेशिक भिन्नताओं को प्रदर्शित करता है।
- कृषि उत्पादन विधियाँ पृथ्वी के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कृषि उत्पादन विधियों की भिन्नता के फलस्वरूप भी कृषि दशाओं की प्रादेशिक समानता एवं सम्बद्धता मिलती है। उदाहरणार्थ, किसी क्षेत्र में कृषि उत्पादन में पारम्परिक विधियों, जैसे पशुओं तथा हल आदि का प्रयोग होता है, तो किसी क्षेत्र में आधुनिक कृषि यन्त्र, जैसे ट्रेक्टर, हारवेस्टर आदि का प्रयोग होता है। किन्हीं क्षेत्रों में फसल उत्पादन सिंचाई पर आधारित है क्षेत्रों में बिना सिंचाई के कृषि सम्भव है।
- कृषि में पूँजी, श्रम एवं संगठन आदि के विनियोग की मात्रा अर्थात् किन्हीं कृषि प्रदेशों में पूँजी का निवेश अधिक होता है, तो कही श्रम का अथवा कहीं-कहीं दोनों का ही अधिक उपयोग किया जाता है। अतः पूँजी एवं श्रम कुछ विनियोग मात्राओं की भिन्नता के आधार पर भी कृषि दशाओं की प्रादेशिक समरूपता एवं सम्बद्धता में भिन्नता मिलती है।
- कृषि उत्पादन के उपभोग का स्वरूप यदि कृषि उत्पादन व्यापारिक दृष्टि से किया जाता है, तो वहाँ विस्तृत प्रकार की फसलों के विशेषीकरण वाली कृषि होती हैं, परन्तु यदि कृषि उत्पादन कृषक के निजी उपभोग के लिए किया जाता है, तो वहाँ निर्वाहक कृषि की जाती है। अतः कृषि उपज के उपभोग के तरीके से भी कृषि दशाओं में प्रादेशिक विविधता मिलती है।
- कृषि उत्पादन में प्रयुक्त यन्त्र एवं उपकरण तथा आवास सम्बन्धी दशाएँ कृषि उत्पादन में प्रयुक्त यन्त्र, उपकरण तथा आवास सम्बन्धी दशाओं के विभिन्न क्षेत्रों से भी कृषि-भूदृश्य का ज्ञान होता है, जो कृषि दशाओं की सम्बद्धता का सर्वोत्तम होता है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें