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चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift)

चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) कुहन के विचार से सामान्य विज्ञान के विकास में असंगतियों के अवसादन तथा संचयन (Accumulation) में संकट की स्थिति उत्पन्न होती है, जो अन्ततः क्रान्ति के रूप में प्रकट होती है। यह क्रान्ति नए चिन्तनफलक को जन्म देती है। जब नवीन चिन्तनफलक अस्तित्व में आता है वह पुराने चिन्तनफलक को हटाकर उसका स्थान ले लेता है। चिन्तनफलक के परिवर्तन की इस प्रक्रिया को 'चिन्तनफलक प्रघात' (Paradigm Shock) या 'चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) के नाम से जाना जाता है। ध्यातव्य है कि इस प्रक्रिया में पुराने चिन्तनफलक को पूर्णरूप से अस्वीकार या परिव्यक्त नहीं किया जा सकता, जिसके कारण कोई चिन्तनफलक पूर्णरूप से विनष्ट नहीं होता है। इस गत्यात्मक संकल्पना के अनुसार चिन्तनफलक जीवन्त होता है चाहे इसकी प्रकृति विकासात्मक रूप से अथवा चक्रीय रूप से हो। जब प्रचलित चिन्तनफलक विचार परिवर्तन या नवीन सिद्धान्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता है, तब सर्वसम्मति से नए चिन्तनफलक का प्रादुर्भाव होता है। अध्ययन क्षेत्र के उपागम में होने वाले इस परिवर्तन को चिन्तनफलक स्थानान्त

ECONOMIC GEOGRAPHY

आर्थिक भूगोल
(Economic Geography)
आर्थिक भूगोल के अन्तर्गत उन सभी भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन होता है, जो वस्तुओं के उत्पादन, परिवहन तथा विनिमय को प्रभावित करती है।

आर्थिक गतिविधियाँ 
(Economic Activities)
आर्थिक भूगोल के अन्तर्गत आर्थिक गतिविधियाँ मानव की आर्थिक क्रियाओं की क्षेत्रीय भिन्नताओं तथा उनके स्थानिक वितरणों और सम्बन्धों का अध्ययन करती हैं। आर्थिक भूगोल मानव भूगोल की एक प्रमुख शाखा के रूप में स्थापित हुई जो मानवीय आर्थिक कार्य-कलापों का भूपृष्ठ पर विभिन्नता तथा तत्सम्बन्धी भू-दृश्यों की विवेचना से सम्बन्धित है। पृथ्वी के धरातल पर विभिन्न प्रदेशों में निवास करने वाले मानव वर्गों की आर्थिक क्रियाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं और उनसे विभिन्न आर्थिक क्रियाएँ जन्म लेती हैं। मानव वर्ग तथा भौगोलिक वातावरण के सहयोग से विभिन्न दैनिक के समाधान हेतु प्रयास किए जाते हैं। आर्थिक भूगोल का विकास सर्वप्रथम वाणिज्यिक भूगोल के रूप में स्थापित हुआ था। आर्थिक भूगोल के अन्तर्गत आर्थिक गतिविधियों का विकास वाणिज्यिक भूगोल के रूप में 1862 ई. में प्रकाशित पुस्तक 'ज्योग्राफी डेस वेल्थलैण्ड्स' से माना जाता है। इस पुस्तक के रचयिता 'एण्ड्री' थे। चिशोल्म के अनुसार, “आर्थिक भूगोल के अन्तर्गत आर्थिक गतिविधियाँ उन सब भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन होता है, जो वस्तुओं की उत्पत्ति, उनके विनिमय एवं स्थानान्तरण पर प्रभाव डालती है।”
र्थिक गतिविधियों के अन्तर्गत मानव की आर्थिक क्रियाएँ
आर्थिक भूगोल मानव की समस्त आर्थिक क्रियाओं व जीविकोपार्जन के साधनों का अध्ययन करता है। मानव की उत्पादन सम्बन्धी आर्थिक क्रियाओं को टूमैन एवं अलेक्जेण्डर द्वारा निम्न श्रेणियों में बाँटा गया है 
  • प्राथमिक गतिविधियाँ इनके अन्तर्गत प्रकृतिप्रदत्त संसाधनों का सीधा उपयोग होता है। कृषि कार्य में मिट्टी का सीधा उपयोग फसलें उगाने के लिए किया जाता है। इस प्रकार जल क्षेत्रों में मछली पकड़ना, खानों से कोयला, लोहा आदि खनिज निकालना, वनों से लकड़ियाँ काटना अथवा पशुओं से ऊन, चमड़ा, बाल, खालें, हड्डियाँ आदि प्राप्त करना प्राथमिक उत्पादन क्रियाएँ हैं। इनसे सम्बन्धित उद्योगों को प्राथमिक आर्थिक गतिविधियों की श्रेणी में या प्राथमिक गतिविधियाँ कहा जाता है। इस समूह में कार्यरत् व्यक्ति लाल कॉलर श्रमिक कहलाते हैं। 
  • द्वितीयक गतिविधियाँ इनके अन्तर्गत प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का सीधा उपयोग नहीं किया जाता बल्कि उनको साफ, परिष्कृत अथवा परिवर्तित कर उपयोग के योग्य बनाया जाता है। उनके मूल्य में वृद्धि होती है। जैसे लोहे को गलाकर इस्पात के यन्त्र अथवा अन्य वस्तुएँ बनाना, गेहूँ से आटा या मैदा बनाना, कपास और ऊन से कपड़ा बनाना, लकड़ी से फनींचर, कागज आदि बनाना। इन वस्तुओं को तैयार करने वाले उद्योगों को गौण उद्योग कहा जाता है। इस समूह के व्यक्ति नीला कॉलर श्रमिक कहे जाते हैं।
  • तृतीयक गतिविधियाँ इनके अन्तर्गत वे सभी क्रियाएँ आती हैं जो प्राथमिक एवं द्वितीयक उत्पादन की वस्तुओं को उपभोक्ता उद्योगपतियों तक पहुँचाने से सम्बन्धित होती हैं। इस प्रकार की क्रियाओं के अन्तर्गत वस्तुओं का स्थानान्तरण (Transportation) संचार और संवादवाहन (Communication), वितरण (Distribution) एवं संस्थाओं और व्यक्तियों की सेवाएँ तथा विनिमय सम्मिलित की जाती है। इस समूह के संलग्न व्यक्ति गुलाबी कॉलर श्रमिक कहलाते हैं।
  • चतुर्थक गतिविधियाँ चतुर्थक गतिविधियाँ विशेष प्रकार के सेवा कार्य हैं जिनका सम्बन्ध व्यावसायिक तथा प्रशासकीय सेवाओं से है। इन सेवाओं के अन्तर्गत वित्तीय, स्वास्थ्य सेवा कार्य, सूचना प्रक्रमण (Information Processing), शिक्षण राजकीय सेवाएँ तथा मनोरंजन क्रिया सम्मिलित है। सभी चतुर्थक गतिविधियाँ कार्यालय भवन या विद्यालय, थ्रियेटर, होटल तथा चिकित्सा संस्थान द्वारा प्रदत्त विशेषीकृत वातावरण (Specialised Environment) में होती हैं। इस समूह के व्यक्तियों को सफेद कॉलर श्रमिक (White Collar Worker) कहते हैं।
  • पंचम गतिविधियाँ अन्य गतिविधियों की तुलना में पंचम गतिविधियाँ बहुत प्रतिबन्धित आकार में हैं। इसके अन्तर्गत महत्त्वपूर्ण योजना तथा समस्या निदानमूलक सेवाएं प्रदान करने वाले शोध वैज्ञानिक, विधि अधिकारी, वित्तीय सलाहकार व्यावसायिक परामर्शदाता (Professional Consultants) इस समूह के अन्तर्गत आते हैं। इस समूह में कार्यरत् व्यक्तियों सुनहरी कॉलर श्रमिक (Gold Collar Worker) कहते हैं।
प्राथमिक गतिविधियों की व्यवस्था को प्रभावित करने वाले स्थानीय कारक
प्राथमिक गतिविधियों की व्यवस्था को अनेक बातें प्रभावित करती हैं। इनके अन्तर्गत भौतिक, आर्थिक एवं सामाजिक कारक मुख्य माने जाते हैं, जिनका वर्णन निम्न प्रकार से है

भौतिक कारक
इसके अन्तर्गत प्राथमिक आर्थिक गतिविधियों पर प्रभाव डालने वाले घटक भूमि की प्रकृति, मिट्टी के गुण, तापमान तथा वर्षा की मात्रा है। इनमें से अनेक घटकों में मानव ने प्रयास से परिवर्तन किए हैं। जिन भू-भागों में जल का अभाव पाया जाता है। वहाँ कृषि के लिए सिंचाई के साधन उपलब्ध किए गए हैं, जहाँ मिट्टी की उर्वरा शक्ति समाप्त हो गई है, वहाँ खाद्य आदि देकर उसे पुनः उर्वर किया गया है, किन्तु जिन क्षेत्रों में ऐसा सम्भव नहीं हो पाया है वहाँ उसने कृषि के स्वरूप को ही बदल दिया है जैसे अत्यन्त शीत प्रदेशों में शीघ्र पकने वाली फसलों का आविष्कार किया गया है। अनेक क्षेत्रों में रोगों और कीड़ों से मुक्त बीजों का प्रयोग कर उत्तम फसलें प्राप्त की जाती हैं। उसी प्रकार जल क्षेत्रों में मछली पकड़ना, खानों से कोयला, लोहा आदि खनिज निकालना, वनों से लकड़ियाँ काटना अथवा पशुओं से ऊन, चमड़ा वाल खालें, हड्डियाँ आदि को प्राप्त करने की क्रियाओं को भौतिक घटक प्रत्यक्षतः या परोक्षत: प्रभावित हैं। प्राथमिक आर्थिक क्रियाओं को प्रभावित करने वाले भौतिक घटक के अन्तर्गत निम्न दशाएँ आती हैं
  • जलवायविक दशाएँ प्राथमिक आर्थिक गतिविधियों पर सर्वाधिक प्रभाव तापमान और वर्षा का पड़ता है। जैसे कृषि कार्य में पौधों को बढ़ने के लिए एक निश्चित तापमान की आवश्यकता होती है, उससे कम तापमान पर अंकुर निकलना सम्भव नहीं होता। साधारणत: जिन भू-भागों में ग्रीष्मकालीन औसत तापमान 50°C से कम मिलता है वहाँ खेती नहीं की जा सकती अर्थात् किसी प्रदेश विशेष में कौन-सी फसलें उत्पन्न की जाती हैं, साल में कितनी फसलें ली जा सकती हैं और कृषि कार्य का क्या स्वरूप होता है, यह सब जलवायु पर ही निर्भर करता है। 
जलवायु ही मनुष्य को साधन सम्पन्न बनाती है। खनिज सम्पत्ति का समुचित विदोहन जलवायु की अनुकूलता पर निर्भर होता है। प्रतिकूल जलवायु वाले प्रदेशों में भूगर्भ में छिपी विभिन्न खनिज सम्पदा का पता लगाना कठिन कार्य होता है।
उदाहरणार्थ, टुण्ड्रा प्रदेश वर्षभर हिमाच्छादित रहते हैं परिणामस्वरूप खनिज सम्पदा के स्रोत ढूँढ निकालना एक कठिन कार्य है। ठीक इसी भाँति भूमध्यरेखीय प्रदेशों में सघन वनों एवं दलदली भूमि के कारण खनिज सम्पदा का ठीक से सर्वेक्षण ही नहीं हो पाया है।
प्रतिकूल जलवायु वाले प्रदेशों में स्थित खनिज भण्डारों का दोहन मानव द्वारा तभी किया जाता है, जबकि वे अत्यधिक मूल्यवान हों, जैसे दक्षिणी अफ्रीका के कालाहारी मरुस्थल से हीरे और सोना प्राप्त किए जाते हैं। ध्रुवीय प्रदेश में ग्रीनलैण्ड के तटवर्ती क्षेत्र में क्रीसोलाइट की उपलब्धि का सर्वेक्षण किया जा चुका है, परन्तु कठोर एवं दुःखदायी जलवायु के कारण उचित विदोहन और भावी अन्वेषण असम्भव सा है।

  • भूमि की प्रकृति खेती उन्हीं भू-भागों में की जाती है जहाँ हल चलाने के लिए समतल भूमि मिलती है। ऐसे भागों में ही यन्त्रों का उपयोग किया जा सकता है तथा फसलों को ढोने की सुविधाएँ मिलती हैं। वस्तुतः नदी घाटियों में, पहाड़ी ढालों पर, उपजाऊ समतल भागों में समुद्रतटीय मैदानों में ही कृषि की जाती है। जहाँ पर जनसंख्या का भार अधिक होता है, तो खेती पहाड़ों के ढालों पर भूमि को छोटे-छोटे टुकड़ों या सीढ़ियों के आकार में काटकर की जाती है। ऐसे पहाड़ी ढाल हजारों मीटर की ऊँचाई तक पाए जाते हैं। अधिक-से-अधिक 45° के ढालों पर सफलतापूर्वक खेती की जा सकती है।
  • उपजाऊ मिट्टी फसलों के लिए उपजाऊ मिट्टी का मिलना भी आवश्यक है। कम उपजाऊ भागों में मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए प्राणिज अथवा रासायनिक खादों का उपयोग बढ़ाया जाता है। विश्व में खेती की दृष्टि से काँप, कछार या दोमट मिट्टियाँ सबसे महत्त्वपूर्ण मानी गई हैं। बलुई, नमकीन या दलदली मिट्टी कृषि के लिए उपयुक्त नहीं होती।
इसी कारण मरुस्थलों में अथवा नदियों में दलदली भागों में कृषि क्रिया का अभाव पाया जाता है। इसी प्रकार अधिक वर्षा वाले भागों में भी भूमि की उर्वरा शक्ति धरातल में रिस जाने या बहकर चले जाने से खेती करना कठिन और व्ययसाध्य होता है।
आर्थिक कारक
इन घटकों में बाजारों की निकटता, यातायात के साधनों की उन्नति, श्रमिको की उपलब्धता, पूँजी और सरकारी नीति का स्थान मुख्य है।
  • बाजार की निकटता कोई क्षेत्र उपभोग के केन्द्रों से कितनी दूर है, यह बात भी खेती एवं खनन को प्रभावित करती है। साग, सब्जियाँ, शीघ्र नष्ट होने वाले फल, मत्स्य उद्योग सामान्यतः घनी जनसंख्या के क्षेत्रों के निकट ही स्थापित किए जाते हैं, किन्तु खाद्यान्न और उद्योगों के लिए कच्चा माल दूर स्थित ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, फ्रांस और ब्रिटेनी क्षेत्र इंग्लैण्ड के लिए, सब्जियों और फ्लोरिडा का दक्षिण-पूर्वी भाग संयुक्त राज्य अमेरिका के उत्तर-पूर्वी नगरों के लिए  सब्जियाँ और फल पैदा करते हैं। ग्रेट ब्रिटेन, जापान और इटली कपास की प्राप्ति भारत, पाकिस्तान और सूडान से करते हैं। कच्चा ऊन ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड अर्जेण्टाइना, उरुग्वे और पैराग्वे से प्राप्त किया जाता है। जहाँ भेड़ें पालन के लिए उपयुक्त जलवायु सम्बन्धी दशाएँ उपलब्ध हैं।
  • यातायात के साधन व्यापारिक ढंग से कृषि तभी सम्भव है जबकि कृषि उत्पादन क्षेत्रों का सम्बन्ध उपभोग के क्षेत्रों में हो। शीत भण्डारों की प्रगति हो जाने से हजारों किमी दूर पैदा किए गए अण्डे, दूध मक्खन, सब्जियाँ, मांस, फल आदि शीघ्रता के साथ उपभोग केन्द्रों को पहुँचाए जा सकते हैं। यातायात की प्रगति होने से ही क्षेत्र विशेषों में फसलों का विशिष्टीकरण सम्भव हो सका है। भूमध्यसागरीय प्रदेशों में रसदार तथा सूखे फल, ऑस्ट्रेलिया में मक्खन तथा दूध और कनाडा एवं संयुक्त राज्य में फलों का उत्पादन इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
  • श्रमिक पूर्ति कृषि करने के लिए पर्याप्त मात्रा में निपुण और सस्ते श्रमिकों की उपलब्धि आवश्यक है। श्रमिकों की अधिकता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में चावल और चाय की खेती तथा ओसीनिया के द्वीपों में गन्ना और नारियल की खेती की जाती है, किन्तु जहाँ मानव श्रम अधिक महँगा होता है वहाँ यन्त्रों के द्वारा खेती की जाती है। विशेषतः रूस, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त राज्य अमेरिका में।
  • पूँजी की उपलब्धता पूँजी की उपलब्धि भी कृषि के लिए आवश्यक तत्त्व है। पूँजी से ही उत्तम बीज, खाद और वैज्ञानिक तरीकों से उपयोग सम्भव है। मशीनों का प्रयोग, सिंचाई के साधनों का विकास और उत्पादित वस्तुओं को बाजारों तक लाने और उन्हें आवश्यकता पड़ने तक संग्राहकों में एकत्रित करने के लिए भी पूँजी की आवश्यकता पड़ती है।
  • राज्य की नीति किसी देश की सरकार की कृषि एवं खनन नीति भी कृषि क्षेत्र एवं खनन क्षेत्र को घटाने-बढ़ाने में सहायक होती है। भारत सरकार के समक्ष इसकी बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्यान्न प्राप्त करने की समस्या के कारण पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि को प्राथमिकता दी गई। श्री टेलर के अनुसार, "जब नई दुनिया के खाद्यान्नों ने यूरोपीय बाजार को पार दिया तो विवशत: इंग्लैण्ड की सरकार को कृषि के स्थान पर उद्योगों को विकसित करने की नीति को अपनाना पड़ा। फ्रांस और जर्मनी ने इस समस्या का समाधान संरक्षण कर लगाकर किया। डेनमार्क ने स्वतन्त्र व्यापार ही अपनाया और विदेशों से प्राप्त सस्ते खाद्यान्नों पर ही अपने छोटे-छोटे खेतों में दुग्ध उद्योग को अपनाया।" संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में भी जब अधिक गेहूँ के उत्पादन के कारण तथा ब्राजील में कहवा के कारण, विश्व के बाजारों में माँग की अपेक्षा पूर्ति अधिक हुई तो इनके मूल्य गिर गए। इसलिए इन देशों ने अपनी करोड़ों टन फसल समुद्र के गर्भ में विलीन कर दी अथवा उसे जला डाला। यही स्थिति संयुक्त राज्य अमेरिका में नारंगियों के अधिक उत्पादन हो जाने पर होती है।

    सामाजिक कारक
    इसके अन्तर्गत ये घटक सम्मिलित किए जाते हैं मानव की भोजन अभिरुचि एवं अन्य कारण।
    • मानव की भोजन रुचि विभिन्न देशों और जलवायु प्रदेशों में मनुष्य की भोजन रुचि भिन्न-भिन्न पाई जाती है। मानसूनी देशों में चावल और मछली तथा दालें; शीतोष्ण प्रदेशों में दूध, मक्खन और रोटी, फल तरकारियाँ और शराब, आदि अधिक काम में ली जाती हैं। फलतः यहाँ  इन्हीं वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। चीन में तो चावल भोजन का मुख्य अनाज है, जबकि भारत में दक्षिण के पठार के निवासियों का मुख्य खाद्यान्न ज्वार-बाजार, सोरघम और उत्तरी भारत का गेहूँ है। फ्रांसीसी कृषक जहाँ भी भूमि मिल जाती है वहाँ अन्य अनाजों की अपेक्षा गेहूँ ही बोना पसन्द करते हैं। भूमध्यसागरीय प्रदेशों में अंगूरों की अधिकता के कारण ही शराब पीने का रिवाज प्रचलित हुआ है। चीन तथा तिब्बत में बौद्ध धर्मावलम्बियों द्वारा मांस खाना वर्जित है। अत: वहाँ मछलियाँ अधिक खाई जाती हैं।
    • अन्य कारण आधुनिक कृषि और खनन प्रक्रिया को व्यापारिक चक्रों तथा युद्धों आदि का भय रहता है। अतः अन्य कारणों के अन्तर्गत प्राथमिक क्रिया उतनी ही प्रभावित होती है जितनी कि भौतिक, आर्थिक और सामाजिक घटक से प्रभावित होती है।
    द्वितीयक गतिविधियों की व्यवस्था को प्रभावित करने वाले स्थानीय कारक
    द्वितीयक आर्थिक गतिविधियों के अन्तर्गत वे व्यवसाय हैं जिन्हें प्राथमिक व्यवसायों द्वारा उपलब्ध पदार्थों का प्रसंस्करण करके विद्वान् उन्हें अधिक विकसित खनन तथा विशेषीकृत कृषि को भी इसी में शामिल करते हैं। लौह-अयस्क को पिग आयरन में बदलना, कपास से सूती वस्त्र तथा गन्ने से शक्कर का निर्माण द्वितीयक आर्थिक गतिविधियों का एक उदाहरण है।
    द्वितीयक आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करने वाले प्रमुख स्थानिक कारक निम्न हैं
    • मजदूर श्रम उत्पादन का एक अनिवार्य तत्त्व है। किसी भी उद्योग में श्रमिकों की अनिवार्यता आवश्यक होती है। सभी उत्पादन कार्यों के लिए क्षमताशील श्रमिकों की आवश्यकता होती है, परन्तु उनकी संख्या भिन्न-भिन्न उद्योगों में उद्योग की विशेषता उत्पादन के पैमाने तथा श्रम एवं शक्ति के अनुपात के अनुसार अलग-अलग होती है। यदि कोई विशेष क्षेत्र किसी विशिष्ट उद्योग के लिए प्रख्यात है तो कारखाने उस स्थान के समीप ही स्थापित किए जाते हैं जैसे लंकाशायर प्रदेश पीढ़ियों के कुशल बुनकरों के लिए प्रसिद्ध है। अतः जब उद्योग को बड़े पैमाने पर चालू किया गया तो लंकाशायर क्षेत्र के चुनाव में वहाँ का कुशल श्रमिक सर्वाधिक प्रभावशाली तत्त्व रहा है।
    • उचित जलवायु उद्योगों की स्थापना को प्रभावित करने वाले तत्त्वों में उत्तम जलवायु भी एक प्रभावशाली अवस्था है। क्योंकि जलवायु पर मनुष्य का स्वास्थ्य निर्भर करता है। श्रमिकों का स्वास्थ्य उत्पादन में वृद्धि करता है। अतः श्रमिकों की पूर्ति ऐसे स्थानों पर अधिक रहती है जहाँ की जलवायु अच्छी हो। कुछ उद्योगों को विशिष्ट प्रकार की जलवायु चाहिए। अतः ऐसे कारखाने उसी प्रकार की जलवायु में ही स्थापित किए जाते हैं। उदाहरणार्थ, सूत्री वस्त्र उद्योग के लिए नम जलवायु अनुकूल होती है। अतः यह उद्योग भारत में अहमदाबाद, मुम्बई, वड़ोदरा, सूरत, आदि नम जलवायु के क्षेत्रों में स्थापित किए गए हैं।
    • पूँजी उत्पादन की क्रिया में पूँजी का बड़ा महत्त्व है। छोटे-बड़े उद्योगों में पूँजी आवश्यक है। कच्ची सामग्री, श्रम, शक्ति के साधन, बाजार, परिवहन के साधन आदि सभी की व्यवस्था तथा संचालन करने में पूँजी नितान्त आवश्यक है। पूँजी की मात्रा में उत्पादन के पैमाने के अनुसार अन्तर मिलता है।
    • शक्ति के साधन आधुनिक युग में शक्ति के साधन का अत्यधिक महत्त्व है। बड़े पैमाने के उद्योगों को चलाने में शक्ति के साधनों की बड़ी मात्रा में आवश्यकता पड़ती है। अतः शक्ति के आधुनिक साधनों के बिना वस्तु निर्माण उद्योग की स्थापना सम्भव नहीं है। इसलिए वस्तु निर्माण उद्योग ऐसे क्षेत्रों में स्थापित किए जाते हैं, जहाँ चालक शक्ति सुलभ हो। कोयला एक भारी पदार्थ अतः कोयला का प्रयोग शक्ति के रूप में करने वाले कारखाने प्रायः कोयला खदानों के समीप स्थापित किए जाते हैं। यही कारण है कि विश्व के अधिकांश औद्योगिक प्रदेश कोयला क्षेत्रों के निकट स्थित हैं। जमशेदपुर, बोकारो व दुर्गापुर के इस्पात उद्योग के कारखाने कोयला क्षेत्र के समीप स्थित हैं।
    • बाजार बाजार का तात्पर्य वह स्थान या क्षेत्र है, जहाँ औद्योगिक उत्पादन की खपत होती है अर्थात् जहाँ उस औद्योगिक उत्पादन के उपभोक्ता निवास करते हैं। किसी भी वस्तु की माँग एक ही स्थान पर केन्द्रित नहीं होती, क्योंकि जनसंख्या के वितरण के अनुसार ही उपभोक्ता भी विस्तृत क्षेत्र पर वितरित होते हैं। उपभोग की वस्तुओं का बाजार, उत्पादक वस्तुओं के बाजार की अपेक्षा अधिक विस्तृत होता है। उत्पादक वस्तुओं की माँग थोक होती है तथा बड़े नगरों एवं कारखानों में केन्द्रित होती है। उपभोग की वस्तुओं की माँग जहाँ कहीं जनसंख्या केन्द्रित होती है, वहीं होती है। वस्तु निर्माण उद्योग की स्थापना और उन्नति बाजार के ऊपर निर्भर करती है। विशेषतः ऐसे उद्योग जिनके तैयार माल कच्चे माल की अपेक्षा भारी या आयतन में अधिक हों या कमजोर हैं; जैसे-सीमेण्ट, फर्नीचर, पैकिंग बक्से, मिट्टी के बर्तन, चीनी के बर्तन आदि, प्रायः खपत क्षेत्रों के निकट ही स्थापित किए जाते हैं।
    • कच्चा माल वस्तु निर्माण उद्योग की स्थापना के लिए कच्ची सामग्री की सुलभता अति महत्त्वपूर्ण है। कच्ची सामग्री उस वस्तु को कहते हैं जिसका रूप एवं गुणधर्म परिवर्तित करके अधिक उपयोगी वस्तु में परिणित किया जाता है। अतः यह किसी भी उद्योग का आधारभूत तत्त्व है। कुछ उद्योग ऐसे होते हैं, जिनमें एक ही कच्ची सामग्री का प्रयोग होता है, परन्तु कुछ ऐसे भी उद्योग हैं जिनमें अनेक वस्तुओं का प्रयोग कच्ची सामग्री के रूप में होता है।
    उदाहरणार्थ, फर्नीचर उद्योग में लकड़ी कच्ची सामग्री है, लेकिन लौह इस्पात उद्योग में लौह-अयस्क, मैंगनीज, कोयला, चूना पत्थर आदि अनेक पदार्थ कच्ची सामग्री के रूप में प्रयुक्त होते हैं। सामग्रियाँ ऐसी होती हैं जिनका भार उत्पादन प्रक्रिया के दौरान घट जाता कुछ कच्ची है, परन्तु कुछ कच्ची सामग्रियाँ ऐसी भी होती हैं, जिनका भार उत्पादन प्रक्रिया के दौरान बढ़ जाता है। उद्योग धन्धों की स्थापना सामान्यतः कच्ची सामग्री के क्षेत्रों में ही की जाती है। वे उद्योग, जो शीघ्र खराब होने वाली कच्ची सामग्री से चलते हैं, उन्हें कच्ची सामग्री के स्रोत के निकट ही स्थापित करना लाभप्रद होता है; जैसे-दूध से मक्खन तथा पनीर गन्ना और चुकन्दर से चीनी बनाना, फल और सब्जी से अचार तथा मुरव्वा बनाना आदि। वस्तु निर्माण के उद्योग जैसे सूती वस्त्र उद्योग को कच्ची सामग्री के स्रोत से दूर भी स्थापित किया गया है। ब्रिटेन का लंकाशायर क्षेत्र मिस्र से कपास प्राप्त करता है। ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान का सूती वस्त्र उद्योग संयुक्त राज्य अमेरिका की कपास पर निर्भर करता है।
    • परिवहन आधुनिक युग में परिवहन तथा उद्योग का घनिष्ठ सम्बन्ध है। उद्योगों की स्थापना में परिवहन के साधन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।  उद्योगों के लिए कच्ची सामग्री एवं अन्य आवश्यक वस्तुएँ श्रमिकों तथा उत्पादित वस्तुओं को बाजार तक पहुँचाने के लिए परिवहन के उपयुक्त साधनों का होना अनिवार्य है। परिवहन एवं उद्योग अन्योन्याश्रित होते हैं। कभी तो कारखाने वहीं स्थापित होते हैं, जहाँ परिवहन के साधन समुचित रूप में विद्यमान होते हैं पर कभी किसी कारखाने विशेष के लिए परिवहन मार्गों का निर्माण भी कराना पड़ता है।
    • सरकारी सहायता सरकार कभी-कभी कुछ उद्योगों को विशेष प्रोत्साहन देती है। ऐसी दशा में वे उद्योग आसानी से स्थापित हो जाते हैं। ये सभी तत्त्व द्वितीयक आर्थिक गतिविधियों के विकास के लिए आवश्यक दशाएँ, उद्योग की स्थापना के समय इन पर विचार करना नितान्त आवश्यक है।
    तृतीय गतिविधियों की व्यवस्था को प्रभावित करने वाले स्थानीय कारक
    तृतीय गतिविधियों में उत्पादन और विनिमय दोनों को शामिल किया जाता है। उत्पादन में सेवाओं की उपलब्धता शामिल होती है, जबकि विनिमय में व्यापार, परिवहन और संचार सुविधायों को शामिल किया जाता है। बिजली मिस्त्री, तकनीशियन, धोबी, नाई, दुकानदार, चालक, कोषपाल, अध्यापक, डॉक्टर, वकील और प्रकाशक आदि का कार्य तृतीय गतिविधियों के उदाहरण हैं।
    तृतीय आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करने वाले प्रमुख स्थानीय कारक निम्नलिखित हैं
    • तृतीयक गतिविधियाँ सेवा क्षेत्र से सम्बन्धित हैं। जनशक्ति सेवा क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण कारक है, क्योंकि अधिकांश तृतीयक गतिविधियों का निष्पादन कुशल श्रमिक व्यावसायिक दृष्टि से विशेषज्ञ और परामर्श दाताओं द्वारा होता है।
    • शिक्षा की उचित व्यवस्था से जनशक्ति की कुशलता में वृद्धि होती है। प्रशिक्षण की व्यवस्था द्वारा तृतीयक गतिविधियों की निष्पादन में वृद्धि होती है।
    • स्वास्थ्य की उपलब्धता श्रमिकों की कार्य क्षमता में वृद्धि करती है। 
    • जनसंख्या का आकार परिवहन एवं वस्तुओं की माँग को प्रभावित करता है। जनसंख्या का आकार जितना बड़ा होगा परिवहन की माँग उतना ही अधिक होगी।
    • प्रतिव्यक्ति आय तृतीय क्रियाकलाप को प्रभावित करती है। आय अधिक होने पर सेवाओं की माँग अधिक होती है।

    चतुर्थक गतिविधियों की व्यवस्था को प्रभावित करने वाले स्थानीय कारक
    इस प्रकार की आर्थिक गतिविधियों में उन उच्च तथा विशिष्ट सेवाओं को शामिल किया जाता है जो वस्तुओं के उत्पादन तथा उपभोग में काम आती हैं। इसमें प्रबन्धन, शोध, नियोजन कानूनी सेवाएँ आदि को शामिल किया जाता है, जो प्रत्यक्षतः या परोक्षतः चतुर्थक गतिविधियों की व्यवस्था को प्रभावित करते हैं।
    प्राकृतिक संसाधन 
    (Natural Resources)
    कोई पदार्थ या ऊर्जा जो पर्यावरण से प्राप्त हो तथा जिसका उपयोग जीवित • चीजों द्वारा होता हो जिसमें मानव भी सम्मिलित है प्राकृतिक संसाधन कहलाता है। संसाधनों पर किसी देश का विकास निर्भर करता है। विशाल भारत में बहुत से संसाधन पाए जाते हैं। इनके अनुकूलतम उपयोग से ही • टिकाऊ विकास सम्भव है। इस प्रकार संसाधन वे स्रोत हैं जिन पर मानव समाज दीर्घावधि तक निर्भर रहता है।
    जिम्मरमैन ने संसाधनों की परिभाषा इस प्रकार दी है "संसाधन पर्यावरण की वे विशेषताएँ हैं; जो मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम मानी जाती हैं। उन्हें मनुष्य की क्षमताओं द्वारा उपयोगिता प्रदान की जाती है।"
    यद्यपि पर्यावरण में हजारों प्राकृतिक तत्त्व विद्यमान होते हैं, किन्तु वे सभी सच्चे अर्थों में संसाधन नहीं हैं। ये पदार्थ या तत्त्व तभी सार्थक होते हैं जब वे मानवीय विशेषताओं, ज्ञान, सामाजिक-आर्थिक संगठन तथा मानव की उपयोग करने की क्षमताओं से सम्बद्ध होते हैं। कोई भी पदार्थ जिसे इस प्रकार रूपान्तरित या संशोधित किया जा सके कि वह अधिक मूल्यवान और उपयोगी बन जाए, उसे संसाधन कहा जाता है।
    संसाधनों के मूर्त तथा अमूर्त दोनों पहलू होते हैं। प्राकृतिक संसाधनों; जैसे- मूर्त तत्त्वों के अतिरिक्त, सामाजिक-राजनीतिक संगठन, स्वतन्त्रता, समानता, विवेकपूर्ण नीतियाँ जैसे अमूर्त तत्त्व भी संसाधनों की श्रेणी में आते हैं, क्योंकि ये मानव की आवश्यकताओं तथा महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति करते है और उसके विकास में योगदान देते हैं।
    जिम्मरमैन ने संसाधन की परिभाषा में तीन पहलुओं पर बल दिया है। 
    • वह वस्तु जिस पर मानव निर्भर है।
    • वह वस्तु, जिससे मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति हो।
    • मानव की अवसर का लाभ उठाने की शारीरिक तथा बौद्धिक क्षमता।
    जिम्परमैन के अनुसार, "संसाधन होते नहीं बनाए जाते हैं"। 
    पीच एवं जेम्स ने भी कहा है कि संसाधन मूल्यांकनकर्ता के बाहर ही नहीं भीतर भी विद्यमान होते हैं।
    इस प्रकार कोई भी वस्तु जो मानव की आवश्यकता की पूर्ति का कार्य करती है, संसाधन बन जाती है। उदाहरणार्थ, कोयला अपनी आकृति, रंग, गुठन के कारण संसाधन नहीं होता अपितु ऊर्जा देने के कारण संसाधन बनता प्राचीनकाल में जब तक मनुष्य को भूमि में दबे हुए विशाल खनिज भण्डारों का ज्ञान नहीं था तथा जब तक उन्हें प्रयोग करने की क्षमता उपलब्ध नहीं थी तब तक वे खनिज संसाधन नहीं थे, किन्तु आज इन खनिजों को संसाधन कहा जाता है, क्योंकि वे मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इस प्रकार संसाधनों का कार्यात्मक पहलू महत्त्वपूर्ण है।
    कोई वस्तु एक स्थान पर तो संसाधन के रूप में कार्य कर सकती है, किन्तु दूसरे स्थान पर वह उदासीन तत्त्व हो सकती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में नियाग्रा नदी पर बने विशाल नियाग्रा जलप्रपातों और अफ्रीका में कांगो नदी पर निर्मित स्टेनले जलप्रपात की जलशक्ति विभव की तुलना करने पर यह पता चलता है कि जहाँ नियाग्रा प्रपात की जलशक्ति क्षमता का प्रयोग न्यू इंग्लैण्ड राज्य के कागज तथा सूती वस्त्र निर्माण के अनेक उद्योगों में किया जाता है। अतः अमेरिका में नियाग्रा प्रपात निश्चित रूप से एक संसाधन है वहीं दूसरी ओर कांगो नदी के स्टेनले प्रपात जोकि 10 से 15 मिलियन हॉर्स पावर विद्युत उत्पादन की विभव क्षमता रखते हैं, का केवल सैद्धान्तिक महत्त्व ही है, क्योंकि कांगो की वर्तमान सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दशाओं में अभी तक यह जलप्रपात संसाधन नहीं बन सका है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि संसाधन बनने के लिए वस्तु में दो गुण उपयोगिता एवं कार्यात्मकता होने आवश्यक है।

    संसाधनों का वर्गीकरण
    उपयोग की निरन्तरता अथवा अनन्तिमता के आधार पर संसाधनों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से है
    असमाप्य संसाधन
    • नवीकरणीय संसाधन ऐसे सभी संसाधन, जिनका नवीकरण और पुनः उत्पादन भौतिक यान्त्रिक तथा रासायनिक क्रियाओं द्वारा किया जा सकता है, असमाप्य संसाधन कहलाते हैं। सौर ऊर्जा, वायु, जल, वन, वन्य प्राणी, मृदा, कृषि उपजों तथा स्वयं मनुष्य असमाप्य संसाधन हैं। इन संसाधनों की पुनरावृत्ति सम्भव है।
    • सौर ऊर्जा सूर्य ऊर्जा का चिरस्थायी स्रोत है। जब तक सूर्य चमकता रहेगा, तब तक हमें उससे ऊर्जा प्राप्त होती रहेगी। इस ऊर्जा का प्रयोग करके हम कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस जैसे समाप्य संसाधनों को बचा सकते हैं। इसके प्रयोग से वायु का प्रदूषण भी नहीं होता। निकट भविष्य में यह ऊर्जा का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन जाएगा। यह संसाधन पृथ्वी के प्रत्येक स्थान पर एक-सी मात्रा में नहीं मिलता। किसी स्थान पर प्राप्त हुई सौर ऊर्जा वहाँ की स्थिति, तथा वायुमण्डलीय दशाओं पर निर्भर करती है।
    • वायु यह जीवों तथा वनस्पति के लिए एक महत्त्वपूर्ण असमाप्य संसाधन है। पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए वायुमण्डल के विभिन्न अवयवों; जैसे-नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, जलवाष्प तथा अन्य तत्त्वों में सन्तुलन बना रहना चाहिए। आज के औद्योगिक युग में इस सन्तुलन को भारी खतरा हो गया है।
    • जल यह एक महत्त्वपूर्ण असमाप्य संसाधन है। पृथ्वी पर जीवन का मुख्यतः जल के कारण ही है। आदिकाल से ही मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जल का प्रयोग करता आया है। पृथ्वी पर उपलब्ध जल की कुल मात्रा में कमी नहीं आती अर्थात् मनुष्य के प्रयोग से जल नष्ट नहीं होता है। हाँ इसके भौतिक तथा रासायनिक रूप में परिवर्तन अवश्य होता रहता है। जलीय भागों में लगातार वाष्पीकरण होता है, वृष्टि के रूप में धरातल पर आ गिरता है। वर्षा का यह जल नदियों तथा नालों के रूप में बहकर पुनः समुद्र में जा गिरता है। जल के इस प्रकार से वायुमण्डल तथा स्थलमण्डल से होकर दोबारा से समुद्र में प्रवेश करने के क्रम को जल चक्र कहते हैं। इस जल-चक्र से ही हमें पृथ्वी के विभिन्न भागों में जल उपलब्ध होता है।
    • वनस्पति विश्व के विभिन्न भागों में अनेक प्रकार के वन उगे हुए हैं जिनसे हमें जलाने की लकड़ी तथा अनेक अन्य पदार्थ प्राप्त होते हैं। वन, जलवायु को नियन्त्रित करते हैं और मृदा अपरदन को रोकते हैं। कम वर्षा वाले भागों में घास के मैदान पाए जाते हैं जहाँ बड़े पैमाने पर पशुचारण होता है, परन्तु वन्य संसाधन तभी तक नव्यकरणीय होते हैं जब तक उनका उपयोग नियमित ढंग से किया जाए। वनों को अन्धाधुन्ध काटने तथा घास के मैदानों में अतिचराई करने से ये संसाधन समाप्त भी हो सकते हैं।
    • मृदा यदि मृदा को कृषि उत्पादन के लिए ठीक ढंग से प्रयोग किया जाए, तो यह एक असमाप्य संसाधन ही है। मृदा से मानव हजारों वर्षों से कृषि के माध्यम से फसले प्राप्त करता आया है, परन्तु पिछले वर्षों में विश्व के अनेक क्षेत्रों में मृदा का अतिशोषण किया गया है, जिससे मृदा हास तथा मृदा अपरदन की समस्या गम्भीर हो गई है। इस समस्या को खाद्य के प्रयोग तथा शस्यावर्तन की प्रक्रिया से हल किया जा सकता है। मृदा तब तक ही असमाप्य संसाधन है जब तक इसकी उपजाऊ शक्ति बनी हुई है। मनुष्य संसाधनों का स्वयं एक बहुत बड़ा उत्पादक है। वास्तव में मनुष्य के सहयोग एवं प्रयास के बिना किसी भी संसाधन का विकास नहीं हो सकता। आदिकाल से ही मनुष्य संसाधनों का विकास करता आया है और जब तक सृष्टि रहेगी तब तक मानव संसाधनों का विकास करता रहेगा और स्वयं एक महत्त्वपूर्ण असमाप्य संसाधन के रूप में कार्य करता रहेगा
    अनव्यकरणीय अथवा समाप्य संसाधन
    ये ऐसे संसाधन हैं जिनका एक बार प्रयोग होने के बाद पुनः पूर्ति नहीं हो सकती है। भूगर्भ से प्राप्त होने वाले लगभग सभी खनिज समाप्य संसाधन हैं। जब एक बार इन खनिजों को भूगर्भ में से निकाल लिया जाए, तो पुनः इनकी पूर्ति नहीं हो सकती। कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, लौह-अयस्क, ताँबा, बॉक्साइट, यूरेनियम, थोरियम, गन्धक आदि समाप्य संसाधनों के उदाहरण हैं। निरन्तर खनन क्रिया से खनिज समाप्त हो जाते हैं और खानें खाली हो जाती हैं इसलिए खनन व्यवसाय को लुटेरा व्यवसाय कहा जाता है। भू-गर्भिक क्रियाओं द्वारा खनिजों की पूर्ति होने में लाखों-करोड़ों वर्ष लग जाते हैं और इस लम्बी अवधि का खनन क्रिया से कोई तालमेल नहीं है। इस प्रकार सभी एक निश्चित मात्रा में उपलब्ध हैं और समय बीतने पर उनकी मात्रा में कमी आती है। जिन खनिजों का शक्ति के संसाधनों के रूप में प्रयोग किया जाता है, उनमें कोयला तथा पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस का निर्माण हुआ है। इनके बनने में लाखों वर्षों का समय लगा है। यदि इन संसाधनों का प्रयोग शक्ति उत्पादन के लिए उसी गति से किया गया जिस गति से आज संसार के विभिन्न देश कर रहे हैं, तो ये संसाधन शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगे। यदि अनुमानित गति से पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस का प्रयोग होता रहा तो संसार के सभी पेट्रोलियम और प्राकृति गैस के भण्डार वर्ष 2070 तक समाप्त हो जाएँगे। संसाधन कुछ ही शताब्दियों में समाप्त हो जाएँगे। यूरेनियम तथा थोरियम अभी तक पर्याप्त मात्रा में बनाए जाते हैं, परन्तु जिस गति से आधुनिक युग में विभिन्न कार्यक्रमों के लिए तेजी से इनका उपयोग होने लगा है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि ये संसाधन भी हमारा साथ अधिक देर तक नहीं देंगे।
      प्राकृतिक संसाधनों का वितरण
      प्राकृतिक संसाधन पृथ्वी पर असमान रूप से विपरीत हैं। विश्व विभिन्न क्षेत्र विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है, तो अनेक क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों का अभाव पाया जाता है। विभिन्न प्रकार के संसाधनों का वितरण निम्नलिखित है
      प्राकृतिक संसाधनों का वितरण
      • विश्व के कुल कोयला भण्डार का 50% एशिया में लगभग 33% उत्तरी अमेरिका में तथा शेष का अधिकांश भाग यूरोप में स्थित है, जबकि दक्षिणी अमेरिका एवं अफ्रीका में कोयला का अभाव पाया जाता है।
      • विश्व के कुल पेट्रोलियम भण्डार लगभग 60% पश्चिमी एशिया या मध्य-पूर्व के खाड़ी तटीय प्रदेशों में पाए जाते हैं। चीन, इण्डोनेशिया, म्यांमार, भारत में पेट्रोलियम के छोटे भण्डार पाए जाते हैं।
      • विश्व के कुल प्राकृतिक गैस के भण्डारों में 40% संयुक्त राज्य अमेरिका में, 23% मध्य पूर्व में तथा 11% पूर्व सोवियत संघ में पाया जाता है। शेष भण्डार का अधिकांश भाग कनाडा, यूरोप तथा वेनेजुएला है। मैक्सिको दक्षिण अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, इण्डोनेशिया, भारत, बांग्लादेश एवं ऑस्ट्रेलिया में लघु भण्डार पाया जाता है।
      • विषुवत् रेखा के 15° अक्षांश के मध्य स्थित अफ्रीका में विश्व के कुल विभव जलशक्ति का 40% विद्यमान है, जबकि उत्तरी अफ्रीका तथा दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका के मरुस्थलीय प्रदेशों में जलशक्ति विभव काफ कम है।
      • सभी महाद्वीपों में थोड़ा-बहुत लौह-अयस्क का भण्डार पाया जाता है। विश्व के कुल लौह-अयस्क के भण्डारों का 90% दस देशों पूर्व सोवियत संघ, भारत, ब्राजील, संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, कनाडा, चीन, स्वीडन, वेनेजुएला एवं ऑस्ट्रेलिया में पाया जाता है।
      • जार्जिया, यूक्रेन, रूस, ताजिकिस्तान तथा कजाकिस्तान में मैंगनीज का विशाल भण्डार पाया जाता है। इसके अतिरिक्त चीन, भारत, ब्राजील, घाना, दक्षिण अफ्रीका में भी मैंगनीज का भण्डार पाया जाता है।
      • . ताँबा का भण्डार लगभग सभी महाद्वीपों-दक्षिणी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, एशिया, यूरोप एवं अफ्रीका में पाया जाता है। इसका उत्खनन लगभग 40 देशों द्वारा किया जाता है।
      • बॉक्साइड का भण्डार लगभग सभी महाद्वीपों में पाया जाता है, लेकिनन ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में बॉक्साइड का भण्डार सबसे अधिक है।
      • विश्व में अभ्रक का सबसे अधिक भण्डार भारत में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त पूर्व सोवियत संघ, ब्राजील, कनाडा, दक्षिणी पूर्वी अफ्रीका तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में अभ्रक का भण्डार पाया जाता है।
      प्राकृतिक संसाधन एवं सम्बन्धित समस्याएँ
      प्राकृतिक संसाधनों की अत्यधिक आर्थिक दोहन से संसाधनों की उपलब्धता की समस्या के साथ ही संसाधनों के मात्रात्मक एवं गुणात्मक ह्रास की समस्या भी उत्पन्न हो गई है। इससे सम्बन्धित समस्याएँ निम्नलिखित हैं
      • भूमि संसाधन का अवनयन एवं कृषि उत्पादों में कमी। 
      • जल संसाधनों की उपलब्धता में कमी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
      • अधिक खाद्यान्न उत्पादन के लिए भूमि की उत्पादकता में वृद्धि एवं सिंचित क्षेत्रों में विस्तार की आवश्यकता है, लेकिन दूसरी ओर सिंचित भूमि में जल प्लावन तथा लवणीयता की समस्या से उर्वर भूमि कम हो रही है।
      • ईंधन आपूर्ति के प्रयासों का प्रभाव खाद्य आपूर्ति पर भी पड़ता है।
      • संसाधनों की उपलब्धता बढ़ाना ही दूसरे रूप में संसाधन संकट का रूप ले रही है।
      • विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं के विकास के लिए भी बड़े पैमाने पर वनावरण की कमी की गई, जिससे वनों की उपलब्धता की समस्या उत्पन्न हो गई है।
      • वन, जल, खनिज, खाद्य, ऊर्जा तथा भूमि संसाधनों के विभिन्न आर्थिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अतिदोहन किया गया। परिणामस्वरूप इनकी उपलब्धता में कमी आई तथा इस कमी ने समस्या का रूप ले लिया है।
      प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन
      यदि प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन इसी प्रकार जारी रहा तो मानव की प्रगति तथा उसके जीवन-स्तर को बनाए रखना नहीं होगा। जैसा कि पहले बताया गया है, संसाधन संरक्षण का अर्थ दीर्घकाल तक उत्पादन जारी रखने के लिए उनका विवेकपूर्ण प्रयोग करना है। इसके लिए प्राकृतिक नियोजन सबसे आवश्यक है।
      संसाधनों के नियोजन के लिए निम्नलिखित बिन्दु विचारणीय हैं 
      • किसी क्षेत्र, प्रदेश या देश को प्राथमिक इकाई मानकर उसके संसाधन आधार का आकलन करना चाहिए। इस उद्देश्य से सभी प्रमाणित तथा सम्भावित संसाधनों की मात्रा, गुणवत्ता तथा विशेषताओं का मूल्यांकन करना चाहिए।
      • निश्चित मात्रा में उपलब्ध संसाधनों या क्षयशील एवं अनवीकरणीय संसाधनों का दोहन वैज्ञानिक विधि से केवल अनिवार्य उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए।
      • संसाधनों को इस प्रकार विकसित करने का प्रयास करना चाहिए जिससे उनकी उत्पादकता में वृद्धि हो 
      • वर्तमान समय में कम उपयोगी माने जाने वाले संसाधनों को व्यर्थ नहीं करना चाहिए। भविष्य में उन्नत प्राविधिकी की सहायता से उन्हें विकसित करना सम्भव हो सकेगा।
      • सीमित मात्रा में उपलब्ध विरल संसाधनों की उपलब्धता बनाए रखने के लिए उनके प्रतिस्थापन ढूँढना आवश्यक है। 
      • जैसे-जैसे जनसंख्या की वृद्धि से आर्थिक आवश्यकताएँ बढ़ रही हैं वैसे-वैसे वैज्ञानिक तथा प्राविधिक विकास से वैकल्पिक संसाधनों की खोज हो रही है। सभी संसाधनों के स्टॉक की वार्षिक वस्तु सूची बनानी चाहिए, जिससे जनसंख्या तथा संसाधनों के बदलते हुए तथा गत्यात्मक सम्बन्ध को समझा जा सके
      • संसाधन का सन्तुलित तथा बहु-उद्देशीय उप प्रयोग किया जाना चाहिए, जिससे न्यूनतम उत्पादन से अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके।
      • संसाधन सन्तुलित रूप से वितरित नहीं हैं इसलिए कुछ क्षेत्रों में उनका अति दोहन किया जा रहा है। इससे जीवन स्तर में असन्तुलन पैदा होता है जो समाज में असन्तोष का कारण बनता है। सन्तुलित प्रादेशिक विकास के लिए संसाधनों का सन्तुलित प्रयोग करना आवश्यक है।
      • किसी देश के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के नियोजन के लिए यह आवश्यक है कि उसके नागरिक प्रशिक्षित तथा संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग में शिक्षित हों। उनके बौद्धिक काल के लिए उन्हें सभी सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए।
      • संसाधनों के संरक्षण के लिए प्रभावी कानून बनाने चाहिए तथा उन कानूनों के लागू करने तथा पालन को सुनिश्चित करना चाहिए।
      ऊर्जा संकट (Energy Crisis)
      ऊर्जा आर्थिक विकास का आधार है। कोई भी देश तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके पास ऊर्जा के पर्याप्त संसाधन न हो। मानव प्राचीन काल से ही ऊर्जा का प्रयोग कर रहा है। पहले जनसंख्या कम थी और मानव की आवश्यकताएँ सीमित थीं, परन्तु समय बीतने के साथ जनसंख्या में वृद्धि हुई और मानव आवश्यकताएँ भी बढ़ने लगीं। 18वीं शताब्दी के अन्त तथा 19वीं शताब्दी के आरम्भ में इंग्लैण्ड के अन्दर औद्योगिक क्रान्ति आई जिसका प्रभाव शीघ्र हो विश्व के अन्य क्षेत्रों में फैल गया। परिणामस्वरूप विश्व के विभिन्न भागों में औद्योगिक विकास होने लगा और ऊर्जा की मांग बढ़ने लगी। औद्योगीकरण के साथ-साथ नगरीकरण तथा परिवहन के साधनों में वृद्धि हुई तथा ऊर्जा की मांग के विभिन्न प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का प्रयोग किया गया है, जिन्हें दो मुख्य वर्गों नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत एवं अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोत में बाँटा जाता है। चूंकि हमारी निर्भरता मुख्यतः अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। अतः ऊर्जा संकट हो गया।

      ऊर्जा संकट के कारण
      आधुनिक युग में आर्थिक उन्नति तेजी से हो रही है और ऊर्जा की माँग में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है। अधिकांश क्षेत्रों में ऊर्जा की माँग उसकी आपूर्ति से कहीं अधिक है। और विश्व भर में ऊर्जा संकट पैदा हो गया है। ऊर्जा संकट के लिए उत्तरदायी कुछ महत्त्वपूर्ण कारण निम्नलिखित है।
      • भाप के इंजन के आविष्कार से कोयले की माँग बढ़ने लगो और 19वीं शताब्दी में विश्व की 90% ऊर्जा कोयले से ही प्राप्त होती थी, परन्तु अब कोयले के बहुत से भण्डार समाप्त हो गए हैं और पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, जलविद्युत तथा परमाणु ऊर्जा का प्रयोग अधिक होने लगा है। इसके परिणामस्वरूप कोयले का सापेक्षिक महत्त्व कम हो गया है और अब यह विश्व की केवल 40% ऊर्जा ही प्रदान करता है
      • जिन क्षेत्रों में कोयले का बड़े पैमाने पर प्रयोग हुआ है वहाँ पर कोयले के भण्डार लगभग समाप्त हो चुके हैं या समाप्त होने वाले हैं। उनमें संयुक्त राज्य अमेरिका का अप्लेशियन क्षेत्र, ग्रेट ब्रिटेन के अधिकांश कोयला क्षेत्र, यूरोपीय महाद्वीप के रूर, सार, से क्सोनी क्षेत्र, डोनेट्स बेसिन, कुजनेट्स बेसिन, कारागंडा बेसिन, पेचोरा बेसिन, चीन व भारत के कुछ क्षेत्र, जापान के अधिकांश क्षेत्र आदि है। अत: आज के विश्व में कोयले की माँग इसकी आपूर्ति से कहीं अधिक है और कोयले की ऊर्जा का संकट पैदा हो गया है। आशंका है कि यदि इसी गति से कोयले का प्रयोग बढ़ता गया तो विश्व के समस्त कोयला भण्डार आने वाले सौ वर्षों में समाप्त हो जाएंगे।
      • पेट्रोलियम का उपयोग तब शुरू हुआ जब 1859 ई. में संयुक्त राज्य अमेरिका के टिटस्विले में तेल का उत्पादन शुरू हुआ। शीघ्र हो अप्लेशियन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के अन्य क्षेत्रों में तेल का उत्पादन शुरू हो गया और ऊर्जा के स्रोत में तेल का महत्त्व बढ़ गया। अब इस देश के बहुत से तेल भण्डार प्रयोग किए जा चुके हैं। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरणों में मध्य-पूर्व में तेल के भण्डारों की खोज हुई और प्रथम विश्व युद्ध के बाद यह विश्व का सबसे महत्त्वपूर्ण उत्पादक क्षेत्र बन गया।
      • अरब राष्ट्रों के हाथ में खनिज तेल एक आश्चर्यजनक भू-राजनीतिक हथियार है, जिसके द्वारा वे शक्ति प्रदर्शन करते हैं। ये देश स्वेच्छा से तेल के उत्पादन में कमी या वृद्धि करके तेल की कीमतें निश्चित करते हैं और विश्व की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं। तेल की आपूर्ति के सन्दर्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश को भी इन देशों के आगे झुकना पड़ता है। ये देश किसी भी देश को तेल बेचना बन्द करके उस देश के लिए ऊर्जा संकट पैदा कर सकते हैं।
      • वर्ष 1973 में पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन ने तेल का मूल्य 51.5 प्रति बैरल से बढ़ाकर 57 प्रति बैरल कर दिया। इसका कारण यह दिया कि अन्य वस्तुओं के दाम बढ़ गए हैं और सीमित भण्डारों के समाप्त होने तक ये देश अधिकतम लाभ कमाना चाहते हैं। इससे विश्व के अनेक देशों में ऊर्जा संकट पैदा हो गया और भारत जैसे विकासशील देशों को कुल आयात का तीन-चौथाई धन तेल के आयात पर खर्च करना पड़ा।
      • वर्ष 1981 में तेल की कीमतें 20 प्रति बैरल थीं, वर्ष परन्तु उससे पहले ये 34 तक पहुँच चुकी थीं। 1991 में फिर तेल की कीमतें बढ़ गई और जुलाई, 2008 में तेल की कीमतें अपनी चरम सीमा 147 प्रति बैरल तक पहुँच गईं। इससे विश्व भर में ऊर्जा संकट जनित आर्थिक संकट पैदा हो गया, क्योंकि बहुत से विकासशील देशों के पास महँगा तेल खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं थी। इससे तेल की ब्रिकी में कमी आ गई।
      • उत्पादक देशों के पास ब्रिकी योग्य तेल के भण्डार जमा हो गए और तेल की कीमतें 2009 में 37 प्रति बैरल तक गिर गई।
      उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि विश्व में तेल की आपूर्ति तथा उसकी कीमतों में परिवर्तन आने से ऊर्जा संकट प्रायः पैदा होता रहता है। वैसे भी ऊर्जा की बढ़ती माँग तथा सीमित आपूर्ति के कारण विश्व में ऊर्जा संकट भयानक रूप धारण कर गया है। अनुमान है कि विश्व में ऊर्जा की माँग तथा आपूर्ति में लगभग 15% का अन्तर रहता है। कुछ देशों की माँग इतनी अधिक हो गई है कि वहाँ पर उपलब्ध ऊर्जा संसाधन माँग का आधा भाग भी पूरा नहीं कर पाते। भारत में ऊर्जा की माँग, इसकी आपूर्ति से लगभग 14% अधिक है।
      विश्व के विकसित एवं विकासशील देशों में ऊर्जा संकट
      विश्व स्तर पर प्रतिवर्ष ऊर्जा की खपत में लगभग तीन गुना वृद्धि के फलस्वरूप ऊर्जा संकट आज के युग की वास्तविकता है। संसारभर में ऊर्जा के गैर-परम्परागत साधनों को विकसित राष्ट्र; जैसे-जापान, अमेरिका, रूस, इंग्लैण्ड, फ्रांस एवं इजरायल आदि विकल्प के रूप में द्रुतगति से में अपना रहे हैं। ऊर्जा विकल्प की यह विश्वव्यापी चर्चा एवं उपायोजन निरर्थक नहीं है।
      ऊर्जा के वर्तमान साधन सीमित हैं। विश्व में 4 करोड़ 86 लाख 65 हजार टन कोयला भण्डार है, गैस भण्डार तो केवल 41 हजार मेगाटन है। चार छ: दशकों से ज्यादा ये संसाधन हमारा साथ देने वाले नहीं हैं, अत्यन्त खचले हैं, पर्यावरण को बिगाड़ने वाले हैं और दूर-दराज के क्षेत्रों में उपलब्ध भी नहीं हैं। अत: घरेलू ईंधन हेतु गैर-पारम्परिक साधनों का उपयोग ही एकमात्र विकल्प सिद्ध हो सकता है। वर्ष 1973 में ऊर्जा उपलब्धता की दृष्टि से एक बहुत गहरा संकट तब उत्पन्न हो गया जब अरब देशों में पेट्रोल का राष्ट्रीयकरण कर लिया गया। पेट्रोल निर्यातक देशों के संगठन OPEC (Organisation of the Petroleum Exporting Countries) ने पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने का निर्णय किया।

      विकासशील एवं विकसित देशों में ऊर्जा संकट की स्थिति
      ऊर्जा संकट का सबसे अधिक प्रभाव उन विकसित देशों पर ही पड़ा जो पेट्रोल का आयात करते हैं। प्रत्यक्षतः अब इनकी विदेशी मुद्रा जो प्रायः अन्तर्राष्ट्रीय स्रोतों से भारी कर्ज लेने से उपलब्ध होती है, का अधिकांश पेट्रोल की कीमत चुकाने में ही लग जाता है। उदाहरणार्थ, भारत में वर्ष 1976-90 में कुल आयात का लगभग एक-तिहाई केवल पेट्रोलियम आयात पर खर्च हुआ।
      इसके अतिरिक्त विकासशील देश जिन निर्मित वस्तुओं का (उर्वरक, रासायनिक पदार्थ, मशीनें आदि) विकसित देशों से आयात करते हैं वे भी उन्हें पहले की अपेक्षा महँगी पड़ती हैं, क्योंकि निर्यातक देशों में ऊर्जा की बढ़ती कीमत के चलते इनकी लागत बढ़ गई। दूसरी ओर विकसित देश जो प्रधानतया निर्मित वस्तुओं का आयात करते हैं, ऊर्जा की बढ़ी हुई कीमत को अपनी वस्तुओं की कीमत में वृद्धि करके आयातक देशों जिनमें पेट्रोल
      निर्यातक देश शामिल है से वसूल लेते हैं। इस प्रकार ऊर्जा संकट वस्तुत: ऊर्जा के पारम्परिक स्रोतों की कीमत में अत्यधिक वृद्धि की देन है।
      विकासशील देशों में अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। इर क्षेत्रों में व्यापारिक ऊर्जा की अपेक्षा जैविक ऊर्जा, विशेषकर लकड़ी का, ईश्व हेतु अधिक उपयोग होता रहा है। उदाहरणार्थ अफ्रीका में कुल ऊर्जा उपभोग। का 59% केवल जलावन की लकड़ी से प्राप्त होता है। नेपाल में 86% ऊर्जा। जलावन की लकड़ी से सुलभ होती है।
      बढ़ती जनसंख्या एवं अन्य कारणों से लकड़ी की माँग वृद्धि के कारण इन देशों में बड़े पैमाने पर वनों का कटाव हुआ है, जिससे वह ऊर्जा स्रोत भी अति क्षीण हो गया है।
      ऊर्जा संकट की स्थिति विकसित एवं विकासशील देशों की संयुक्त समस्या है, लेकिन विकसित देशों का ऊर्जा के अन्य वैकल्पिक स्रोतों के विषय में खोज एवं तकनीकी विशेषता ने ऊर्जा संकट को उतना भयावह नहा बनाया जितना कि यह विकासशील देशों में अपने विध्वंसक रूप में विद्यमान है।

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      परिचय (Introduction) प्लेनटेबुलन (plane tabling) सर्वेक्षण करने की वह आलेखी विधि है, जिसमें सर्वेक्षण कार्य तथा प्लान की रचना दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ सम्पन्न होती हैं। दूसरे शब्दों में, प्लेन टेबुल सर्वेक्षण में किसी क्षेत्र का प्लान बनाने के लिये ज़रीब, कम्पास या थियोडोलाइट सर्वेक्षण की तरह क्षेत्र-पुस्तिका तैयार करने की आवश्यकता नहीं होती । क्षेत्र-पुस्तिका न बनाये जाने तथा क्षेत्र में ही प्लान पूर्ण हो जाने से कई लाभ होते हैं, जैसे-(i) समस्त सर्वेक्षण कार्य अपेक्षाकृत शीघ्र पूर्ण हो जाता है, (ii) क्षेत्र-पुस्तिका में दूरियां आदि लिखने में होने वाली बालों की समस्या दूर हो जाती है तथा (iii) सर्वेक्षक को प्लान देखकर भूलवश छोड़े गये क्षेत्र के विवरणों का तत्काल ज्ञान हो जाता है। त्रिभुज अथवा थियोडोलाइट संक्रमण के द्वारा पूर्व निश्चित किये गये स्टेशनों के मध्य सम्बन्धित क्षेत्र के अन्य विवरणों को अंकित करने के लिये प्लेन को सर्वाधिक उपयोगी एवं प्रामाणिक माना जाता है। इसके अतिरिक्त प्लेनटेबुलन के द्वारा कछ वर्ग किलोमीटर आकार वाले खुले क्षेत्र के काफी सीमा तक सही-सही प्लान बनाये ज

      परिच्छेदिकाएँ ( Profiles)

                                            परिच्छेदिकाएँ                                        (Profiles) किसी समोच्च रेखी मानचित्र में प्रदर्शित उच्चावच तथा ढाल की दशाओं का परिच्छेदिकाओं की सहायता से स्पष्ट प्रत्यक्षीकरण किया जा सकता है। परिच्छेदिकाएँ स्थल रूपों या भू-आकृतियों को समझने तथा उनका वर्णन एवं व्याख्या करें में महत्वपूर्ण सहायता देती हैं। [I]  परिच्छेदिका तथा अनुभाग का भेद  (Difference between a profile and a section) प्रायः 'परिच्छेदिका' तथा 'अनुभाग' शब्दों का समान अर्थों में प्रयोग किया जाता है परन्तु इनमें थोड़ा अन्तर होता है। अनुभव का शाब्दिक अर्थ काट (cutting) या काट द्वारा उत्पन्न नग्न सतह होता है। इसके विपरीत काट द्वारा उत्पन्न सतह की धरातल पर रूपरेखा (outline) परिच्छेदिका कहलाती है। दूसरे शब्दों में, यदि किसी भू-आकृति को एक रेखा के सहारे ऊर्ध्वाधर दिशा में नीचे तक काट दिया जाये तो जो नयी सतह नज़र आयेगी उसे अनुभाग कहा जायेगा तथा इस सतह का धरातल को प्रकट करने वाला ऊपरी किनारा परिच्छेदिका होगा। इस प्रकार अनुभाग की सहायता से धरातल के नीचे स्थित चट्टानों की भ