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मौसमी संकट और आपदाएँ ( Meteorological Hazards and Disasters)

मौसमी संकट और आपदाएँ (मौसम संबंधी खतरे और आपदाएँ) प्रकृत्तिजन्य अप्रत्याशित ऐसी सभी घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों को इतना तीव्र कर देती हैं कि विनाश की स्थिति उत्पन्न होती है, चरम प्राकृतिक घटनाएँ या आपदा कहलाती है। इन चरम घटनाओं या प्रकोपों से मानव समाज, जन्तु एवं पादप समुदाय को अपार क्षति होती है। चरम घटनाओं में ज्वालामुखी विस्फोट, दीर्घकालिक सूखा, भीषण बाढ़, वायुमण्डलीय चरम घटनाएँ; जैसे- चक्रवात, तड़ित झंझा, टॉरनेडो, टाइफून, वृष्टि प्रस्फोट, ताप व शीत लहर, हिम झील प्रस्फोटन आदि शामिल होते हैं। प्राकृतिक और मानव जनित कारणों से घटित होने वाली सम्पूर्ण  वायुमण्डलीय एवं पार्थिव चरम घटनाओं को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है। इन आपदाओं से उत्पन्न विनाश की स्थिति में धन-जन की अपार हानि होती है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन निम्न प्रकार है:- चक्रवात (Cyclone) 30° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्णकटिबन्धीय चक्रवात कहते हैं। ये आयनवर्ती क्षेत्रों में पाए जाने वाला एक निम्न वायुदाब अभिसरणीय परिसंचरण तन्त्र होता है। इस चक्रवात का औसत व्यास लगभग 640 किमी...

RURAL SETTLEMENT


ग्रामीण अधिवास
(Rural Settlement)

अधिवास मानव द्वारा निर्मित सांस्कृतिक भूदृश्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और स्पष्ट रचना होती है, जिसे वह अपने निवास के लिए, काम के लिए, विभिन्न सामग्रियों के संग्रह के लिए या सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिए निर्मित करता है।

ग्रामीण अधिवास से तात्पर्य 
(Meaning of Rural Settlement)
ग्रामीण अधिवास से तात्पर्य उस अधिवास से होता है, जिनके अधिकांश निवासी अपने जीवनयापन के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भूमि के विदोहन पर निर्भर रहते हैं अर्थात् इनके निवासियों के मुख्य व्यवसाय कृषि करना, पशुपालन, कुटीर उद्यम, मछलियाँ पकड़ना, लकड़ियाँ काटना, वन वस्तु संग्रह आदि होता है। इनका जीवन एक प्रकार से प्रामीण स्वरूप लिए होता है, किन्तु इनको आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन बस्तियों में वे लोग भी रहते हैं, जो कृषकों और कृषक श्रमिकों को अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।
ग्रामीण अधिवास में सामान्यतः एकाकी अधिवास, कृषक घर, पुरवा और गाँव आदि आते हैं। गांवों की जनसंख्या कुछ ही घरो से लेकर 5,000 अथवा कभी-कभी इससे भी अधिक होती है। पुरवे (Hamlets) गाँव से छोटे होते है और गाँव की अपेक्षा कम सघन होते हैं। इनमें मकान तो होते हैं, किन्तु ये प्रायः बिखरे होते हैं।
उल्लेखनीय है कि ग्रामीण अधिवास धरातल के प्रत्येक स्थान पर नहीं पाए जाते हैं, बल्कि अनुकूल भौगोलिक आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक तथा ऐतिहासिक कारकों की उपलब्धता होने पर हो उनका विकास किसी स्थान पर होता है। यही कारण है कि उपजाऊ मैदानी क्षेत्र, पर्वतीय क्षेत्र की तुलना में अधिक निवासित होते हैं। अतः ग्रामीण बस्तियों या अधिवासों को प्रभावित करने वाले अनेक कारक है।

ग्रामीण अधिवास को प्रभावित करने वाले कारक (Affecting Factors of Rural Settlement)
ग्रामीण अधिवासों के किसी क्षेत्र में विकास हेतु अनेक भौतिक एवं मानवीय (सांस्कृतिक) कारण उत्तरदायी होते हैं, जिनका वर्णन निम्न प्रकार से हैं
भौतिक कारक 
ग्रामीण अधिवास को प्रभावित करने वाले भौतिक कारक निम्न हैं
  • भूमि जिस क्षेत्र की भूमि कृषि कार्य हेतु उपयुक्त अथवा उपजाऊ होती है, वहाँ मानव बसाव अधिक होता है। परिणामस्वरूप प्रारम्भ में अधिवास समतल भूमि के उपजाऊ क्षेत्रों में हुआ। यही कारण है कि यूरोप में दलदली तथा निचले क्षेत्र में नहीं, बल्कि ढलवाँ मैदानी क्षेत्रों में बस्तियाँ बसाई जाती हैं।
  • दक्षिण-पूर्वी एशिया के निवासी नदी घाटी के निम्न क्षेत्रों तथा तटवर्ती मैदानों में बस्तियाँ बसाते हैं, जहाँ की मिट्टी चावल की खेती के लिए अत्यधिक उपयुक्त होती है।
  • उच्च भूमि के क्षेत्र मानव बाढ़ आदि प्रकोपों से बचने हेतु ऊँचे स्थानों का चयन करते हैं, जिससे मकान एवं जीवन सुरक्षित रह सके। परिणामस्वरूप बस्तियाँ नदी बेसिन की वेदिकाओं (उच्च स्थान) तथा तटबन्धों जैसे शुष्क बिन्दुओं पर बसाई जाती हैं। उष्णकटिबन्धीय देशों के दलदली क्षेत्रों में मकान स्तम्भों पर बनाए जाते हैं, जो सुरक्षा की दृष्टि से अनुकूल होते हैं।
  • जलापूर्ति ग्रामीण बस्तियाँ नदियों, झीलों तथा झरनों के समीप स्थित होती हैं, क्योंकि यहाँ जल आसानी से उपलब्ध हो जाता है। कभी-कभी पानी की आवश्यकता के कारण लोग द्वीपों अथवा नदी किनारे के निचले असुविधाजनक क्षेत्रों में रहने के लिए प्रेरित हो जाते हैं। नम भूमि के जल का प्रयोग खाना बनाने, पीने, वस्त्र धोने तथा मत्स्यपालन जैसे कार्यों में किया जाता है। नदियों व झीलों का प्रयोग सिंचाई कार्य के साथ जल परिवहन के रूप में किया जाता है।
  • गृह निर्माण सामग्री मानव बस्तियों के लिए निर्माण सामग्री की उपलब्धता एक महत्त्वपूर्ण कारक है, इसलिए जिन क्षेत्रों में लकड़ी तथा पत्थर आसानी से उपलब्ध होते हैं, वहाँ बस्तियों का निर्माण • आसानी से किया जाता है। प्राचीन समय में चीन के लोयस प्रदेश में लोग कन्दराओं (भूमिगत स्थल) में मकान बनाते थे तथा अफ्रीका के सवाना क्षेत्र में मकान बनाने के लिए कच्ची ईंटों का प्रयोग किया जाता था। वर्तमान में भी ध्रुवीय क्षेत्रों में एस्किमो हिमखण्डों से इग्लू का निर्माण करते हैं।
  • सुरक्षा एवं प्रतिरक्षा सुरक्षित स्थान मानव को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। परिणामस्वरूप प्राचीन समय में गाँवों को पहाड़ियों तथा द्वीपों पर बसाया जाता था, जो राजनीतिक अस्थिरता, युद्ध या पड़ोसी समूहों के उपद्रव से सुरक्षित रहते थे। भारत में दुर्गों या किलों का निर्माण सुरक्षा की दृष्टि से ऊँचे स्थानों पर हुआ है। इसी प्रकार सुरक्षा की दृष्टि से नाइजीरिया में इन्सेलबर्ग का व्यापक महत्त्व है, जिस पर मानव अधिवास स्थापित हुआ है। अतः यही कारण है कि मानव अधिवास ऐसी सुरक्षित पहाड़ियों, द्वीपों या ऊँचे स्थानों पर स्थापित होते हैं, जो सुरक्षा एवं प्रतिरक्षा की दृष्टि से अनुकूल होते हैं।
  • वनस्पति सघनता धरातल पर वनस्पतियों की अधिक सघनता वस्तियों के बसाव के प्रतिकूल होती है। यही कारण है कि अफ्रीका एवं एशिया के सघन उष्णकटिबन्धीय/भूमध्य रेखीय वन क्षेत्रों में बस्तियाँ कम ही स्थापित हुई हैं।
  • सूर्य प्रकाश सूर्य के प्रकाश की उपलब्धता भी बस्तियों के विकास को प्रभावित करती है। लोग मेघाच्छादन तथा अल्प सूर्य प्रकाश प्राप्ति स्थल वाले क्षेत्रों में बसना कम ही पसन्द करते हैं। यही कारण है कि उत्तरी गोलार्द्ध में पर्वतों के उत्तरमुखी ढाल पर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में पर्वतों के दक्षिणमुखी ढालों पर सूर्य प्रकाश की प्राप्ति के कारण बस्ती अधिक स्थापित होती है।
  • अनुकूल जलवायु दशाएँ जलवायु की अनुकूल दशाएँ मानव के अधिवास को प्रेरित करती हैं। अतः अतिशीलता, अति उष्णता या शुष्कता की दशाएँ मानव अधिवास के प्रतिकूल होती हैं, जबकि मध्यम तापमान, पर्याप्त वर्षा, खुला आकाश, अनुकूल पवन दशाएँ मानव अधिवास के अनुकूल होने के कारण मानव अधिवास हेतु प्रेरित करती हैं।
मानवीय कारक
ग्रामीण अधिवास को प्रभावित करने वाले मानवीय कारक निम्न हैं 
  • आर्थिक कारक मानव बस्तियाँ या अधिवास आर्थिक व्यवसाय के अनुरूप अपना प्रकार एवं प्रतिरूप निर्धारित करती हैं। उदाहरणस्वरूप शिकारी एवं संग्राहक को अधिक क्षेत्र की आवश्यकता होती है। अतः इनकी बस्तियाँ बिखरी होती हैं। इसी प्रकार कृषि कार्य करने वालों को सहयोग की आवश्यकता होती है। अतः इनकी बस्तियाँ सघन होती हैं।
  • स्वास्थ्य कारक मानव सदैव बीमारियों से मुक्त क्षेत्रों में निवास करने पर सदैव प्राचीन समय से ही बल देता रहा है। यही कारण है कि मानव अधिवास तराई क्षेत्रों जल जमाव क्षेत्रों में मलेरिया जैसे मच्छर जनित रोगों के व्याप्त होने के कारण प्रारम्भ में मानव अधिवास कम ही होता है।
  • सामाजिक रूढ़ियाँ सामाजिक रूढ़ियाँ भी मानव अधिवास की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसमें धार्मिक विश्वास, देवी-देवताओं का निवास, विशेष तन्त्र-मन्त्र आदि सहायक होते हैं। यही कारण है कि पिछड़े एवं आदिम समूहों के लोग किसी विशेष क्षेत्र पर ही बसना चाहते हैं।
    ग्रामीण अधिवास के प्रकार 
    (Types of Rural Settlement)
    ग्रामीण अधिवासों को उनकी स्थिति, आकारिकी (Morphology), समूहन तथा गृह- अन्तरण आदि के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभक्त किया जाता है अर्थात् ये किसी बस्ती के भवनों के बीच रिक्त स्थानों के द्योतक होते हैं। अतः गृहों की दूरी व उनकी सघनता अधिवासों के प्रकारों में भेद का प्रमुख आधार माना जा सकता है। इस आधार से ग्रामीण अधिवासों के चार भेद होते हैं
    प्रविकीर्ण या प्रकीर्ण या परिक्षिप्त अधिवास 
    ये बस्तियाँ पर्वतीय क्षेत्रों, उच्च भूमियों अथवा शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क मरुस्थलों में पाई जाती हैं। पूजा स्थल अथवा बाजार बस्तियों को एक-दूसरे से जोड़ते हैं। इस प्रकार की वस्तियाँ सामान्यतः खेतों के द्वारा एक-दूसरे से अलग होती हैं। इस अधिवास में गृहों के मध्य अधिक दूरियों के कारण इस अधिवास का स्वरूप एकाकी बना होता है, इसलिए इसे एकाकी अधिवास भी कहा जाता है। इनका आकार छोटा होता है। इस अधिवास में परिवार के सदस्य ही मुख्य रूप से निवास करते हैं। इस अधिवास के निवासी स्वावलम्बी होते हैं।
    अतः परिक्षिप्त (Dispersed) प्रकार की इस बस्ती में छोटे-छोटे टोले एक बड़े क्षेत्र पर दूर-दूर बिखरे होते हैं। इनका कोई अभिविन्यास (Pattern) नहीं होता है, क्योंकि इन बस्तियों में केवल कुछ ही घर होते हैं। मेघालय, उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में इस प्रकार की बस्तियाँ पाई जाती हैं।

    सघन या सामूहिक या पुंजित या संहत या एकत्रित अधिवास
    ऐसी बस्तियों में मकान एक-दूसरे के पास बनाए जाते हैं। इनका विकास नदी घाटियों तथा उपजाऊ मैदानों में होता है। यहाँ रहने वाले लोगों का व्यवसाय समान होता है तथा ये समुदाय समूह बनाकर रहते हैं। इस गुच्छित (Clustered) प्रकार की बस्तियों में ग्रामीण घरों के संहत (Dense) खण्ड पाए जाते हैं। इन बस्तियों में सामान्य क्षेत्र स्पष्ट रूप से निकटवर्ती खेतों, घेरों (बाड़ों) तथा चरागाहों से अलग होता है। इस प्रकार की बस्तियाँ अत्यन्त उपजाऊ, जलोढ़ मैदानों (Alluvial Plain), शिवालिक की घाटियों और उत्तर-पूर्वी राज्यों में पाई जाती हैं। इस अधिवास में वस्तुओं का उपयोग सामूहिक रूप से होता है। उदाहरणस्वरूप तालाब, कुएँ, मन्दिर, धर्मशाला आदि का उपयोग सार्वजनिक रूप से होता है।

    अर्द्ध-सघन ग्रामीण अधिवास
    अर्द्ध-सघन अधिवास में प्रविकीर्ण एवं सघन अधिवासों के बीच की अवस्था से सम्बन्धित विशेषताओं का विकास होता है जो समाज उन्मुखी तथा समाज विमुखी शक्तियों की अन्योन्य क्रिया का प्रतिफल मानी जाती हैं। इस अधिवास के मूल केन्द्र (Nueles) पर बसे प्रमुख अधिवास के अतिरिक्त गाँव की सीमा के भीतर कुछ-कुछ दूरी पर एक या अनेक पुरवे (Hamlets) बसे होते हैं। उत्तरी भारत के गंगा मैदान के निचले गंगा-यमुना दोआब के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र, खादर क्षेत्र, यमुना के विषम क्षेत्रों में ऐसे अधिवास का विकास हुआ है। गुजरात के मैदान में ऐसी बस्तियाँ व्यापक पाई जाती हैं।

    पुरवा युक्त ग्रामीण अधिवास 
    इस प्रकार के ग्रामीण अधिवासों का विकास अपेक्षाकृत अधिक बिखराव के साथ होता है, जहाँ कोई मूल बस्ती नहीं पाई जाती है। ऐसे अधिवास का विकास सघन एवं प्रविकीर्ण अधिवासों के संक्रमण क्षेत्र के रूप में होता है। हालाँकि खेती-बाड़ी के कार्यों में श्रम, सहयोग या सहकारिता की भावना सघन अथवा अर्द्ध-सघन अधिवासों की भाँति ही बनी रहती है। इस अधिवास की ये गौण इकाइयाँ पाढ़ा, पल्ली, नंगला या ढाणी (Hamlet) कहलाता है। ऐसी बस्तियाँ गंगा के मध्यवर्ती और निचले मैदान, छत्तीसगढ़ तथा हिमालय की निचली घाटियों में पाई जाती हैं।
    • ये बस्तियाँ सरकार द्वारा बसाई जाती हैं। सरकार भूमि का अधिग्रहण कर लोगों के निवास हेतु आवास, पानी तथा अन्य अवसंरचना उपलब्ध कराती है।
    • इथियोपिया में ग्रामीणीकरण योजना तथा भारत में इंदिरा गाँधी नहर के क्षेत्रों में विकसित नहरी बस्तियाँ प्रमुख नियोजित बस्तियों के उदाहरण हैं।
    ग्रामीण बस्तियों के प्रतिरूप
    (Pattern of Rural Settlement)
    ग्रामीण बस्तियों के बसाव में भौगोलिक कारकों का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। इसमें कहीं रैखिक तो कहीं गोलीय आदि आकार की बस्तियों के समूह मिलते हैं, इसे ही अधिवास प्रतिरूप कहा जाता है। इस प्रकार ग्रामीण बस्तियों के प्रतिरूप से यह स्पष्ट होता है कि मकानों की स्थिति किस प्रकार एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। अतः गाँव की आकृति तथा प्रसार उसकी स्थिति, निकट की स्थलाकृति तथा उस क्षेत्र के भू-भाग से प्रभावित होते हैं। ग्रामीण बस्तियों को तीन आधारों पर वर्गीकृत किया जाता है, जो निम्नलिखित हैं
    •  विन्यास के आधार पर मैदानी गाँव, तटीय गाँव, पठारी गाँव, वन गाँव तथा मरुस्थलीय गाँव में बाँटा जाता है।
    • कार्य के आधार पर वस्तियों के प्रकार क्रमशः कृषि गाँव, मछुआरों के गाँव, लकड़हारों के गाँव, पशुपालक गाँव आदि हैं।
    • बस्तियों की आकृति के आधार पर ग्रामीण बस्तियों की आकृतियाँ अनेक प्रकार की ज्यामितीय आकृतियों के रूप में पाई जाती हैं। बस्तियों की आकृति के आधार पर ग्रामीण बस्तियों के प्रतिरूप निम्नलिखित हैं
    -- रैखिक प्रतिरूप ऐसी बस्तियों में मकान सड़कों, रेल लाइनों, नदियों, नहरों, घाटी के किनारे अथवा तटबन्धों पर स्थित होते हैं। ऐसे प्रतिरूप इंग्लैण्ड के हैम्पशायर में कावस वॉल्ड, फ्रांस के लॉरेन प्रदेश आदि के अतिरिक्त भारत में ओडिशा के समुद्रतटीय प्रदेश में, झारखण्ड में सन्थाल परगना, आन्ध्र प्रदेश के पूर्वी भाग में, गुजरात के सौराष्ट्र व कच्छ क्षेत्र में, दक्षिणी भारत में तमिलनाडु के नैल्लोर जिले में इस प्रकार के गाँव पाए जाते हैं

    --आयताकार प्रतिरूप ऐसे प्रतिरूप वाली बस्तियों का विकास समतल अथवा चौड़ी अन्तरा पर्वतीय घाटियों में होता है, जहाँ सड़कें आयताकार रूप में होती हैं तथा एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं। ऐसे प्रतिरूप वाले गाँव सामान्यतः मरुस्थलीय क्षेत्रों जहाँ धूलभरी आँधियाँ चलती हैं अथवा मैदानी भागों में जहाँ डाकू और लुटेरों के आक्रमण का भय बना होता है, वहाँ पाए जाते हैं। किसी जल स्रोत या तालाब के निकट गाँव पाए जाते हैं, जिसे परकोटा घेरे रहता है। भारत में इस प्रकार के अधिवास राजस्थान के पश्चिमी व आन्ध्र प्रदेश के रायल सीमा क्षेत्र में पाए जाते हैं।

    --वृत्ताकार प्रतिरूप इस प्रकार के गाँव सामान्यतया किसी झील, तालाब या वट वृक्ष तथा कभी-कभी कुएँ के चारों ओर बसे होते हैं। किसी मुखिया या पंचायत घर के चारों ओर से भी गृहों का विकास होने से वृत्ताकार प्रतिरूप (Circular Pattern) वन जाता है। भारत में दोनों ही प्रकार के गाँव पाए जाते हैं। पशुओं को रखने तथा जंगली जानवरों से सुरक्षा हेतु इस प्रतिरूप की बस्तियों के मध्य भाग को खुला रखा जाता है। ये गाँव मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा, बिहार, पंजाब, गंगा- यमुना के दोआब आदि में मिलते हैं। राजस्थान की मरुभूमि में कहीं-कहीं मीठे पानी के कुएँ के चारों ओर वृत्ताकार गाँव बसे हैं।

    --तारे के आकार का प्रतिरूप जब अनेक सड़कें भिन्न-भिन्न दिशाओं से आकर मिलती हैं और उन सड़कों के किनारे मकान बनाए जाते हैं, तो वहाँ तारे के आकार वाली बस्तियाँ विकसित हो जाती हैं।
    इस प्रतिरूप के भारत के सभी राज्यों में ये गाँव उदाहरणस्वरूप मिलते हैं। उत्तर प्रदेश के बहाना और मटौना के गाँव भी इसी प्रकार के हैं।

    --'टी' आकार, 'वाई' आकार व 'क्रॉस' आकार का प्रतिरूप 'टी' आकार की बस्तियों का विकास सड़कों के तिराहे पर होता है। 'वाई' आकार की बस्तियों का विकास उन स्थानों पर होता है, जहाँ दो सड़कें आकर तीसरी सड़क से मिलती हैं। क्रॉस आकार की बस्तियाँ चौराहे पर विकसित होती हैं, जिनका बसाव चारों दिशाओं में सड़कों के किनारे होता है।

    --दोहरे गाँव जब कोई सड़क, नदी अथवा नहर को पुल के द्वारा पार करती है, तो सड़क व नदी के दोनों किनारों पर मानव बसाव हो जाता है, तब इस प्रकार के अधिवास को दोहरे गाँव कहा जाता है।
    --तीरनुमा अथवा लम्बाकार प्रतिरूप ऐसे प्रतिरूप वाले गाँव प्राय: अन्तरीपों या नदियों के सिरो पर मिलते हैं, जो तीन ओर जल से घिरे होते हैं। इसमें अगला सिरा संकीर्ण जबकि पिछला सिरा चौड़ा होता है। ऐसे उदाहरण भारत में कन्याकुमारी, बिहार के बूढ़ी गण्डक नदी के मोड़ पर निर्मित पाए जाते हैं।

    --सीढ़ी आकार के प्रतिरूप सीढ़ी आकार के अधिवास प्रायः पर्वतीय क्षेत्रों, घाटी प्रदेशों, पर्वत कूटों पर पाए जाते हैं। यह विभिन्न ऊँचाई पर सुविधानुसार निर्मित होते हैं। गृहों का निर्माण प्रायः लकड़ी व पत्थर के बने होते हैं, जो प्रायः सीढ़ीनुमा होते हैं। हिमालय के गढ़वाल, कुमाऊँ, असम, मणिपुर में इस तरह के प्रतिरूप पाए जाते हैं।

    --चौकापट्टी प्रतिरूप ऐसे प्रतिरूप के गाँव दो सड़कों के मिलन स्थल या चौराहों पर बसे होते हैं। इसमें गलियाँ एवं सड़कें एक-दूसरे के समान्तर होती हैं। उत्तरी चीन, उत्तरी भारत, दक्षिणी आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु में ऐसे गाँव देखने को मिलते हैं।

    --पंखा प्रतिरूप ऐसे प्रतिरूप वाले अधिवास नदियों के डेल्टाई भागों में हिमालय नदीय क्षेत्रों के कांप पंख वाले भागों में पाए जाते हैं। भारत में ऐसे गाँव गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टाई भागों में पाए जाते हैं।

    --मधुछाता प्रतिरूप ऐसे प्रतिरूप के अधिवास मधुमक्खियों के छाते के समान होता है। इसके तहत एक घेरे में झोपड़ी बनी होती है, जिसका मध्य भाग खुला होता है। दक्षिण अफ्रीका के जूलू जाति के लोग तथा भारत में नीलगिरि की पहाड़ियों पर निवास करने वाली टोडा जनजाति शत्रुओं से रक्षा हेतु ऐसे अधिवास का निर्माण करती है। उल्लेखनीय है कि फिन्च तथा ट्विार्था ने इसे शू-स्ट्रिंग प्रतिरूप कहा है। 
    --मालानुमा प्रतिरूप ऐसे प्रतिरूप के अधिवास मैदान या नहर के किनारे-किनारे लम्बाई में काफी दूर तक बने होते हैं, जिसमें बने अधिवास मोतियों की माला के समान प्रतीत होते हैं। ऐसे प्रतिरूप विहार, दक्षिण पश्चिम बंगाल, केरल, पाकिस्तान, बांग्लादेश में देखने को मिलता है।

    --अनियोजित एवं अनियमित आकार का प्रतिरूप ऐसे प्रतिरूप के अधिवास उबड़-खाबड़ दलदली क्षेत्र व झीलों तथा वनों की बहुलता वाले क्षेत्रों में जहाँ सुरक्षा का अभाव पाया जाता है। वहाँ बनाए जाते हैं। इसमें बस्तियों का विस्तार वातावरण के अनुकूल होता है। चीन के दक्षिणी भाग में, भारत और पाकिस्तान के अधिकांश क्षेत्रों में इस प्रतिरूप की अधिकांश बस्तियाँ पाई जाती हैं।

    ग्रामीण अधिवासों का विश्व वितरण 
    (World Distribution of Rural Settlement)
    विश्व की लगभग आधी जनसंख्या (53%) गाँवों में निवास करती है। कृषि प्रधान तथा विकासशील देशों में ग्रामीण जनसंख्या का अनुपात अधिक जबकि औद्योगिक तथा विकसित देशों में अधिक नगरीकरण के कारण ग्रामीण जनसंख्या का अनुपात निम्न पाया जाता है। उदाहरणस्वरूप नेपाल में 88%, थाईलैण्ड में 80%, वियतनाम में 76%, श्रीलंका में 77%, भारत में 72% जनसंख्या ग्रामीण है, वहीं इसके विपरीत अनेक विकसित देश; जैसे बेल्जियम में 3%, अर्जेण्टीना में 12%, यूनाइटेड किंगडम में 12%, जर्मनी में 13%, ऑस्ट्रेलिया में 15%, जापान में 21% व रूस में 23% जनसंख्या ग्रामीण है। 
    इस प्रकार यह पाया गया है कि 20वीं शताब्दी में विश्वव्यापी स्तर पर नवीन तकनीकों के प्रसार, औद्योगीकरण तथा नगरीकरण में वृद्धि के परिणामस्वरूप ग्रामीण जनसंख्या में क्रमिक ह्रास हुआ है। उल्लेखनीय है। कि 20वीं सदी के प्रारम्भ में 70% जनसंख्या ग्रामीण थी, जो वर्ष 1950 में घटकर 61% हो गई और 2000 में 52.8% तक आ गई। इस क्रमिक हास में मुख्य रूप से जनसंख्या की व्यावसायिक गतिशीलता प्रमुख कारण रही। है। उल्लेखनीय है कि प्राथमिक क्रियाओं में लोगों की संलग्नता में कमी जबकि द्वितीय, तृतीयक जैसी आर्थिक क्रियाओं में संलग्नता, नगरीकरण को बढ़ती प्रवृत्ति ने ग्रामीण जनसंख्या में कमी की है।
    प्रकीर्ण तथा सघन अधिवासों का वितरण 
    प्रकीर्ण तथा सघन अधिवासों का विश्व वितरण निम्नलिखित है
    प्रकीर्ण अधिवासों का वितरण
    • प्रकीर्ण अधिवासों का स्पष्ट ऐतिहासिक वितरण उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसकी आधुनिक प्रवृत्ति अधिक प्राचीन भी नहीं है। विश्व के आंग्ल अमेरिका, यूरोप, लैटिन अमेरिका तथा अफ्रीका के दक्षिणी तथा पूर्वी भागों में पाया जाता है।
    • कृषि गृह तथा निवास गृह के रूप में प्रकीर्ण अधिवासों का सर्वाधिक उत्कृष्ट रूप संयुक्त राज्य अमेरिका में उपलब्ध पाया जाता है।
    • दक्षिण अमेरिका के अर्जेण्टीना और उरुग्वे देशों में स्थित पम्पास घास प्रदेशों में भी कृषि फार्म प्राय: बड़े-बड़े आकार में पाए जाते हैं और ऐसे कृषि गृह पर अलग-अलग कृषि गृह बनाए जाते हैं, जो प्रकीर्ण अधिवासों के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
    • यूरोप में नॉर्वे, स्वीडन, ब्रिटिश द्वीप समूह तथा बाल्टिक सागरीय देशों के कृषि फार्मों पर कृषि गृह एवं वास गृह के रूप में प्रकीर्ण अधिवास पाए जाते हैं। यूरोप के पहाड़ी क्षेत्रों में कम उपजाऊ यह प्रकीर्ण अधिवास देखने को मिलता है। भूमि के अभाव में
    • फ्रांस के मध्य भाग, पुर्तगाल के दक्षिणी भाग, ऑस्ट्रिया तथा स्विट्जरलैण्ड के पहाड़ी भागों में यह अधिवास पाया जाता है।
    • पूर्वी, दक्षिणी-पूर्वी तथा दक्षिणी एशिया के उन भागों में जहाँ पहाड़ी, बंजर, ऊसर, दलदली तथा अनुपजाऊ अपखण्डित भूमि पाई जाती है। वहाँ यह अधिवास पाया जाता है।
    • उत्तरी जापान, उत्तरी मंचूरिया, चीन के जेचवान बेसिन, दक्षिणी-पूर्वी एशिया के वन प्रदेशों, भारत के उत्तर-पूर्वी 'पर्वतीय ढालों तथा नदियों के बाद क्षेत्रों में प्रकीर्ण अधिवास पाया जाता है।
    सघन अधिवास का वितरण
    • एकत्रित या सघन अधिवास प्रकीर्ण अधिवासों से बड़ा होता है। इस तरह के अधिवास को सामान्य: गाँव या गाँव के नाम से जाना जाता है, जहाँ कृषक, मछुआरे, खनिक आदि निवास करते हैं।
    • विश्व में सघन अधिवास वाले क्षेत्रों में मानसून एशिया, लैटिन अमेरिका, दक्षिणी यूरोप तथा अफ्रीका प्रमुख हैं। • सघन अधिवास का वितरण लगभग सम्पूर्ण विश्व में पाया जाता है।
    • सघन अधिवास का सर्वप्रमुख प्रदेश मानसून एशिया है, जहाँ तीन-चौथाई से अधिक जनसंख्या विभिन्न प्रकार के गाँवों में निवास करती है। यहाँ के निवासी मुख्य रूप से प्राथमिक क्रियाओं में संलग्न पाए जाते हैं।
    ग्रामीण अधिवासों की समकालीन समस्याएँ 
    विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील अथवा अल्पविकसित देशों में ग्रामीण बस्तियों की समस्याएँ अधिक पाई जाती हैं, जो निम्नलिखित हैं
    जल की समस्या
    विकासशील देशों की ग्रामीण बस्तियों में जल की आपूर्ति सन्तोषजनक नहीं पाई जाती है। पर्वतीय तथा शुष्क क्षेत्रों में गाँववासियों को पेयजल हेतु लम्बी दूरियों का सामना करना पड़ता है। यहाँ के जल अशुद्धियाँ पाई जाती हैं, जिससे हैजा व पीलिया जैसी जलजनित अन्य बीमारियाँ फैल जाती हैं। सिंचाई सुविधा की कमी के कारण कृषि कार्य प्रभावित होते हैं। अतः दक्षिणी एशिया के देश बाढ़ एवं सूखे से ग्रस्त रहते हैं।

    जन-सुविधाओं का अभाव
    ग्रामीण बस्तियों में शौचघर एवं कूड़े-कचरे के निष्कासन की उचित व्यवस्था नहीं पाई जाती है। फलस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य समस्याएँ व्याप्त होती हैं, साथ ही अधिक जनसंख्या के पाए जाने के कारण स्वास्थ्य एवं शिक्षा सम्बन्धी व्यवस्थाओं की भी कमी पाई जाती है।

    आवासीय व्यवस्था की कमी
    ग्रामीण क्षेत्रों में मकानों की रूपरेखा एवं उसमें प्रयुक्त सामग्रियाँ प्रत्येक प्रदेश में भिन्न पाई जाती हैं। मकान मिट्टी एवं लकड़ी के छप्पर वाले होते हैं। ऐसे घरों को वर्षा एवं बाढ़ के समय नुकसान पहुँचता है, साथ ही इनके अन्दर रखरखाव की भी उचित व्यवस्था नहीं होती है। मकानों में मनुष्य के साथ पशु भी रहते हैं, जिससे पशुओं की भी देख-रेख के साथ उनके चारे की रक्षा सही ढंग से हो पाती है।

    परिवहन एवं संचार का अभाव
    ग्रामीण क्षेत्रों में पक्की सड़कों का अभाव पाया जाता है। वर्षा के समय कच्ची सड़कें टूट जाती हैं, जिससे परिवहन बाधित होता है तथा आस-पास के क्षेत्रों से सम्पर्क टूट जाता है। यही समस्या संचार के क्षेत्र में देखी जाती है, क्योंकि गाँवों में आधुनिक संचार साधनों का अभाव पाया जाता है। हालाँकि वर्तमान में इस दिशा में सुधार हुआ है।

    ग्रामीण-नगरीय प्रवास
    आमीण से नगरीय प्रवास की प्रवृत्ति प्रायः विकसित देशों में अत्यधिक प्रचलन पाई जाती है। इसका मुख्य कारण ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च जनसंख्या का संकेन्द्रण तथा उच्च जनघनत्व का होना पाया जाता है।
    वर्तमान में भारतीय नगरीकरण हेतु सबसे महत्त्वपूर्ण कारक ग्रामीण-नगरीय स्थानान्तरण (Rural-urban Migration) की प्रक्रिया है। स्थानान्तरण मुख्यतः बड़े नगरों की ओर हो रहा है, जिसे Top Heavy Pattern Urbanisation' की संज्ञा दी गई है। ग्रामीण-नगरीय स्थानान्तरण दो कारणों से होता है- शहर की आकर्षण शक्ति (Pull Factor) के कारण एवं गाँव की विकर्षण शक्ति (Push Factor) के कारण।' भारत में ग्रामीण-नगरीय स्थानान्तरण हेतु मुख्यतः गाँव की विकर्षण शक्ति उत्तरदायी है। गाँवों में रोजगार की कमी (Lack of Employment), सामाजिक एवं संरचनात्मक सुविधाओं (Structural Facility) (शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, परिवहन, बिजली, मनोरंजन के साधन आदि) का अभाव जनसंख्या को शहर की ओर पलायन हेतु बाध्य करता है। हालाँकि शहरों में इस प्रवासी जनसंख्या के दबाव के कारण सुविधाओं की कमी होने लगती है, लेकिन यहाँ आकर लोगों को छोटा-मोटा रोजगार मिल जाता है और वे किसी तरह गुजर-बसर कर लेते हैं।

    इसके अतिरिक्त कुछ अन्य कारक भी वर्तमान भारतीय नगरीकरण में सहायक रहे हैं; जो निम्नलिखित हैं 
    • गैर-प्राथमिक कार्यों जैसे सेवा क्षेत्र का तेजी से बढ़ना।
    • विज्ञान एवं तकनीकी का विकास।
    • उपनगरों (Suburbs) का निर्माण; जैसे- (फरीदाबाद, गुड़गाँव, गाजियाबाद)।
    • नगरीय जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि। भौतिकवादी जीवन शैली के प्रति बढ़ता लगाव।
    • सामाजिक एवं राजनीतिक कारण; जैसे-भारत-पाक बँटवारे में पाक से भारत आई अधिकतर जनसंख्या नगरों में बसी। इसी कारण वर्ष 1941-51 के दशक में नगरीय जनसंख्या में 41% की वृद्धि हुई।

    भूमि उपयोग में बदलाव 
    (Change in Land use Pattern)
    भूमि उपयोग, पृथ्वी के किसी क्षेत्र का मनुष्य द्वारा उपयोग को सूचित किया जाता है। सामान्यतः जमीन के भाग पर होने वाले आर्थिक क्रियाकलाप को सूचित करते हुए उसे वन भूमि, कृषि भूमि, परती भूमि, चरागाह भूमि आदि में बाँटा जाता है।
    आधुनिक तकनीकी भाषा में भूमि उपयोग किसी विशिष्ट भू आवरण प्रकार की रचना, परिवर्तन अथवा संरक्षण हेतु मानव द्वारा उस पर किए जाने वाले क्रियाकलापों के रूप में परिभाषित किया गया है।
    उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन में प्रथम भूमि उपयोग सर्वेक्षण वर्ष 1930 में डडले स्टाम्प द्वारा प्रस्तुत किया गया था। भारत में भूमि उपयोग से सम्बन्धित मामले भारत सरकार के ग्रामीण विकास मन्त्रालय के भूमि संसाधन विभाग के अन्तर्गत आते हैं, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर भूमि उपयोग से सम्बन्धित सर्वेक्षण का कार्य नागपुर स्थित राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो नामक संस्था करती है। यह भूमि उपयोग मानचित्र को प्रकाशित करती है। वर्तमान में भूमि उपयोग में काफी बदलाव आया है।

    भूमि उपयोग में बदलाव सम्बन्धी तथ्य
    भूमि उपयोग में बदलाव सम्बन्धी कुछ प्रमुख तथ्य निम्नलिखित हैं 
    • वर्तमान में नगरीय प्रवृत्ति के प्रसार से ग्रामीण अधिवासों वाली भूमि को कम किया जा रहा है।
    • चरागाह क्षेत्र में कमी आ रही है, इससे जीवों का संरक्षण बाधित हो रहा है।
    • ग्रामीण अधिवास एवं नगरीय अधिवास के विस्तार हेतु वन भूमि का बड़े स्तर पर विनाश हो रहा है।
    • औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ावा देने, बाजार संचालन करने आदि आर्थिक गतिविधियों के लिए भूमि योग में बदलाव किया जा रहा है।
    • बढ़ती आबादी के कारण भू-भाग टुकड़ों में बँटने के साथ महँगी होती जा रही है।
    • कृषि कार्य वाली भूमि को विभिन्न फार्मों; जैसे- मुर्गीपालन, मत्स्यपालन, जैसे कार्यों में बदला जा रहा है
    • गाँवों का नगरीय स्वरूप में परिवर्तन से सड़कें, नाले, बिजली आदि बुनियादी सुविधाओं को बढ़ाने के लिए भूमि उपयोग का प्रारूप बदल गया है या कृषि भूमि को नष्ट किया जा रहा है। 
    उल्लेखनीय है कि नगरीकरण और भूमि उपयोग परिवर्तनों को समेकित रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारक के रूप में देखा जाता है। इस प्रकार भूमि उपयोग और इसमें बदलाव का पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी पर अत्यन्त नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अतः भूमि उपयोग संरक्षण हेतु मृदा संरक्षण, मृदा गुणवत्ता संवर्द्धन, जल गुणवत्ता और उपलब्धता के साथ वन संरक्षण तथा वन्य जीव आवास संरक्षण आदि जैसे महत्त्वपूर्ण प्रयास किए जाने चाहिए।

    भूमि अधिग्रहण और संव्यवहार
    (Land Acquistion and Transactions)
    भूमि अधिग्रहण एक ऐसी सरकारी गतिविधि है, जिसके द्वारा भूमि के स्वामियों से भूमि का अधिग्रहण की जाती है, जिससे किसी सार्वजनिक • प्रयोजन या किसी कम्पनी के लिए इसका उपयोग किया जा सके। 
    यह अधिग्रहण स्वामियों को मुआवजे के भुगतान या भूमि में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के भुगतान के अधीन किया जाता है अर्थात् भूमि अधिग्रहण में भूमि मालिकों को क्षतिपूर्ति (मुआवजा) देना आवश्यक होता है। भारत में भूमि अधिग्रहण से सम्बन्धित मुख्य कानून भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 है। उल्लेखनीय है कि इस अधिनियम के सन्दर्भ में केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार दोनों कानून बना सकती हैं। हालाँकि केन्द्र सरकार का इसमें अहम् योगदान होता है।
    यह अधिनियम सरकार को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए भूमि के अधिग्रहण का प्रावधान करता है। जैसा कि योजनाबद्ध विकास, शहरी या ग्रामीण योजना बनाना, गरीबों या भूमिहीनों के लिए आवासीय प्रयोजन हेतु प्रावधान या शिक्षा, आवास या स्वास्थ्य योजना के लिए सरकार को भूमि की आवश्यकता हेतु। 
    इस प्रकार, इस अधिनियम का उद्देश्य सार्वजनिक प्रयोजनों तथा उन कम्पनियों के लिए भूमि के अधिग्रहण कानूनों को संशोधित करना है। साथ ही मुआवजे का निर्धारण भी करना है। इसमें यह अभिव्यक्त होता है, कि अभिव्यक्त भूमि में वे लाभ शामिल होते हैं, जो भूमि से उत्पन्न होते हैं और वे वस्तुएँ जो मिट्टी से जुड़ी होती हैं। ग्रामीण विकास मन्त्रालय इन मामलों की नोडल एजेन्सी होता है, जो सरकार के माध्यम से समय-समय पर संशोधित भी करती है।

    भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी संशोधित कानून एवं महत्त्वपूर्ण प्रावधान
    भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी संशोधित कानून एवं महत्त्वपूर्ण प्रावधान निम्नलिखित है 
    • भूमि अधिग्रहण, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन अधिनियम, 2013 संसद में पारित हुआ। इसमें मुआवजा पुराने अधिनियम, 1894 के समान ही तय रहा।
    •  वर्ष 2013 के अधिनियम के तहत् सार्वजनिक उद्देश्य में केवल पब्लिक प्राइवेट भागीदारी और निजी कम्पनियों की परियोजनाओं के लिए सरकार द्वारा अधिग्रहण से पूर्व 70% एवं 80% क्रमशः प्रभावित परिवारों की सहमति आवश्यक बनाई गई।
    • वर्ष 2015 के संशोधित अधिनियम में पाँच छूट दी गई श्रेणियों से सामाजिक बुनियादी ढाँचों को बाहर कर दिया गया।
    • वर्ष 2015 के तहत ही सार्वजनिक उद्देश्य से निर्मित निजी अस्पतालों और निजी शिक्षण संस्थानों को बाहर कर दिया गया।
    • खेतिहर एवं प्रभावी परिवार के एक सदस्य को रोजगार अनिवार्य बना दिया गया।
    • विवाद की सुनवाई हेतु जिला स्तरीय न्यायाधिकरण के गठन का प्रावधान किया गया।
    • वर्ष 2017 में एक संशोधन के तहत (भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में ग्रामीण क्षेत्र में भूमि अधिग्रहण पर चार गुना तथा शहरी क्षेत्रों में दोगुना मुआवजा देने का प्रावधान था।) ग्रामीण क्षेत्र के भूमि अधिग्रहण पर मुआवजे की राशि दोगुना कर दी गई, जो पहले चार गुना निर्धारित थी।
    • इस प्रकार भूमि अधिग्रहण के माध्यम से सरकार उचित कर भू-स्वामियों से भूमि अर्जित करती है और शहरी व नगरीय विकास मुआवजा को बढ़ावा देती है। साथ ही अन्य कल्याणकारी परियोजनाओं एवं संयन्त्रों प्रदान को स्थापित करती है।

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