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मौसमी संकट और आपदाएँ ( Meteorological Hazards and Disasters)

मौसमी संकट और आपदाएँ (मौसम संबंधी खतरे और आपदाएँ) प्रकृत्तिजन्य अप्रत्याशित ऐसी सभी घटनाएँ जो प्राकृतिक प्रक्रमों को इतना तीव्र कर देती हैं कि विनाश की स्थिति उत्पन्न होती है, चरम प्राकृतिक घटनाएँ या आपदा कहलाती है। इन चरम घटनाओं या प्रकोपों से मानव समाज, जन्तु एवं पादप समुदाय को अपार क्षति होती है। चरम घटनाओं में ज्वालामुखी विस्फोट, दीर्घकालिक सूखा, भीषण बाढ़, वायुमण्डलीय चरम घटनाएँ; जैसे- चक्रवात, तड़ित झंझा, टॉरनेडो, टाइफून, वृष्टि प्रस्फोट, ताप व शीत लहर, हिम झील प्रस्फोटन आदि शामिल होते हैं। प्राकृतिक और मानव जनित कारणों से घटित होने वाली सम्पूर्ण  वायुमण्डलीय एवं पार्थिव चरम घटनाओं को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है। इन आपदाओं से उत्पन्न विनाश की स्थिति में धन-जन की अपार हानि होती है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन निम्न प्रकार है:- चक्रवात (Cyclone) 30° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्णकटिबन्धीय चक्रवात कहते हैं। ये आयनवर्ती क्षेत्रों में पाए जाने वाला एक निम्न वायुदाब अभिसरणीय परिसंचरण तन्त्र होता है। इस चक्रवात का औसत व्यास लगभग 640 किमी...

SLOPE ANALYSIS


ढाल विश्लेषण

ढाल विश्लेषण ढाल स्थलरूप का प्रमुख अंश होता है, जो पहाड़ी एवं घाटी के मध्य उपरिमुखी झुकाव होता है तथा समतल मैदानी भाग को छोड़कर सर्वत्र पाया जाता है। इसके आधार पर ही किसी क्षेत्र की आकृतिक विशेषताओं का निर्धारण किया जाता है।
ढाल भूतल पर पाई जाने वाली भू-आकृतियों का महत्त्वपूर्ण अंग है। भौगोलिक दृष्टि से किसी भू-आकृतिक के क्षैतिज तल पर कोणीय झुकाव इसका ढाल कहलाता है। अतः ढाल किसी सतह के झुकाव को दर्शाता है। बाल के अनेक स्वरूप होते हैं। सामान्यतः ढाल का स्वरूप उत्तल, अवतल, सरल रेखीय तथा जल प्रपाती हो सकता है। समतत मैदानी क्षेत्रों को छोड़कर दाल सर्वत्र पाए जाते हैं, लेकिन इनका विकास पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक होता है।
अधिकतम डाल पर्वतीय प्रदेशों में होते हैं। पढ़ारों में पर्वतों की अपेक्षा कम तथा मैदानों में न्यूनतम ढाल होते हैं। पृथ्वी के स्थलीय धरातल का अधिकांश भाग ढालों द्वारा निर्मित है। भौतिक स्थलरूप वास्तव में मुख्य रूप से विभिन्न प्रकार के ढालों के समूह मात्र है और ढाल के आधार पर ही किसी क्षेत्र की आकृतिक विशेषताओं का विश्लेषण होता है।

ढाल के तत्त्व (Elements of Slope)
यदि किसी पहाड़ी ढाल या सागर तटीय दाल की अनुदैर्ध्य परिच्छेदिका का अवलोकन किया जाए तो यह पता चलता है कि शीर्ष से तली तक ढाल एकसमान न होकर अनेक रूपों में मिलता है अर्थात् कहीं पर दाल का आकार उत्तल, कहीं पर अवतल, कही तीव्र, कहीं पर मन्द दाल दृष्टिगत होता है। दाल के इन विशिष्ट अंगों को दाल के तत्त्व कहते है। ए युद्ध तथा एल सी किंग के अनुसार, "किसी आदर्श पहाड़ो दाल के चार प्रमुख भाग होते हैं। ये तत्त्व पहाड़ो की अनुदैर्ध्य परिच्छेदिका में ऊपर से नीचे तक क्रमशः उत्तलता, मुक्त पृष्ठता, सरल रेखात्मकता तथा अवतलता के नाम से जाने जाते हैं, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक पहाड़ी में डाल के ये सभी चारों तत्त्व उपस्थित हो इनमें से एक या दो तत्त्व अनुपस्थित रह सकते हैं।"

ढाल के भाग
ढाल के प्रमुख भाग निम्न प्रकार है
उत्तल ढाल 
पर्वतीय ढाल के सबसे ऊपरी वाले भाग में उत्तल ढाल पाया जाता है, जिस कारण इसे शिखरीय उत्तलता भी कहते हैं। उत्तल ढाल के निर्माण में मुख्य रूप से दो प्रक्रम काम करते हैं-अपक्षय मृदा सर्पण स्वभावतः उत्तलता नीचे की ओर तथा ऊँचाई में विस्तृत होती है तथा दाल तांत्र होने लगता है।
इसी आधार पर वाल्टर पेक ने इसे वर्द्धमान ढाल की संज्ञा दी है। हालाँकि यह संज्ञा भ्रामक प्रतीत होती है, क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि सभी उत्तल ढाल आकार तथा ऊँचाई में बढ़ते ही हैं। इस प्रकार के ढालों का विस्तार आर्द्र शीतोष्ण जलवायु वाले प्रदेशों में चूने के पत्थर तथा खड़िया शैल पर अधिक होता है।

मुक्त पृष्ठ ढाल
शिखरीय उत्तलता के ठीक नीचे दीवार के समान तीव्र ढाल मिलता है, जिसे स्कार्प या मुक्त पृष्ठ ढाल कहते हैं। यह नग्न चट्टानों से युक्त, परन्तु किसी भी प्रकार के अवसादी आवरण से मुक्त होता है। इसका कारण यह है कि तीव्र ढाल पर किसी भी प्रकार के शैल मलबे का रुकना कठिन होता है। उत्तल ढाल से अनाच्छादित तलछट इस क्षेत्र से खिसककर सीधे घाटी में चला जाता है। अतः इसे नग्न या निस्त्रावण ढाल भी कहा जाता है।

सरल रेखीय ढाल
मुक्त पृष्ठ ढाल तथा अवतल ढाल के मध्य एक सीधी रेखा वाला ढाल होता है, जिसे सरल रेखीय ढाल कहते हैं। इस ढाल के ऊपर स्कार्प से गिरे हुए मलबे का जमाव होता है, इसलिए इसे मलबा ढाल भी कहा जाता है। समरूपता के कारण इसे सम ढाल अथवा स्थिर ढाल भी कहते हैं।
इस ढाल पर शैल मलबे की एक हल्की परत होती है, जो गुरुत्व शक्ति के कारण निम्नवर्ती भाग की ओर खिसकती रहती है। अतः इसे मलबा नियन्त्रित ढाल भी कहते हैं। इसी कारण स्ट्रालर ने इसे रिपोज ढाल की संज्ञा दी है, परन्तु यह नामावली असंगत है, क्योंकि इसके अनुसार सरल रेखी ढाल की उत्पत्ति सदैव मलबे के एकत्रीकरण से होनी चाहिए। किन्तु यह न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि कभी-कभी इसका निर्माण अपरदन के कारण चट्टान के नग्न हो जाने से भी होता है।

अवतल ढाल
आदर्श ढाल परिच्छेदिका के सबसे निचले भाग में अवतल ढाल मिलता है। यह अवतल ढाल आगे चलकर धीरे-धीरे घाटी की तली में विलीन हो जाता है। यद्यपि यह मलबों के आवरण से ढका रहता है, किन्तु वास्तव में इसका निर्माण अपरदन या धरातलीय घुलन द्वारा होता है। जैसे-जैसे इसका विस्तार होता जाता है वैसे-वैसे इसका ढाल कम होता जाता है। इसी कारण इसे क्षीयमान ढाल, अध:घुलन ढाल अथवा घाटी तलागार ढाल भी कहते हैं।

ढालों का वर्गीकरण (Classification of Slope)
ढालों का वर्गीकरण अनेक आधारों पर किया जाता है। इनके वर्गीकरण का प्रमुख आधार उत्पत्ति के आधार पर, ढाल के तत्त्व के आधार पर, निर्माण की अवस्था के तथा परिमाणात्मक आधार पर किया जाता है। ढालों का वर्गीकरण मुख्यतः निम्न आधारों पर किया जाता है।
  • जननिक आधार पर ढालों का वर्गीकरण
  • निर्माण की अवस्था के आधार पर ढालों का वर्गीकरण 
  • परिमाणात्मक या मात्रात्मक आधार पर ढालों का वर्गीकरण
जननिक आधार पर वर्गीकरण
ढालों का जन्म अन्तर्जनिक अथवा बहिर्जनिक प्रक्रमों से होता है। इन्हीं प्रक्रमों के आधार पर ढालो को अन्तर्जनिक तथा बहिर्जनिक नामक दो वर्गों में बाँटा जाता है

अन्तर्जनिक ढाल
इस प्रकार के ढाल पृथ्वी के आन्तरिक भाग में होने वाली हलचलों के परिणामस्वरूप बनते हैं। पृथ्वी की आन्तरिक हलचलों में भूतल का उत्थान, वलन, भ्रंश, भूकम्प, ज्वालामुखी आदि प्रक्रियाएँ महत्त्वपूर्ण है। इनसे विभिन्न प्रकार के ढालों का निर्माण होता है। इन प्रक्रियाओं से निर्मित ढालो को विवर्तनिक ढाल कहते हैं।

बहिर्जनिक ढाल
इन ढालों का निर्माण बहिर्जात बलों के प्रभाव से होता है। अपक्षय, वृहत क्षरण, अपरदन, परिवहन तथा निक्षेप बहिर्जनिक बलों के मुख्य उदाहरण हैं। इन वलों से या तो तलावचन होता है या तलोच्चन होता है। अतः बहिर्जात ढालों को निम्न दो उपवर्गों में बाँटा जाता है
  • तलावचन अथवा अपरदनीय ढाल नदी, हिमानी, भौमजल, पवन तथा सागरीय तरंगो की अपरदन क्रिया द्वारा निर्मित ढालों को इस श्रेणी के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है। नदियाँ अपरदन चक्र के दौरान अपनी घाटी के ढालों को विभिन्न रूप प्रदान करती है। तरुणावस्था में उत्तल, प्रौढ़ावस्था में लम्बवत् तथा जीर्णावस्था में अवतल ढालो का विकास होता है। सागरीय तरंगे तटीय भागो पर क्लिफ का निर्माण करती है, जोकि खड़े ढाल वाला होता है।

तलोच्चन अथवा निक्षेपीय ढाल इन ढालों का निर्माण नदी, हिमनद, पवन, सागरीय तरंगो आदि की निक्षेप क्रिया द्वारा होता है। नदियों द्वारा निर्मित जलोढ़ पंख तथा जलोढ़ शंकु, वायु द्वारा निक्षेपित बालुका स्तूप एवं हिमानी द्वारा निक्षेपित हिमोढ़ कटक के ढाल उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किए जा सकते है। ज्वालामुखी के उद्गार के कारण निस्सृत पदार्थों के संचयन के कारण निर्मित शंकुओं के ढाल भी इसी श्रेणी के उदाहरण हैं।

निर्माण की अवस्था के आधार पर वर्गीकरण 
निर्माण की अवस्था के आधार पर ढालों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है
प्राथमिक ढाल
इस वर्ग के विवर्तनिक क्रिया से उत्पन्न होने वाले ढालो तथा बाह्य अपरदनकारी शक्तियों के अपरदन की क्रिया द्वारा निर्मित ढालो को सम्मिलित किया जाता है। नदी की अपरदन क्रिया द्वारा V आकार की घाटी गार्ज, कैनियन, जलप्रपात आदि का निर्माण होता है, ये सभी खड़े ढाल वाली स्थलाकृतियाँ है। सागरीय तरंगे अपरदन द्वारा खड़े ढाल वाले क्लिफ तथा हिमनद U आकार की खड़े ढाल वाली घाटियों निर्माण करते हैं। इन सभी खड़े ढालों को प्राथमिक ढाल के वर्ग में सम्मिलित किया जाता है।
द्वितीय ढाल
जब प्राथमिक ढालों का निर्माण हो जाता है, तो उनके ऊपर अपक्षय के कारण तथा धरातलीय अपरदन के द्वारा गौण अथवा उपढालों का निर्माण होता है। उदाहरण लिए, भ्रंशन के कारण जब कगार ढाल का निर्माण होता है, तो अपक्षय के के कारण उत्पन्न अवसादों के कगार ढाल के आधार पर संचयन के कारण टालस शंकु का निर्माण होता है।
इसी प्रकार नदियों की घाटियों की खड़ी दीवारों के ऊपरी भागों में अपक्षय के कारण गौण ढालों का निर्माण होता है। परिणामस्वरूप खड़े ढालों का विनाश होने लगता है तथा वे पीछे हटने लगते हैं एवं घाटी की चौड़ाई बढ़ने लगती है।

परिमाणात्मक या मात्रात्मक आधार पर वर्गीकरण
ढालों के मात्रात्मक वर्गीकरण का मुख्य आधार ढालों का कोण होता है जिसे या तो क्षेत्र में मापन तथा परिकलन द्वारा या भूपत्रकों से परिकलन द्वारा ज्ञात किया जाता है। इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास वेष्टवर्य हेराल्ड स्मिथ तथा ए एन स्ट्रालर ने किए हैं। मात्रात्मक विधि के अनुसार ढालों का वर्गीकरण इस प्रकार हैं



ढाल और प्रक्रम (Slope and Process)
ढाल के विकास में प्रक्रम का बहुत बड़ा योगदान होता है। प्रक्रम-ढाल सम्बन्ध के प्रारम्भिक अध्ययनों में ढाल के रूप निर्धारण में किसी एक प्रक्रम को ही अधिक सक्रिय बताया गया है, किन्तु वर्तमान के अध्ययनों में इस बात पर बल दिया। गया है कि ढाल के विकास में एक नहीं, बल्कि अनेक प्रक्रम साथ-साथ काम करते हैं।
अतः सामान्यत: ढाल-प्रक्रम संकल्पनाओं को निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जाता है।
1. एकल प्रक्रम संकल्पना
2. बहुल प्रक्रम संकल्पना

एकल प्रक्रम संकल्पना
इस संकल्पना के अनुसार डालों के विकास में एक ही प्रक्रम का योगदान होता है। प्रारम्भ के वर्षों में डालो के सामान्य रूप अर्थात् उत्तलता और अवतलता के विकास में क्रमश: मृदा सर्पण तथा वृष्टि धुलन को हो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता था।
वर्ष 19008 में फेनमैन ने डालरूप की विवेचना केवल बहते जल के सन्दर्भ में ही की। उनके अनुसार ढाल के शीर्ष पर सीमित क्षेत्र के कारण जल की मात्रा कम रहती है और इसलिए अपरदन भी कम होता है, किन्तु जैसे-जैसे हम शीर्ष से ढाल के निचले भागों की ओर बढ़ते है. धरातलीय जल और मलबा दोनों की मात्रा बढ़ती जाती है और अधिक अपरदन के कारण अवतल डाल का निर्माण होता है। 
विभिन्न भूगोलवेत्ताओं की एकल प्रक्रम संकल्पना निम्न प्रकार है

रिवॉर्ट ई हॉर्टन की एकल प्रक्रम संकल्पना 
वर्ष 1945 में रिवॉर्ट ई हॉर्टन ने भी फेनमैन से मिलती-जुलती संकल्पना प्रस्तुत की, जिसमें उन्होंने प्रवाही जल की अपरदनात्मक क्षमता का वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण ढंग से विश्लेषण किया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि अवतलता न्यूनतम ढाल का प्रतिनिधित्व करती है जिस पर ऊपरी भाग से लाए गए मलबे का परिवहन होता है। फेनमैन तथा हॉर्टन की संकल्पनाओं का मुख्य दोष यह है कि उन्होंने ढाल के विकास में मृदा सर्पण को स्थान नहीं दिया है, जोकि आर्द्र प्रदेशों में एक सक्रिय कारक है।

जी के गिलबर्ट की एकल प्रक्रम संकल्पना
वर्ष 1909 में जो के गिलबर्ट ने अपने शोधपत्र में यह बताया कि उत्तलता मूलतः मृदा सर्पण का ही परिणाम है। ढाल के शीर्ष पर मृदा सर्पण सबसे कम होता है और शीर्ष से नीचे की ओर मृदा सर्पण बढ़ता जाता है। चूंकि ऊपर से नीचे की ओर स्थानान्तरित होने वाले मलबे की मात्रा बढ़ती जाती है। अत: अधिक मलबे के परिवहन के लिए नीचे की ओर अधिक तीव्र ढाल की आवश्यकता होती है और ढाल का स्वरूप उत्तल हो जाता है।

ए सी लासन की एकल प्रक्रम संकल्पना
ए सी लासन ने वर्ष 1992 में बताया कि ढाल का उत्तल से अवतल में परिवर्तित होना प्रवाहित जल के द्वारा अपरदन से निक्षेप में परिवर्तित होने पर निर्भर करता है। जैसे ही धरातलीय प्रवाहित जल ऊपर से नीचे की ओर जाता है। उसमें मलबे की मात्रा बढ़ जाती है और ऊपर से नीचे की ओर जाने में अपरदन की मात्रा कम होती जाती है। अन्त में ढाल की निम्नतम मात्रा में अपरदन के स्थान पर निक्षेप होने लगता है।
इस प्रकार ढाल के दो विभिन्न भाग बन जाते हैं। ऊपरी भाग में अपरदन तथा निम्न भाग में निक्षेप को क्रिया होती है। दूसरे शब्दों में, अपरदन से उत्तलता तथा निक्षेप से अवतलता पैदा होती है। इन दो विषम भागों के बीच मध्यवर्ती सन्तुलित ढाल होता है। लासन की संकल्पना के विरोध में यह बताया गया है कि ढाल के शीर्ष पर अपरदन अधिक नहीं हो सकता, क्योंकि वहाँ धरातलीय जल की मात्रा कम होती है और साथ-साथ मलबा, जो अपरदन का यन्त्र है उसका भी अभाव रहता है, किन्तु शीर्ष से कुछ नीचे जाने पर जल की मात्रा और मलबे की वृद्धि के कारण जल को अपरदनात्मक क्षमता बढ़ जाती है। साथ-ही-साथ यह भी नहीं कहा जा सकता है कि ढाल के निचले भाग की अवतलता का सम्बन्ध बराबर निक्षेप से ही होता है।

बहुल प्रक्रम संकल्पना
एकल प्रक्रम संकल्पनाओं की कमजोरियाँ स्पष्ट हैं, क्योंकि ढाल के विकास में विविध एवं जटिल प्रक्रम काम करते हैं। एच बॉलिंग ने वर्ष 1940 में फेनमैन तथा गिलबर्ट की एकल प्रक्रम संकल्पना के विचारों का खण्डन किया है। बॉलिंग के अनुसार, यह तो सम्भव है कि किसी ढाल के अलग-अलग भागों में अलग-अलग प्रक्रम अधिक सक्रिय हो अर्थात् ढाल के किसी निश्चित भाग में कोई विशिष्ट प्रक्रम अन्य प्रक्रमों की अपेक्षा अधिक सक्रिय हो, परन्तु यह सम्भव नहीं कि ढाल के निर्माण में केवल एक ही प्रक्रम सक्रिय हो।
बॉलिंग ने दाल निर्माणक प्रक्रमों में मृदा सर्पण तथा सृष्टि भुलन को सबसे महत्त्वपूर्ण बताया। शीतोष्ण आई प्रदेशों में उत्तल अवतल दाल के ऊपरी भाग में धरातलीय जल की कमी होती है, जिस कारण से मुदा सर्पण प्रक्रम अधिक सक्रिय होता है। दाल के निचले भाग में जल की अधिकता के कारण अनेक छोटी-छोटी सरिताएँ बन जाती है, जिससे अपरदन अधिक तथा मृदा सर्पण कम हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप ढाल के निचले भाग में अवतलता का विकास होता है। स्मरणीय है कि समय के साथ इन प्रक्रमों का सापेक्ष महत्त्व परिवर्तित होता जाता है। अधिक अपरदन के कारण कालान्तर में उच्चावच में कमी हो जाती है। उच्चावच में कमी के कारण मृदा सर्पण का प्रभाव धीरे-धीरे नगण्य हो जाता है, परन्तु दृष्टि धुलन जारी रहता है। अतः उत्तल ढाल वाले भाग में अवतलता का विकास होने लगता है और अन्त में समस्त ढाल अवतल हो जाता है।

ढाल विकास के प्रमुख सिद्धान्त (Main Theories of Slope Development)
ढाल विकास के अन्तर्गत हम समय के साथ डाल रूप में परिवर्तन का अध्ययन करते हैं। ढाल विकास एवं पतन के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धान्त प्रस्तुत किए हैं, जिनमें से प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित है

डेविस का ढाल क्रमिक सिद्धान्त
डेविस ने क्रमिक ढाल की तथा क्रमिक मलबा चादर को संकल्पना को प्रतिपादित किया है। उनके विचार में नदी तथा गतिशील मलबा चादर दोनों मूलतः विभिन्न अनुपात में शैल मलबा और जल के गतिशील मिश्रण है। क्रम स्थापन सबसे पहले ढाल के सबसे निचले भाग में शुरू होता है और नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता जाता है। क्रमिक ढाल के किसी भी बिन्दु से मलबा नीचे की ओर नदी में स्थानान्तरित होता रहता है।
वास्तव में, उन्होंने क्रमिक ढाल और क्रमिक मलबा चादर को एक ही स्थिति का परिचायक माना है। अपरदन चक्र की प्रारम्भिक अवस्था में प्रवणित ढाल •परिच्छेदिका तीव्र ढाल वाली होती है। इस पर शैल चूर्ण का आकार बड़ा होता है और शैल चूर्ण की मोटाई सामान्य होती है। जैसे-जैसे अपरदन चक्र का विकास होता है, वैसे-वैसे प्रवणित ढाल परिच्छेदिका की दाल मन्द होती जाती है और उस पर तलघट आवरण की मोटाई बढ़ती जाती है, परन्तु शैल चूर्ण के कणों का आकार छोटा होता जाता है।
अपरदन चक्र के विकास के साथ-साथ घाटी के पावों के दाल की तीव्रता भी कम होती जाती है। पहाड़ी शीर्ष पर उत्तल तथा निचले भाग में अवतल ढाल का निर्माण होता है तथा ढाल का कोण क्रमशः घटता जाता है।

डेविस का ढाल पतन सिद्धान्त
1892 ई. में डब्ल्यू एम डेविस ने भू-आकृतिक वैज्ञानिक चक्र के सन्दर्भ में ढालों के विकास सम्बन्धी अपना 'ढाल पतन सिद्धान्त' प्रस्तुत किया। डेविस के अनुसार, ढाल पतन का मुख्य कारण ढाल के ऊपरी उत्तल भाग से मलबे का नीचे की ओर स्थानान्तरण होता रहता है और नीचे की ओर मलवे का आवरण बढ़ता जाता है, जिसके कारण नीचे स्थित चट्टानों की अनावृत्तीकरण से रक्षा होती है। डेविस के अनुसार, ढाल का आकार अपरदन चक्र की स्थिति पर निर्भर करता है। अपरदन की युवावस्था में नदी द्वारा निम्नवर्ती कटाव तथा अपक्षय के कारण तीव्र उत्तल ढाल का विकास होता है।
प्रौढ़ावस्था में नदी के पावों तथा जल विभाजकों के शीर्षों का अपरदन अधिक होता है। क्षैतिज अपरदन के कारण पाश्वा एवं जल विभाजकों का नाश होता है तथा ढाल के कोण में कमी आती है। जल विभाजकों के आकार उत्तल हो जाते हैं और साथ-ही-साथ ये गोलाकार जल विभाजक नीचे भी होने लगते हैं। वृद्धावस्था में ढाल चपटे होते जाते हैं और अन्त में ढाल का इतना अधिक पतन हो जाता है कि समस्त क्षेत्र एक समप्राय मैदान में बदल जाता है। डेविस ने आर्द्र जलवायु में गोलाकार उत्तलता का निरीक्षण करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला है कि इस प्रकार की जलवायु में ढाल की शिखरीय उत्तलता का निर्माण मृदा सर्पण से होता है। ढाल के ऊपरी भाग में गुरुत्व के कारण मृदा नीचे की ओर खिसकती है और मृदा सर्पण होता है। वृष्टि धुलन की प्रक्रिया ऊपर से नीचे की ओर बढ़ती जाती है और पहाड़ी जल विभाजक के शीर्ष पर उत्तल ढाल का विकास होता है।

पेंक का ढाल प्रतिस्थापन का सिद्धान्त 
पेंक के विचार डेविस के विचारों से सर्वथा भिन्न हैं। पेंक के अनुसार, ढालों का रूप अपरदन की तीव्रता पर निर्भर करता है, जो मुख्यतः उत्थान की प्रकृति से नियन्त्रित होता है। तीव्र उत्थान की अवस्था में नदी अपरदन की तीव्रता भी अधिक होती है और घाटियों के ढाल उत्तल होते हैं।
पेंक के अनुसार, "ढलान प्रोफाइल, उत्थापन क्रिया की परिस्थितियों के अनुसार उत्तल, समतल अथवा नतोदर होती है।" स्थिर उत्थान की स्थिति में ढाल सीधा होता है और कम उत्थान या उत्थान की घटती दर एवं स्थिरता (उत्थान बन्द) की अवस्था में जब अपरदन की तीव्रता कम रहती है, तो अवतल ढालों का निर्माण होता है।

वुड का अनाच्छादनात्मक ढाल सिद्धान्त
वुड ने अनाच्छादनात्मक ढाल (Anaerobic slope) सिद्धान्त को क्लिफ ढाल व उत्तर शैल ढाल के आधार पर प्रतिपादित किया है। जिसका विवरण इस प्रकार है

क्लिफ ढाल
वुड ने अपनी अनाच्छादनात्मक ढाल की संकल्पना के प्रतिपादन में क्लिफ ढाल को इसलिए चुना, क्योंकि यह मुक्त पृष्ठ और मलबा रहित है। इसका निर्माण या तो अपरदनात्मक प्रक्रम से हुआ है या फिर भ्रंशन की क्रिया से हुआ है। ऋतुक्षरण या अपक्षय के कारण क्लिफ का निवर्तन प्रारम्भ होता है तथा अपक्षय से प्राप्त मलबे का टैलस के रूप में ढाल के आधार पर संचय प्रारम्भ हो जाता है। इस कारण मुक्त पृष्ठ ढाल का निचला भाग लगातार मलबे के जमाव के कारण कम होने लगता है अर्थात् उसकी ऊँचाई कम होने लगती है। तथा मलबे का ऊपर की ओर विस्तार होता जाता है।
मलबा मुक्त पृष्ठ के निचले भाग पर एक निश्चित कोण पर जमा हो जाता है, जो एक स्थिर ढाल का रूप ले लेता है। एक आदर्श स्थिति में वुड ने मान लिया है कि स्थिर ढाल (मलबा निर्मित) के ऊपरी भाग पर मुक्त पृष्ठ के अपक्षय से प्राप्त जितना मलबा आता है उतना ही निचले भाग से सरिता द्वारा हटा लिया जाता है, जिस कारण मलबा निर्मित स्थिर ढाल की लम्बाई स्थिर रहती है। इस परिस्थिति में मुक्त पृष्ठ के निवर्तन के चलते रहने से स्थिर ढाल का विस्तार होता है।

उत्तल शैल ढाल
मुक्त पृष्ठ ढाल पर नीचे से ऊपर की ओर ऋतुक्षरण उत्तरोत्तर अधिक समय तक होता है। अतः मलबे के आवरण के नीचे उत्तल शैल ढाल का निर्माण होता जाता है। प्रारम्भ में टैलस का विस्तार नीचे से ऊपर की ओर तेजी से होता है, क्योंकि पूरे मुक्त पृष्ठ के ऋतुक्षरण से मलबा प्राप्त होता है, किन्तु समय के साथ जैसे-जैसे निचला भाग टैलस से ढकता जाता है मुक्त पृष्ठ का खुला अंश कम होता जाता है और ऋतुक्षरण से प्राप्त मलबे की मात्रा कम हो जाती है और टैलस की ऊपर की ओर बढ़ने की दर धीमी हो जाती है। स्थिर ढाल का निर्माण होने के बाद इसका समानान्तर निवर्तन होता जाता है। स्थिर ढाल पर मलबा वर्षा घुलन से प्रभावित होता है, जिसके कारण सूक्ष्म कण मोटे कणों की तुलना में नीचे की ओर स्थानान्तरित होते जाते हैं और स्थिर ढाल के आधार के पास अवतल ढाल का निर्माण हो जाता है, जिसे घुलन ढाल अथवा क्षीयमान ढाल कहते हैं। जैसे-जैसे मलबे के कणों का आकार छोटा होता जाता है उनको स्थिर रहने के लिए कम कोण के ढाल की आवश्यकता होती है। कालान्तर में मलबा ढाल के कोण को सुरक्षित रखते हुए मलबे से ढके हुए ठोस चट्टान को भी पीछे की ओर समानान्तर निवर्तन द्वारा काटता जाता है और इस प्रकार मलबे के नीचे स्थित उत्तल शैल ढाल (Rock Slope) अवतल ढाल में परिवर्तित हो जाता है।

वुड के अनाच्छादनात्मक ढाल सिद्धान्त का निष्कर्ष 
इस प्रकार समस्त ढाल की अनुदैर्ध्य परिच्छेदिका में तीन प्रधान तत्त्व शिखरीय उत्तलता, आधार में अवतलता तथा दोनों के मध्य सरल रेखात्मकता मिलते हैं। धीरे-धीरे विकास के क्रम में सरल रेखीय ढाल पर अवतल तथा उत्तल ढालों का विस्तार होने लगता है, जिससे सरल रेखीय ढाल की लम्बाई कम होती जाती है और अन्ततः वह समाप्त हो जाती है और उत्तल-अवतल ढाल का विकास होता है, जो कालान्तर में चपटा (मन्द ढाल वाला) होता जाता है।
वुड ने इस बात पर बल दिया है कि सभी ढालों का विकास एक ही प्रकार से नहीं होता, बल्कि यह संरचना, जलवायु तथा ढाल के आधार की दशाओं पर निर्भर करता है। विशिष्ट दशाओं में एक या एक से अधिक तत्त्व अनुपस्थित हो सकते हैं और ढाल के चार तत्त्वों के रूप तथा गुण विकास के क्रम में बदलते जाते हैं। वुड का मुख्य योगदान यह है कि उन्होंने अपनी संकल्पना में ढाल के तत्त्वों को निर्धारित और परिभाषित किया है और सुझाव दिया है कि प्रत्यक्षतः असमान रूप के ढालों में भी इन तत्त्वों को पहचाना जा सकता है।

किंग का पहाड़ी ढाल चक्र सिद्धान्त
किंग व वुड पहाड़ी ढाल के तत्त्वों को स्वीकार करते हैं और बताते हैं कि ये तत्त्व ढाल विकास के आवश्यक अंग हैं। किंग के अनुसार, एक मानक ढाल में ढाल के सभी चारों तत्त्व (शिखरीय उत्तलता, मुक्त पृष्ठता, सरल रेखात्मकता तथा अधः अवतलता) विद्यमान रहते हैं। किंग का पहाड़ी ढाल विकास का सिद्धान्त पेडिप्लेन (Pediplain) के निर्माण से सम्बन्धित है। पेडिप्लेन दो प्रक्रियाओं कगार निवर्तन तथा पेडिमेण्टेशन (Pedimentation) का प्रतिफल है। ढाल विकास के प्रारम्भिक चरण में अपक्षय के कारण कगार में पीछे की ओर समानान्तर निवर्तन होता है तथा कगार का यह समानान्तर निवर्तन सम्पूर्ण ढाल के विकास को नियन्त्रित करता है।
किंग के अनुसार, कगार ढाल के नीचे स्थित मलबा ढाल ऊपर की ओर नहीं बढ़ता है जिससे कगार को न तो वह आच्छादित कर पाता है और न ही उसे नष्ट कर पाता है।
इससे स्पष्ट है कि मलबा ढाल वाले खण्ड पर मलबे की आपूर्ति तथा उसके निष्कासन में पूर्ण समस्थिति होती है। इसी तरह पहाड़ी शिखर पर मलबे आपूर्ति एवं मलबे निष्कासन में पूर्ण समस्थिति होती है तथा पहाड़ी शिखर स्थिर रहता है। ढाल परिच्छेदिका के ऊपरी भाग में स्थित ढाल तत्त्व (कगार एवं मलबा ढाल-सरल रेखीय तत्त्व) के पीछे की ओर निवर्तन के कारण ढाल परिच्छेदिका के निचले भाग पर विकसित अवतल ढाल वाले पेडिमेण्ट (ऊपर की ओर) में वृद्धि के कारण ढाल के ऊपरी तत्त्व मुख्य रूप से मुक्त पृष्ठ (कगार) समाप्त हो जाते हैं।
इसी तरह पेडिमेण्ट (Pediment) में वृद्धि के साथ-साथ उसके कोण में सतत् न्यूनता आती जाती है। अन्ततः पेडिमेण्ट संवर्द्धन एवं कगार के समाप्त हो जाने पर अवतल ढाल वाली विस्तृत अपरदन सतह का निर्माण होता है, जिसे पेडिप्लेन कहते हैं और इसके विकास तथा उसके दौरान ढाल विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया को क्रमश: पेडिप्लेनेशन चक्र एवं पहाड़ी ढाल विकास चक्र कहते हैं।

स्ट्रॉलर का ढाल सिद्धान्त
स्ट्रालर ने ढालों का सांख्यिक अध्ययन करके बताया कि यदि सभी ढाल निर्माणक प्रक्रम तथा आयु की अवस्था समान है, तो औसत अधिकतम ढाल का कोण भी समान होता है और अलग-अलग ढालों के अधिकतम कोण में अन्तर नगण्य होता है। इन ढालों में समान कोण का विकास इसलिए हुआ है कि उनसे मलबे का परिवहन आसानी से हो सके। इस तरह के ढाल साम्यावस्था की दशा में हैं और उन्हें साम्यावस्था के ढाल कहे जा सकते हैं, परन्तु साम्यावस्था के ढाल का नियन्त्रण ढाल विकास से सम्बन्धित विविध कारकों से होता है। कारक के स्वभाव में परिवर्तन होने पर साम्यावस्था में पुनर्समायोजन होता है।
स्ट्रालर के अनुसार, किसी भी क्षेत्र में निवर्तनशील ढालों के अधिकतम कोण वाले ढालों में ढाल पतन की अपेक्षा समानान्तर निवर्तन ही अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। स्ट्रालर के अनुसार, अधिकतम ढाल कोण और जल मार्ग प्रवणता में भी सह-सम्बन्ध है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि घाटी पार्श्व ढाल से जो मलवा प्राप्त होता है, उसी के अनुरूप जलमार्ग की प्रवणता या ढाल का समायोजन होता है।
जहाँ पर घाटी पाश्र्व ढाल तीव्र है वहाँ जलमार्ग ढाल (Channel slope) भी तीव्र होता है, जिसमें अधिक-से-अधिक मलबों का परिवहन हो सके। इसके विपरीत मन्द घाटी पाश्र्व ढाल से कम मलबा नीचे जाता है। अतः जलमार्ग ढाल भी धीमा होता है, परन्तु यदि घाटी पार्श्व ढाल समान होने पर भी एक ढाल नग्न जबकि दूसरा ढाल वनस्पति से ढका हो, तो वनस्पति से ढके ढाल से नदी को कम मलबा प्राप्त होता है और ऐसी दशा में जलमार्ग प्रवणता भी कम होगी।
स्ट्रालर ने यह भी बताया है कि जहाँ नदी ढाल के पद (Foot) के पास होती है तो ढाल तीव्र होते हैं। ऐसी स्थिति में नदी पार्श्व ढाल से प्राप्त मलबे को शीघ्र ही वहाँ ले जाती है, जहाँ नदी ढाल के पद से दूर होती है, वहाँ मन्द ढाल पाया जाता है और नदी मलबे को वहाँ ले जाने में असमर्थ होती है। ऐसी स्थिति में मलबे का एकत्रीकरण ढाल को संरक्षण प्रदान करता है।

ए यंग का ढाल सिद्धान्त
यंग ने अपने ढाल विकास की संकल्पना प्रस्तुत करते समय निम्नलिखित चार तथ्यों की कल्पना की है
  • ढाल के विकास की प्रारम्भिक अवस्था में शैल संरचना एकसमान होती है।
  • शीर्ष ढाल तीव्र क्लिफ होता है, जिसका ऊपरी भाग समतल होता है।
  • ढाल के आधार से मलबे का निष्कासन निरन्तर रूप से सम्पन्न होता है।
  • ढाल के आधार पर अपरदन नहीं होता है।
यंग ने ढाल विकास के सम्बन्ध में तीन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जिनका विवरण निम्न प्रकार है।

ढाल पतन
यंग के अनुसार, समय बीतने पर ढाल के तीव्र भाग का कोण कम होने लगता है, जिसे ढाल पतन कहते हैं। ढाल पतन से उत्तल तथा अवतल ढालों का विकास होता है। ढाल पतन की स्थिति में सम्पूर्ण ढाल परिच्छेदिका के कम-से-कम 20% भाग पर अवतलता तथा 10% भाग पर उत्तलता का विस्तार होता है।

ढाल प्रतिस्थापन
समय बीतने पर ऊपरी अधिकतम कोण वाले ढाल का कोण कम होने लगता है तथा नीचे की ओर से उसका प्रतिस्थापन मन्द ढाल वाले खण्ड से होता जाता है। इसके परिणामस्वरूप ढाल परिच्छेदिका के अधिकांश भाग पर अवतल ढाल का विकास हो जाता है। अवतलता निष्कोण वक्र वाली तथा विभिन्न सरल खण्डों वाली हो सकती है। इस अवस्था में अवतलता का विस्तार सामान्यतः 60% भाग पर तथा उत्तलता का विस्तार 5% भाग पर होता है।

ढाल में समानान्तर निवर्तन
इस प्रकार के ढाल में अधिकतम कोण स्थिर रहता है। अवतल खण्ड को छोड़कर ढाल के सभी भागों की निरपेक्ष लम्बाई स्थिर रहती है। अवतलता की लम्बाई में वृद्धि होती रहती है। अवतल खण्ड के सम्पूर्ण भाग के ढाल का कोण कम होता जाता है। इस तरह का समानान्तर निवर्तन मुक्त पृष्ठ तत्त्व के साथ तथा बिना मुक्त पृष्ठ के साथ दोनों स्थितियों में हो सकता है।

सेविजियर का ढाल सिद्धान्त
सेविजियर ने दक्षिणी बेल्स के कारमार्येन खाड़ी के शीर्ष पर स्थित ढाल की परिच्छेदिकाओं के विकास का अध्ययन किया है और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ढाल के विकास में समानान्तर निवर्तन तथा ढाल-पतन दोनों महत्त्वपूर्ण हैं और कभी-कभी ये दोनों प्रक्रियाएँ एक क्षेत्र विशेष में साथ-साथ भी कार्यरत् रह सकती हैं। अपने अध्ययन क्षेत्र के पूर्वी भाग में उन्होंने ऐसे ढालों का अवलोकन किया है जिनके निचले भाग में मुक्त पृष्ठ ढाल, बीच में सरल रेखीय ढाल तथा ऊपरी भाग में सीमित शिखरीय उत्तल ढाल पाए जाते हैं।
क्षेत्र के पश्चिमी भाग में सबसे ऊपर विस्तृत उत्तल ढाल, बीच में सीमित सरल रेखीय ढाल तथा सबसे नीचे अवतल ढाल पाए जाते हैं। यहाँ पर अवतलता का विकास ढाल के आधार पर मलबा के निक्षेपण के कारण हुआ है। पश्चिमी भाग समुद्र तट से बहुत पहले हट चुका है और पूर्वी
भाग से समुद्र को हटे हुए अपेक्षाकृत कम समय गुजरा है। अतः ढाल पूरब से पश्चिम की ओर चपटे होते जाते हैं और पूर्वी भाग में न केवल ढाल की प्रवणता अधिक है बल्कि जहाँ पश्चिमी भाग में अधिकतम ढाल अवतल है वहीं पूर्वी भाग में उत्तलता की प्रधानता है।


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