चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) कुहन के विचार से सामान्य विज्ञान के विकास में असंगतियों के अवसादन तथा संचयन (Accumulation) में संकट की स्थिति उत्पन्न होती है, जो अन्ततः क्रान्ति के रूप में प्रकट होती है। यह क्रान्ति नए चिन्तनफलक को जन्म देती है। जब नवीन चिन्तनफलक अस्तित्व में आता है वह पुराने चिन्तनफलक को हटाकर उसका स्थान ले लेता है। चिन्तनफलक के परिवर्तन की इस प्रक्रिया को 'चिन्तनफलक प्रघात' (Paradigm Shock) या 'चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) के नाम से जाना जाता है। ध्यातव्य है कि इस प्रक्रिया में पुराने चिन्तनफलक को पूर्णरूप से अस्वीकार या परिव्यक्त नहीं किया जा सकता, जिसके कारण कोई चिन्तनफलक पूर्णरूप से विनष्ट नहीं होता है। इस गत्यात्मक संकल्पना के अनुसार चिन्तनफलक जीवन्त होता है चाहे इसकी प्रकृति विकासात्मक रूप से अथवा चक्रीय रूप से हो। जब प्रचलित चिन्तनफलक विचार परिवर्तन या नवीन सिद्धान्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता है, तब सर्वसम्मति से नए चिन्तनफलक का प्रादुर्भाव होता है। अध्ययन क्षेत्र के उपागम में होने वाले इस परिवर्तन को चिन्तनफलक स्थानान्त
निश्चयवाद बनाम सम्भववाद
(Determinism Vs Possibilism)
नियतिवाद मूलतः 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में विकसित एक जर्मन भौगोलिक विचारधारा है, जो मानव प्रकृति अन्तःक्रिया की व्याख्या प्रकृति (पर्यावरण) को सर्वशक्तिमान और समस्त मानव व्यवहार तथा मानवीय क्रियाओं को नियन्त्रक मानकर करती है।
इस विचारधारा के अनुसार मनुष्य प्रकृति की विशिष्ट देन है और समस्त मानवीय क्रियाएँ प्राकृतिक पर्यावरण (स्थिति, उच्चावच, जलवायु, अपवाह, प्राकृतिक जलाशय, मिट्टी एवं खनिज, प्राकृतिक वनस्पति आदि) द्वारा नियन्त्रित होती हैं। मनुष्य प्रकृति का अनुचर एवं दास है, जो प्राकृतिक पर्यावरण के अनुसार ही आचरण करने के लिए बाध्य होता है। इस विचारधारा के समर्थक प्राकृतिक पर्यावरण के तत्त्वों को सर्वाधिक सशक्त तथा प्रभावशाली मानते हैं।
नियतिवाद या निश्चयवाद की पृष्ठभूमि
प्राचीन यूनानी विचारकों ने प्राकृतिक शक्तियों की प्रबलता तथा मानव जीवन पर उनके अवश्यम्भावी प्रभावों की सोदाहरण व्याख्या की है। ईसा से 400 वर्ष पूर्व यूनानी विचारक हिप्पार्कस ने आराम पसन्द एशियाई लोगों तथा मेहनती यूरोपीय निवासियों को उनके पर्यावरणीय भिन्नता का परिणाम बताया था। प्रसिद्ध इतिहासकार हैरोडोटस ने लिखा है कि मिस्र की सभ्यता का विकास वहाँ की उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों के कारण ही सम्भव हो पाया था।
प्रसिद्ध यूनानी विचारक अरस्तू (Aristole) ने मानव जीवन पर प्राकृतिक परिस्थितियों के प्रभावों की व्याख्या करते हुए लिखा था कि यूरोप के अपेक्षाकृत ठण्डे देशों के निवासी बहादुर, किन्तु बुद्धि तथा तकनीकी कुशलता में क्षीण होते हैं और इसके परिणामस्वरूप अन्य की तुलना में वे अधिक लम्बे समय तक स्वतन्त्र रहते हैं और पड़ोसियों पर शासन करते हैं इसके विपरीत एशिया के लोग बुद्धिमान और कुशल होते हैं, किन्तु आत्मबल की कमी के कारण उनकी स्थायी दशा पराधीनता तथा दासता की होती है।
फ्रेडरिक रैटजेल ने डार्विन के प्राकृतिक चयन पर आधारित विकासवाद को स्वीकार किया और प्राकृतिक पर्यावरण को सर्वशक्तिमान भौगोलिक कारक के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने जनसंख्या वितरण के माध्यम से मानव जीवन पर पर्यावरणी दशाओं के प्रभाव को समझाने का प्रयास किया। उनकी प्रमुख पुस्तक एन्थ्रोयोज्योग्राफी थी, जो दो खण्डों में प्रकाशित हुई थी।
20वीं सदी के प्रथम दो दशकों में अमेरिकी भूगोलविद् कुमारी एलेन चर्चिल सेम्पुल ने नियतिवाद का प्रबल समर्थन तथा खूब प्रचार-प्रसार किया। कुमारी सेम्पुल, रैटजेल की शिष्या तथा उनके नियतिवादी विचारों की प्रबल समर्थक थीं।
सेम्पुल ने कहा है कि पर्वतों पर रहने वाले लोगों को प्रकृति ने मजबूत दिए हैं जिससे वह ढालों पर चढ़ सकें। समुद्र तटीय लोगों को उसने पैर कमजोर और शिथिल बनाया है, किन्तु उनकी छाती और भुजाओं को खूब विकसित किया है जिससे वे अपनी नाव को सम्भाल सकें। उनके विचार कट्टर नियतिवाद के पोषक हैं, किन्तु बाद के वर्षों में सेम्पुल की कट्टरता में कमी आ गई थी और वे मानव के प्रभावों को भी स्वीकार करने लगी थीं। तत्कालीन परिस्थितियों में सेम्पुल की विचारधारा सामयिक थी।
नियतिवाद के समर्थक अमेरिकी भूगोलवेत्ताओं में सेम्पुल के पश्चात् एल्सवर्थ हंटिंगटन (E Huntington) का नाम आता है। हंटिंगटन नियतिवादी विचारधारा के समर्थक थे। वे प्राकृतिक तत्त्वों में जलवायु को सर्वोपरि मानते थे। उन्होंने मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष पर जलवायु अनिवार्यता पर बल दिया।
आलोचना
20वीं शताब्दी के आरम्भिक दशक से ही मानवीय क्रियाकलापों पर बल दिया जाने लगा। फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं ने नियतिवाद की विभिन्न आधारों पर कटु आलोचनाएँ कीं और मानव शक्ति, कौशल तथा क्रियाकलापों में आस्था व्यक्त की।
समान भौगोलिक परिस्थितियों वाले अलग-अलग प्रदेशों में मानव का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकास प्राय: समान रूप से नहीं होता है। उदाहरण के लिए, सम्पूर्ण टुण्ड्रा प्रदेश में एक जैसी जलवायु पाई जाती है, किन्तु ग्रीनलैण्ड के आदिवासी एस्कियो जाति, यूरोशिया की समोयद, याकूत, चुकची आदि जातियों से अधिक विकसित है अर्थात मनुष्य पर्यावरणी दशाओं से प्रभावित तो होता है, किन्तु वह अपनी शक्ति तथा कौशल से आवश्यकतानुसार उसमें परिवर्तन भी करता है। इस प्रकार प्रकृति तथा मानव के मध्य क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है, जो इतनी जटिल होती है कि यह तय कर पाना अत्यन्त कठिन है कि एक का प्रभाव कहाँ समाप्त होता है और दूसरे का प्रभाव कहाँ से आरम्भ होता है।
आज विश्व का जो आर्थिक-सामाजिक या राजनीतिक स्वरूप विद्यमान है वह केवल प्राकृतिक पर्यावरण का ही परिणाम नहीं है, बल्कि उसमें मानवीय क्रिया-कलापों का योगदान अधिक महत्त्वपूर्ण है। भूतल पर खेत, बागान, नगर, सड़कें, रेलमार्ग आदि असंख्य ऐसी वस्तुएँ विद्यमान हैं, जो मानव निर्मित हैं अथवा उसके द्वारा संशोधित हैं। अतः मानव-प्रकृति सम्बन्ध की व्याख्या में मानव प्रयत्नों की पूर्ण उपेक्षा अवास्तविक तथा अनुचित है। मानव जीवन में प्राकृतिक पर्यावरण की महत्त्वपर्ण भूमिका में विश्वास करने के साथ ही स्वयं रैटजेल ने अपनी रचनाओं में निरन्तर इस बात पर बल दिया है कि मानवीय विकास में ऐतिहासिक संस्कार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं वर्तमान वैज्ञानिक युग में जहाँ चारों ओर मानवीय क्रियाकलापों का साम्राज्य व्याप्त है और मानव पर प्रकृति का नियन्त्रण लगभग समाप्त हो चुका है। कठोर नियतिवाद की सार्थकता भी समाप्त हो गई है। वर्तमान समय में अधिकांश भूगोलवेत्ता उग्र नियतिवाद को स्वीकार नहीं करते हैं और जो नियतिवादी विचारधारा के समर्थक हैं, वे भी मनुष्य पर प्रकृति का नियन्त्रण नहीं, बल्कि प्रभाव ही स्वीकार करते हैं। परवर्ती वर्षों में कठोर नियतिवाद में संशोधन करके इसे नवीन ढंग से प्रस्तुत किया गया, जिसे 'नवनियतिवाद' के नाम से जाना जाता है।
सम्भववाद
सम्भववाद 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विकसित फ्रांसीसी विचारधारा है, जो मानव पर्यावरण सम्बन्ध ( अन्तर्क्रिया) की व्याख्या में मानव प्रयत्नों तथा प्रक्रियाओं को अधिक महत्त्व देती है। इस विचार में प्राकृतिक वातावरण द्वारा मानव के लिए ऐसी अनेक सम्भावनाएँ प्रस्तुत हैं जिनमें से वह चयन कर समायोजन करता है। इन सम्भावनाओं की संख्या मानव-समुदाय में तकनीकी ज्ञान वृद्धि के साथ बढ़ती जाती है। लूसियन फेब्रे ने सम्भववाद की सम्भावना व्यक्त की थी जबकि वाइडल डी ला ब्लाश के सम्भववाद का विकास किया था।
लूसियन फेब्रे का सम्भववाद
लूसियन फेब्रे के अनुसार, यह आवश्यक नहीं है कि मानव प्राकृतिक वातावरण के प्रभावों से सर्वत्र प्रभावित ही बने और नियन्त्रण में बँधा रहे, बल्कि वातावरण उसके समक्ष ऐसे अवसर प्रस्तुत करता है कि उन सम्भावनाओं में से चयन द्वारा वह तालमेल स्थापित कर विकास कर सके अर्थात् “कहीं भी अनिवार्यता नहीं है, बल्कि सर्वत्र सम्भावनाएँ विद्यमान हैं और मनुष्य इन सम्भावनाओं के स्वामी के रूप में उनके प्रयोग का निर्णायक है। "
वाइडल डी ला-ब्लाश का सम्भववाद
ला-ब्लाश को सम्भववाद का प्रतिपादक माना जाता है। लूसियन फेब्रे, बूंश, डिमांजियाँ आदि अनेक फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं ने उसका जोरदार समर्थन किया। मानव-पर्यावरण सम्बन्धों की व्याख्या में ब्लाश मनुष्य को प्रधान मानते थे। उनके अनुसार मनुष्य स्वयं समस्या और समाधान दोनों है तथा प्रकृति उसकी उपदेशिका मात्र है। उनके अनुसार वर्तमान मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण द्वारा नियन्त्रित नहीं है, बल्कि उसने अपने विवेक तथा कुशलता से प्राकृतिक तत्त्वों पर विजय प्राप्त कर ली। मानवीय प्रयत्नों तथा क्रियाकलापों को प्रधानता प्रदान करने वाली इस विचारधारा को सम्भववाद के नाम से जाना जाता है।
ब्लाश का मत था कि प्रकृति ने कोई ऐसा निश्चित मार्ग तय नहीं किया है जिस पर चलने के लिए मनुष्य को विवश होना पड़े, बल्कि प्रकृति मनुष्य के सम्मुख अनेक साधन तथा सम्भावनाएँ प्रस्तुत करती है, जिसका प्रयोग करने के लिए मनुष्य स्वतन्त्र है। मनुष्य अपनी क्षमता, कौशल तथा आवश्यकतानुसार उनका उपयोग कर सकता है। प्रकृति द्वारा प्रस्तुत अनेक सम्भावनाओं में से वह अपनी क्षमता तथा आवश्यकताओं का चयन करता है। उस चयन में वह प्रकृति द्वारा नियन्त्रित नहीं, बल्कि स्वतन्त्र होता है। इस प्रकार मनुष्य भौतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके सांस्कृतिक पर्यावरण का सृजन करता है।
ब्लाश के शब्दों में, “मनुष्य के लिए प्रकृति का स्थान एक सलाहकार से अधिक नहीं हो सकता (Nature is never More than an advisor) ब्रूश मनुष्य और उसके कार्यों को ही प्रमुख मानते थे और उनके लिए प्रकृति का स्थान गौण था। उनके अनुसार मनुष्य एक निष्क्रिय प्राणी नहीं, बल्कि एक क्रियाशील शक्ति है जो पर्यावरण को परिवर्तित करने में सतत प्रयत्नशील रहती है। डिमांजियाँ ने मानवीय क्रियाकलापों की महत्ता पर बल देते हुए स्पष्ट किया कि उपजाऊ मिट्टी में तब तक अच्छी खेती नहीं की जा सकती, जब तक कि मनुष्य अपनी शक्ति तथा तकनीक का प्रयोग नहीं करता ।
अमेरिकी भूगोलवेत्ता ईसा बोमैन ने सम्भववाद का ही समर्थन किया। उनके मतानुसार, “प्राकृतिक पर्यावरण मानव समाज के स्वरूप को निर्धारित नहीं कर सकता। पर्यावरण के तत्त्व मनुष्य के सम्पर्क से परिवर्तित हो जाते हैं जिस प्रकार मानवता स्वयं भी परिवर्तनशील है। सम्भववाद का समर्थन करते हुए उन्होंने लिखा है कि मनुष्य दक्षिणी ध्रुव पर आरामदेय तथा प्रकाशयुक्तपूर्ण नगर का निर्माण करने में समर्थ है और वहाँ शिक्षा, रंगमंच, खेल आदि की व्यवस्था कर सकता है। मनुष्य सहारा में ऐसे कृत्रिम पर्वत का निर्माण कर सकता है जो वर्षा होने के लिए विवश कर दे।
सम्भववाद के समर्थकों के मतानुसार मनुष्य में उतनी शक्ति तथा कौशल विद्यमान है कि वह प्रकृति के नियन्त्रण में नहीं रह सकता है, क्योंकि वह प्राकृतिक तत्त्वों को अपनी आवश्यकता के अनुरूप मोड़ लेने या परिवर्तित कर लेने में समर्थ है उनका दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। वह अपनी क्षमता तथा विवेक से सब कुछ सम्भव करने में समर्थ है। इतना अवश्य है कि मनुष्य प्रकृति से सहयोग प्राप्त करता है और उससे प्रभावित भी हो सकता है, किन्तु उसके नियन्त्रण में कदापि नहीं है।
आलोचना
नियतिवाद की भाँति सम्भववाद भी अतिशयवादी विचार है। सम्भववाद के समर्थकों ने मनुष्य को सर्वशक्तिमान और प्रकृति का विजेता सिद्ध करने का प्रयास किया है जो निश्चित ही अतिशयवादी है। वास्तव में, मनुष्य पर्यावरण का अभिन्न अंग है और वह पर्यावरण के प्रभावों से पूर्णतया मुक्त नहीं हो सकता। मनुष्य विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का विकास चाहे जितना कर ले वह प्रकृति के प्रभावों से एकदम छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकता है और उस पर अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित करने में भी सक्षम नहीं हो सकता। अतः मानव अपने समुचित सामाजिक-आर्थिक विकास हेतु प्रकृति की पूर्ण
अवहेलना या मनमानी नहीं कर सकता है और यदि वह ऐसा करता है तो उसे इसके भयंकर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। नई-नई खोजों के द्वारा मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न कर सकता है और नई-नई जानकारियाँ प्राप्त कर सकता है, किन्तु वास्तविक विश्व इतना विस्तीर्ण तथा अन्तहीन है कि उसके प्रति मानव जिज्ञासा का कभी अन्त हो पाना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव है।
वर्तमान काल में मानव गर्मी से बचाव के लिए आवास कृत्रिम रूप से शीतल कर सकता है और सर्दी से बचने के लिए उसे गर्म भी कर सकता है। वह कृत्रिम ताप, आर्द्रता तथा प्रकाश की व्यवस्था करके पौधघर में मनचाही फसल उगाने से सफल हो सकता है, किन्तु किसी स्थान या विस्तृत प्रदेश की जलवायु या मौसमी दशाओं को नियन्त्रित करने में अभी तक मनुष्य समर्थ नहीं है। प्रतिकूल परिस्थितियों पर ध्यान न देकर अथवा प्रकृति की अवहेलना करके मनुष्य अपनी ही क्षति करता है।
अतः मनुष्य को प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़-छाड़ नहीं, बल्कि उससे आवश्यक सहयोग प्राप्त करना चाहिए। सम्भववादी विचार ने आर्थिक मानव को प्रकृति का अंधाधुंध शोषण करने के लिए प्रेरित किया है, जिसके कारण अनेक प्राकृतिक संसाधन नष्टप्रायः हो चुके हैं और अनेक प्रकार की विश्वव्यापी पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, जिससे स्वयं मानव जाति के अस्तित्व का खतरा उत्पन्न हो गया है। अतः मानव जाति की भलाई के लिए प्रकृति पर विजय प्राप्त करने या उसके अंधाधुंध शोषण के स्थान पर अब उसके संरक्षण पर ध्यान देना अनिवार्य हो गया है।
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