चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) कुहन के विचार से सामान्य विज्ञान के विकास में असंगतियों के अवसादन तथा संचयन (Accumulation) में संकट की स्थिति उत्पन्न होती है, जो अन्ततः क्रान्ति के रूप में प्रकट होती है। यह क्रान्ति नए चिन्तनफलक को जन्म देती है। जब नवीन चिन्तनफलक अस्तित्व में आता है वह पुराने चिन्तनफलक को हटाकर उसका स्थान ले लेता है। चिन्तनफलक के परिवर्तन की इस प्रक्रिया को 'चिन्तनफलक प्रघात' (Paradigm Shock) या 'चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) के नाम से जाना जाता है। ध्यातव्य है कि इस प्रक्रिया में पुराने चिन्तनफलक को पूर्णरूप से अस्वीकार या परिव्यक्त नहीं किया जा सकता, जिसके कारण कोई चिन्तनफलक पूर्णरूप से विनष्ट नहीं होता है। इस गत्यात्मक संकल्पना के अनुसार चिन्तनफलक जीवन्त होता है चाहे इसकी प्रकृति विकासात्मक रूप से अथवा चक्रीय रूप से हो। जब प्रचलित चिन्तनफलक विचार परिवर्तन या नवीन सिद्धान्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता है, तब सर्वसम्मति से नए चिन्तनफलक का प्रादुर्भाव होता है। अध्ययन क्षेत्र के उपागम में होने वाले इस परिवर्तन को चिन्तनफलक स्थानान्त
भूगोल भू-भौतिकी के रूप में
(Geography as Earth Science)
काण्ट, हम्बोल्ट, रिटर, रेक्ल्यु ग्रयट जेसे प्रभुत्वशील विद्वानों ने इनके योगदान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन्होनें ईश्वर की सोद्देश्य सृष्टि अथवा प्रकृति में व्याप्त एकलयता एवं जीवन समष्टि के रूप में पृथ्वी का भू-भौतिकीय अध्ययन किया था। रिटर ने अर्थात् सम्पूर्ण भू-विज्ञान के रूप में पृथ्वी का अध्ययन किया था और उनकी इस अवधारणा का समर्थन फ्रोइबेल, पेसेल एवं जरलैण्ड ने किया था। परन्तु इन लोगों ने उनकी सोद्देश्यवादी अवधारणा को स्वीकार नहीं किया था।
फ्रोबेल भूगोल को एक प्राकृतिक विज्ञान मानते थे तथा मनुष्य को प्रकृति का अभिन्न अंग मानते थे। मानवीय कार्यकलापों को व्यावहारिक भूगोल अथवा ऐतिहासिक- दार्शनिक भूगोल के रूप में एक गौण स्थान प्रदान करते थे— जरलैण्ड, भू-विज्ञान अर्डकुण्डे के शाब्दिक अर्थ को स्वीकार करते हुए इसे पृथ्वी का विज्ञान कहने पर जोर देते थे, जिसके अन्तर्गत मानव अथवा उसके कार्यकलाप के लिए कोई स्थान नहीं था।
जरलैण्ड के अनुसार, पृथ्वी भौतिक तत्त्वों का एक ऐसा पुंज है जो सतत परिवर्तनशील है तथा जो विभिन्न शक्तियों द्वारा परस्पर जुड़े एवं अन्तर्सम्बन्धित होने के कारण एक सम्पूर्ण इकाई बनती है। ब्रह्माण्ड की असंख्य ऐसी इकाइयों की भाँति ही पृथ्वी भी एक है। अतएव भूगोल के अध्ययन का उद्देश्य उन शक्तियों का अध्ययन करना है। जो पृथ्वी में निहित पदार्थों को एकजुट करती हैं तथा उनमें परिवर्तन लाती हैं।
इसके अन्तर्गत यह स्वयं सिद्ध था कि सम्पूर्ण पृथ्वी का एक ग्रह के रूप में अध्ययन भूगोल का विषय-क्षेत्र है। अतएव भूगोल की पाठ्य पुस्तकों में यह एक ग्रह के रूप में पृथ्वी की आकृति, विचार तथा सूर्य एवं अन्य ग्रहों से सापेक्षित स्थिति का अनिवार्य रूप से विवरण दिया जाता था। तथापि, इस प्रकार के प्रारम्भिक विवरण के पश्चात् जिन अन्य भौतिक तत्त्वों का विवरण प्रस्तुत किया जाता था, वे पृथ्वी की ऊपरी सतह पर मिलने वाले तत्त्वों तक ही सीमित होते थे।
भू-भौतिकी के अवरोधक
रिटर की शाब्दिक व्याख्या पर आधारित भूगोल की इस संकल्पना की मान्यता अल्पकालिक ही रही। इसके प्रति भूगोलवेत्ताओं में असन्तोष उभरने लगा, क्योंकि भूगोल का यह चिन्तनफलक अभी भी विकसित नहीं था। इसके निम्न कारण थे
- शुद्ध तार्किक आधार पर विज्ञान की एक विशेष प्रकार की व्याख्या पर आधारित था न कि भूगोल के ऐतिहासिक विकास पर ।
- जरलैण्ड की विज्ञान की परिभाषा केवल प्राकृतिक विज्ञानों तक ही सीमित एवं आधारित थी। इसके अनुसार विज्ञान वही है जिसके निश्चित परिणाम निकलते हों तथा जिसके नियम, अकाट्य हों, इसमें सम्भावनाओं की , गुंजाइश नहीं थी। इस आधार पर मानवीय तत्त्व जिनमें अनेक सम्भावनाएँ निहित हैं भूगोल में शामिल नहीं किए जा सकते। विज्ञान की वह संकल्पना अब प्राकृतिक विज्ञानों में भी मान्य नहीं है।
- अध्ययन तत्त्व के रूप में 'पृथ्वी' के बारे में जरलैण्ड की अवधारणा तर्कसम्मत सम्मत नहीं थी । यदि 'पृथ्वी' में सन्निहित पदार्थ जो परस्पर सम्बन्धित विकास की प्रक्रिया में है, के अन्तर्गत चट्टान, जल एवं वायु को सम्मिलित करते हैं तो इनका पौधे के रूप में रूपान्तरण उससे बाहर कैसे हो सकता है? उसी प्रकार क्या मानव भी भौतिक पदार्थों का रूपान्तरण नहीं है? क्या मानव ऊर्जा जो पृथ्वी के स्वरूप को बहुत हद तक बदलती है पृथ्वी की रूपान्तरणकारी शक्तियों में से एक नहीं है। इस आधार पर मानव एवं उसके कार्यकलाप को पृथ्वी के विज्ञान से बाहर रखना तर्कसंगत नहीं है। इस प्रकार अपनी विज्ञान की संकल्पना में 'पृथ्वी' को समाहित करने के लिए जरलैण्ड को इसे न केवल मानवविहीन वरन् वनस्पति एवं जन्तुविहीन मानना पड़ता।
- यदि पृथ्वी के उन पदार्थों का जो सतत परिवर्तनशील हैं, का अध्ययन भूगोल का उद्देश्य मान भी लिया जाए तो भी मानव एवं मानवकृत तत्त्वों का अध्ययन करना पड़ेगा, क्योंकि सतत परिवर्तनशील पदार्थ, चट्टान, जल, वायु से सम्बन्धित हैं। इन पदार्थों के अंश ही पौधों एवं जन्तुओं के रूप में परिणत होते हैं। उसी प्रकार मानव शरीर तथा उसके सांस्कृतिक तत्त्व भी पृथ्वी के उक्त पदार्थों के ही परिवर्तित रूप हैं। दूसरे, पृथ्वी के विभिन्न भागों में पदार्थों के रूपान्तरण में अन्य शक्तियों के साथ मानव ऊर्जा का भी हाथ है। अतएव मानव और उसकी ऊर्जा को पृथ्वी के सभी पदार्थ एवं ऊर्जा मिलकर एक सम्पूर्ण इकाई का निर्माण करते हैं तो मानव द्वारा (पृथ्वी के पदार्थों के एक अंश के रूप में) निकाल देने से वह इकाई सम्पूर्ण कैसे रह जाएगी?
- यदि भूगोल को मात्र पृथ्वी के भौतिक तत्त्वों के अध्ययन अर्थात् भू-भौतिक तक ही सीमित मान लिया जाए तो भी इसमें अपेक्षित एकात्मकता नहीं होगी। इसमें जलवायु विज्ञान, भूकम्प विज्ञान, ज्वालामुखी क्रिया चुम्बकत्व, जिओडेसी, जल विज्ञान आदि का समावेश करना पड़ेगा। शुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से ये सभी भौतिकशास्त्र की अनेक शाखाएँ हैं तथा इनके अध्ययन की विलग विधियाँ हैं। इसका योग मात्र भौतिक भू-विज्ञान नहीं वरन् अनेक भौतिक भू-विज्ञान होंगे।
- यदि भूगोल को केवल पृथ्वी पक्ष तक सीमित भी कर दिया जाए, तब भी इसमें एक सूत्रता अथवा विशिष्टता नहीं होगी, क्योंकि वह भौतिकशास्त्र के समानान्तर अध्ययन होगा।
- भूगोल को भू-भौतिकी का अध्ययन मान लेने से न केवल हम्बोल्ट एवं रिटर के कार्य वरन् सभी विगत भौगोलिक कार्य जो अधिकतर मानवकृत कार्यों से सम्बन्धित रहे हैं, व्यर्थ हो जाएँगे।
रिटर एवं हम्बोल्ट के परवर्ती काल में इस प्रकार के दिग्भ्रम एवं द्विशा की अवस्था में एक नए चिन्तनफलक की आवश्यकता प्रबल हो गई। 1882 ई. में रैटजेल की पुस्तक 'Anthropogeographie' के से प्रकाशन दृष्टान्त सामने आया, जिसने सर्वथा नए चिन्तनफलक अर्थात् नियतिवादी एक ऐसा दृष्टि से प्रकृति-मापक अन्तर्सम्बन्ध के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया।
स्थानिक विश्लेषण (Spatial Analysis)
मात्रात्मक विधियों का प्रयोग कर स्थान निर्धारणीय विश्लेषण का निष्कर्ष ज्ञात किया जाता है, तो उस प्रक्रिया को स्थानीय विश्लेषण कहते हैं। यह निश्चित , रूप से पूर्णतया सही सामान्यानुमानों (Generalization) तक पहुँचाने व प्रत्यक्ष बोध ज्ञात करने में सहायता देता है। यह स्थानिक-वितरण, स्थानिक-संरचना व संगठन और स्थानिक सम्बन्धों को मात्रात्मक विवरण द्वारा स्पष्ट करता है। तीन आधारभूत स्थानिक संकल्पनाओं (i) दिशा (ii) दूरी और (iii) सापेक्ष स्थित अथवा क्षेत्र में जुड़ाव (connectivity) से स्थानिक विश्लेषण ज्ञात किया जाता है।
स्थानिक विज्ञान के अनुयायी मानव भूगोल को सामाजिक विज्ञानों का घटक मानते हैं। वे मानव भूगोल का योग स्थान के विचलक अथवा परिवर्तनीय गुण के निर्धारण पर केन्द्रित मानते हैं। स्थान सामाजिक संगठन और व्यक्तिगत - सदस्यों के व्यवहार को प्रभावित बनाने वाला कारक है।
कुछ भूगोलवेत्ता स्थानिक विश्लेषण में 'सामान्य रेखीय मॉडल' का प्रयोग कर निष्कर्ष निकालते हैं, परन्तु कुछ विद्वान स्थानिक आँकड़ों के विश्लेषण में सांख्यिकीय विधि का उपयोग करते हैं।
स्थानिक अन्तर्क्रिया (Spatial Interaction)
स्थानिक अन्तर्क्रिया का अभिप्राय दो या अधिक भौगोलिक क्षेत्रों के बीच होने वाली पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया, सम्पर्क स्थान्तरण तथा संयोजन से है। दो स्थानों या क्षेत्रों के बीच होने वाली स्थानिक अन्तर्क्रिया वस्तुओं, विचारों और मनुष्यों की गतिशीलता और सम्पर्क का परिणाम होती है। स्थानिक अन्तर्क्रिया के लिए दो या अधिक स्थानों या व्यक्तियों का होना आवश्यक है। अन्तर्क्रिया द्विपक्षीय प्रक्रिया है, जिसमें दोनों पक्ष कम या अधिक मात्रा में एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।
स्थानिक अन्तर्क्रिया के लिए दो मौलिक दशाओं-सम्पर्क (Contact) और संचार (Communication) का होना अनिवार्य है। दो स्थानों या क्षेत्रों के मध्य सम्पर्क होना अन्तर्क्रिया का प्रारम्भिक बिन्दु होता है।
क्षेत्रीय अध्ययन और क्षेत्रीय भिन्नता की संकल्पना (Area Studies And Concept of Areal Differentiation)
प्रादेशिक विज्ञान क्षेत्रों के व्यक्तित्व को पूर्णरूपेण वर्णन करता है और भूगोल में जाँच-पड़ताल की पुरातन परिपाटी है। स्ट्रैबो ने सत्रह खण्डों में अपनी पुस्तकों में सबसे पहले इसको प्रस्तुत किया। धरातल पर मानव एवं प्राकृतिक दृश्य वस्तुओं अथवा घटनाओं में क्षेत्रीय विभेदीकरण और विशिष्टीकरण का अध्ययन हार्टशोर्न की रचना The Nature of Geography में इंगित विचार है। हेटनर से प्रेरित होकर हार्टशोर्न ने भूगोल का मुख्य केन्द्र व प्रधान विषय में निहित एकीकरण का उद्देश्य माना। इसको क्षेत्रीय विभेदीकरण अथवा विशिष्टीकरण (Areal Differentiation) नाम से जाना जाता है।
इसे ‘क्षेत्र-वर्णनी भूगोल' अथवा प्रदेश-विज्ञान भी कहा जाता है। भूदृश्य पृथ्वी के तल के बाह्य स्वरूप की अभिव्यक्ति है। हेटनर ने कहा कि, “भूगोल पृथ्वी के क्षेत्रों का अध्ययन है और ये क्षेत्र एक-दूसरे से भिन्न होते हैं।” इनके जर्मन भाषा में प्रकाशित विभिन्न लेखों के माध्यम से क्षेत्रीय भिन्नता के स्पष्टीकरण को ही भूगोल का मुख्य उद्देश्य बताया। हेटनर के अनुसार, “प्राचीनकाल से आधुनिक काल तक भूगोल भू-क्षेत्रों के ज्ञान का विषय रहा है जो एक-दूसरे से भिन्न है।”
उन्होंने मनुष्य को क्षेत्र की प्रकृति का अभिन्न अंग बताया हेटनर ने यह भी लिखा है कि 'भूगोल में पृथ्वी के क्षेत्रों तथा स्थानों का अध्ययन उनकी “भिन्नताओं और भू-सम्बन्धों के सन्दर्भ में किया जाता है।" उनके अनुसार भूगोल भूतल की प्रादेशिक भिन्नताओं का अध्ययन महाद्वीपों, देशों, जनपदों तथा स्थानों के सन्दर्भ में करता है।
फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता वाइडल-डी-ला-ब्लाश ने भी क्षेत्रीय भिन्नता की संकल्पना को ही मान्यता दी थी। हेटनर से मिलते-जुलते अर्थ में ब्लाश ने लिखा है कि “भूगोल स्थानों का विज्ञान है, जो देशों की विशेषताओं तथा सम्भावनाओं का विवेचन करता है। 1950 ई. में ब्रिटिश भूगोलवेत्ताओं ने भूगोल की परिभाषा इस प्रकार की - “भूगोल वह विज्ञान है, जो क्षेत्रों के विभेदीकरण और सम्बन्धों के विशिष्ट सन्दर्भ में पृथ्वी के धरातल का वर्णन करता है।
क्षेत्रीय भिन्नता का अभिप्राय यह है कि भौतिक तथ्यों उच्चावच जलवायु, जलाशय, मिट्टी एवं खनिज, वनस्पति, पशुजीवन आदि और सांस्कृतिक तथ्यों, जनसंख्या, कृषि खनन, उद्योग व्यापार, परिवहन साधनों, गृह तथा बस्तियों आदि के वितरण में विषमता और भिन्नता पाई जाती है। पृथ्वी के किसी भी दो क्षेत्र की धरातलीय बनावट बिल्कुल एक जैसी नहीं है। कहीं ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ हैं, तो कहीं पर निचले समतल मैदान और कहीं-कहीं गहरी -गहरी घाटियाँ हैं।
पृथ्वी के तल पर जल और स्थल के वितरण और उनकी स्थिति में भी अत्यधिक भिन्नता पाई जाती है। पृथ्वी के लगभग तीन-चौथाई भाग को महासागर घेरे हुए है, जो क्षेत्रीय आकार, गहराई, तलीय बनावट आदि में असमान है। स्थलीय भाग पर कहीं वर्षभर प्रवाहित होने वाली नदियाँ हैं, तो कहीं पर मौसम विशेष में प्रवाहित होने वाली नदियाँ हैं और कहीं नदियों का अभाव है।
जलवायु और उसके तत्त्व तापमान, वायुदाब, आर्द्रता एवं वर्षण आदि में भी विविधता और स्थानिक भिन्नता पाई जाती है। विश्व के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार की जलवायु पाई जाती है।
भूतल के विभिन्न भागों की जलवायु प्रदेश में ऊँचे-ऊँचे सदाबहार और सघन वृक्ष उगते हैं। मध्यम वर्षा वाले उष्ण क्षेत्रों (सवाना) में मोटी घासें और वृक्ष मिलते हैं जबकि शीतोष्ण प्रदेशों में छोटी घासें तथा टैगा प्रदेश में कोमल लकड़ी वाले कोणधारी वन विकसित होते हैं। रेगिस्तानों और अर्द्ध-शुष्क भागों में कँटीली झाड़ियाँ उगती हैं। अन्य प्राकृतिक तत्त्वों की भाँति पशु जगत भी विविधतापूर्ण है। सांस्कृतिक या मानवीय तथ्य भौतिक पर्यावरण और मनुष्य के मध्य होने वाली अन्तर्क्रिया के परिणाम होते हैं।
उपर्युक्त विवरण का निष्कर्ष यह है कि भूगोल में जिन तथ्यों और भूदृश्यों का अध्ययन किया जाता है वे स्थानान्तरण से भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु इन स्थानिक भिन्नताओं में भी मिलते-जुलते गुणों या गुणों की सादृश्यता के आधार पर प्रदेशों का निर्धारण किया जाता है। क्षेत्रीय भिन्नता के विश्लेषण से क्षेत्र की विविधताएँ प्रकट होती हैं। अतः क्षेत्रीय विभेदीकरण या भिन्नता का वास्तविक अर्थ केवल क्षेत्रों में अन्तर का होना ही नहीं, बल्कि क्षेत्र की विविधता भी है।
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