चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) कुहन के विचार से सामान्य विज्ञान के विकास में असंगतियों के अवसादन तथा संचयन (Accumulation) में संकट की स्थिति उत्पन्न होती है, जो अन्ततः क्रान्ति के रूप में प्रकट होती है। यह क्रान्ति नए चिन्तनफलक को जन्म देती है। जब नवीन चिन्तनफलक अस्तित्व में आता है वह पुराने चिन्तनफलक को हटाकर उसका स्थान ले लेता है। चिन्तनफलक के परिवर्तन की इस प्रक्रिया को 'चिन्तनफलक प्रघात' (Paradigm Shock) या 'चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) के नाम से जाना जाता है। ध्यातव्य है कि इस प्रक्रिया में पुराने चिन्तनफलक को पूर्णरूप से अस्वीकार या परिव्यक्त नहीं किया जा सकता, जिसके कारण कोई चिन्तनफलक पूर्णरूप से विनष्ट नहीं होता है। इस गत्यात्मक संकल्पना के अनुसार चिन्तनफलक जीवन्त होता है चाहे इसकी प्रकृति विकासात्मक रूप से अथवा चक्रीय रूप से हो। जब प्रचलित चिन्तनफलक विचार परिवर्तन या नवीन सिद्धान्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता है, तब सर्वसम्मति से नए चिन्तनफलक का प्रादुर्भाव होता है। अध्ययन क्षेत्र के उपागम में होने वाले इस परिवर्तन को चिन्तनफलक स्थानान्त
चिन्तनफलक स्थानान्तरण
(Paradigm Shift)
कुहन के विचार से सामान्य विज्ञान के विकास में असंगतियों के अवसादन तथा संचयन (Accumulation) में संकट की स्थिति उत्पन्न होती है, जो अन्ततः क्रान्ति के रूप में प्रकट होती है। यह क्रान्ति नए चिन्तनफलक को जन्म देती है। जब नवीन चिन्तनफलक अस्तित्व में आता है वह पुराने चिन्तनफलक को हटाकर उसका स्थान ले लेता है।
चिन्तनफलक के परिवर्तन की इस प्रक्रिया को 'चिन्तनफलक प्रघात' (Paradigm Shock) या 'चिन्तनफलक स्थानान्तरण (Paradigm Shift) के नाम से जाना जाता है। ध्यातव्य है कि इस प्रक्रिया में पुराने चिन्तनफलक को पूर्णरूप से अस्वीकार या परिव्यक्त नहीं किया जा सकता, जिसके कारण कोई चिन्तनफलक पूर्णरूप से विनष्ट नहीं होता है। इस गत्यात्मक संकल्पना के अनुसार चिन्तनफलक जीवन्त होता है चाहे इसकी प्रकृति विकासात्मक रूप से अथवा चक्रीय रूप से हो।
जब प्रचलित चिन्तनफलक विचार परिवर्तन या नवीन सिद्धान्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता है, तब सर्वसम्मति से नए चिन्तनफलक का प्रादुर्भाव होता है। अध्ययन क्षेत्र के उपागम में होने वाले इस परिवर्तन को चिन्तनफलक स्थानान्तरण कहते हैं। मानव भूगोल में उन्नीसवीं शताब्दी की जर्मन विचारधारा नियतिवाद से बीसवीं शताब्दी की फ्रांसीसी विचारधारा सम्भववाद के रूप में भौगोलिक विचारधारा में होने वाला परिवर्तन चिन्तनफलक स्थानान्तरण का उत्कृष्ट उदाहरण है। कुन ने चिन्तनफलक स्थानान्तरण शब्दावली का प्रयोग विभिन्न प्रकार से किया है
जिन्हें मास्टरमैन (1970) ने तीन श्रेणियों के अन्तर्गत समाहित किया है जो इस प्रकार हैं
अधिभौतिक चिन्तनफलक यह किसी अनुशासन में विज्ञान के विश्व दृष्टिकोण को प्रकट करता है । नियतिवाद, सम्भववाद, नवनियतिवाद, स्थानिक भिन्नता आदि संकल्पनाएँ इसके दृष्टान्त हैं।
सामाजिक चिन्तनफलक यह व्यापक रूप से स्वीकृत मान्य वैज्ञानिक उपलब्धियों पर आधारित होता है। न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम और ब्लाश की विशिष्ट जीवन पद्धति संकल्पना उसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
रचनात्मक चिन्तनफलक यह कुछ प्रतिष्ठित कार्य, सारगर्भित ग्रन्थ या उपकरण पर आधारित हो सकता है। 'कॉसमॉस (हम्बोल्ट), अर्डकुण्डे (रिटर), ज्योग्राफी हूमन (ब्लाश) एन्थ्रोपोज्योग्राफी (रैटजेल) आदि पुस्तकें इसके उदाहरण हैं।
चिन्तनफलक की तीनों श्रेणियाँ परस्पर संयुक्त और सम्बन्धित हैं, किन्तु रचनात्मक चिन्तनफलक ही केन्द्र बिन्दु निर्माण करता है, इसलिए कुन इसे 'समस्या निवारण चिन्तनफलक' (Problem Solution Paradigm) कहना अधिक उचित मानते हैं। कुन रचनात्मक चिन्तनफलक को ही वास्तविक मानते हैं, जिसका विकास 1950 के पश्चात् की घटना है।
एच. एन. मिश्र (1989) ने अपने एक लेख में स्पष्ट किया है कि कोई अनुशासन चिन्तनफलक रहित हो सकता है, यदि वह अपने विषय क्षेत्र को सम्बद्ध अनुशासनों से अलग करने में समर्थ नहीं होता है। जब दो चिन्तनफलक एक-दूसरे से प्रतियोगिता करते हैं, वे इस अवस्था से द्वन्द्व चिन्तनफलकीय अवस्था की ओर गतिशील होते हैं, अन्ततः उनमें से एक चिन्तनफलकीय अवस्था में पहुँच जाते हैं और एक चिन्तनफलक दूसरे चिन्तनफलक का स्थान ले लेता है।
इसे चिन्तनफलक में एक से अधिक चिन्तनफलक विद्यमान हो सकते हैं। अतः स्थानान्तरण के रूप में जाना जाता है। सामाजिक विज्ञानों बहुचिन्तनफलक सामाजिक विज्ञानों की विशेषता है। हार्वे एवं होली क्षेत्र में नेतृत्व करने के लिए प्रतिस्पर्द्धा करते हैं। रैटजेल का नियतिवाद, (1983) के ब्लाश का सम्भववाद, सावर का सांस्कृतिक भूदृश्य, हार्टशोर्न का क्षेत्रीय अनुसार, बहुचिन्तन फलक वाले विज्ञान में कई चिन्तनफलक भिन्नता शेफर का अपवादवाद या क्षेत्रीय अन्तःक्रिया आदि चिन्तनफलक के ही उदाहरण हैं।
चिन्तनफलक स्थानान्तरण भूगोल के सन्दर्भ में
चिन्तनफलक या पैराडाइम शब्दावली सामाजिक विज्ञानों के लिए नई नहीं है, किन्तु एक गतिशील संकल्पना के रूप में इसको विकसित करने का श्रेय थॉमस कुन (Thomas Kuhan) को जाता है, जिन्होंने वर्ष 1962 में प्रकाशित अपनी प्रतिष्ठित पुस्तक 'The Structure of Scientific Revolution, (वैज्ञानिक क्रान्तियों की संरचना) में उसकी विस्तृत व्याख्या की है। कुहन ने इस पुस्तक के द्वितीय संस्करण में पैराडाइम को इस प्रकार परिभाषित किया है, “पैराडाइम विश्वासों, मूल्यों, तकनीकों आदि का पूर्ण पुंज है जिसमें किसी प्रदत्त समुदाय के सदस्यों की भागीदारी होती है।" इस प्रकार चिन्तनफलक मौलिक ढाँचा, एक वृहत आधार वाला मॉडल प्रतिमान अथवा ज्ञान का सामान्य स्वरूप प्रदान करता है, जिसके अन्तर्गत अनुशासन कार्य करता है। चिन्तनफलक में दर्शन, सिद्धान्त तथा विधितन्त्र का निर्माण होता है।
सिद्धान्त चिन्तनफलक का अंग होता है और कभी-कभी चिन्तनफलक को महासिद्धान्त भी कहा जाता है। रिटजर (Ritzer 1975) के अनुसार, चिन्तनफलक के तीन प्रमुख लक्षण होते हैं
- दृष्टान्त या आदर्श (exemplar)
- विषयवस्तु का भाव या प्रतिबिम्ब
- सिद्धान्त और विधितन्त्र (Theory and Methodology)
चिन्तनफलक में परिवर्तन
कुन के मतानुसार चिन्तनफलक में परिवर्तन क्रान्तिकारी होता है। यह निम्नवत होता है। चिन्तनफलक - A- सामान्य विज्ञान-विसंगतियाँ- संकट क्रान्ति चिन्तन फलक B अर्थात् विद्यमान चिन्तन फलक (A) के अन्तर्गत किसी विज्ञान में सामान्यतः अध्ययन तब तक चलते हैं जब तक कुछ ऐसे तथ्य नहीं प्रकट होते जो विसंगतियाँ उत्पन्न करते हैं।
उदाहरणार्थ, नियतिवाद भूगोल में तब तक ग्राह्य रहा जब तक उसकी अवधारणा में प्रतिकूल तथ्यों का अम्बार नहीं लगा। ऐसी स्थिति में नियतिवादी चिन्तनफलक पर वैचारिक प्रश्नचिह्न क्रमशः बड़ा होता गया और एक वैचारिक संकट उत्पन्न हुआ तब क्रान्तिकारी ढंग से सम्भववाद का उदय हुआ जो नए चिन्तनफलक (B) के रूप में स्थापित हो गया। इस प्रकार विज्ञानों का विकास सतत ज्ञान संचय से नहीं वरन् क्रान्तिकारी चिन्तनफलक परिवर्तन से होता है। तथापि, सभी इस मत के समर्थन नहीं हैं।
सामान्य मान्यता यह है कि समय-समय पर किस विज्ञान में कई चिन्तन फलक समानान्तर चलते हैं परन्तु कालक्रम में उनमें से एक बलवती हो जाता है जिसका वर्चस्व कुछ समय तक बना रहता है इस दृष्टिकोण को यान्त्रिक कहा जाता है, जो यह मानता है कि विज्ञानों का विकास रैखिक होता है। परवर्ती समुदाय का चिन्तनफलक समाप्त हुआ है। जबकि कुन की चिन्तनफलक सम्बन्धी संकल्पना को द्विषात्मक कहा जाता है।
इनसे अलग हट कर एक अवधारणा आदर्शोन्मुख दृष्टिकोण को मान्यता देती है। इसके अनुसार, विज्ञानों की प्रगति एकाकी वैज्ञानिकों की प्रतिभा से प्रेरित होती है। (जैसे हम्बोल्ट या रैटजेल अथवा ब्लाश या हैटनर) एवं अन्य वैज्ञानिक इसी प्रकार के प्रेरक चिन्तनफलक का अनुसरण करते हैं। भौगोलिक चिन्तनफलक के निम्न विहंगवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि भूगोल में चिन्तनफलक का परिवर्तन कुन के द्विषात्मक पद्धति की अपेक्षा अन्य तीन दृष्टिकोणों के अधिक अनुरूप है।
भूगोल के परिवर्तनशील चिन्तनफलक
कुह्न के अनुसार, डार्विन के पूर्व, भूगोल (1859) पूर्व चिन्तनफलक अवस्था में था। इसका तात्पर्य यह है कि भूगोल में ऐसे संस्तरित तत्त्वों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता था। जो ठोस वैज्ञानिक उपलब्धियाँ प्रस्तुत करते हों। जब मानव, सांस्कृतिक विकास में प्रथम सोपान पर था और उसने शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति से ऊपर उठकर कुछ चिन्तन-मनन प्रारम्भ किया तो स्वभावतया वह अपने प्राकृतिक परिवेश, पर्यावरण के प्रति सचेत एवं जिज्ञासु हुआ। इसमें पृथ्वी तल पर दृष्टव्य तत्त्व यथा भौम्याकृति वनस्पति, जीव-जन्तु जलराशि, जलवायु के प्रकट तत्त्व तथा अन्य ग्रह-नक्षत्र सर्वाधिक आकर्षक थे, क्योंकि उनका प्रत्यक्ष प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता था अतएव, इस तत्त्व समूह की प्रकृति के प्रति उसकी सहज जिज्ञासा जागृत हुई। क्षितिज के पार क्या है? यह मनुष्य की मौलिक जिज्ञासा है।
प्राचीनतम संस्कृति युक्त सभी क्षेत्रों-भारत, चीन, मिस्र, मेसोपोटामिया, यूनान आदि के मिथकों एवं ग्रन्थों में यह तथ्य चरितार्थ होता है। प्रारम्भ में विज्ञानों का विषयगत विभाजन अत्यन्त धूमिल था, क्योंकि सम्पूर्ण ज्ञानपुंज सीमित था। चूँकि, बिना पृथ्वीतल की प्रारम्भिक जानकारी के किसी अन्य दिशा में ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नहीं था, अतएव प्राचीनकालीन कोई भी विद्वान् एक साथ ही भूगोलवेत्ता, दार्शनिक, वैज्ञानिक सब कुछ होता था ।
इस काल में पृथ्वीतल पर मिलने वाले सभी तत्त्वों का समवेत अध्ययन करने की प्रवृत्ति थी । विशेष ध्यान, पृथ्वी के आकार-विस्तार एवं अन्य ग्रहों से सापेक्ष स्थिति के आकलनों पर दिया जाता था। इस दीर्घावधिक प्रारम्भिक काल में भूगोल की सर्वमान्य परिभाषा पृथ्वी का विवरण पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगता था । हेटनर के अनुसार, प्रारम्भिक काल में भूगोल के तीन आयाम थे- पृथ्वी के विषय में ज्ञान अभिवृद्धि, पृथ्वी तल पर विभिन्न स्थानों की अवस्थिति का निर्धारण एवं उसका मानचित्रण एवं विभिन्न क्षेत्रों के भौतक तत्त्वों का प्रेक्षण
प्रथम उद्देश्य की पूर्ति हेतु अपने क्षेत्रों के बाहर निकलकर अन्य क्षेत्रों की खोज करना प्रमुख कार्य था। इस प्रकार के साहसिक प्रयास से प्राप्त परिणामों को मानचित्र अथवा रेखाचित्र द्वारा प्रस्तुत करना, दूसरा आवश्यक कार्य होता था। एतदर्थ, विभिन्न स्थानों की पृथ्वीतल पर सही अवस्थिति का निर्धारण अनिवार्य था।
अन्त में नए प्राप्त तथ्यों एवं तत्त्वों के स्वरूप एवं उद्भव विकास के बारे में कुछ अनुमान किए जाते थे। इस प्रकार के कार्य में अत्यधिक समय का लगना स्वाभाविक था, क्योंकि उस समय न तो आवागमन के सहज साधन सुलभ थे और न ही विभिन्न प्रकार के तत्त्वों की वास्तविक प्रकृति को जानने समझने हेतु समुचित उपकरण उपलब्ध थे। अतएव भौगोलिक चिन्तन की यह अवधि अत्यधिक दीर्घ थी। इसका अवसान काल यूरोप में मध्य द्वितीय शताब्दी माना जाता है जब ग्रीक तथा रोम साम्राज्यों का पतन प्रारम्भ हुआ जिसमें किसी भी प्रकार की वैज्ञानिक जिज्ञासा को प्रथम अथवा प्रोत्साहन नहीं मिलता था।
धार्मिक कट्टरता एवं धर्मान्धता इस स्थिति के लिए प्रमुखतः उत्तरदायी है, परन्तु इस मध्य युगीन (दूसरी से आठवीं शताब्दी) तथाकथित अन्धयुग में, पूर्वी सभ्यता के देशों, अरब एवं भारत में, भौगोलिक आँकड़ों एवं ज्ञान में अभिवृद्धि होती रही। कम-से-कम पूर्वोपलब्ध भौगोलिक ज्ञान अक्षुण्ण रहे। इसी संचित ज्ञान राशि के आधार पर पुनर्जागरण काल में भूगोल का विकास अग्रसर हो सका।
15वीं शताब्दी में चिन्तनफलक
15वीं शताब्दी से प्रारम्भ पुनर्जागरण काल में यूरोप में चर्च का अंकुश क्रमशः ढीला होता गया, जिसके परिणामस्वरूप भौगोलिक तथ्यों की खोज में यात्राओं की शुरुआत हुई। तथापि, यह प्रक्रिया बड़ी मन्द रही। इस काल में पुनः ग्रीक विद्वानों की कृतियों का नए सिरे से अध्ययन प्रारम्भ हुआ। इस युग में पुर्तगाल के लोगों द्वारा लम्बी समुद्री यात्राएँ उल्लेखनीय हैं। टॉलमी की कृतियों का विशेष अध्ययन हुआ तथा गणितीय भूगोल के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई। इस प्रकार की ज्ञान अभिवृद्धि ने ही अन्य विज्ञानों की प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। यही कारण है कि भूगोल को अन्य विज्ञानों की जननी माना जाता है।
15वीं शताब्दी के अन्त में यूरोप से अमेरिका (1492 ई.) तथा भारत के समुद्री मार्ग (1498 ई.) की खोज के साथ भूगोल के क्षेत्र में अन्वेषण युग का प्रादुर्भाव हुआ। इन दोनों प्रमुख खोजों के समानान्तर अनेक लघु अन्वेषण यात्राओं की बाढ़ आ गई। लगभग डेढ़ सौ वर्षों के अन्तराल में पृथ्वीतल के सम्पूर्ण स्वरूप की प्रत्यक्ष जानकारी हो गई । 16वीं शताब्दी के मध्य बड़े अन्वेषणों का युग समाप्त हुआ। अब प्रत्यक्ष दर्शन के आधार पर पृथ्वी का गोलाभ स्वरूप सुनिश्चित हो गया।
उसके फलस्वरूप, पृथ्वी के अधिकांश (केवल ध्रुवीय प्रदेशों के अतिरिक्त) को प्रदर्शित करने के उपयुक्त मानचित्रों की आवश्यकता अनुभव हुई। तद्नुकूल नए मानचित्र प्रक्षेप विकसित करना अनिवार्य हुआ, जिसके लिए अनेक लोगों ने इस अवधि में प्रयास किए।
इसी प्रकार प्राचीनकाल में जो भी भौगोलिक तथ्य गणितीय आकलन एवं अटकलों पर प्रस्तुत किए गए थे उन्हें उस अवधि में प्रत्यक्ष दर्शन एवं मापन द्वारा सत्यापित करने के प्रयास हुए।
कॉपरनिकस ने इस अवधि में (1543) भौगोलिक दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक का प्रकाशन किया, जिससे Heliocentric World System अर्थात् सूर्य ब्रह्माण्ड के केन्द्रस्थल में है एवं सभी ग्रह इसकी परिक्रमा करते हैं, की संकल्पना की स्थापना हुई।
16वीं शताब्दी में चिन्तनफलक
यद्यपि सम्पूर्ण पृथ्वी की विस्तृत खोज 16वीं शताब्दी के मध्य तक पूर्ण हो चुकी थी, अभी उच्च अक्षांशों (आर्कटिक क्षेत्र) एवं महाद्वीपों के आन्तरिक भागों की जानकारी पूर्ण नहीं हुई थी। अब अंग्रेज, फ्रांसीसी तथा अन्य लोगों ने इस दिशा में प्रयास किए। मरकेटर (1512-1594) के प्रयत्नों से मानचित्रीकरण भी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया। म्यून्सटर तथा एपियन के मानचित्र विशेष उल्लेखनीय रहे। इसी अवधि में दर्शनशास्त्र के संस्थापक बेकन एवं दकार्ते का अभ्युदय हुआ जिन्होंने क्रमशः आगमनात्मक एवं निगमनात्मक तर्क पद्धतियों का श्रीगणेश किया तथा तत्त्वों के कार्य-कारण विश्लेषण पर बल दिया। इसी प्रकार मानव इतिहास में सर्वप्रथम वैज्ञानिक पद्धति पर चिन्तन प्रारम्भ हुआ तथा धर्मान्धता एवं चर्च की प्रमाणिकता से मुक्ति मिली। गैलेलियो ने भी इसी काल में भौतिक विज्ञान की आधारशिला रखी। त्रिभुजीकरण द्वारा स्थल-मापन में अभूतपूर्व प्रगति हुई। महाद्वीपों एवं महासागरों का वर्गीकरण भी इसी युग में अधिक तर्कसंगत विधि से हुआ। इस काल में पृथ्वीतल के प्राकृतिक तत्त्वों विशेषतः अजैविक तत्त्वों के अध्ययन को विशेष प्रश्रय मिला। सम्पूर्ण पृथ्वीतल का विवरण प्रस्तुत करने वाली पुस्तक वेरेनियस की Geographica Generalis इस युग के विस्तृत ज्ञान की परिचायक है। इस युग में भूतल के ज्ञात क्षेत्रों का विवरण प्रस्तुत करना भूगोल का उद्देश्य एवं विषय क्षेत्र था।
18वीं शताब्दी में चिन्तनफलक
18वीं शताब्दी के मध्य से भूगोल का प्रारम्भिक स्वरूप परिवर्तन होने लगा। शताब्दी के अन्त तक आधुनिक भूगोल की सुदृढ़ आधारशिला पड़ गई। इसका मुख्य श्रेय काण्ट को है, जिन्होंने 1756-1796 के मध्य अपने व्याख्यानों द्वारा भूगोल को अन्य विषयों के समक्ष एक दार्शनिक आधार प्रदान किया तथा इसका दृष्टिकोण स्पष्ट किया।
साथ ही अन्वेषण कार्य भी पुरजोर चलता रहा। जेम्स कुक की समुद्री यात्राओं से बहुत से नए क्षेत्र एवं तथ्य प्रकाश में आए। उष्णकटिबन्धीय अफ्रीका के आन्तरिक भागों के विषय में भी सम्यक् ज्ञान प्राप्त हुआ तथा उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्रों के विषय में भी जानकारी बढ़ी। इसी युग में स्थल एवं समुद्र का महाद्वीपों एवं महासागरों में विभाजन (पहचान) पूर्ण हुआ।
पहले से ज्ञात भूभागों में शोध के दृष्टिकोण से भी फोर्स्टर जैसे विद्वानों ने शोध यात्राएँ की । इनके समानान्तर गणितीय भूगोल एवं मानचित्रीकरण की दिशा में भी ठोस प्रगति हुई। मानचित्र प्रक्षेपों के वैज्ञानिक सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए तथा विभिन्न स्थानों के अक्षांश-देशान्तर निर्धारण में अधिक शुद्धता आई। फलस्वरूप, धरातल पत्रक भी प्रस्तुत किए जाने लगे। काण्ट तथा अन्य विद्वानों ने पृथ्वी की उत्पत्ति, महासागरों तथा महाद्वीपों का उद्भव, पर्वत निर्माण ज्वालामुखी, एवं भूकम्प - सम्बन्धी सिद्धान्त प्रस्तुत किए।
इसी प्रकार जलवायु, वनस्पति एवं जीव-जन्तु की विशेषताओं के सम्बन्ध में गहन विश्लेषण हुए। दूसरी ओर, बफन ने मानव के उद्भव एवं प्रजातिगत विभेदों पर प्रचुर प्रकाश डाला। इस काल की सम्पूर्ण विचारधारा पर रूसो, मॉनटेस्क्यू, वौलेटायर तथा पेस्टोलॉजी जैसे विचारकों एवं शिक्षकों का बहुत प्रभाव परिलक्षित होता है।
इन विचारकों ने एक स्थैतिक सामन्ती सामाजिक व्यवस्था को अस्वीकृत किया। उनके मतानुसार प्रत्येक समाज का अध्ययन उसके पर्यावरण तथा इतिहास के सन्दर्भ में होना चाहिए तथा सार्वभौम प्राकृतिक नियमों को समझाने का प्रयास करना चाहिए ताकि समाज का सही नियमन किया जा सके। अतएव इन्होंने भौगोलिक पर्यावरण के अध्ययन पर विशेष बल दिया। काण्ट ने जगत की वास्तविकता (Reality) की खोज में अन्य विज्ञानों के, जो जगत को सम्पूर्ण प्रदान करने वाले विभिन्न तत्त्वों का अलग-अलग अध्ययन करते हैं (जैसे—जलवायु विज्ञान, भौतिकी, भौमिकी, वनस्पतिशास्त्र, जन्तु विज्ञान आदि) के समानान्तर भूगोल की भूमिका स्पष्ट की। भूगोल जगत की सम्पूर्णता में समाहित प्रत्येक तत्त्व के क्षेत्रीय स्वरूप (Spatial features) का अध्ययन करता है। इस प्रकार यह विषय जगत की वास्तविकता के एक उपेक्षित आयाम को स्पष्ट करता है।
19वीं शताब्दी में चिन्तनफलक
19वीं शताब्दी में आधुनिक भूगोल का स्वरूप पूर्णरूपेण उमड़ा है। शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भौगोलिक-आकाश में दो दीप्तमान नक्षत्र हम्बोल्ट तथा रिटर प्रकट हुए जिन्होनें अपने ठोस योगदान द्वारा भूगोल की दिशा सुनिश्चित की। भौगोलिक विचारधारा के इतिहास में प्रथम बार सम्पूर्ण पृथ्वी को जीवन्त इकाई मानकर इसके विभिन्न क्षेत्रों में तत्त्वों के अन्तर्सम्बन्ध अन्तर्प्रक्रिया एवं तज्जनित भूदृश्यों पर ध्यान केन्द्रित किया गया। अब भूगोल का दायित्व नए क्षेत्रों का पता लगाने, ज्ञान क्षेत्रों में विभिन्न स्थानों की अक्षांश-देशान्तर के सन्दर्भ में सही अवस्थिति निश्चित करने अथवा उसको मानचित्र पर प्रदर्शित करने से ऊँचे उठकर भूतल पर अनेक तत्त्वों के पारस्परिक सम्बन्ध एवं अन्तर्प्रक्रिया का विश्लेषण हो गया।
इस प्रकार भूगोल मात्र एक विवरणात्मक अथवा अनुमानपरक विषय न रहकर विश्लेषणात्मक विषय हो गया। तथापि, इस विश्लेषण का अन्तिम , उद्देश्य मात्र जगत के बारे में ज्ञान प्राप्त करने तक सीमित नहीं था। इसका परम उद्देश्य प्रकृति अथवा जगत की चमत्कारिक रहस्यात्मकता अथवा विराट दिव्य सौन्दर्य को उद्घाटित करना था।
इसलिए हम्बोल्ट तथा रिटर दोनों ही मूर्धन्य विद्वानों ने पृथ्वी को जड़ जगत के रूप में नहीं वरन् जीवन्त समग्र सृष्टि के रूप में देखा तथा उसकी चमत्कारिक विश्लेषणता को समझने एवं उद्घाटित करने का प्रयास किया। अतएव भौगोलिक चिन्तन के इतिहास में इस अवधि को छायावादी युग कहा जा सकता है।
रिटर ने 'मानव निवास्य के रूप में पृथ्वी का अध्ययन' भूगोल का विषय माना। हेटनर के अनुसार इसका उद्घाटन 1799 ई. में हुआ जब हम्बोल्ट अपनी दक्षिणी अमेरिका यात्रा पर निकले। न केवल भूगोल वरन् सम्पूर्ण शैक्षणिक जगत में यह युग छायावादी युग था जब प्रकृति एवं जगत के हर तत्त्व को विलक्षण चमत्कारिक एवं रहस्यपूर्ण समझा जाता था। हेगोल, गेटे, फिख्ट आदि दार्शनिकों का इस प्रवृत्ति को प्रथम स्थान देने में स्पष्ट प्रभाव था। रिटर विश्व के विभिन्न भागों में भौतिक स्वरूप की विभिन्नता को ईश्वरीय योजना के रूप में देखते थे।
20वीं शताब्दी में चिन्तनफलक
वातावरण-मानव अन्तर्सम्बन्ध को भूगोल का विषय क्षेत्र मानने के प्रति 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही आलोचना भी प्रारम्भ हो गई थी जो वर्ष 1925 में सावर की पुस्तक (Morphology of Landscape) के प्रकाशन के पश्चात् अधिक मुखर हो गई। ध्यान देने की बात यह है कि इस संकल्पना का प्रारम्भ जर्मनी में रैटजेल की पुस्तक मानव भूगोल के प्रकाशन से माना गया था, परन्तु जर्मनी में रैटजेल की इस संकल्पना को उतनी मान्यता नहीं प्राप्त हुई जितनी 1883 ई. रिचयॉकेन द्वारा प्रस्तुत भूगोल की क्षेत्र-विश्लेषण (Chorology) की संकल्पना को। आलोचकों जिनमें जर्मनी में हैटनर तथा अमेरिका में सावर प्रमुख हैं, ने प्राकृतिक दशाओं का मानव समुदाय या मानव कार्यकलाप पर प्रभाव को भूगोल का अध्ययन वस्तु- मानने में निम्न आपत्तियाँ उठाई।
- हैटनर के अनुसार, प्राकृतिक कारकों से प्रारम्भ करके मानकृत तत्त्वों की व्याख्या तक जाना सही नहीं है। सही ढंग तो यह होता कि मानवकृत तत्त्वों को वर्गीकृत करने के पश्चात् उनकी भौतिक जड़ों (कारकों) को ढूंढा जाता। बैरोज ने भी वर्ष 1922 में इस पर जोर दिया कि भूगोल में अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या मानव द्वारा पर्यावरण में समायोजन से प्रारम्भ करके की जानी चाहिए न कि विपरीत विधि से अर्थात् पर्यावरण के मानव पर प्रभाव से ।
- वस्तुतः पर्यावरण का मानव पर नियन्त्रण अथवा प्रभाव के अध्ययन में पर्यावरण का विवेचन विशुद्ध भूगोल मान लिया जाता है और अनेक विद्वानों ने प्राकृतिक पर्यावरण को भौगोलिक कारक, मानव भूगोल को इस कारक का मानव पर प्रभाव के रूप में ही माना गया। इससे भूगोल का 'एकात्मक स्वरूप' विनष्ट होता है।
सावर के अनुसार अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन करने वाले विषय के रूप में भूगोल के पास अध्ययन हेतु कोई ठोस उद्देश्य नहीं रह जाता। न ही भूगोल की कोई विशिष्ट एवं सन्तोषप्रद विधि बच जाती है। हैटनर के शब्दों में, किसी विशिष्ट तथ्य -समूह के सन्दर्भ में परिभाषित न होकर, मात्र कल्पित कार्य-कारण सम्बन्ध के सन्दर्भ में भूगोल मात्र पराश्रित होकर रह जाता है।
20वीं शताब्दी (उत्तरार्द्ध) में चिन्तनफलक
एक ओर प्रत्यक्षवाद प्रेरित भूगोल को वैज्ञानिकता से महिमा मण्डल करने के इस प्रयास में मॉडल निर्माण सिद्धान्त एवं सिद्धान्त निरूपण पर जोर दिया गया, तो दूसरी ओर द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् साम्राज्यवाद के पतन एवं आर्थिक पुनर्निर्माण की समस्या के निराकरण के लिए सभी देशों में आर्थिक विकास हेतु प्रादेशिक नियोजन पर बल दिया जाने लगा।
अब भूगोलवेत्ताओं वॉन थ्यूनन की कृषि वलय सिद्धान्त वेबर एवं अन्य (हुबर लॉश) की औद्योगिक अवस्थिति एवं क्रिस्टालर के केन्द्र स्थल सिद्धान्त की ओर आकृष्ट हुआ। सर्वथा समरूप सतह की प्राक्कपथ के साथ अवस्थिति एवं प्रतिरूप का विश्लेषण किया जाने लगा। वर्ष 1955 में प्रकाशित हैगेट की पुस्तक 'Locational Analysis in Human Geography' ने सभी सिद्धान्तों एवं मॉडलों का समन्वयन करते हुए एक सामान्य मॉडल आधारित चिन्तनफलक का मार्ग प्रशस्त किया। मॉडल निर्माण हर भौगोलिक अनुसन्धान का लक्ष्य बन गया। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु सांख्यिकीय विधियों एवं कम्प्यूटरों का व्यापक उपयोग होने लगा। इस प्रकार इस अवधि में सांख्यिकीय क्रान्ति हुई। विभिन्न घटकों (केन्द्रस्थल, उद्योग, कृषि, परिवहन) की अवस्थिति एवं वितरण प्रतिरूप के आदर्श मॉडल के निरूपण में जटिल संख्यिकीय विधियों ज्यामितिक सूत्रों एवं प्राकृतिक विज्ञान के नियमों का अधिकारिक सहारा लिया जाने लगा। इस प्रकार इस नवीन चिन्तनफलक के अन्तर्गत भूगोल की निम्न परिभाषा प्रचलित हुई।
भूगोल भू-वैन्यासिक संगठन के प्रतिरूप एवं प्रक्रिया का अध्ययन करने वाला भू विषय है। भू-वैन्यासिक संगठन की संकल्पना में प्रत्यक्षवाद का दृष्टिकोण प्रमुख हो जाता है।
प्रत्यक्षवाद (Positivism)
फ्रांसीसी दार्शनिक ऑगस्ट काटे (1798-1857) को प्रत्यक्षवाद का जन्मदाता माना जाता है। ऑगस्ट काम्टे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'प्रत्यक्ष दर्शन (Positive Philosophy)' का प्रकाशन 5 खण्डों में 1830 से 1842 के मध्य किया था। उनके अनुसार, प्रत्यक्षवाद का अर्थ 'वैधानिकता' से है। वैज्ञानिक विधियों में कल्पना का कोई स्थान नहीं होता है और ये निरीक्षण, परीक्षण, प्रयोग तथा वर्गीकरण की एक व्यवस्थित कार्यप्रणाली होती है। इस प्रकार "प्रत्यक्षवाद का अर्थ निरीक्षण-परीक्षण, प्रयोग और वर्गीकरण पर आधारित वैज्ञानिक पद्धति द्वारा सब कुछ समझना तथा उससे ज्ञान प्राप्त करना है । "
प्रत्यक्षवाद अपने को धार्मिक तथा तात्त्विक विचारों से दूर रखने का प्रयत्न करता है। यह कल्पना अथवा ईश्वरीय महिमा के आधार पर नहीं, बल्कि निरीक्षण, परीक्षण प्रयोग तथा वर्गीकरण की वैज्ञानिक कार्य प्रणाली के आधार पर सामाजिक घटनाओं की व्याख्या करता है। प्रायः सभी विज्ञानों में नियम का विकास तीन चरणों में हुआ है
- प्रथम चरण धार्मिक अवस्था की होती है, जिसके अन्तर्गत सभी प्रकार के तत्त्वों की व्याख्या ईश्वरीय इच्छा के रूप में की जाती है। इस अवस्था का प्रमुख सिद्धान्त होता है, जिसके अनुसार मानव समाज की उत्पत्ति तथा अस्तित्व ईश्वर की इच्छा पर आधारित है।
- दूसरे चरण में सामाजिक संगठन तथा राज्य शक्ति के स्वरूपों में परिवर्तन होता है तथा ईश्वरी शक्ति का प्रभाव कम होने लगता है और प्राकृतिक अधिकार का प्रभाव बढ़ता है इसे तत्त्व मीमांसा कहा जाता है।
- तीसरा चरण प्रत्यक्ष अवस्था का होता है। यह चरण पहले के दोनों चरणों से अलग है। प्रत्यक्षवादी व्यवस्था का आधार वैज्ञानिक विधि अर्थात् निरीक्षण, परीक्षण, प्रयोग तथा वर्गीकरण की व्यवस्थित कार्यप्रणाली है।
ऑगस्ट ने प्रत्यक्षवाद का प्रतिपादन विज्ञान को धर्म (Religion) और तत्त्व मीमांसा से अलग करने के उद्देश्य से किया था। इस प्रकार विज्ञान को प्रत्यक्षानुभव से संयुक्त करने के प्रयत्न को ही प्रत्यक्षवाद (Positivism) कहा जा सकता है।
ऑगस्ट के अनुसार यदि हम सामाजिक अध्ययन को वैज्ञानिक स्तर पर लाना चाहते हैं, तो सामाजिक अध्ययन के क्षेत्र में भी धार्मिक तथा तात्त्विक विचारधारा का त्याग उचित होगा। प्रत्यक्षवादी एक समय में केवल उन घटनाओं का ही अध्ययन करता है जहाँ तक उस घटना से सम्बन्धित तथ्यों का वास्तविक निरीक्षण तथा परीक्षण सम्भव होता है।
भौगोलिक चिन्तन पर प्रत्यक्षवाद का प्रभाव 1950 एवं 1960 के दशक में पड़ा। भौगोलिक चिन्तन में आया व्यापक परिवर्तन कई अर्थों में क्रान्तिकारी परिवर्तन था, क्योंकि उसके परिणामस्वरूप अनेक प्रचलित पुरानी मान्यताओं को अस्वीकार करके बिल्कुल नवीन मान्यताओं का प्रचार-प्रसार हुआ। भौगोलिक चिन्तन के इस परिवर्तित पर्यावरण में सर्वथा नई अध्ययन विधियों का विकास हुआ। भौगोलिक अध्ययन में यह परिवर्तन मात्रात्मक क्रान्ति के रूप में सम्मुख आया। प्रत्यक्षवाद के प्रभाव के परिणामस्वरूप उत्पन्न मात्रात्मक क्रान्ति के अन्तर्गत उन घटनाओं, तथ्यों तथा सम्बन्धों के अध्ययन पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा जिसे प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। इस प्रकार भूगोल में गणितीय तथा सांख्यिकीय विधियों का खूब प्रयोग किया जाने लगा। भौगोलिक अध्ययन में मात्राकरण पर अधिक बल दिया गया। यूरोप तथा अमेरिका में भौगोलिक अध्ययन में वैज्ञानिक विश्लेषण पद्धति और मात्रात्मक विधियों का व्यापक प्रयोग किया जाने लगा।
“वियना सम्प्रदाय" के विद्वानों (वैज्ञानिकों एवं गणितज्ञों) के प्रयासों से 1920-25 के मध्य प्रत्यक्षवाद अपनी पराकाष्ठा पर था।
इन विद्वानों के विचार-विमर्श के पश्चात् प्रत्यक्षवाद की निम्नांकित मान्यताओं को स्वीकार किया
- ज्ञान प्राप्ति मूल्य निरपेक्ष होना चाहिए।
- विभिन्न विज्ञानों (अध्ययनों) की अध्ययन विधि में समानता होनी चाहिए।
- किसी विज्ञान की समस्त शाखाएँ एवं उपशाखाएँ तथा सभी प्रकार के प्रत्यक्षानुभव आधारित ज्ञान एक समेकित विज्ञान है।
- सिद्धान्त (Theory) और प्राक्कल्पना (Hypothesis) में स्पष्ट अन्तर होना आवश्यक है। प्राक्कल्पना किसी पूर्व स्थापित सिद्धान्त से निःसृत एक ऐसी पूर्व मान्यता होती है, जिसका सत्यापन प्रत्यक्ष तथ्यों से नहीं हुआ होता है।
प्रत्यक्षवाद की प्रमुख विशेषताएँ
प्रत्यक्षवाद की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- प्रत्यक्षवाद का आधार यथार्थ ज्ञान है, यह ईश्वरवादी या भाग्यवादी नहीं हो सकता।
- प्राकृतिक घटनाओं की भाँति सामाजिक घटनाएँ भी निश्चित नियमों के अनुसार घटित होती हैं, जिनकी खोज वास्तविक निरीक्षण, परीक्षण तथा प्रयोग द्वारा की जा सकती है।
- प्रत्यक्षवाद उन घटनाओं या तथ्यों से सम्बन्धित नहीं है, जिसका प्रत्यक्ष दर्शन या निरीक्षण नहीं किया जा सकता।
- वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रत्यक्षवाद की आधारशिला है और यह अपनाअध्ययन वास्तविक निरीक्षण, परीक्षण तथा प्रयोग द्वारा वैज्ञानिक पद्धति से पूर्ण करता है।
- प्रत्यक्षवाद का सम्बन्ध वास्तविकता से है कल्पना या विश्वास से नहीं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रत्यक्षवाद का प्रमुख उद्देश्य मानव मस्तिष्क को धार्मिक तथा तात्त्विक धारणाओं से मुक्ति दिलाकर सामाजिक अनुसन्धान को वैज्ञानिक स्तर पर पहुँचाना है। प्रत्यक्षवाद-भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र आदि प्राकृतिक विज्ञानों की अध्ययन पद्धति को सामाजिक अध्ययनों में प्रयोग करके सामाजिक विज्ञानों को भी यथासम्भव यथार्थ बनाना चाहता है। सामाजिक तथ्यों के निरीक्षण, परीक्षण तथा वर्गीकरण की व्यवस्थित कार्यप्रणाली द्वारा प्राप्त वास्तविक (प्रत्यक्ष) ज्ञान के द्वारा सामाजिक पुनर्निर्माण या पुनर्संगठन को सम्भव बनाया जा सकता है।
इस प्रकार, प्रत्यक्षवाद एक दार्शनिक दृष्टिकोण है, जिसका प्रयोग प्रत्यक्षानुभव आधारित, मूल्य निरपेक्ष, स्वयंसिद्ध, वस्तुनिष्ठ, आदर्शोन्मुख तथा समवेत ज्ञान की प्राप्ति के लिए किया जाता है। प्रत्यक्षवाद और मात्रात्मक विधियों के प्रयोग से शीघ्र ही भूगोलवेत्ताओं का मोहभंग होने लगा। 1960 के दशक के मध्य से प्रत्यक्षवाद तथा मात्रात्मक विधियों के प्रयोग की आलोचनाएँ की जाने लगीं और उनका प्रयोग धीमा होने लगा। प्रत्यक्षवाद का सबसे बड़ा दोष यह था कि उसके अन्तर्गत सभी प्रकार के भूदृश्यों तथा स्थलरूपों को ज्यामितीय आकृति के रूप में विश्लेषित करने का प्रयास किया गया और मानव मूल्यों एवं मानव व्यवहार की पूर्ण उपेक्षा की गई। इसके अन्तर्गत मानव मूल्यों तथा आचरण को भी गणितीय एवं सांख्यिकीय सूत्रों के माध्यम से विश्लेषित करने का प्रयास किया गया, जिससे निकाले गए परिणाम वास्तविकता से काफी दूर थे। अपनी इन कमियों के कारण 1960 के दशक के मध्य तक मात्रात्मक क्रान्ति शिथिल पड़ गई।
व्यवहारवाद (Behaviouralism)
1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में मानव भूगोलवेत्ता यह अनुभव करने लगे थे कि मानव भूगोल के क्षेत्र में गणितीय तथा सांख्यिकीय विधियों द्वारा किया जाने वाला वस्तुनिष्ठ अध्ययन सामान्यतः भानव जीवन की वास्तविकता पर आधारित नहीं था।
वैज्ञानिक समीक्षा से यह बात उत्तरोत्तर स्पष्ट होती गई कि अमूर्त मॉडलों तथा गणितीय सूत्रों के आधार पर किए गए शोधों के परिणाम प्रायः सम्बन्धित क्षेत्रों की वस्तुस्थिति से मेल नहीं खाते थे। इस प्रकार भूगोलवेत्ताओं में मात्रात्मक तथा आनुभविक भूगोल के प्रति असन्तोष व्याप्त हो गया। इस कारण मानव भौगोलिक अध्ययनों में पर्यावरण बोध (Environmental Parception) को केन्द्रीय महत्त्व दिया जाने लगा और अब आर्थिक विवेक के स्थान पर मानवीय बोध भौगोलिक चिन्तन का मूलाधार बन गया। इस नए भौगोलिक चिन्तन को व्यवहारपरक या आचारपरक भूगोल (Behavioural geography) का नाम दिया गया।
व्यवहारवाद का मूल दर्शन संवृतिशास्त्र या घटना क्रिया विज्ञान (Phenomenology) जो मूल्य निरपेक्ष और वस्तुनिष्ठ अध्ययन को अपूर्ण मानता है तथा मनुष्यों के अनुभव एवं संज्ञान को अधिक महत्त्व प्रदान करता है। व्यवहारवाद की मूल मान्यता थी कि मनुष्य एक विवेकशील तथा संवेदनशील प्राणी है और अपने पर्यावरण के सम्बन्ध में उसके द्वारा लिए गए निर्णय प्रत्यक्ष कार्य-कारण प्रतिक्रिया का प्रतिफल न होकर वास्तविक स्थिति के मानसिक बोध के परिणाम होते हैं।
व्यवहारपरक अध्ययन की विधा में इस तथ्य की खोज का प्रयास किया जाता है कि किसी कार्य को करने या न करने के सन्दर्भ में मनुष्य को निर्णय को उसका व्यक्तिगत व्यवहार किस प्रकार और किस सीमा तक प्रभावित करता है।
व्यवहारपरक भूगोल में मानव व्यवहार (आचरण) को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है और तथ्यों के भौगोलिक विश्लेषण में मनुष्य के व्यक्तिगत या सामूहिक आचरण को प्राथमिकता दी जाती है। इसी प्रकार जनसंख्या स्थानान्तरण के अध्ययन में स्थानान्तरण के लिए उत्तरदायी कारकों में सर्वाधिक महत्त्व मानव व्यवहार को दिया जाता है।
भौगोलिक क्षेत्र में व्यवहारवाद का महत्त्व
1960 के दशक के पहले से ही भौगोलिक व्याख्या में मानव व्यवहार तथा बोध या अनुभूति की भूमिका पर अनेक विद्वानों ने ध्यान किया तथा इसके सम्बन्ध में तर्कों को भी प्रस्तुत किया। जिनमें मुख्य विद्वान् कार्ल सावर जे. के. राइट (1926, 1947), जी. एफ. ह्वाइट और विलियम किर्क (1951) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं, किन्तु तत्कालीन परिस्थितियों में इन विद्वानों के विचार भौगोलिक चिन्तन को नई दिशा नहीं दे सके।
व्यवहारवादी चिन्तन के आरम्भिक विकास में विलियम किर्क का योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उन्होंने अपने लेखों (1951-63) के माध्यम से भौगोलिक अध्ययन में व्यावहारिक पर्यावरण के महत्त्व पर बल दिया। किर्क ने मनुष्य को चैतन्य, तार्किक और सोद्देश्य बताया, किन्तु उसे आर्थिक मानव के रूप में नहीं स्वीकार किया। किर्क ने इस बात पर भी बल दिया कि व्यावहारिक पर्यावरण वास्तविकता तथा सांस्कृतिक मूल्य की अन्तःक्रिया का प्रतिफल होता है।
जूलियन वोल्पर्ट (अमेरिकी भूगोलवेत्ता) के 1964 में प्रकाशित लेख “The Decision Process in Spatial Contrext' की भूमिका व्यवहारवादी उपागम के विकास में सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। उस समय प्रचलित मात्रात्मक अध्ययन पद्धति से भूगोल के विद्यार्थियों का मोहभंग होने लगा था। समय की माँग के अनुसार वोल्पर्ट के शोधपत्र ने भूगोल जगत को नई दिशा दिखाई और शीघ्र ही व्यवहारवादी चिन्तन मानव भूगोल के अध्ययन का प्रमुख उपागम तथा अभिन्न अंग बन गया।
वोल्पर्ट का यह शोधपत्र स्वीडन के एक ग्रामीण क्षेत्र के भूमि उपयोग पर किए गए क्षेत्र सर्वेक्षण पर आधारित था। 'प्रवास के लिए निर्णय के व्यवहारवादी पक्ष' शीर्षक से वोल्पर्ट का दूसरा लेख 1965 में प्रकाशित हुआ। इसके पश्चात् उन्होंने व्यवहारपरक भूगोल से सम्बन्धित कुछ अन्य लेख भी प्रकाशित किए। व्यवहारवादी मान्यताओं एवं धारणाओं का प्रचार-प्रसार भूगोल में अर्थशास्त्र के माध्यम से आया था। 1950 के दशक में अनेक अर्थशास्त्री मानव व्यवहार में आर्थिक विवेक की क्रियाशीलता सम्बन्धी संकल्पना की सत्यता को अमान्य करने लगे थे।
1956 में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री साइमन का एक महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें इस धारणा का जोरदार खण्डन किया गया था कि मानव व्यवहार सदैव अधिकतम लाभ प्राप्त करने हेतु प्रेरित होता है। उनका निष्कर्ष था कि सामान्यतया व्यक्ति या मानव समूह व्यावहारिक रूप से अपनी वस्तुस्थिति की सीमाओं के अन्दर ही सन्तोषजनक लाभ प्राप्त करने का प्रयास करता है। वोल्पर्ट का उद्देश्य अपने अध्ययन में साइमन द्वारा प्रस्तुत सन्तोषप्रद निर्णय सम्बन्धी संकल्पना का सत्यापन करना था।
वोल्पर्ट ने अपने अध्ययनों ( 1964 एवं 1965) से यह निष्कर्ष निकाला कि व्यक्तियों के निर्णय का उद्देश्य अधिकतम सन्तोष प्राप्त करना था न कि अधिकतम लाभ। उनके अनुसार निर्णय प्रक्रिया में कृषकों के सांस्कृतिक मूल्यबोध की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इस प्रकार हम पाते हैं कि वोल्पर्ट द्वारा प्रकाशित विभिन्न शोधपत्रों के प्रकाशन के साथ ही भौगोलिक अध्ययन में व्यवहारवादी चिन्तन एक प्रमुख चिन्तनधारा के रूप में स्थापित हो गया। वर्ष 1969 में इन शोधपत्रों का संकलन एक पुस्तक के रूप में काक्स और गोलिज ने किया था। इन सम्पादकों के अनुसार व्यवहारपरक भूगोल अध्ययन की वह शाखा है, जो मानव व्यवहार सम्बन्धी मान्यताओं के आधार पर भौगोलिक सिद्धान्तों के प्रकाशन का प्रयास करती है।
1960 के दशक में व्यवहारपरक भूगोल में 'मस्तिष्क का भूगोल' (Geography of Mind) अथवा 'मानसिक मानचित्र' (Mental map) का अध्ययन अधिक लोकप्रिय हो गया। मस्तिष्क का भूगोल और मानसिक मानचित्र पर डाउन्स एवं स्टी और गोल्ड एवं ह्वाइट की रचनाओं का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। 1970 के दशक के अन्तिम वर्षों में मानव भूगोल में व्यवहारवादी परिदृष्टि इतनी व्यापक हो गई थी कि इसके अध्ययन विषयों की अलग-अलग पहचान करना कठिन हो गया।
किर्क ने इस बात पर बल दिया कि व्यावहारिक पर्यावरण वास्तविकता तथा सांस्कृतिक मूल्य की अन्तःक्रिया का प्रतिफल होता है और प्रत्येक मानव क्रिया बाह्य पर्यावरण के साथ ही मनोवैज्ञानिक तथ्यों से भी प्रभावित होती है। भौगोलिक अध्ययन में व्यवहारवादी उपागम के विकास में विलियम किर्क, जूलियन वोल्पर्ट, काक्स, गोलिज, गूड़ी, डाउन्स, विलियम्सन आदि विद्वानों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
उत्तर आधुनिकतावाद (Post Modernism)
'उत्तर आधुनिकतावाद' शब्दावली का प्रयोग भिन्न-भिन्न विषयों से सम्बद्ध विभिन्न लेखकों ने भिन्न-भिन्न अर्थों तथा सन्दर्भों में किया है। उत्तर आधुनिकतावाद, आधुनिकतावाद की अन्तिम अथवा आधुनिकतावाद के पश्चात् की अवस्था का द्योतक है, किन्तु उत्पत्ति की दृष्टि से दोनों के बीच का आधारभूत अन्तर अभी तक अधिक स्पष्ट नहीं है।
जानसन, ग्रेगरी तथा स्मिथ द्वारा सम्पादित 'The Dictionary of Human Geography (1994)' में आधुनिकता शब्द की परिभाषा इस प्रकार दी गई है आधुनिकता का अभिप्राय शक्ति, ज्ञान तथा सामाजिक व्यवहार पद्धति के ऐसे विशिष्ट संयोग से है जो परिमार्जन की क्रमबद्ध प्रक्रिया के माध्यम से सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक सम्पूर्ण विश्व में सामाजिक चिन्तन और व्यवहार का प्रतिरूप बन गया था।
19वीं शताब्दी के आरम्भ में आधुनिकता बाजार आधारित आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था का पर्याय बन गई तथा सामाजिक परिवर्तनों की गति पहले से तीव्र हो गई। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में क्रान्तिकारी प्रौद्योगिकीय विकास तथा सूचना प्रणाली की प्रगति के परिणामस्वरूप परिवर्तन प्रक्रिया इतनी तीव्र हो गई कि सामाजिक जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में पहचान का संकट उत्पन्न हो गया। उत्तर आधुनिकतावाद के अन्तर्गत स्थान (भूगोल) को काल या समय (इतिहास) के अधीनस्थ कर दिया जाता है। उत्तर आधुनिक भूगोलवेत्ता अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक तथा आर्थिक-राजनीतिक मान्यताओं की भाँति भूगोल को भी परम्परागत मान्यताओं से मुक्त कराने और उसे स्वच्छन्द बनाने के पक्षधर हैं।
यद्यपि उत्तर आधुनिकतावाद को निश्चित परिभाषा में आबद्ध करना कठिन है, किन्तु उसकी सामान्य विशेषताओं में उच्चतर प्रगतिशीलता, स्वच्छन्दता, उदारता, भौतिकता आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चतुर्थांश में विकसित आधुनिकता से अधिक प्रगतिशील, स्वच्छन्द, उदार तथा अर्थ एवं भौतिकता प्रधान सामाजिक विचारधारा को उत्तर आधुनिकतावाद कहा जा सकता है।
उत्तर आधुनिकतावाद के साथ समाज की वैचारिक प्रगति का युगान्तर बोध अनिवार्य रूप से संयुक्त होता है। उत्तर आधुनिकवाद एक युग या युगान्तर का द्योतक है, जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक या वैचारिक मान्यताओं को राजनीतिक तथा मुक्त आर्थिक व्यवस्था की वैश्विक प्रक्रिया के सन्दर्भ में देखने का प्रयास किया जाता है।
सम्भवतः कुछ समालोचकों ने उत्तर आधुनिकतावाद को पूँजीवाद के विकास के अन्तिम चरण की सांस्कृतिक चेतना बताया है। आर. डी. दीक्षित (2000) के शब्दों में, “उत्तर आधुनिकतावादी चिन्तन ने आधुनिकतावादी समाज वैज्ञानिक चिन्तन की सार्वभौमिकतावादी और समरूपतावादी सिद्धान्तपरक व्याख्या को नकार दिया। इस प्रकार, उत्तर आधुनिकतावाद एक ऐतिहासिक काल या युगान्तर (epoch) का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें एक सार्वभौम अर्थव्यवस्था तथा भू-राजनीतिक के विकास में संस्कृति और दर्शन में परिवर्तन स्वयं अवस्थित है। उत्तर आधुनिकतावाद मुख्य रूप से अर्थप्रधान तथा पूँजीवादी संस्कृति है।
भूगोल में उत्तर आधुनिकतावाद
उत्तर आधुनिकतावाद के पोषक तथा समर्थक भूगोलवेत्ताओं ने अपने भौगोलिक अध्ययनों में उसका सहारा लिया है। मानव भूगोल में उत्तर आधुनिकतावाद को उत्तर चिन्तनफलक के रूप में समझाया जा सकता है। मानव भूगोल में उत्तर आधुनिकतावाद को उत्तर चिन्तनफलक (Post paradigm) के रूप में समझा जा सकता है। उत्तर आधुनिकतावादी भूगोलवेत्ताओं तथा शोधकर्ताओं ने 1950 से 1980 तक प्रभुत्व वाले सभी चिन्तनफलकों; जैसे- प्रत्यक्षवाद, संरचनावाद, व्यवहारवाद, मानववाद तन्त्र विश्लेषण आदि को अस्वीकार कर दिया है। उत्तर आधुनिक लेखक परम्परावादी मानविकी तथा सामाजिक विज्ञानों की समस्त महत्त्वाकांक्षा के प्रति विरोधी रुख रखते हैं।
डीयर (D. Dear 1986) के शब्दों में, “उत्तर आधुनिकतावादी चिन्तन सामाजिक सम्बन्धों के क्षेत्र में किसी प्रकार के सार्वभौम सिद्धान्त को सन्देह की दृष्टि से देखता है और ऐसे सिद्धान्तों के प्रतिपादन की सम्भावना को अस्वीकार करता है। उत्तर आधुनिकतावादी मानव भूगोल सामाजिक प्रक्रिया की स्थान तथा समय सम्बन्धी सापेक्षता के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित सन्दर्भपरक विज्ञान है।
1980 के आस-पास भूगोल और समाजशास्त्र के बीच का द्वैध समाप्त हो गया। अब भौगोलिक अध्ययन पद्धति वस्तुस्थिति को समझने, इसके रहस्यों मौलिक विशिष्टता के विश्लेषण से संयुक्त हो गई। का उद्घाटन करने तथा भिन्न-भिन्न स्थानों और उनमें रहने वाले लोगों की इसी दशक में मानव तथा मानव संस्कृति पर केन्द्रित विभिन्न विषयों के बीच वैचारिक आदान-प्रदान बिना किसी रोक-टोक के होने लगा। इस प्रकार मानव भूगोल ने आधुनिकतावाद से उत्तर आधुनिकता की ओर अपने विचार परिवर्तन की यात्रा पूरी कर ली। ग्रेगरी के शब्दों में, “उत्तर आधुनिकतावादी चिन्तन को आधुनिकतावादी चिन्तन पर समसामयिक सन्दर्भ में की गई टिप्पणी के रूप में देखना अधिक यथार्थपूर्ण होगा।"
उत्तर आधुनिकतावादी भूगोल ने भौगोलिक अध्ययन क्षितिज के व्यापक बनाने के उद्देश्य से भूगोल के सीमान्त को सभी प्रकार के वैज्ञानिक तथा दार्शनिक चिन्तन के लिए समान रूप से खोल दिया जिसके प्रति फलस्वरूप सिद्धान्तपरक समाज वैज्ञानिक चिन्तन और मानव भूगोल के मध्य स्वतन्त्र तथा निर्बाध रूप से वैज्ञानिक आदान-प्रदान होने लगा। ग्रेगरी ने उत्तर आधुनिकतावादी मानव भूगोल की तीन प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया है जो निम्नलिखित हैं
- ग्रेगरी के अनुसार, सामाजिक व्याख्या स्थान और काल सापेक्ष है। उत्तर आधुनिकतावादी भूगोलवेत्ता अध्ययन के लिए चुनी गई क्षेत्रीय इकाई और उससे सम्बद्ध समस्याओं को वहाँ के निवासियों की दृष्टि से देखने पर बल देता है।
- उत्तर आधुनिकतावादी चिन्तन सामाजिक इकाइयों की परिपूर्णता सम्बन्धी संकल्पना और उसकी इस मान्यता को पूरी तरह अस्वीकार करता है कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया ऐतिहासिक प्रक्रिया है और उसका प्रभाव संसार की सभी सामाजिक इकाइयों पर समान रूप से होता है।
- उत्तर आधुनिक भूगोल, मानव भूगोल की ऐतिहासिक मान्यताओं से जुड़ा हुआ है और मानव जीवन की मूलभूत क्षेत्रीयता इसके अध्ययन का केन्द्रीय विषय है।
- माजिद हुसैन (2002) के अनुसार, “उत्तर आधुनिकतावाद का एक विशिष्ट लक्षण विषमांगता, विशिष्टता और अद्वितीयता के लिए इसमें विद्यमान संवेदनशीलता है। इस प्रकार परिणाम क्षेत्रीय विभेदशीलता की ओर असामान्य वापसी है, किन्तु यह वापसी एक अन्तराल से हुई है।”
संरचनावाद (Structuralism)
संरचनावाद मानव विज्ञान एक ऐसी पद्धति है, जो संकेत विज्ञान (यानि संकेतों की प्रणाली) और सहजता से परस्पर सम्बन्ध भागों की एक पद्धति के अनुसार तथ्यों के विश्लेषण करने का प्रयास करती है।
स्वीडन के सिद्धान्त भाषाविद् फर्डिनेन्ड द सस्यूर (Ferdinand D Saussure) इसके प्रवर्तक माने जाते हैं जिन्हें हिन्दी में सस्यूर नाम से जाना जाता है। उनके अनुसार संरचनावादी तरीके को विभिन्न क्षेत्रों; जैसे-नृविज्ञान, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान और यहाँ तक कि वास्तुकला में भी लागू किया जाता है।
संरचनावाद ने एक विधि के रूप में नहीं, बल्कि एक बौद्धिक आन्दोलन के रूप में प्रवेश किया जो 1960 के दशक में फ्रांस में अस्तित्ववाद की जगह लेने आया था।
20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में संरचनावाद को शिक्षा में शामिल किया गया और भाषा, संस्कृति तथा समाज के विश्लेषण से सम्बन्धित शिक्षा के क्षेत्रों में यह सबसे अधिक लोकप्रिय तरीकों में से एक बन गया। फर्डिनेन्ड दी सस्यूर ने भाषा शास्त्र से सम्बन्धित कार्य को साधारण तौर पर संरचनावाद का प्रारम्भिक बिन्दु माना जाता है। संरचनावाद संकेतिकता से बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है। उत्तर संरचनावाद ने स्वयं को संरचनात्मक विधि के सरल प्रयोग से अलग करने का प्रयास किया। डिकंस्ट्रक्शन (Deconstruction) संरचनात्मक विचारों से स्वयं को अलग करने की कोशिश की थी। उदाहरण के लिए, नूलिया क्रिस्टेवा जैसे बुद्धिजीवियों ने बाद में उत्तर संरचनावादी बनाने के लिए, संरचनावाद को एक प्रारम्भिक बिन्दु के रूप में लिया।
संरचनावाद ने मानव स्वतन्त्रता और पसन्द की अवधारणा को खारिज कर दिया और इस बात पर जोर दिया कि मानव व्यवहार विभिन्न संरचनाओं से निर्धारित होता है।
इस बारे में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रारम्भिक कार्य क्लार्ड लेवी स्टार्स का संस्करण एलेमेन्ट्री स्ट्रक्चर्स ऑफ किंगसिप था। लेवी स्टार्स प्रथम विश्व युद्ध के दौरान न्यूयॉर्क में जैब्सन के सम्पर्क में आए थे और वे जैकब्सन के संरचनावाद और अमेरिकी मानव विज्ञान परम्परा दोनों से प्रभावित थे। मिशेल फोकाल्ट की पुस्तक 'द ऑर्डर फॉर थिंग्स' ने यह पता लगाने के लिए विज्ञान के इतिहास की जाँच की थी। ज्ञानमीमांसा या ज्ञान की संरचनाओं ने किस तरह ऐसा मार्ग बनाया, जिससे लोगों ने ज्ञान और जानकारी की कल्पना की। मार्क्स और संरचनावाद का सम्मिश्रण कर एक अन्य फ्रांसीसी विचारक लुई एल्थुजर ने संरचनात्मक सामाजिक विश्लेषण के नाम से परिचित कराया और संरचनात्मक मार्क्सवाद को विस्तार दिया। तब से फ्रांस और विदेशों में अन्य लेखकों ने संरचनात्मक विश्लेषण को हर व्यवस्था में व्यावहारिक रूप से विस्तारित किया। अपनी लोकप्रियता के परिणामस्वरूप संरचनावाद की परिभाषा भी स्थानान्तरित हो गई। एक आन्दोलन के रूप में अपनी लोकप्रियता के विस्तृत होने और फीके पड़ जाने के बाद कुछ लेखकों ने केवल बाद में इस लेवल का त्याग करने के लिए अपने को संरचनावादी माना ।
संरचनावाद पर प्रतिक्रियाएँ
1. लोकप्रियता की कमी
2. राजनीतिक हलचल (1960 70)
3. बुनियादी अस्पष्टता
लोकप्रियता की कमी आज संरचनावाद उत्तर-संरचनावाद और डिकंस्ट्रक्शन जैसे दृष्टिकोणों की तुलना में कम लोकप्रिय है। इसके अनेक कारण हैं संरचनावाद की आलोचना अनैतिहासिक होने तथा व्यक्तिगत क्षमता से कार्य करने की अपेक्षा नियतात्मक, संरचनात्मक बलों का पक्ष लेने के लिए की गई है।
1960-70 की राजनीतिक हलचल के दशक की राजनीतिक हलचल शिक्षा को प्रभावित करने लगी। शक्ति और राजनीतिक संघर्ष के मुद्दों को लोगों तक ले जाया गया। एथनोलॉजिस्ट रॉबर्ट जुलिन ने एक अलग एथनोलॉजिकल विधि को परिभाषित किया, जिसने स्पष्ट रूप से संरचनावाद के विरुद्ध अपने को बताया।
बुनियादी अस्पष्टता 1980 के दशक में डिकंस्ट्रक्शन और भाषा की बुनियादी अस्पष्टता पर इसका प्रभाव अपनी पारदर्शिता, तार्किक संरचना की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय बन गया। सदी के अन्त तक संरचनावाद के विचारों के एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सम्प्रदाय के रूप में देखा जाने लगा। लेकिन यह स्वयं संरचनावाद की जगह इसके द्वारा आरम्भ किए जाने वाले आन्दोलन थे, जिन्होंने ध्यान आकर्षित किया था।
नारीवाद या महिलावाद (Feminism)
महिलावादी भूगोल लिंग भेद से सम्बद्ध सामाजिक-राजनीतिक चिन्तन तथा उसकी आधारभूत मान्यताओं पर आधारित भौगोलिक अध्ययन है। यह तत्कालीन क्रान्तिपरक मार्क्सवादी चिन्तन से प्रेरित और उसका एक अभिन्न अंग था। लिंग भेद सम्बन्धी समाजशास्त्रीय चिन्तन पाश्चात्य देशों में नारी मुक्त आन्दोलन के साथ 1960 के दशक में प्रारम्भ हुआ था। यह तत्कालीन क्रान्तिपरक मार्क्सवादी चिन्तन से प्रेरित और उसका एक अभिन्न अंग था। महिलावादी भौगोलिक अध्ययन में पहले मार्क्सवादी चिन्तन ही अग्रणी थे, किन्तु बाद में कुछ उदारवादी चिन्तन एवं लेखक भी इस चिन्तनधारा में सम्मिलित हो गए। Institute of Britis Geographers द्वारा स्थापित अध्ययन समूह के अनुसार, "महिलावादी भूगोल, भूगोल की एक शाखा है, जो अपने विश्लेषण में सामाजिक व्यवस्था के लिंग भेद पर आधारित संरचना तथा उसके सामाजिक एवं भौगोलिक परिणामों पर ध्यान केन्द्रित करती है और लिंग भेद से उत्पन्न दुष्परिणामों को तत्काल सुधारने तथा कालान्तर में लिंग भेद को समाप्त करके पूर्ण लैंगिक समानता स्थापित करने की दिशा में सक्रिय प्रत्यय हेतु प्रतिबद्ध है।” महिलावादी भूगोल केवल महिला केन्द्रित अध्ययन का समर्थन नहीं करता है, बल्कि यह लिंग भेद पर केन्द्रित अध्ययन , का पक्षधर है।
नारीवाद भूगोल का स्वरूप
महिलावादी भूगोल दो शाखाओं में विभक्त हैं
क्रान्तिपरक महिलावादी भूगोल (Radical Feminist Geography) इस श्रेणी के भूगोलवेत्ता उग्र या आमूल परिवर्तनवादी हैं और इनका मानना है कि सामाजिक व्यवस्था में लिंग भेद के आधार पर ही महिलाओं को गौण तथा निम्न स्थान प्राप्त है। वे मानते हैं कि समाज में महिलाओं के शोषण का प्रमुख कारण पितृ प्रधान सामाजिक व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत , परिवार तथा समाज में पुरुष को प्रमुख स्थान तथा स्त्री को गौण स्थान दिया जाता है। पितृ प्रधान व्यवस्था में आर्थिक दृष्टि से महिलाएँ पुरुषों पर निर्भर रहती हैं।
पुरुष पर निर्भरता के कारण समाज में महिलाओं का स्थान पुरुषों के पश्चात् आता है। क्रान्तिपरक (उग्रवादी) महिलावादियों के अनुसार स्त्रियों की दुर्दशा मुख्यतः लिंग भेद पर आधारित सामाजिक भेदभाव है। अत: लिंग भेद पर आधारित भेदभाव तथा असमानता को समाप्त किए बिना अन्य प्रकार की सामाजिक असमानताओं को समाप्त या कम करना सम्भव नहीं है। क्रान्तिपरक महिलावादी चिन्तनों का यह मानना है कि शिशु जन्म और जनसंख्या वृद्धि पर स्त्रियों का पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए, क्योंकि इससे पुरुष अपना कर्त्तव्य स्त्रियों पर स्थापित करने में सफल नहीं हो सकेंगे।
समाजवादी महिलावादी भूगोल (Socialistic feminist Geography) समाजवादी चिन्तन अपेक्षाकृत उदारवादी है और वे क्रान्तिपरक (उग्रवादी) महिलावादी चिन्तनों के इस विचार से सहमत नहीं हैं कि समाज की पितृ प्रधान व्यवस्था ही स्त्रियों के निम्न स्तर का अन्तिम कारण हैं। उनका मानना है कि लिंग भेद समाज में व्याप्त अनेक प्रकार की अन्य विकृतियों, अन्तर्द्वन्द्वों तथा विरोधाभासों का अंग हैं। अतः इसके लिए महिलाओं की समस्याओं का एकांगी नहीं बल्कि समग्र तथा सर्वांगीण अध्ययन आवश्यक है।
समाजवादी चिन्तन (भूगोलवेत्ता) पूँजीवाद तथा वर्ग संघर्ष को ही स्त्री समस्या सहित समस्त सामाजिक समस्याओं का मूल कारण मानते हैं। उनके अनुसार महिलाओं की समस्या वर्तमान अन्याय पूर्ण सामाजिक व्यवस्था का ही एक अंग है और महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए किए जाने वाले सकारात्मक प्रयासों की सफलता हेतु महिलाओं और पुरुषों के बीच पूर्ण सहयोग आवश्यक है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि समाज में लिंग आधारित भेदभाव को समाप्त करने तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिलाने के प्रश्न पर उग्रवादी (क्रान्तिपरक) और समाजवादी दोनों दलों के महिलावादी चिन्तन एकमत हैं।
महिलावादी/नारीवादी भूगोल का विकास
महिलावादी भूगोल की समीक्षा करते हुए प्राट ने इसके चरणों की व्याख्या की। आरम्भिक चरण में अध्ययन का मुख्य विषय मानव जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में लिंग भेद पर आधारित असमानताओं की पहचान करना और उन असमानताओं का विश्लेषण करना था। इस अवस्था में अध्ययन का मुख्य आधार कल्याणपरक मानव भूगोल और उदारवादी महिलावादी चिन्तन था और अध्ययन पद्धति क्षेत्रीय विश्लेषण पर केन्द्रित थी। महिलावादी भूगोल के विकास के दूसरे चरण में अध्ययन मुख्यतः लिंग भेद पर आधारित सामाजिक असमानताओं, पितृप्रधान सामाजिक व्यवस्था और , पूँजीवाद के कार्य-कारण सम्बन्धों की आलोचनात्मक व्याख्या पर केन्द्रित था।
महिलावादी भूगोल के विकास का यह तीसरा चरण था। इसकी तीन प्रमुख विशेषताएँ हैं
- इस चरण के विचारक लिंग भेद को केवल स्त्री एवं पुरुष की द्वैधता तक ही सीमित नहीं मानते हैं और उत्तरोत्तर विकसित पारस्परिक लैंगिक सामाजिक सम्बन्धों में अपेक्षाकृत उच्च पदासीन स्त्रियों की भूमिका के विश्लेषण पर बल देते हैं।
- लिंग भेद से सम्बन्धित समस्याओं की व्याख्या में व्यक्तिनिष्ठ पद्धति (देश-काल केन्द्रित) पर अधिक बल दिया जाता है। इससे सामाजिक समस्याओं तथा परिवर्तनों के प्रति अध्येताओं की सक्रियता तथा प्रतिबद्धता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
- उत्तर उपनिवेशवादी चिन्तन एवं अध्येता अपने अध्ययन में समाजवाद और मार्क्सवाद के साथ ही मनोविश्लेषण तथा उत्तर संरचनावाद की संकल्पनाओं को आधार बनाते हैं।
महिलावादी भूगोल और मानववाद
महिलावादी भूगोल मानववादी (Humanistic) और घटना क्रियावादी भौगोलिक विचारधारा से सम्बन्धित है। मानववादी तथा व्यवहारवादी भूगोल की अध्ययन पद्धति को ही महिलावादी भूगोल में अपनाया जाता है। इस प्रकार महिलावादी अध्ययन पद्धति गहन साक्षात्कार तथा व्यक्तिगत, साहित्यिक स्रोतों आदि से प्राप्त गुणात्मक सूचनाओं से उपलब्ध आँकड़ों के प्रयोग पर बल देती हैं। महिलावादी भूगोल के अध्ययन में सामान्यतः गुणात्मक अध्ययन पद्धति को अपनाया जाता है, क्योंकि मानव व्यवहार का अध्ययन वस्तुनिष्ठ या परिमाणात्मक पद्धति से सम्भव नहीं है।
प्राट ने महिलावादी भूगोल की उन सामान्य विशेषताओं का उल्लेख किया है जिसे अधिकांश महिलावादी भूगोलवेत्ता स्वीकार करते हैं महिलावादी अध्येता समाज में महिलाओं के उत्पीड़न तथा चिन्तनीय दशा के आलोचक है और इस तथ्य के परीक्षण के पक्षधर है कि समाज में महिला उत्पीड़न तथा शोषण किन-किन रूपों में विद्यमान है।
- महिलावादी अध्येता विभिन्न संस्थानों में लिंगपरक भेदभाव की आलोचनात्मक समीक्षा पर बल देते हैं। महिलावादी भूगोल मानव व्यवहार के अध्ययन से सम्बन्धित है और सामाजिक व्यवहार के क्षेत्र में विश्वव्यापी सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। इस कारण से महिलावादी भूगोल स्थानीय समस्याओं के अध्ययन में गुणात्मक अध्ययन पद्धति को अपनाने पर बल देता है।
- महिलावादी भूगोल के अन्तर्गत कुछ निश्चित पक्षों का अध्ययन विशेष दिशाओं एवं सन्दर्भों में किया जा रहा है। बाउलबाई एवं सहयोगियों ने महिलावादी भूगोल के सम्भावित विकास की निम्नलिखित दशाओं का वर्णन किया है। महिलावादी अध्ययन का एक उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि किस प्रकार भिन्न-भिन्न संस्कृतियों वाले प्रदेशों या क्षेत्रों में प्रकृति को महिला का रूप माना जाता है और प्रकृति की भाँति स्त्री को भी भोग्या की वस्तु मानकर उसे नियन्त्रण में रखने का प्रयास किया जाता है।
- वर्तमान समय में महिलावादी चिन्तन सामाजिक सम्बन्धों में लिंग भेद पर आधारित स्त्रियों की पहचान की व्याख्या पर विशेष ध्यान देने लगे हैं सामाजिक संघटन के विभिन्न स्तरों; जैसे-जाति, आयु, लिंग, धर्म, संस्कृति आदि के अनुसार कामवासना या यौन सम्बन्धों के नियन्त्रण के लिए निर्मित सामाजिक नियमों की क्षेत्रीय विविधता के विश्लेषण पर अधिक ध्यान दिया जाता है। इस प्रकार के सामाजिक तत्त्वों के भौगोलिक विश्लेषण के लिए प्रायः लघुक्षेत्रीय इकाइयों का चयन किया जाता है।
- पाश्चात्य विकसित पूँजीवादी देशों विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में महिलावादी चिन्तन जाति (श्वेत- अश्वेत) आय वर्ग (उच्च, मध्यम, निम्न) तथा लिंग (स्त्री-पुरुष) पर आधारित भेदभाव और इन तीनों तत्त्वों के आधार पर उत्पन्न भेदभाव जन्य समस्याओं के अध्ययन पर विशेष ध्यान देने लगे हैं।
मानववादी भूगोल (Humanistic Geography)
भूगोल में मानववाद का आरम्भ सर्वप्रथम बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों में फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता वाइडल-डी-ला-ब्लाश के नेतृत्व में फ्रांस में हुआ था। ब्लाश द्वारा प्रतिपादित 'विशिष्ट जीवन पद्धति' तथा 'सम्भववाद' मानववादी भूगोल के ही विशिष्ट रूप हैं। समकालीन मानववाद का विकास 1970 के दशक में प्रत्यक्षवाद तथा मात्रात्मक क्रान्ति की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ।
सर्वप्रथम 1976 में तुआन (Yi-Fu-Tuan) ने 'मानववादी शब्दावली का प्रयोग किया और मानववादी भूगोल के लिए तर्क प्रस्तुत किए। जान्स्टन (R.J. Johnston 1983) ने मानववादी भूगोल के विकास की समीक्षा करते हुए बताया है कि इस प्रकार के अध्ययन का दृष्टिकोण मुख्यतः मानवीय क्रिया-कलापों में निहित व्यक्तिगत तथा सामूहिक व्यक्तिनिष्ठा के उद्घाटन तथा व्याख्या पर केन्द्रित रहा है।
इस अध्ययन पद्धति पर 1920 एवं 1930 के दशक में समाजशास्त्र के शिकागो सम्प्रदाय द्वारा प्रतिपादित प्रयोगवाद का प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई पड़ता है। इस अध्ययन पद्धति में मानव जीवन को अनुभव, प्रयोग तथा आकलन की निरन्तर प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। मानवता का विकास भूगोल में प्रत्यक्षवाद की आलोचना स्वरूप विकसित हुआ और भूगोल में यह मात्रात्मक क्रान्ति की विरोधी सोच के रूप में उभरा। मात्रात्मक क्रान्ति की मान्यताएँ और उसकी विधि-तन्त्र आदि से मानवीय समस्याएँ बढ़ी हैं।
जबकि मानवतावादी भूगोल की सोच दिन-प्रतिदिन के सांसारिक अनुभवों की पहचान बनाने का महत्त्वपूर्ण साधन है और इसके अनुगामी-विद्वान् “पृथ्वी के अध्ययन को मानव घर” समझते हैं। अतः मानवतावादी भूगोल भू-विज्ञान मात्र नहीं है, बल्कि यह मानवीय जगत के बारे में बोध कराने का साधन है। तुआन (Yi-Fu-Tuan) ने मानवीय चेतना को जाग्रत हेतु प्रत्यक्षवाद, मात्रा-गणितीय परिकलन को महत्त्वपूर्ण नहीं मानता।
इसके विपरीत भूगोल में मानव-चेतना को स्थान देने हेतु सामान्य रुचि के विषय तुआन में इंगित किए
- भौगोलिक ज्ञान (व्यक्तिगत, निजी भूगोल) स्थान
- समूह और एकान्त जीविका का अर्थशास्त्र
- धर्म
भूगोल में मानवतावादी चिन्तन को लोकप्रिय व प्रसिद्धि दिलाने में फेब्रे (Febure) और विडाल -डि-ला-ब्लाश (Blache) को इसका श्रेय जाता है इनके सम्भववादी विचारों ने प्राकृतिक पर्यावरण में मानव-अनुक्रियाओं के लिए अनेक सम्भावनाएँ इंगित कर मानव के निर्णय (चयन-क्रिया) को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। ब्लाश मानव भूगोल को एक स्वभाविक विज्ञान कहता था, जिसमें मानवता के गुण निहित हैं।
कार्ल साऊर ने दृश्य - जगत को दृश्य प्रपंच माना। मानवतावादी भूगोल की नींव रखने में किर्क (Kirk 1951) और तुआन (Tuan 1976) का योग सशक्त बना।
किर्क पहला भूगोलवेत्ता था जिसने मानववादी भूगोल की ओर ध्यान आकर्षित किया, परन्तु मानववादी भूगोल शब्दावली का प्रयोग सबसे पहले यी - फू- तुआन (yi-Fu-Tuan) ने वर्ष 1976 में किया। इसमें उसने मानव तथा मानवीय परिस्थितियों पर ध्यान केन्द्रित किया। तुआन के लिए मानववादी भूगोल वह दृष्टिकोण है जो मानव तथा 'स्थान' के बीच सम्बन्धों की जटिलता तथा संदिग्धता को प्रकट करता है।
तुआन के अनुसार, मानववादी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में मानव तथा स्थान के सम्बन्धों को स्पष्ट करते हैं। मानववाद मानव को मशीन नहीं समझता बल्कि मानव को एक क्रियाशील प्राणी मानता है। राल्फ (Ralph 1981) के अनुसार, "मानववाद एक ऐसी धारणा है, जिसके अन्तर्गत स्त्री व पुरुष अपने विचारों, कर्मों और विशेषता अपने तर्क की क्षमता के आधार पर अपने जीवन की परिस्थितियों को सुधार सकते हैं। इस विचारधारा के अनुयायी भूगोल को "मानव के घर के रूप में पृथ्वी का अध्ययन मानते हैं।" अतः मानववादी भूगोल कोई भू-विज्ञान (earth Science) नहीं, बल्कि यह मानवता और समाजविज्ञान से सम्बन्धित है और विश्व का सही चित्रण करना इसका ध्येय है।
मानववादी भूगोल की आलोचना
मानववादी भूगोल की निम्नलिखित आलोचना की गई है
- इसमें जाँचकर्ता को यह विश्वास नहीं होता कि वह शुद्ध व्याख्या करने में सफल हुआ है या नहीं।
- मानववादी भूगोल ने भौतिक भूगोल को मानव भूगोल से अलग कर दिया है। भौतिक भूगोल अजैव वस्तुओं से सम्बन्धित है और इस पर वैज्ञानिक एवं मात्रात्मक तकनीक लागू की जा सकती है। इसके विपरीत मानव भूगोल पर वैज्ञानिकी एवं मात्रात्मक विधियाँ लागू नहीं होतीं, क्योंकि यह 'मानव' से सम्बन्धित है और मानव का व्यवहार स्थान एवं समय के साथ बदलता रहता है। भौतिक तथा मानव भूगोल में द्वैतवाद, समग्र भूगोल के विकास के लिए हानिकारक है। इस द्वैतवाद ने भूगोल की एकता (Unity of Geography) को भारी क्षति पहुँचाई है।
- मानववादी भूगोल मुख्यतः भागीदार के प्रेक्षण पर निर्भर करता है। अतः इसके सिद्धान्त बनाने, सारांश प्रस्तुत करने, साधारणीकरण तथा स्थानिक ज्यामिति का विकास करने में कठिनाई आती है। उसके अतिरिक्त इसका अधिकांश शोध कार्य वस्तुनिष्ठ (Objective) न होकर व्यक्तिनिष्ठ (Subjective) है।
- इसमें अनुप्रयुक्त (applied) शोध न के बराबर ही है।
- मानववादी भूगोल की कार्यविधि अस्पष्ट अथवा धुँधली है।
- मानववादी भूगोल के विकास में मानव भूगोल की अध्ययन पद्धति में व्यापक परिवर्तन हुए तथा विभिन्न प्रकार की गुणात्मक विधियों का प्रचार हुआ। इस प्रकार इसके द्वारा मानव भूगोल में उथले वर्णन के स्थान पर स्थानिक सम्बन्धों के गहन वर्णन पर बल दिया जाने लगा है।
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